Saturday 30 June 2018

मजबूत सरकार : कमजोर अास्थाएं



अगर मैं यह कहूं कि जब हम मजबूत सरकार की बात करते हैं तब हम एक कमजोर समाज की बात भी कर रहे होते हैं, तो अापको कैसा लगेगा ? किसी को यदि यह तुलना नागवार न गुजरे तो मैं कहना चाहता हूं कि अाप जितना बड़ा, खूंखार कुत्ता अपने घर की सुरक्षा के लिए पालते हैं, अपनी स्वतंत्रता से उतना ही अधिक समझौता करते हैं. फिर अाप अपने घर से निकलने की भी अौर अपने घर में मेहमानों के अाने की भी, छुट्टियों में बाहर जाने की भी अौर किसी दूसरे को घर में बुलाने की भी मनचाही योजना नहीं बना पाते हैं. डर, सुरक्षा, परावलंबन अौर अाजादी का रिश्ता जरा पेंचीदा है. ऐसी ही पेंचीदा है कमजोर व मजबूत सरकार के बारे में हमारी समझ ! 

जो समाज चाहता है कि उसकी सारी सार्वजनिक जिम्मेवारी दूसरे पूरी करें, उसकी हर तरह की सुरक्षा दूसरों के मातहत हो, घर भी अौर पड़ोस भी दूसरों की निगहबानी में रहे; अौर हमसे अपेक्षा बस इतनी हो कि हम उस सुरक्षित पर्यावरण में रहें, तो गुलामी का जीवन जीने की इससे पक्की अवधारणा हो ही नहीं सकती है. अाप परेशान न हों यदि अाप पाएं कि दुनिया में जो समाज जितना सुरक्षित माना जाता है, वह उतना ही कम स्वतंत्र है. लंबे समय से अमरीका में रह रहे एक भारतीय ने इसे इस तरह से व्यक्त किया कि ९/११ की घटना के बाद अमरीका में एक भी बड़ी अातंकी वारदात नहीं हुई. यहां सब कहते हैं कि इससे पता चलता है कि हमारी सुरक्षा एजेंसियां िकतनी कुशलता व सजगता से अपना काम कर रही हैं- “ मुझे भी ऐसा ही लगता था लेकिन अब मैं धीरे-धीरे यह समझ पा रहा हूं कि ९/११ के बाद के अमरीकी समाज में स्वतंत्रता, विश्वास, भरोसा, खुलापन कितना संकुचित हुअा है, अौर होता जा रहा है. गैर-अमरीकी भावना ज्यादा तीखी अौर अाक्रामक हुई है, अौर हम सभी - अमरीकी भी अौर गैर-अमरीकी भी - इसके दर्शक मात्र रह गये हैं.” 

मजबूत सरकार से मतलब उस सरकार से है जो बड़े बहुमत से बनी हो, जिसने बहुत सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिये हों, जो सदन में अपार बहुमत रखती हो अौर उस बहुमत के जोर से संविधानसम्मत दूसरी व्यवस्थाअों के काम व प्रभाव को सीमित करती हो. ऐसी अपनी तीन सरकारों की बात जरा देखें. पहली सरकार जवाहरलाल नेहरू की; दूसरी उनकी बेटी इंदिरा गांधी की अौर तीसरी नरेंद्र मोदी की. जवाहरलाल नेहरू की सरकार स्वतंत्र भारत की पहली सरकार थी जिसके पास सर्वस्वीकृत अौर सर्वप्रिय नेतृत्व था, अच्छा-खासा बहुमत था, स्वतंत्रता के अादर्शों से भरा-पूरा वातावरण था, लोकतंत्र की नींव बनाने व उसे मजबूत करने की जिम्मेवारी थी. वह सरकार हमारे देश की सबसे मजबूत सरकार थी क्योंकि उससे पहले की किसी मजबूत सरकार का हमारे पास उदाहरण नहीं था. जब अाप ही पहले होते हैं तब दो संभावनाएं एक साथ उभरती हैं - अाप मनमानी की सरकार चलाएं या फिर अाप चलाएं नहीं, हवा में बहते रहें. नेहरू की सरकार ने इन दोनों रास्तों को छोड़ कर एक जिम्मेवार सरकार की भूमिका स्वीकार की अौर गजब की प्रतिबद्धता से उसे निभा ले गये. देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं अौर लोकतांत्रिक परंपराएं तभी गढ़ी गईं, अौर जो गढ़ी गईं उनका पालन भी किया गया. विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका अौर प्रेस - लोकतंत्र के ये चारों खंभे बने, खड़े हुए अौर मजबूत हुए क्योंकि केंद्र में एक मजबूत सरकार थी. इस सरकार का नैतिक अाधार मजबूत था, इसकी वैधानिक स्थिरता के बारे में कोई शंका नहीं थी, इसकी उपस्थिति कश्मीर से कन्याकुमारी तक इसकी सरकार थी याकि इसकी मजबूत उपस्थिति थी. जवाहरलाल ने रूप में इसे ऐसा प्रधानमंत्री मिला था जो अपनी कुर्सी से बड़ी हैसियत रखता था. 

