Sunday 22 January 2017

मुट्ठियां लहराता अमरीका


० कुमार प्रशांत 

एक रात में कितना कुछ बदल सकता है : ४६ वर्षीय बराक अोबामा का अमरीका, ७० वर्षीय डोनाल्ड ट्रंप का अमरीका बन सकता है ! अमरीकी इतिहास का यह सबसे मंहगा शपथ-ग्रहण समारोह था जो सबसे दरिद्र बन कर सामने अाया. राष्ट्रपति बनते ही ट्रंप ने अमरीका को सिर्फ इतना बताया कि उसके पास दुनिया को दिखाने के लिए अब एक मुक्का है ! ट्रंप ने वह मुक्का बार-बार कसा अौर बारंबार दिखाया लेकिन हमें मुक्का नहीं, मुक्का दिखाने वाला अादमी ही दिखाई देता रहा अौर यह सवाल मन में घुमड़ता रहा कि अमरीकियों ने क्या सोच कर अपने लिए एक यह मुक्का चुना होगा
बराक अोबामा पिछले कुछ दशकों में हुए अमरीकी राष्ट्रपतियों में सबसे शालीन, भद्र अौर साहसी राष्ट्रपति थे हालांकि हम जानते हैं कि वे वैसा कुछ कर नहीं सके जैसा उन्हें करना था अौर जैसा वे कर सकते थे. लेकिन अमरीका का हालिया इतिहास यह भी कभी भुला नहीं पाएगा कि अोबामा के रूप में अमरीका को पहली बार वैसी जगह से, वैसा राष्ट्रपति मिला था जैसी जगहों से, जैसे लोग अमरीकी राजनीति के शिखर तक पहुंच नहीं पाते हैं. अोबामा वहां पहुंचे यह उनकी अौर जिस अमरीकी समाज ने उन्हें वहां पहुंचाया, उसकी यह उपलब्धि रही. शपथ ग्रहण समारोह में वही अोबामा सामने बैठे थे अौर ट्रंप कह रहे थे कि अब बात बनाने वालों का वक्त बीत गया, काम करने वालों का वक्त अाया है. उस अवसर पर ऐसा कहने में वैसी ही अशालीनता थी जैस अशालीनता ट्रंप की, अौर अब अागे अाने वाले दिनों में अमरीका की पहचान बनने जा रही है.
राष्ट्रपति पद का शपथ लेते ही, वहीं-के-वहीं राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्र को संबोधित करने की यह अमरीकी परंपरा बहुत शानदार है. व्हाइट हाउस की ऐतिहासिक सीढ़ियों पर खड़े हो कर, लाखों-लाख अमरीकियों अौर अनगिनत दुनियावालों को संबोधित करने वाला राष्ट्रपति अपने पहले ही संबोधन से सबको बता देता है कि वह क्या है; अौर उसके साथ अमरीका सीढ़ियां चढ़ेगा कि उतरेगा !  चढ़ने की बात तो कोई, कहीं कर ही नहीं रहा है, दुनिया को देखना तो इतना ही भर है कि क्या ट्रंप अमरीका को उन सीढ़ियों पर खड़ा भी रख पाते हैं कि जिन सीढ़ियों तक अोबामा ने उसे पहुंचाया था ? कई बार ऐसा होता है कि अाप जहां होते हैं वहां बने रहने के लिए भी अापको बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है. अमरीका अाज वैसी ही जगह पर खड़ा है. तो क्या ट्रंप जानते हैं कि वे अमरीका को कहां ले जाना चाहते हैं; अौर क्या अमरीका जानता है कि उसे इस अादमी के साथ कहां जाना है
सवाल ट्रंप के विरोध या समर्थन का नहीं है. सवाल है कि क्या अाज दुनिया वैसी रह गई है कि जिसे कभी अमरीका अपने इशारों पर नचाता था ? अब न धन का वह खेल बचा है, न धमकी से झुकने वाली वह दुनिया बची है. डॉलर का रुतबा है जरूर लेकिन बहुत तेजी से विश्व-व्यापार दूसरी मुद्राअों को भी अपनाने में लगा है. भारत अौर चीन का बाजार उस अमरीका के लिए सबसे खास बन चुका है जिसे ट्रंप यह समझा रहे हैं कि सूरज-चांद-सितारे सब हमारे लिए ही हैं अौर मैं वह ले कर ही रहूंगा. यह अाधुनिक दुनिया की नजर से देखें तो किसी निरक्षर का प्रलाप भर लगता है. अमरीका अपनी नौकरियां वापस लाना चाहता है तो उसे इसके लिए तैयार रहना होगा कि बाकी के देश अपना बाजार वापस मांगेंगे. दुनिया भर के संसाधनों का दोहन अौर दुनिया भर के बाजारों में अपने माल की खपत से ही अमरीका वह बना है जो वह अाज है. कोरिया, जापान के साथ-साथ एशिया के सारे ही विकाशसील देश अमरीका को इसी तरह पालते-पोसते रहे हैं. अगर यूरोप को संवारने के लिए मार्शल प्लान में अमरीका ने धन उड़ेला है तो वहां से ही तो उसने अपना खजाना भी भरा है ! सोवियत सत्ता के खिलाफ सारी दुनिया में घेराबंदी करने की योजना का यदि अमरीका ने नेतृत्व किया तो उससे सबसे अधिक कमाई भी उसने ही की. खुले बाजार का नारा अौर उसकी पीछे की सारी हलचल रची गई तो उसके पीछे अमरीका की सावधान योजना तो यही थी न कि अमरीकी कंपनियां दुनिया भर के बाजारों में अपने पांव जमा सकें. अमरीका में नौकरियां गई हैं तो अमरीकी कंपनियों को धेले के भाव से वह श्रमशक्ति मिली है जो उसके अपने यहां बहुत मंहगी होती है. कमाई किसकी हुई ? ट्रंप खुद भी इसी लूट में से तो अरबपति बने हैं. 
ट्रंप ने नारा दिया : अमरीका अमरीका के लिए; अमरीका अौर दूसरा कुछ नहीं; अौर राष्ट्रपति के रूप में पहला काम यह किया कि अोबामाकेयरका बजट कम कर दिया. अमरीका की स्वास्थ्य सेवाएं इस कदर मंहगी हैं कि वहां के समर्थ लोग भारत समेत दुनिया के दूसरे मुल्कों में इलाज के लिए जाते हैं. जो समर्थ नहीं हैं - गरीब अमरीका - उनके लिए अोबामा ने यह योजना बनाई थी जिसमें राज्य निवेश करता है. यहां जिनका इलाज होता है, वे अमरीकी हैं या नहीं ? ट्रंप यदि उन्हें अमरीकी नहीं मानते हैं तो उन्हें यह भी कह देना चाहिए या फिर उन्हें बताना चाहिए कि  उनके स्वास्थ्य की देखभाल कैसे होगी अौर कौन करेगा यह वह अमरीका नहीं है जो सारी दुनिया को उबरमें दौड़ाना चाहता है अौर एमेजॉनसे ही खरीदारी के लिए उकसाता है; जिसने धन-बल से प्रचार का घटाटोप रच कर सारी दुनिया में वह खाना अौर वह पेय फैलाया है जो संसार भर में बुरे स्वास्थ्य की खास वजह है. 
अमरीका उसी तरह अार्थिक संकट में है जिस तरह सारी दुनिया है. लेकिन अमरीका को जवाब देना होगा कि यह अर्थतंत्र किसका गढ़ा अौर फैलाया हुअा है ? जिस वैश्विक मंदी का कहर सब अोर टूटा पड़ा है उसका जनक कौन है ? अोबामा ने यह समझा था अौर इसलिए उन्होंने अमरीका का भीतर-बाहर चेहरा बदलने की शुरुअात की थी. उसकी गति बहुत धीमी रही अौर अोबामा का अात्मविश्वास भी उतना पक्का नहीं था. लेकिन ट्रंप जिस अनाड़ीपने से अपने देश अौर हमारी दुनिया को ले रहे हैं, उसकी पहली चोट अमरीका पर ही पड़ेगी.

