Sunday 6 October 2019

महात्मा गांधी से माफी

            अब रही सही कसर भी निकल गई-संघ परिवार के अधिपति मोहन भागवत ने कह दिया कि महात्मा गांधी दिव्य महापुरुष थे. लगता है कि गांधी ने अच्छे दिन लौट रहे हैं ! 

संघ परिवार के स्वंयसेवकों की बात करें तो सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गांधी की महानता को पहचाना अौर प्रधानमंत्री की हैसियत से दुनिया भर में मंचों पर गांधी का नाम लेते घूमते रहे. युद्ध-बुद्ध जैसी कितनी ही उनकी तुकबंदियां सामने अाती रही हैं. उन्होंने ही गांधी की अांख छोड़ कर, गांधी का चश्मा प्रतीकस्वरूप लिया अौर स्मार्ट सिटी के अपने काल्पनिक देश में उन्होंने ही गांधी को सड़क सफाई का जमादार बना कर दूर-दूर तक पहुंचाया. उन्होंने इतनी सावधानी जरूर बरती कि उनकी पार्टी व सरकार का कोई सदस्य गांधी-द्वेष से पीड़ित हो कर, कुछ अनाप-शनाप बके तो वे उसे अनसुना कर दें. अाखिर हम भी तो यह मानते ही हैं कि लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने की अाजादी है !  

लेकिन मोहन भागवत ने प्रधानमंत्री से अागे की बात कही: महात्मा गांधी को उनकी १५०वीं जयंती के अवसर पर याद करते हुए हमें यह संकल्प लेना ही चाहिए कि हम उनके पवित्र, समर्पित अौर पारदर्शी जीवन तथा स्व-केंद्रित जीवन-दर्शन का अनुपालन करेंगे, अौर इसी रास्ते हम भी अपने जीवन में इन्हीं गुणों का बीजारोपण करते हुए भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए स्वंय को समर्पित करेंगे. उन्होंने महात्मा गांधी की सामाजिक समता अौर सुसंवादिता के सिद्धांत की अनुशंसा की. 

संघ परिवार के मुखपत्र ‘अॉर्गनाइजर’ ने महात्मा गांधी अौर स्वराज्य का दर्शन शीर्षक से एक विशेष अंक ही प्रकाशित किया है जिसमें ऐसा कहा गया है कि स्वतंत्रता के बाद महात्मा गांधी के संदेश पर अमल किए बिना उनके नाम व ‘गांधी’ उपनाम का उपयोग, दुरुपयोग अौर बदनीयति से इस्तेमाल होता रहा है. लेकिन अब हम इस हैसियत में हैं कि भारतमाता के नि:संदेह ही इस सबसे प्रभावी संतान व संदेशवाहक को फिर से समझें अौर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैश्विक चुनौतियों का जवाब दें. 

यह महात्मा गांधी का पुनर्मूल्यांकन है या संघ की विचारधारा का, कहना मुश्किल है. संघ परिवार का इितहास हमें सावधान करता है कि हम ऐसे शब्दजालों में न फंसें, क्योंकि यह परिवार सत्य में नहीं, रणनीति में विश्वास करता है. लेकिन हम विचार-परिवर्तन अौर ह्रदय-परिवर्तन में भी मानते हैं, तो किसी को भी, कभी भी सत्य को समझने की दृष्टि मिल सकती है, इसमें हमारा भरोसा है. मोहन भागवत राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को एक नई पहचान देने की कसरत करते दिखाई देते हैं. उन्होंने कई स्तरों पर शाब्दिक बदलाव के संकेत दिए हैं अौर यह भी कहा कि रास्वंसं किसी एक विचार या विचारक से बंधा हुअा नहीं है. इसी क्रम में उन्होंने गुरु गोलवलकर की उस अाधारभूत किताब का भी जिक्र किया जिससे रास्वंसं अाज तक अपनी प्रतिबद्धता घोषित करता अाया है. भागवत कहते हैं कि गोलवलकर की वह किताब भी संघ के लिए अंतिम नहीं है. यह खुलापन संघ के अब तक के चरित्र से मेल नहीं खाता है. 