बेटी इंदिरा गांधी की वैधानिक स्थिति पिता जवाहरलाल से कहीं मजबूत थी. एक भीड़वादी राजनीतिक लोकप्रियता भी उनके पास थी. वह कांग्रेस पार्टी, जिसे जवाहरलाल साधते तो थे लेकिन जो पूरी तरह उनकी मुट्ठी नहीं थी, उस कांग्रेस पार्टी का भग्नावशेष ही था जो इंदिरा को मिला था. वे उसे भी संभाल नहीं सकीं. पार्टी व सरकार को पूरी तरह अपनी मुट्ठी में रखने की लालसा में उन्होंने पार्टी तोड़ ली, हैसियतदार नेताअों को बाहर का रास्ता दिखा दिया अौर जो बचे उन्हें शराणागत होने पर विवश कर दिया. लोकतंत्र के चारों खंभों को तोड़-कतर कर ऐसा बना दिया कि जिससे कोई उन्हें चुनौती न दे सके. नारों, अांकड़ों, घोषणाअों, कार्यक्रमों की झड़ी के बीच उन्होंने देश के सामने अपना उत्तराधिकारी भी रख दिया अौर पार्टी व सरकार से कह दिया कि वह उनके बेटे को ही अपना असली सरदार मान कर चलें. यह एक सत्तालोलुप व्यक्ति की डरी हुई सरकार थी जिसे अपना मजबूत चेहरा देश के सामने पेश करते रहता था. लेकिन जो दिखाना पड़े वह असली चेहरा नहीं होता है. इसलिए सत्ता की राजनीति व अाकांक्षा से दूर, एक अलग किस्म की क्रांति की खोज में लगे जयप्रकाश नारायण ने जब इंदिरा गांधी की नीतियों अौर नेकनियती पर सवाल खड़े किए तो वे एकदम बिफर उठीं. वे डर गईं. वे समझ ही नहीं पाईं कि ऐसे अादमी का मुकाबला कैसे किया जाए कि जिसकी बातों का जवाब उनके पास है नहीं अौर जिसकी नैतिक ऊंचाई का मुकाबला वे कर नहीं सकती हैं. १९७७ में जयप्रकाश ने मजबूत सरकार का मुखौटा हटा दिया. तब हमने देखा कि यह तो शेर का खाल पहने भेंड़ वाली कहानी थी. 

अब हमारे सामने अपनी मजबूती का इश्तेहार लिए खड़ी है नरेंद्र मोदी की सरकार ! इतिहास जैसे पुराने रास्तों पर जा लगा है. यहां हम फिर इंदिरा गांधी वाली मजबूत वैधानिक स्थिति पाते हैं, उन जैसी ही सत्तालोलुपता पाते हैं, उन जैसी ही भीड़तंत्र वाली लोकप्रियता का माहौल पाते हैं. लेकिन यहां एक अौर तत्व जुड़ गया है. लोकतंत्र की मदद से सत्ता में पहुंची यह सरकार एक ऐसे दर्शन की हामी है जो लोकतंत्र में भरोसा नहीं करती है. इसकी खुली घोषणा है कि इसे हमारा संविधान, विधान, राष्ट्रगान, राष्ट्र-ध्वज अौर राष्ट्रपिता कुछ भी मंजूर नहीं है. इसे यह भी पता है कि ७० सालों की निरंतर कोशिश के बाद, अपना असली उद्देश्य सबसे छिपा कर यह कई संयोगों के परिणामस्वरूप सत्ता पा गई है. यह मौका इसे हाथ से जाने नहीं देना है अौर कुछ ऐसा करना है कि अगला चुनाव भी यह जीत सके ताकि हमारी राष्ट्र-राज्य व्यवस्था का अपना स्वरूप रच सके. अाप ेखें कि अपनी उपलब्धियों के बखान मेंय सच-झूठ का फर्क नहीं मानतीह, योजनाअों-घोषणाअों की लगातार बारोश ऐसी चल रही है कि किसी को यह पूछने का अवकाश ही न रहे कि किस घोषणा का अौर किस योजना का, क्या फायदा लोगों को मिला ? भारतीय समाज में कभी इतनी असुरक्षा का भाव नहीं था जितना इस सरकार कर अाने के बाद हुअा है. असुरक्षित वे ही नहीं हुए हैं किजो अल्पसंख्यक या हमारे समाज के कमजोर वर्गों से अाते हैं बल्कि बहुसंख्यक समाज असुरक्षित हुअा है. व्यापारी भी, छोटा दूकानदार भी, नौकरी-पेशा लोग भी, रोजगार की तलाश कर रही नई पीढ़ी भी, नौकरशाह भी, पड़ोसी मुल्क भी सभी इस सरकार े अाशंकित हैं. हमारी विदेश-नीति अाज रूस-अमरीका-चीन की ठकुरसुहाती से अलग कुछ बची नहीं है. संसद की बैठकें छोटी भी होती जा रही हैं अौर अप्रासांगिक भी. यह है हमारी मजबूत सरकार का सच ! यह भी उसी श्रेणी की सरकारों में जा बैठी है जो अपनी अांतरिक कमजोरी को िछपाने के लिए बाहरी मजबूती का स्वंाग करती हैं. 


ऐसी सभी सरकारें संवैधानिक व्यवस्थाअों को निचोड़ कर अपनी शक्ति का अाभास पैदा करती हैं. इसलिए ऐसी सभी सरकारों को लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं भार लगती हैं, अपनी तेज दौड़ में बाधा लगती हैं. ये नैतिक रूप से खोखली होती हैं जिसे प्रशासनिक तेवर से छिपाने में लगी रहती हैं. मजबूत सरकारें अपने अांतरिक बल से चलती हैं, कमजोर सरकारें बाहरी उपक्रमों से अपना बल प्रदर्शित करती हैं. 

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