हमें अमरीका से सहानुभूति है. 
( 23.01.2017) 

Saturday 21 January 2017

गांधी, खादी, गादी अौर मोदी


० कुमार प्रशांत 

फुर्सत के पल में, जब दूसरा कुछ न सूझे तो हम सबका एक शगल होता है : कलम ले कर  किसी लड़की के फोटो पर दाढ़ी-मूंछ चस्पां करना या कि किसी पुरुष चेहरे को लड़कीनुमा बनाना !अापने भी कभी-न-कभी ऐसी कलमकारी की होगी अौर फिर अपनी ही निरुद्देश्यता पर शर्माए होंगे. ऐसे ही कई कारनामे इन दिनों राजधानी दिल्ली के निरुद्देश्य गद्दीनशीं कर रहे हैं जिसमें चापलूसी का तड़का भी जी भर कर उड़ेला जा रहा है. सबसे ताजा है वह कारनामा जो सरकारी खादी-ग्रामोद्योग अायोग ने किया है - उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फोटो पर कलमकारी कर उसे महात्मा गांधी बनाने की कोशिश की है याकि महात्मा गांधी के फोटो पर कलमकारी कर, उसे नरेंद्र मोदी बनाने का उपक्रम किया है. दोनों ही मामलों में किरकिरी तो नरेंद्र मोदी की ही हुई है - एक पूरा का सारा इंसान कार्टून बना कर छोड़ दिया गया है. 
देश में इससे बड़ी हलचल पैदा हुई है - यहां तक कि खादी-ग्रामोद्योग अायोग के कर्मचारी भी अपने ही नौकरीदाताअों के खिलाफ खड़े हो गए हैं  ! ऐसा इसलिए हो रहा है कि चापलूसों की फौज नरेंद्र मोदी का कितना भी कार्टून बनाए देश को उससे फर्क नहीं पड़ता है लेकिन यहां मामला यह बना है कि नरेंद्र मोदी का फोटो लगाने के लिए महात्मा गांधी का फोटो हटाया गया है ! खादी-ग्रामोद्योग अायोग ने २०१७ को अपने कैलेंडर व डायरी पर चरखा कातते नरेंद्र मोदी का वैसा फोटो छापा है जिसे संसार महात्मा गांधी के फोटो के रूप में पहचानता है. लेकिन फर्क भी है : जैसा चर्खा मोदी हिला रहे हैं वैसा चर्खा न तो गांधीजी ने कभी काता, न वैसा चर्खा बनाने की इजाजत ही वे कभी देतेफोटो-शूट का यह सरकारी अायोजन जिस ताम-झाम से किया गया है वैसा अायोजन कर, उसमें गांधीजी को बुलाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता था; इस फोटो-शूट में मोदीजी ने जैसे कपड़े पहन रखें हैं वैसे कपड़े गांधीजी ने तो कभी नहीं ही पहने, ऐसी धज में उनके सामने जाने की हिमाकत कोई नहीं करता; जैसे टेबल पर चरखा रखा गया है अौर जैसे टेबल पर बैठ कर मोदीजी उस तथाकथित चर्खे को घुमा रहे हैं, गांधीजी वहां होते तो पहली बात तो यही कहते कि तुम ऐसा  दिखावटी तामझाम नहीं करते तो इन्हीं साधनों से हम कितने ही नये चर्खे बना लेते ! सवाल कितने ही हैं लेकिन अाज माहौल ऐसा बनाया गया है कि सवाल पूछना देशद्रोह से जोड़ दिया गया. 
अगर यह कैलेंडर अौर यह डायरी नरेंद्र मोदी की सहमति व इजाजत से छापी गई है तो मुझे उन पर दया अा रही है, क्योंकि अाज वे गहरे पश्चाताप में होंगे. कई बार हम किसी मौज में ऐसे काम कर जाते हैं जिसके परिणाम का हमें अंदाजा नहीं होता है. जैसे गांधीजी की फोटोबंदी का यह फैसला या फिर नोटबंदी का वह फैसला ! अगर फोटोबंदी का यह फैसला नरेंद्र मोदी की जानकारी या सहमति के बिना हुअा है तो यह खतरे की घंटी है : चापलूसों अौर चापलूसी से सावधान ! ऐसे चापलूसों ने कितने ही वक्ती नायकों को इतिहास के कूड़ाघर में जा पटका है. इसलिए फैसला प्रधानमंत्री को करना है : वे अायोग के कर्मचारियों की बात मान कर इन सारी डायरियों व कैलेंडर को कूड़ाघर भिजवा दें ! ऐसा नहीं है कि इससे पहले कभी अायोग ने ऐसे कैलेंडर/डायरी नहीं छापे कि जिन पर गांधीजी का फोटो नहीं था. भाजपा का हर प्रवक्ता वैसे सालों की सूची बना कर घूम रहा है                                                                                                                          अौर बता रहा है कि संविधान में ऐसी कोई धारा नहीं है कि जिसके तहत महात्मा गांधी का फोटो हटाना अपराध हो ! यह सच है. संविधान पर ऐसी कोई धारा नहीं है. इन बेचारों के लिए यह समझना कठिन है कि जो संविधान में नहीं है, वह समाज में मान्य कैसे है !! ये नासमझ लोग संविधान के पन्ने पलटते हैं अौर परेशान पूछते हैं कि इसमें कहां लिखा है कि महात्मा गांधी राष्ट्रपिता हैं ? कहीं नहीं लिखा है लेकिन समाज इसे इस कदर मान्य किए बैठा है कि इस प्रतीक को छूते ही करेंट लगता है भले हमारे अपने जीवन का बहुत सरोकार इससे न हो ! जिस समाज ने संविधान में प्राण फूंके हैं उसी समाज ने गांधी को अपने मन-प्राणों में बसा रखा है. इसलिए अायोग ने जब-जब गांधी का फोटो नहीं छापा तब-तब किसी दूसरे का फोटो भी नहीं छापा. मतलब साफ था : गांधी का विकल्प नहीं है ! अब अाप अाज समाज को नई बारहखड़ी रटवाना चाह रहे हैं कि से महात्मा’, ‘से मोदी’ ! लेकिन सत्ता की ताकत से, सत्ता की पूंजी से, सत्ता के अादेश से अौर सत्ता के अातंक से समाज ऐसी बारहखड़ी नहीं सीखता है. 