परिवर्तन की यह संभावना कहां से पैदा हुई है ? संघ भारतीय समाज की जिस कल्पना में विश्वास करता अाया है अौर उसके लिए जैसी संरचना वह चाहता रहा है, वह दिनोदिन कालवाह्य होती जा रही है. अाजादी के बाद के ७० से अधिक सालों में भारतीय समाज की जैसी संरचना बन रही है, उसमें किसी जाति या धर्म के वर्चस्व की बात सोचना गलत है. यह सोचना भी गलत है कि संचार-संवाद की जैसी क्रांति हुई है उसके बाद किसी उन्माद या संकीर्णता के ईंधन से भारतीय समाज चलाया जा सकता है. ऐसा लग सकता है कि हिंदुत्व या किसी दूसरे का नाम उछाल कर सफलता पाई जा सकती है, कि कोई गाय या कोई सूअर समाज को गोलबंद कर सकता है कि कोई एक नेता या नारा सारे देश को बांध या भरमा सकता है लेकिन यह सब क्षणजीवी सुख से ज्यादा नहीं है. सत्ता पाने में ये हथियार सफलता दिला भी दें शायद लेकिन वह बहुत क्षणिक होगा. समाज पहले से कहीं अधिक तार्किक, सचेत अौर परिणाम की चाह व पहचान करने वाला हो गया है. समाज इसी दिशा में अागे बढ़ता जाएगा, उत्तरोत्तर विकसित ही होता जाएगा. समाज का यह विकास ही कारण है कि महात्मा गांधी वक्त के साथ चलते हुए लगातार नये होते जाते हैं जबकि दूसरी विचारधाराएं  समाज को अपने सांचे में ढालने या अपनी हद में बांधने की कोशिश करती हुई काल के गाल में समाती जाती हैं. क्या गांधी का यह स्वरूप  संघ-परिवार की समझ में अाता है ? 

गांधी की कैसी भी प्रशंसा या पूजा निरर्थक व अात्मघाती होगी यदि उसके पीछे उनके जीवन व दर्शन से सहमति भी न हो. कांग्रेस का वर्तमान राजनीतिक हश्र इसी का उदाहरण है. भारत में समाजवादी दलों के पराभव की जड़ भी यहीं है. गांधी-विचार के संगठनों ने भी यहीं अा कर मुंह की खाई है. गांधी के साथ क्षद्म नहीं चल सकता है, क्योंकि असत्य या बनावटीपन के साथ गांधी को पचाना संभव नहीं है. ‘अॉर्गनाइजर’ के उसी अंक में संघ के वरिष्ठ नेता मनमोहन वैद्य का लेख ऐसे ही क्षद्म का उत्तम उदाहरण है. वे महात्मा गांधी की प्रशंसा कर रहे हैं या उन्हें खारिज कर रहे हैं याकि यह रहस्य खोल रहे हैं उन्हें गांधी की बुनियादी बातों की समझ ही नहीं है, यह मोहन भागवत को ही हमें बता सकते हैं. मनमोहन वैद्य लिखते हैं कि हम गांधीजी की हमेशा सराहना करते रहे हैं हालांकि हमारी उनसे असहमति रही है. मुस्लिम समाज के जिहादी अौर अतिवादी तत्वों के समक्ष उन्होंने जिस तरह अात्मसमर्पण कर दिया था, उसके बावजूद हम चरखा तथा सत्याग्रह जैसे सरल व सर्वस्वीकृत तरीकों से भारत के स्वतंत्रता संग्राम को व्यापक जनाधार देने की उनकी कोशिशों को उनकी महानता के रूप में देखते रहे हैं. अब अगर संघ के एक धड़े का यह विश्लेषण हो कि गांधीजी ने मुस्लिम समाज के अतिवादी तत्वों के सामने अात्मसमर्पण कर दिया था अौर चरखा व सत्याग्रह सरल व सर्वस्वीकृत रास्ते थे, तो सोचना पड़ता है कि मोहन भागवत कि मनमोहन वैद्य - संघ का असली चेहरा कौन-सा है ? मोहन भागवत गांधी को समझते लगते हैं तो मनमोहन छद्म करते ! 