यह समझना जरूरी है कि खादी कनॉटप्लेस पर बनी दूकान नहीं है कि जिसे चमकाने में सारी सरकार जुटी हुई है; खादी बिक्री के बढ़ते अांकड़ों में छिपा व्यापार नहीं है; जो हर पहर पोशाक बदलते हैं अौर समाज में उसकी कीमत का अातंक बनाते हैं, उनकी पोशाक खादी की है या पोलिएस्टर की समाज को इससे फर्क नहीं पड़ता है. पोशोकों अौर मुद्राअों के पीछे की असलियत समाज पहचानता है. खादी के लिए गांधी सिर्फ तीन सरल सूत्र कहते हैं : कातो तब पहनो, पहनो तब कातो अौर समझ-बूझ कर कातो ! अाज हालत यह है कि खादी कमीशन ने कर्ज देने के नाम पर सारी खादी उत्पादक संस्थाअों की गर्दन दबोच रखी है; उनकी चल-अचल संपत्ति अपने यहां गिरवी रख रखी है अौर अपनी नौकरशाही के अादेश पूरा करने का उन पर भयंकर दवाब डाल रखा है. यह स्थिति अाज की नहीं है बल्कि कमीशन बनने के बाद से शनै-शनै यह स्थिति बनी है. सरकार अौर बाजार मिल कर गांधी की खादी की हत्या ही कर डालेंगे, यह देख-जान कर विनोबा भावे के खादी कमीशन के समांतर खादी मिशन बनाया था अौर कहा था : जो अ-सरकारी होगा, वही असरकारी होगा ! लेकिन खादी के काम में लगे लोग भी तो माटी के ही पुतले हैं न ! सरकारी पैसों का अासान रास्ता अौर उससे बचने का भ्रष्ट रास्ता सबकी तरह इन्हें भी अासान लगता रहा अौर कमीशन का अजगर उन्हें अपनी जकड़ में लेता गया. गांधी ने खादी की ताकत यह बताई थी कि इसे कितने लोग मिल कर बनाते हैं यानी कपास की खेती से ले कर पूनी बनाने, कातने, बुनने, सिलने अौर फिर पहनने से कितने लोग जुड़ते हैं. खादी उत्पादन यथासंभव विकेंद्रित हो अौर इसका उत्पादक ही इसका उपभोक्ता भी हो ताकि मार्केटिंग, बिचौलिया, कमीशन जैसे बाजारू तंत्र से मुक्त इसकी व्यवस्था खड़ी हो. जब गांधी ने यह सब सोचा-कहा तब कम नहीं थे ऐसी अापत्ति उठाने वाले कि यह सब अव्यवहारिक है, यह बैलगाड़ी युग में देश को ले जाने की गांधी की खब्त है, यह अाधुनिक प्रगति  के चक्र को उल्टा घुमाने की कोशिश है ! अाज भी तथाकथित अाधुनिक लोग, खादी कमीशन के निरक्षर खादी अधिकारीअादि ऐसा ही कहते हैं. इन सारे महानुभावों की बातों का जवाब हुए लेकिन अपने विश्वास में अडिग गांधी ने खादी के काम को इस तरह अागे बढ़ाया कि शून्य में से ताकत खड़ी होने लगी अौर सुदूर इंग्लैंड में लंकाशायर की मिलें बंद होने लगीं. गांधी कहते भी थे कि वह खादी है ही नहीं जो मिलों के सामने अस्तित्व का सवाल न खड़ा करती हो. राजनीतिक दलों, सरकारों का क्षद्म उन्होंने पहचान लिया था अौर इसलिए अाजादी के बाद देश में बनी सरकारें गांधी से मिलने, उनके प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित करने अौर खादी के बारे में तरह-तरह के अाश्वासन देने अाने लगीं तो गांधी खासे कठोर हो कर उनसे अपनी बातें कहने लगे थे अौर पूछने लगे थे कि क्या मैं मानूं कि अाप अपने यहां खादी को इतना मजबूत बनाएंगे कि अापके राज्य में मिलें बंद हो जाएंगी ? बिहार की सरकार से कहा कि अाप अपने मन में यह क्षद्म मत रखना कि खादी भी चलेगी अौर मिल भी चलेगी ! अाज पर्यावरण का भयावह खतरा, संसाधनों की विश्वव्यापी किल्लत, नागरिकों की अौर प्राकृतिक संसाधनों की अंतरराष्ट्रीय लूट अादि को जो जानते-समझते हैं, वे सब स्वीकार करते हैं कि गांधी इस शताब्दी के सबसे अाधुनिक अौर वैज्ञानिक चिंतक थे जिन्होंने अपने दर्शन के अनुकूल व्यावहारिक ढांचा विकसित कर दिखला दिया. 
पहले सरकारों ने इतना अनुशासन रखा था कि खादी का कोई मान्य व्यक्ति ही खादी कमीशन का अध्यक्ष बनाया जाता था. फिर यह तरीका बना है कि खादी कमीशन का अध्यक्ष सरकारी पार्टी का सबसे कमजोर सदस्य बना दिया जाता है ताकि गुड़ भी खाएं अौर गुलगुले से परहेज भी रखें.  कई बार तो कोई नौकरशाह ही इस कुर्सी पर बिठा दिया गया है. इसलिए खादी उत्पादन अौर बिक्री  का सारा अनुशासन,जो गांधीजी ने ही तैयार किया था, रद्दी की टोकड़ी में फेंक दिया गया अौर खादी कमीशन सरकारी भोंपू में बदल दिया गया. अाज सरकार जैसी कोई चीज बची नहीं है, एक व्यक्ति है       जो सब कुछ है ! इसलिए कमीशन का पप्पूअध्यक्ष टीवी पर अा कर यह बताता है कि मोदीजी के खादी-प्रेम से खादी की बिक्री कितनी बढ़ी है. वह यह नहीं बताता है कि खादी का उत्पादन कितना बढ़ा है, खादी की काम करने वाली संस्थाएं कितनी बढ़ी हैं, खादी कातने वाले अौर खादी बुनने वाले  कितने बढ़े हैं. यदि ये अांकड़े नहीं बढ़े हैं तो बिक्री के अांकड़े कैसे बढ़ रहे हैं ? फिर तो ये अांकड़े ही बता देते हैं कि जो बिक रहा है या बेचा जा रहा है वह खादी नहीं है ! अाज स्थिति यह है कि बाजार में मिलने वाला, खादी के नाम पर बिक रहा ९०% कपड़ा खादी है ही नहीं ! इस कारनामे में प्रधानमंत्री का गुजरात काफी अागे है. 

गांधी ने खादी को सत्ता पाने का नहीं, जनता को स्वावलंबी बनाने का अौजार माना था. वे कहते थे कि जो जनता स्वावलंबी नहीं है वह स्वतंत्र व लोकतांत्रिक कैसे हो सकती है ? अाज सारी सत्ता येनकेनप्रकारेण अपने हाथों में समेट लेने की भूख ऐसी प्रबल है कि वह न तो कोई विवेक स्वीकारती है, न किसी मर्यादा का पालन करती है. लेकिन वह भूल गई है कि अाप तस्वीर तो बदल सकते हैं लेकिन विचारों की तासीर का क्या करेंगे वह गांधी की तासीर ही थी जिससे टकरा कर संसार का सबसे बड़ा साम्राज्य ऐसा ढहा कि फिर जुड़ न सका; वह विचारों की तासीर ही थी कि जिसके बल पर दिल्ली से कांग्रेस का खानदानी शासन ऐसा टूटा कि अब तक, ४० सालों बाद तक अपने बूते लौट नहीं सका है. अब ये अपने शेखचिल्लीपन में तस्वीरें बदलने में लगे हैं. देखिए, इतिहास क्या-क्या बदल देता है. ( 14.01.2017) 

अनुपम मिश्र का जाना

अनुपम मिश्र का जाना 
० कुमार प्रशांत 

अनुपम अपने उस पर्यावरण में जा मिले जिससे स्वंय एकाकार होने अौर सबको एकाकार करने की प्रार्थना में उनका जीवन ५ जून १९४८ से चला अौर १९ दिसंबर २०१६ को रुका ! सफर शुरू हुअा था महात्मा गांधी के वर्धा में अौर अंत हुअा महात्मा गांधी के राजघाट पर. 
पिता कवि थे - अनुपम कवि थे. अज्ञेयजी ने अपनी सप्तक श्रृंखला में जब उन्हें शामिल किया तब से नहीं, उससे काफी पहले से भवानीबाबू कविता के साथ जीते थे अौर उससे ही पहचाने जाते थे.  लेकिन वे गांधी के साथ भी उतनी ही निमग्नता से जीते थे. कम-से-कम हिंदी में भवानीबाबू जैसा एक्टिविस्ट कवि दूसरा कोई है, तो मैं जानता नहीं हूं. अाजादी की लड़ाई में छोटी-बड़ी भूमिका निभा कर अपने सामाजिक दायित्व कीइतिश्री मान लेने वाले साहित्यकार-कवि कई हैं लेकिन अाजादी के अांदोलन से ले कर अपनी सांस टूटने तक लगातार भावानीबाू जिस तरह सक्रिय रहे, उसकी चर्चा कम ही करते हैं हम. नागपुर सेंट्रल जेल में तीन साल लंबी जेल काटी तो कविता भी साथ ही चली. यहीं से छूट कर भवानीबाबू गांधी के वर्धा में रहने लगे. यह गांधी के साथ खुद को अंतिम रूप से जोड़ देने का फलित था. 
उसके बाद विनोबा अौर जयप्रकाश के साथ भूदान-ग्रामदान-ग्रामस्वराज्य के अांदोलनों में काम करते रहे अौर कविता भी करते रहे. जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति के काल में, जब कवियों-साहित्यकारों-पत्रकारों की बहुत बड़ी जमात दुम हिलाने के नये-नये अंदाज ईजाद कर रही थी, भवानीबाबू निष्कंप अपनी दिशा में, अपना काम कर रहे थे. अापातकाल में वे कवियों में अकेले थे जिसने तानाशाही को त्रिकाल-संध्या का व्रत ले कर चुनौती दी थी - तीनों काल तीन कविताएं लिख कर अापातकाल को चुनौती देने का संकल्प ! बीच के सालों में बहुत कुछ किया भवानीबाबू ने लेकिन एक ही काम नहीं किया कि गांधी की तरफ पीठ नहीं की. संपूर्ण गांधी वाड़्मय की हिंदी परियोजना का संपादन, गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका गांधी-मार्गका संपादन फिर सर्वोदय अांदोलन की पत्रिका के संपादक रहे भवानीबाबू, जिसके संपादक कभी विनोबा अौर दादा धर्माधिकारी अादि भी रहे थे. पिता का इतना परिचय जरूरी इसलिए है कि हम समझ सकें कि अनुपम कहां से चले थे, कहां से रस पाते थे अौर उनका कंपास इतना मजबूत कैसे था ! 
अनुपम की चुटिया गांधी से कब अौर कैसे बंधी, इसके पीछे कोई नाटकीय घटना नहीं थी. वे काम करते-करते, सोचते-चलते गांधी तक पहुंचे थे. लोहिया, समाजवादी युवजन सभा अादि का बहुत छोटा दौर भी साथ रहा लेकिन वह पानी की गहराई नापने से अधिक नहीं था. अनुपम की कई विशेषताअों में से एक विशेषता यह भी थी कि वे सबके साथ थे, सबके थे लेकिन पहले अौर अाखिरी तौर पर वे गांधी के थे; अौर गांधी की समझ भी उनकी अपनी थी. गांधी को खूब-खूब पढ़ना अौर गांधी को समझना दो एकदम भिन्न बातें हैं. यह तो हो सकता है कि पढ़-पढ़ कर गांधी को समझा जाए लेकिन यह नहीं हो सकता है कि जिए बिना गांधी को समझा जाए. यह अक्सर नकली व्यक्ति गढ़ता है या नकली गांधी तक पहुंचाता है. गांधी को जीने का मतलब गांधी के जड़ हो चुके प्रतीकों की नकल करना या उनसे चिपकना नहीं है. अनुपम ने यह रहस्य समझा था. इसलिए वे एक सामान्य मनुष्य की तरह जीते थे लेकिन इतनी सरलता अौर सहजता से कि कुछ भी बनावटी या अारोपित नहीं होता था. वे साहित्य भी पढ़ते थे, फिल्में भी देखते थे, फोटोग्राफी भी की अौर यात्राएं भी, पत्रकारिता भी अौर किताबें भी लिखीं. खाने-पीने का अानंद लेना व देना भी खूब जानते थे. नये लोगों से सहजता से मिलना-बातें करना अौर उन पर हावी हुए बिना उन्हें अपने साथ लेना उनकी प्रयासहीन वृत्ति थी. एक थे बनवारीलाल चौधरी. कृषि-विज्ञानी थे अौर सरकारी नौकरी में थे. गांधी ने अाजादी की लड़ाई में जब सबको पुकारा तो कई-कई लोगों ने जवाब दिया. बनवारीलालजी भी तब नौकरी छोड़ कर गांधी के साथ खड़े हो गए. अौर फिर खड़े ही रहे. ग्रामीण भारत को ध्यान में रख कर जिन लोगों ने अाधारभूत रचनात्मक कार्य की दिशा खोजी, उनमें बनवारीलालजी का नाम भुलाया नहीं जा सकता. पिता भवानीबाबू ने, संस्कृत में एम.