अब मोहन भागवत को संघ का असली चेहरा साफ करने के लिए एक कदम अौर चलना होगा : अगर गांधी की महानता अौर पवित्रता का उनका मूल्यांकन पक्का है तो उनकी हत्या से ले कर अब तक उनकी चारित्र्य-हत्या तक की तमाम कोशिशों की उन्हें माफी मांग लेनी चाहिए. इतिहास का चक्र पीछे तो नहीं लाया जा सकता है, इतिहास से माफी मांगी जाती है. इतिहास में ऐतिहासिक गलतियों का अध्याय बहुत बड़ा है. उससे खुद को बाहर निकालने का एक ही तरीका है कि अाप इतिहास से माफी मांग लें. अगर ब्रिटिश अार्चबिशप अभी-अभी जालियांवालाबाग में मत्था टेक कर उन ज्यादतियों की माफी मांगता है जो गुलाम रखने के दर्प में ब्रितानी हुकूमत ने तब किए थे तब कोई कारण नहीं है कि संघ परिवार महात्मा गांधी की हत्या अौर उनके प्रति चलाए घृणा अभियान की माफी न मांग लें ! इस माफी के साथ वह अध्याय बंद हो जाएगा अौर संघ परिवार को अागे निकलने का मौका मिल जाएगा. फिर अागे संघ परिवार कैसे अौर कौन-सी दिशा पकड़ता है, उस पर ही हमारी नजर रहेगी.

क्या माफी का ऐसा विनय अौर माफी की ऐसी वीरता संघ परिवार के पास है ? ( 06.10.2019)

महात्मा गांधी का कश्मीर

अाजादी दरवाजे पर खड़ी थी लेकिन दरवाजा अभी बंद था. जवाहरलाल नेहरू अौर सरदार वल्लभभाई पटेल रियासतों के एकीकरण की योजना बनाने में जुटे थे. रियासतें किस्म-किस्म की चालों अौर शर्तों के साथ भारत में विलय की बातें कर रही थीं. जितनी रियासतें, उतनी चालें ! अौर एक अौर चाल भी थी जो साम्राज्यवादी ताकतें चल रही थीं. लेकिन वहां एक फर्क अा गया था. कभी इसकी बागडोर इंग्लैंड के हाथ होती थी. अब वह इंग्लैंड के हाथ से निकल कर, अमरीका की तरफ जा रही थी. दुनिया धुरी बदल रही थी. 

अौपनिवेशिक साम्राज्यवादी ताकतों का सारा ध्यान इस पर था कि भारत न सही, भागते भूत की लंगोटी ही सही ! तो हिसाब लगाया जा रहा था कि भारत भले छोड़ना पड़े लेकिन वह कौन-सा सिरा अपने हाथ में दबा लें हम िक जिससे एशिया की राजनीति में अपनी दखलंदाजी बनी रह सके; अौर मुद्दा यह भी था कि अाजाद होने जा रहे भारत पर भी जहां से नजर रखने में सहूलियत हो. तो जिन्ना साहब समझ रहे थे कि अंग्रेज उनके लिए पाकिस्तान बना रहे हैं जबकि सच यह था कि वे सब मिल कर अपने लिए पाकिस्तान बना रहे थे. 

साम्राज्यवादी ताकतें खूब समझ रही थीं कि जिन्ना को पाकिस्तान मिलेगा तभी पाकिस्तान उन्हें मिलेगा; अौर पाकिस्तान के भावी भूगोल में कश्मीर का रहना जरूरी था क्योंकि वह भारत के मुकुट को अपनी मुट्ठी में रखने जैसा होगा. 1881 से लगातार साम्राज्यवाद  यह जाल बुन रहा था. अब सार्वजनिक हुए कई दस्तावेज इस षड्यंत्र का खुलासा करते हैं.
यह सच्चाई उधर मालूम थी तो इधर भी मालूम थी. सरदार साहब को मुस्लिमबहुल कश्मीर में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी अौर वे कश्मीर से हैदराबाद का सौदा करने की बात कह भी चुके थे. लेकिन इतिहास में दर्ज है कि एकाध बार से ज्यादा सरदार इस तरह नहीं बोले हैं. यह चुप्पी एक रणनीति के तहत बनी थी. भारतीय नेतृत्व समझ रहा था कि कश्मीर के पाकिस्तान में जाने का मतलब पश्चिमी ताकतों को एकदम अपने सर पर बिठा लेना होगा. अाजाद होने से पहले ही, जवाहरलाल नेहरू की पहल पर एशियाई देशों का जो सम्मेलन भारत के अायोजित किया था, जिसमें महात्मा गांधी ने भी हिस्सा लिया था, उसमें ही यह पूर्वपीठिका बनी अौर स्वीकृत हुई थी कि स्वतंत्र भारत की विदेश-नीति का केंद्रीय मुद्दा साम्राज्यवादी ताकतों को एशियाई राजनीति में दखलंदाजी करने से रोकना होगा. इसलिए कश्मीर को पाकिस्तान में जाने से रोकने की बात बनी. यह भारत सरकार की सामूहिक भूमिका थी. बाकी रियासतों के मामलों से इसलिए कश्मीर का मामला अलग रखा गया था. इसमें जवाहरलाल-सरदार की पूर्ण सहमति थी. लेकिन यह तो हमारी रणनीति थी. दूसरे भी थे जिनकी दूसरी रणनीतियां थीं. जिन्ना साहब ने अपना दांव चला अौर उन्होंने कश्मीर पर हमला कर दिया. उनकी इस मूढ़ता ने कश्मीर को उस तरह अौर उतनी तेजी से भारत की तरफ धकेल दिया जिसकी पहले संभावना नहीं थी. नेहरू-सरदार ने इसे ईश्वर का भेजा अवसर ही समझा अौर फिर अागे वह इतिहास बना जिसके तहत कश्मीर हमारे साथ अा जुड़ा. 