ए. कर अपनी जमीन तलाशते अनुपम को इन्हीं बनवारीलालजी की तरफ उन्मुख किया अौर हम सबके जीवन में एक वह काल जो अाता है जब हम अपनी दिशा तै करते हैं, अनुपम ने वह काल बनवारीलालजी के निटाया केंद्र पर जिअा. अब न बनवारीलालजी रहे, न रहे अनुपम लेकिन रह गया बनवारीलालजी का दिया वह सरल, साधारण-सा सूत्र कि साधनों की कमी या विपुलता से परिणाम की गहराई या सफलता नहीं मापी जा सकती है. अौर फिर गांधी ने तो पूछा ही न कि साधनों की किल्लत हो जहां वहां अाप विवेक कैसे खो सकते हैं ? अौर फिर कहा: गरीबी हर्गिज नहीं चाहिए, क्योंकि वह मनुष्य का सर्वाधिक अपमान करती है. चाहिए स्वेच्छा से स्वीकारी हुई गरीबी ! यह स्वेच्छा अनुपम का स्वभाव बन गई. इसलिए उन पर सादगी सजती थी.
उनका लेखन अौर उनकी पत्रकारिता भी इसी सादगी में से निकली थी अौर इसलिए अनुपम थी. अगर साधनों की विपुलता से परिणाम को नहीं नापा जाना चाहिए तो भाषा-विन्यास अौर शब्द-जाल से लेखन की सार्थकता क्यों अौर कैसे मापी जा सकती है ! तो तवा घाटी का मिट्टी बचाअो हो कि चंबल में डाकुअों का समर्पण हो कि पहाड़ों में चला चिपको अांदोलन हो कि बड़े बांधों की विनाश-लीला कि राजस्थान के जल-संकट में उतरना कि देश भर के तालाबों का अध्ययन - अनुपम ने पत्रकारिता अौर भाषा का नया स्वरूप उभार दिया. भाषा का यह सहज सौंदर्य उनके व्याख्यानों में भी अनुपम स्वरूप में उभरता है जिन्हें बहुत-बहुत अाग्रह के बाद, लगभग जबरन स्वीकारते हुए वे कहते ही थे कि मुझे बोलना तो अाता भी नहीं है. अपनी यह भाषा उन्होंने लोगों के बीच रह कर सीखी व पहचानी थी. वे मौका-ए-वारदात पर जा कर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों में नहीं थे. वे जिन-जिन कामों से जुड़े, उन-उन के साथ जा कर लंबे-लंबे अरसे रहे अौर फिर लिखा. इसलिए उनकी भाषा में निरंतर परिष्कार देखा जा सकता है - सहज से सहजतर की तरफ; सरल से सरलतर की तरफ ! वे हमारे दौर के उन थोड़े से शब्दशिल्पियों में थे जिनके लिखने-बोलने के बीच खाई कम-से-कम थी. 
पर्यावरण की चिंता में उन्होंने कभी युद्ध घोषित नहीं किए हालांकि पर्यावरण के प्रति जागरूकता बनाने अौर उसे जमीन पर उतारने का उनका काम किसी से भी, किसी मानी में कमतर या कमजोर नहीं था. अाज इतने अधिक लोग, इतनी अाक्रामकता से पर्यावरण की रक्षा करने में जुटे हैं कि उनसे ही पर्यावरण को खतरा पैदा हो गया है. अनुपम इस भीड़ से एकदम अलग अौर अपने काम में मन भर डूबे, तन्मय नजर अाते थे तो इसलिए कि वे पर्यावरण के विनाश को मनुष्य से अलग कर के नहीं देखते थे अौर उनके सहजीवन में ही उसकी सार्थकता देखते थे. भारत का पर्यावरणपर छपी पहली वार्षिकी थी तो अनुवाद-सी ही लेकिन उसने अनुपम की मौलिकता का पहला प्रमाण दिया था. फिर राजस्थान की रजत बूंदें’, फिर अाज भी खरे हैं तालाबने एक-के-बाद एक हमें अचंभित भी किया अौर मोहित भी !  इन किताबों के इर्द-गिर्द जैसा लोक जागरण हुअा - हजारों की संख्या में नये-पुराने तालाब तैयार हो गए - वैसा किताबों से संभव हो सकता है, यह सत्य के पुनराविष्कार सरीखा था. कितनी ही भाषाअों में, कितने ही संस्करण इसके प्रकाशित हुए, व्यावसायिक प्रकाशकों ने मनमानी कीमत पर, मनमाने प्रकाशन किए, कितने अलग-अलग माध्यमों से काम करने वालों ने इन किताबों की मदद  ली, जानना-गिनना संभव नहीं है. अनुपम ने किताबों के शुरू में ही लिखा था : इसे या इसके किसी अंश को प्रकाशित करने के लिए अनुमति की जरूरत नहीं है. सबके लिए खुला है मंदिर ये हमारा !! इन किताबों से उन्होंने एक पैसे की कमाई नहीं की. कभी कुछ कमाई हुई तो जिस गांधी शांति प्रतिष्ठान के साथ जुड़ कर वे काम करते रहे, उसे भेंट कर दी. 
कोई १० माह पहले अचानक ही कैंसर का पता चला. फिर तो अस्पताल,डॉक्टर, दवाएं,कीमियो, न्यूक्लीयर मेडिसीन अादि-अादि के चक्र से घिर गए. जैसा कहते हैं - कैंसर से लड़ाई जारी है, मैंने कहा, तो पतली-सी मुस्कान उभरी : काहे की लड़ाई मैं तो इससे दोस्ती साधने में लगा हूं ! लड़ते तो उससे हैं जिससे जीतने की कोई संभावना हो. इस राजरोग से तो कुछ हो सकती है तो दोस्ती ही हो सकती है.

दोस्ती ही बनी होगी शायद जो यह राजरोग उन्हें अपने साथ ले गया ! (23.12.2017) 

फौज के त्यागी की गिरफ्तारी

फौज के त्यागी की गिरफ्तारी 
० कुमार प्रशांत 

मुझे लग रहा है कि वायुसेवा के पूर्व प्रमुख एस.पी. त्यागी को जिस बात श्रेय दिया जाना चाहिए, वह नहीं दिया जा रहा है अौर इसलिए मैंने उनके लिए यह लिखने की जरूरत महसूस की. अाप इस खबर को पढ़ें अौर फिर मुझे बताएं कि अापको कैसा लगता है : वायुसेना के पूर्व प्रमुख एस.पी.त्यागी को ३० दिसंबर तक के लिए न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया !अगर इस मामले से कोई पूर्व परिचित न हो तो वह दोबारा- तिबारा इस सुर्खी को पढ़ेगा क्योंकि यह सुर्खी मात्र नहीं है, यह अपने भीतर बहुत बड़ी दुनिया दबाए बैठी है. 
वायुसेना के पूर्व प्रमुख एस.पी.त्यागी हमारे बड़े संजीदा सेनाधिकारियों में गिने जाते थे - ईमानदार, साधुवत् ! जिन सेनाधिकारियों के कार्यकाल में कुछ खास युद्धादि न हुए हों, वे सामान्य तौर पर अचर्चित ही रह जाते हैं. एस.पी.त्यागी वैसे ही थे : काम-से-काम, बाकी हरिनाम ! अपनी उम्र घटाने-बढ़ाने जैसे चक्करों में भी वे कभी नहीं पड़े अौर इसलिए राजनीतिक चक्करों में कभी नहीं पड़े, मंत्री वगैरह बनने की लालसा भी नहीं पाली. बस, देश-सेवा अौर देश-रक्षा ही उनका फौज-व्रत रहा. फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का घोटाला-काल सामने अाया अौर हमने जाना कि अगस्तावेस्टलैंड हेलिकॉप्टरों की खरीद का भी एक बड़ा घोटाला है. अौर फिर यह बात भी सामने अाई कि इस घोटाले के घोटालेबाजों में वायुसेना के बड़े अधिकारी भी शामिल है. बड़े अधिकारियों की दुम पकड़ने के लिए खोज अागे चली तो त्यागी एस.पी.त्यागी का नाम सामने अाया ! 
सभी हैरान, त्यागी एस.पी.त्यागी भी हैरान ! उन्हें भी इस खबर पर विश्वास नहीं हो रहा था. जांच शुरू हुई अौर त्यागी एस.पी.त्यागी ने उसमें पूरा सहयोग भी दिया. लेकिन वह कहते हैं न कि जंगल में कहीं दलदल में जा गिरे तो निकलने की हड़बड़ी में जितने हाथ-पांव चलाअोगे, उतने ही गहरे धंसते जाअोगे. त्यागी एस.पी. त्यागी के साथ भी वैसा ही हुअा ! वे जांच में सहयोग देते हुए जितना कहते थे, उससे ज्यादा छिपाते थे अौर एक-दूसरे को काटने वाली बातें कह कर अपनी निर्लिप्तता का दावा करते थे. इस तरह वे दलदल में धंसने लगे. फिर तो उनका परिवार भी उसी दलदल में कहीं धंसा मिला. अाखिरकार उन्हें भी अौर परिवार के सदस्यों को भी गिरफ्तार करना पड़ा. पहले रिमांड पर रहे अौर अब जेल भेजे गए. 
अब बाकी कहानी जब लिखी जाएगी तब हम सब देखेंगे लेकिन अभी तो यह देखिए कि मामला फौज का है जिसे अाज की सरकार देशभक्ति की अाखिरी मंजिल बताते नहीं थकती ! फौज को कुछ मत कहोफौज की तरफ कभी मत देखोफौज की किसी बात के बारे में कुछ बात न पूछो; तुमने ऐसा कुछ किया तो तुरंत तुम्हारी देशभक्ति संदिग्ध मान ली जाएगी सवाल मत खड़े करो अौर शक मत करो ! अाज की सरकार हो कि दूसरी कोई सरकार, ऐसा कह कर अौर ऐसा तेवर दिखा कर दरअसल वह खुद को बचाना चाहती है. सरकारें जानती हैं कि लोगों की ज्यादा पूछ-ताछ उसके  लिए भी कभी भी खतरा बन सकती है. इसलिए वह लोगों को जानने-पूछने-देखने से रोकती है. 
फौज भी एक पेशा है जिसमें लोग नौकरी करने जाते हैं; फौज में नौकरी करना एक परंपरा है जिसका पीढ़ी-दर-पीढ़ी गर्व से पालन किया जाता है. भारत सरकार भी फौजों में नौकरी के लिए लुभावने विज्ञापन निकालती है अौर कहती है कि यह पेशा बहुत शानदार है ! हम सब भी फौज की बहुत इज्जत करते हैं, हम सब भी उससे बहुत भावात्मक लगाव रखते है. हकीकतअौर बॉर्डरजैसी फिल्में बनाते भी हैं अौर उसे देख-देख कर अांसू भी बहाते हैं. ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कि ये हमारे देश के रक्षक हैं बल्कि इसलिए भी कि ये हमारे ही हैं - हमारे घर के ! यह सब होते हुए भी, यह भी तो उतना ही सच है कि यह एक पेशा है जिसमें सभी किस्म के लोग अाते हैं, अलग-अलग  पृष्ठभूमियों के लोग अाते हैं, अलग-अलग मंशा से लोग अाते हैं. फौज की परंपरा, उसका प्रशिक्षण अौर उसका सख्त अनुशासन घिस-घिर कर हर नौजवान को फौजी बना देता है लेकिन वह हर फौजी को देशभक्त भी बना दे, यह वैसे ही संभव नहीं है कि जैसे हर नागरिक को ईमानदार बना देना या हर राजनीतिज्ञ को नैतिक बना देना संभव नहीं है. हम कैसे भूल सकते हैं कि सामान्य फौजी से ले कर फौज के कितने ही उच्चाधिकारियों तक को देशद्रोह के मामलों में, जासूसी के अारोपों में पकड़ा गया है.  देश की गुप्त जानकारियां दुश्मनोंको बेचते कितने ही फौजी पकड़े गए हैं. यह भी गौर करने की बात है कि एेसी वारदातों में साधारण सिपाही कम, अधिकारी ज्यादा पकड़े गए हैं. इसका मतलब यह नहीं कि हमारी फौज की नैतिक भित्ती खोखली है लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि फौजी होने का मतलब तमाम इंसानी कमजोरियों-चूकों से ऊपर उठ जाना होता है. इसलिए जैसी सबकी होती है वैसी ही फौजियों की भी लोकतांत्रिक जांच-पड़ताल होती ही रहनी चाहिए. इसमें चूक होती है या इसकी अनदेखी होती है तो राजनीतिक अौर नौकरशाह लोग तानाशाही की तरफ जाते हैं याकि घोटालों के दलदल में डूबते जाते हैं; कॉरपोरेट जगत मुनाफाखोरी में अंधा हो कर देश-समाज का सौदा करने लगता है अौर फौज देशरक्षा के अावरण में देशद्रोही करतबों में लग जाती है. अाखिर हम ही तो हैं कि जो फौज में जा कर फौजी, राजनीति में जा कर देश के सेवक अौर काम-धंधे में जा कर कॉरपोरेट बन जाते हैं. हम जब कहीं जाते हें तो अपनी कमियों-कमजोरियों को ले कर ही जाते हैं. इसलिए फौज की भी; फौजियों की भी, सरकारी तंत्र की भी अौर इस पूरी श्रृंखला की भी  लोकतांत्रिक जांच-पड़ताल हमेशा चलती रहनी चाहिए अौर उसका दवाब सब पर होना ही चाहिए. 

फौज को लोक से या लोकतंत्र से बड़ा बना कर पेश के पीछे कहीं खुद को अोट में ले जाने की कोशिश तो नहीं है ? यह भी अौर वह भी, दोनों ही लोकतंत्र को समान रूप से कमजोर करते हैं. लोकतंत्र को कमजोर करने से बड़ा भी देशद्रोह भी कुछ होता है क्या ? ( 20.12.2016)