वहां के नौजवान नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला राजशाही के खिलाफ लड़ रहे थे अौर कांग्रेस के साथ थे. नये ख्यालात वाले ऐसे तमाम नौजवान जिस तरह जवाहरलाल के निकट पहुंचते थे वैसे ही शेख भी जवाहरलाल के हुए. रियासतों के भीतर चल रही अाजादी की जंग से जवाहरलाल खास तौर पर जुड़े रहते थे. स्थानीय अांदोलन की वजह से जब महाराजा हरि सिंह ने शेख मुहम्मद अब्दुल्ला को जेल में डाल दिया था तो नाराज जवाहरलाल उसका प्रतिकार करने कश्मीर पहुंचे थे. राजा ने उन्हें भी उनके ही गेस्टहाउस में नजरबंद कर दिया था. तो महाराजा के लिए जवाहरलाल भड़काऊ लाल झंडा बन गये थे. अब, जब विभाजन भी अौर अाजादी भी अान पड़ी थी तो वहां कौन जाए कि जो मरहम का भी काम करे अौर विवेक भी जगाए ? माउंटबेटन साहब ने प्रस्ताव रखा: क्या हम बापूजी से वहां जाने का अनुरोध कर सकते हैं ? 
   
महात्मा गांधी पहले कश्मीर कभी नहीं जा सके थे. जब-जब योजना बनी, किसी-न-किसी कारण अंटक गई. जिन्ना साहब भी एक बार ही कश्मीर गये थे जब टमाटर अौर अंडों से उनका स्वागत हुअा था. गुस्सा यूं था कि यह जमींदारों व रियासत का पिट्ठू है ! 

प्रस्ताव माउंटबेटन का था, जवाब गांधी से अाना था. अब उम्र 77 साल थी. सफर मुश्किल था लेकिन देश का सवाल था तो गांधी के लिए मुश्किल कैसी !! वे यह भी जानते थे कि अाजाद भारत का भौगोलिक नक्शा मजबूत नहीं बना तो रियासतें अागे नासूर बन जाएंगी. वे जाने को तैयार हो गये. किसी ने कहा: इतनी मुश्किल यात्रा क्या जरूरी है ? अाप महाराजा को पत्र लिख सकते हैं ! कहने वाले की अांखों में देखते हुए वे बोले:  हां, फिर तो मुझे नोअाखली जाने की भी क्या जरूरत थी ! वहां भी पत्र भेज सकता था. लेकिन भाई उससे काम नहीं बनता है.  

  अाजादी से मात्र 14 दिन पहले, रावलपिंडी के दुर्गम रास्ते से महात्मा गांधी पहली अौर अाखिरी बार कश्मीर पहुंचे. जाने से पहले, 29 जुलाई 1947 की प्रार्थना-सभा में उन्होंने खुद ही बताया कि वे कश्मीर जा रहे हैं :  मैं यह समझाने नहीं जा रहा हूं कि कश्मीर को भारत में रहना चाहिए. वह फैसला तो मैं या महाराजा नहीं, कश्मीर के लोग करेंगे. कश्मीर में महाराजा भी हैं, रैयत भी है. लेकिन राजा कल मर जाएगा तो भी प्रजा तो रहेगी. वह अपने कश्मीर का फैसला करेगी. 