प्रधानमंत्री के १० सवाल

प्रधानमंत्री के १० सवाल
० कुमार प्रशांत 


खुशी की बात है कि हम जिन्हें रात-दिन, यहां-वहां सुननते रहते हैं लेकिन जो हमें कभी नहीं सुनते उन प्रधानमंत्री ने हमसे कुछ पूछा है. ट्विटर पर किसी एप का इस्तमाल करते हुए उन्होंने १० सवाल हमारे सामने रखे हैं अौर मांग की है कि हम इनका जवाब उन्हें दें. हम प्रधानमंत्री को निराश कैसे कर सकते हैं ! इसलिए प्रधानमंत्री के निर्धारित क्रम से, प्रधानमंत्री के सवालों का, प्रधानमंत्री की अपेक्षानुसार जवाब : 
१. क्या अापको लगता है कि भारत में काला धन है ? हां, हमें लगता ही नहीं है बल्कि हम उससे रोज ही मिलते हैं जिन्हें अाप काला धन कहते हैं. मतलब भारत में अकूत काला धन है. लेकिन अापको एक राज की बात बताऊं प्रधानमंत्रीजी, हम-अाप जिसे काला धन कहते हैं, उस धन का रंग भी सफेद ही होता है. जब वह हमारे हाथ में या फिर हमारी जेब में या फिर हमारी मां के बक्से या अालमारी की साड़ी की तह में रखा होता है तो सफेद होता है जैसे ही किसी धनपति, सत्तापति या डंडापति के हाथ लगता है, काला हो जाता है. इससे अाप समझ सकते हैं कि धन काला-सफेद नहीं होता, उसे रखने वाले काले-सफेद होते हैं. 
२. क्या अापको लगता है कि काले धन व भ्रष्टाचार से लड़ने की जरूरत है बिल्कुल ! बड़ी जरूरत है अौर अविलंब जरूरत है. लेकिन प्रधानमंत्रीजी, यह भी कहना चाहता हूं कि यह लड़ाई वे नहीं लड़ सकते जिनकी जेबों में या कमरों में भ्रष्टाचार से कमाया या हड़पा काला धन रखा हुअा है. इस लड़ाई का सिपाही वही बन सकता है जिसने न तो काला धन कमाया हो, न हड़पा हो. वही प्रभु यीशु की सदियों पहले कही बात कि पहला पत्थर वह मारे …. 
३. भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी सरकार द्वारा अब तक किए गए प्रयास पर अाप क्या कहेंगे ? पिछली कांग्रेसी सरकार ने भ्रष्टाचार को सरकार चलाने का शिष्टाचार बना दिया था. उस सरकार का बनना ही अपने-अाप में एक घोटाला था. उस नाते देश को एक पूरे बहुमत की सरकार मिली अौर उसने सरकारी प्रक्रिया में चल रहे असीमित भ्रष्टाचार को रोकने का प्रयास किया, यह बड़े राहत की बात है. मोदी सरकार को इस बात का पूरा श्रेय है कि उसने भ्रष्टाचार से लथपथ देश का राजनीतिक वातावरण बदला. लेकिन हर किसान जानता है कि  मौसम बदलने से खेती नहीं होती. मौसम के अनुकूल बुवाई-निराई करो तो फसल अाती है. वह काम कौन कर रहा है अौर कहां, यह हमें पता नहीं है. 
४. भ्रष्टाचार के खिलाफ अब तक मोदी सरकार द्वारा की गई काररवाई पर अाप क्या कहेंगे ? पहली बात तो यही कहूंगा कि कोई यह तो बताए कि काररवाई क्या हुई अौर किनके खिलाफ हुई ? राजू, ललित मोदी, माल्या से ले कर बैं कों के उन बड़े अफसरानों तक, जिन्होंने बैंकिंग के सारे नियमों को ताक पर रख कर अनाप-शनाप कर्ज दिए अौर हमारे पैसे बट्टेखाते में डाल दिया, उनके खिलाफ कुछ हुअा क्या ? कभी किसी भ्रष्ट अधिकारी को पकड़ लेना या किसी को निशानदेही वाला नोट लेते हुए पकड़ लेना जैसी वारदातें पहले भी होती रही हैं, अाज भी होती हैं. एमसीएक्स का गुब्बारा तो मनमोहन सरकार के दौर में ही फूटा था. शेयर बाजार के कितने ही दलालों की धड़-पकड़ पहले भी होती रही है. अायकर विभाग अपने अधिकारियों की अायका सबसे बड़ा अौर सुरक्षित स्थान पहले भी था, अाज भी है. पहले भी कर चोरों को दान-दयाके मौके दिए जाते थे अौर उनसे मिली चवन्नीको अपनी उपलब्धि के तौर पर देश को बताया जाता था. यही अाज भी हो रहा है. रक्षा सौदों में दलाली का चलन अाम रहा है जिसे पिछले रक्षामंत्री ने नियंत्रित करने की कोशिश की थी, अाज के रक्षामंत्री भी कर रहे हैं. हमारी सरहदें पहले भी अशांत थीं, अाज कुछ ज्यादा ही अशांत हैं. मुंहतोड़ जवाब देने की बात कह कर देश को पहले से ज्यादा उन्मादित किया जा रहा है लेकिन सैनिकों को इस तरह जान गंवाना पड़ रहा है, यह किसी सरकार की सफलता के खाते में तो नहीं रखा जा सकता है. कुछ छिटपुट काररवाइयों अौर हवा में तैरती कहानियों से अलग मोदी सरकार ने कुछ किया हो तो हमें मालूम नहीं. देश को जो मालूम ही नहीं है, उसके बारे में वह बताएगा भी तो क्या !  
५ अौर ६ . ५००-१००० के नोटों की बंदी के मोदी सरकार के कदम के बारे में अाप क्या कहेंगे ? क्या अापको लगता है कि नोटबंदी काले धन, भ्रष्टाचार अौर अातंकवाद पर लगाम लगाने में कारगर है अब हम कुछ भी क्यों कहें ? जब अापको पूछना चाहिए था तब तो अापने किसी ने नहीं पूछा, बस फैसला सुना दिया ! अब  जबकि जाल में फंस गए हैं अाप, तब पूछ रहे हैं. अौर फिर हमारे मन में यह शंका भी बनी हुई है कि हम अापसे कहेंगे कुछ अौर अाप हमारे हवाले से देश से कहेंगे कुछ !! फिर भी अापने पूछा है तो इतना कहना जरूरी है कि यह नोटबंदी नहीं, देश की अार्थिक नसबंदी है. इसका असर न तो कालेधन पर होगा, न जाली नोटों पर अौर न अातंकी नेटवर्क पर. हो रहा भी नहीं है, क्योंकि अापने नोटों पर हमला किया, कालेधन के नेटवर्क पर नहीं ! अापने देखा कि नहीं अापका नया २००० कीमत का रंगीन नोट भी काला हो चुका है ? अभी जो नोट ठीक से लोगों तक पहुंचा भी नहीं है, वह काले धंधेबाजों तक पहुंच गया, इससे अापको उनके शक्तिशाली नेटवर्क का अंदाजा होगा. वैसे अापको यह अंदाजा पहले से ही होगा, क्योंकि कालेधन का यही तो नेटवर्क है जो अाजाद हिंदुस्तान के अब तक के सबसे महंगे चुनाव के दौरान सबसे अधिक सक्रिय था अौर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनाने में जिसका सबसे भयंकर इस्तेमाल अापने ही किया था. राजसत्ता का यही तंत्र है प्रधानमंत्रीजी जो सबसे ज्यादा काला धन बनाता है अौर सबसे अधिक कालेधन का इस्तेमाल करता है. भाजपा समेत देश का एक ऐसा राजनीतिक दल बता दीजिए प्रधानमंत्रीजी जो कालेधन का अकूत चुनावी फंड न रखता हो.  