1 अगस्त1947 को महात्मा गांधी कश्मीर पहुंचे. तब के वर्षों में घाटी में लोगों का वैसा जमावड़ा देखा नहीं गया था जैसा उस रोज जमा हुअा था. झेलम नदी के पुल पर तिल धरने की जगह नहीं थी. गांधी की गाड़ी पुल से हो कर श्रीनगर में प्रवेश कर ही नहीं सकी. उन्हें गाड़ी से निकाल कर नाव में बिठाया गया अौर नदी के रास्ते शहर में लाया गया. दूर-दूर से अाए कश्मीरी लोग यहां-वहां से उनकी झलक देख कर तृप्त हो रहे थे:  बस, पीर के दर्शन हो गये !

शेख अब्दुल्ला तब जेल में थे. बापू का एक स्वागत महाराजा ने अपने महल में अायोजित किया था तो नागरिक स्वागत का दूसरा अायोजन बेगम अकबरजहां अब्दुल्ला ने किया था. महाराजा हरि सिंह, महारानी तारा देवी तथा राजकुमार कर्ण सिंह ने महल से बाहर अा कर उनकी अगवानी की थी. उनकी खानगी बातचीत का कोई खास पता तो नहीं है लेकिन बापू ने बेगम अकबरजहां के स्वागत समारोह में खुल कर बात कही : इस रियासत की असली राजा तो यहां की प्रजा है… वह पाकिस्तान जाने का फैसला करे तो दुनिया की कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती है. लेकिन जनता की राय भी कैसे लेंगे अाप ? उसकी राय लेने के लिए वातावरण तो बनाना होगा न ! वह अाराम से व अाजादी से अपनी राय दे सके, ऐसा कश्मीर बनाना होगा. उस पर हमला कर, उसके गांव-घर जला कर अाप उसकी राय तो ले नहीं सकते हैं… प्रजा कहे कि भले हम मुसलमान हैं लेकिन रहना चाहते हैं भारत में तो भी कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती है. अगर पाकिस्तानी यहां घुसते हैं तो पाक की हुकूमत को उनको रोकना चाहिए. नहीं रोकती है तो उस पर इल्जाम तो अाएगा ही ! 

बापू ने फिर भारत की स्थिति साफ की : कांग्रेस हमेशा ही राजतंत्र के खिलाफ रही है - वह इंग्लैंड का हो कि यहां का. शेख अब्दुल्ला लोकशाही की बात करते हैं, उसकी लड़ाई लड़ते हैं. हम उनके साथ हैं. उन्हें जेल से छोड़ना चाहिए अौर उनसे बात कर अागे का रास्ता निकालना चाहिए… कश्मीर के बारे में फैसला तो यहां के लोग ही करेंगे. फिर गांधीजी यह भी साफ करते हैं कि ‘यहां के लोग’ से उनका मतलब क्या है - यहां के लोगों से मेरा मतलब है यहां के मुसलमान, यहां के हिंदू, कश्मीरी पंडित, डोगरा लोग तथा यहां के सिख ! 

यह कश्मीर के बारे में भारत की पहली घोषित अाधिकारिक भूमिका थी. गांधीजी सरकार के प्रवक्ता नहीं थे, क्योंकि स्वतंत्र भारत की सरकार अभी तो अौपचारिक रूप से बनी भी नहीं थी. लेकिन वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों के जनक व स्वतंत्र भारत की भूमिका के सबसे अाधिकारिक प्रवक्ता थे, इससे कोई इंकार कर ही कैसे सकता था. गांधीजी के इस दौरे ने कश्मीर को विश्वास की ऐसी डोर से बांध दिया कि जिसका नतीजा शेख अब्दुल्ला की रिहाई में, भारत के साथ रहने की उनकी घोषणा में, कश्मीरी मुसलमानों में घूम-घूम कर उन्हें पाकिस्तान से विलग करने के अभियान में दिखाई दिया. जवाहरलाल-सरदार पटेल-शेख अब्दुल्ला की त्रिमूर्ति को गांधीजी का अाधार मिला अौर अागे कि वह कहानी लिखी गई जिसे रगड़-पोंछ कर मिटाने में अाज सरकार लगी है. जिन्होंने बनाने में कुछ नहीं किया, वे मिटाने के उत्तराधिकार की घोषणा कर रहे हैं. 

अौर हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जब फौजी ताकत के बल पर पाकिस्तान ने कश्मीर हड़पना चाहा था अौर भारत सरकार ने उसका फौजी सामना किया था तब महात्मा गांधी ने उस फौजी अभियान का समर्थन किया था. ( 28.09.2019 )