    अापने कहा कि नोटबंदी काले धन पर हमला है, अापके वित्तमंत्री कह रहे हैं कि यह नायाब योजना कागजी मुद्रा की जगह प्लास्टिक मनी लाने की है. अाप दोनों अलग-अलग लक्ष्यों के लिए एक ही हथियार का इस्तेमाल कर रहे हैं क्या ? ये दोनों ही बातें एक-दूसरे को काटती हैं अौर दोनों ही जमीनी हकीकत से कोसों दूर हैं. न तो सभी नागरिकों का बैंक खाता खोलना कोई स्वस्थ अार्थिक कदम है अौर न प्लास्टिक मुद्रा चलाना किसी बीमारी का इलाज है. दुनिया में कहीं भी ऐसा नहीं है. समाज हमेशा इस तरह की बातों में संतुलन के साथ चलना चाहता है. भारतीय समाज तो इस मामले में ज्यादा ही अाग्रही है कि उसकी जेब में नोट होने चाहिए, उसके पास चिल्लर पैसे होने चाहिए. इसमें पिछड़ेपन जैसी या काला धन रखने जैसी बात नहीं है. अांकड़े अापके ही हैं जो बता रहे हैं कि जिन जनधन खातों में, पिछले कई महीनों से दो कौड़ी की रकम भी जमा नहीं हुई थी, उनमें २१ लाख करोड़ रुपये जमा हो गये हैं. यह अधिकांशत: काला धन है जिसे छुपाने का अापने एक अासान रास्ता दे दिया. अार्थिक ढांचे में से सारा रुपया निकाल लेने के कारण अचानक ही जो शून्य पैदा हुअा, लोगों में जो घबराहट पैदा हुई, जालसाजिए जानते हैं कि यही नायाब मौका है कि जाली नोटों से सारा शून्य भर दिया जाए. सीमा पर मारे गए अातंकवादियों की जेब से अापके २००० का नोट निकला, तो  इससे क्या समझना चाहिए ?   
७. नोटबंदी से रियल एस्टेट, उच्च शिक्षा अौर स्वास्थ्य सेवाएं अाम जन की पहुंच में अा जाएंगी ?   ऐसा कुछ भी नहीं होगा, क्योंकि रियल एस्टेट, उच्च शिक्षा अौर स्वास्थ्य सेवाअों को दुधारू गाय बना कर, उन्हें दूहने में लगे प्राय: हर संस्थान के पीछे कोई-न-कोई प्रभावी राजनीतिज्ञ खड़ा है. हर राज्य में, हर पार्टी के कितने ही सांसद-विधायक-खास लोग ऐसे हैं कि राजनीति जिनका साइड बिजनेसहै, मुख्य काम तो वे रियल एस्टेट का या शिक्षा माफिया का या हॉस्पिटल बिजनेस का करते हैं. जब तक राजनीति एक अतिरिक्त धंधेकी तरह की जाती रहेगी अौर पार्टियां उसे स्वीकार कर चलेंगी, तब तक अाम जन की बात करना घड़ियाली अांसू बहाने वाले पेशेवर को भी हंस पड़ने पर मजबूर कर देगी. 
८. भ्रष्टाचार, काले धन, अातंकवाद के खिलाफ की गई इस काररवाई से क्या अापको असुविधा का सामना करना पड़ा जिस दिन अापने नोटबंदी की घोषणा की, उस दिन से अाज तक के अखबार देख लीजिए कि टीवी चैनल देख लीजिए कि खरामा-खरामा अपनी ही दिल्ली की सड़कों पर घूम लीजिए, अापको अपने सवाल का जवाब मिल जाएगा. अौर यह भी न करना हो तो अपनी ही घोषणा फिर से पढ़ लीजिए कि अापने देश में रामराज लाने अौर इसे सोने की तरह दमकीला बनाने के लिए ५० दिन मांगे हैं. मतलब कि अापने यह माना ही है कि ५० दिनों की असुविधा के बाद देश को जन्नत का अहसास अाप कराएंगे. तो वह असुविधा तो हुई ही है, हो ही रही है. जानें तक गई हैं, मार-पीट हुई है अौर पुलिस ने बैंकों की लाइन में लगे परेशान-हाल लोगों की ऐसी पिटाई भी की है मानो वे दंगाई हों. फिर भी लोगों ने पर्याप्त धैर्य से इन सारी परेशानियों का सामना किया है. यह धैर्य अच्छा है या बुरा ? असहायता या निरुपायता से जो सर पा अा पड़े, उसे सह लेना सामाजिक बुराई है. लेकिन परिस्थिति को समझते हुए धीरज से चलना सयानापन है. लोगों ने दोनों का परिचय दिया है. इसमें कहीं बदला लेने का वह सुख-भाव भी शामिल है जिसे अापने गरीब चैन से सो रहा है अौर अमीर नींद की गोलियां खोज रहा हैजैसे भाव से प्रकट किया है. लेकिन वह अमीर कहीं किसी कतार में खड़ा नजर नहीं अाया, अाप या अापका कोई मंत्री, कोई राज्यपाल कि कोई सांसद-विधायक किसी कतार में नहीं दिखाई दिया. अापने जिन नोटों की बंदी की वे ही नोट तो अापके-उनके पास भी होंगे न ! फिर कैसे चला अापका या उनका घर ? कैसे चल रहा है ? सवाल तो कई हैं लेकिन अब एक बड़ा सवाल जो सबके मन में है वह यह है कि अच्छे दिन के अाने का जैसा अंतहीन इंतजार हमें करना पड़ रहा है वैसा ही इंतजार इन ५० दिनों के पूरा होने का भी करना पड़ेगा क्या ? इसका जवाब सिर्फ अापके पास है.  
९. क्या अापको लगता है कि भ्रष्टाचार का विरोध करने वाले अब काले धन, भ्रष्टाचार अौर अातंकवाद के समर्थन में लड़ाई लड़  रहे हैं ?   अगर असहमति राष्ट्रद्रोह है, तो अापकी बात सही है. अगर अापको ऐसा मानने अौर देश को कहने में गर्व की अनुभूति होती है कि राजनीतिक बिरादरी के अापके सारे साथी काला बाजारियों की दलाली करते हैं, भ्रष्ट्राचारियों की जेब में रहते हैं अौर उनकी अातंकवादियों से सांठगांठ है, तो हमारे कहने के लिए बच क्या जाता है ? अपनी बिरादरी के लिए इतना हीन भाव अगर अापके मन में है तो अापके हाथों में लोकतंत्र कितने दिन सुरक्षित रहता है, यह देखना होगा. येनकेनप्रकारेण सत्ता में बने रहना अाज की राजनीति का मूलमंत्र है जिसका जाप अाप भी अौर वे भी करते हैं.  फिर इतना अहंकार क्यों

१०. क्या अाप कोई सुझाव देना चाहेंगे सत्ता जब कभी विनीत भाव से हमसे राय-मश्विरा करने की मुद्रा धारती है तो डर लगता है. असहमति राष्ट्रद्रोह हो अौर सवाल पूछना असहिष्णुता हो तो कुछ भी कहना खतरे को अामंत्रित करना होता है. फिर भी अापने अच्छे भाव से ही पूछा है, यह मान कर बस इतना ही : ठोकरें खा कर भी न संभले तो मुसाफिर का नसीब / वरना पत्थरों ने तो अपना फर्ज निभा ही दिया !   
( 25.11.2016)