Wednesday 28 August 2019

हिंदू गांधी का धर्म

धर्म का ऐसा कोलाहल है कि धार्मिकता कहीं मुंह छिपा कर बैठी है. हर किसी का दावा है कि वह है जो अपने धर्म का रक्षक है. जो भी भीड़ जुटा लेता है वह धर्म का अधिष्ठाता बन बैठता है. ऐसे में कौन इस सत्य की याद करे कि जो कहती है कि भीड़ जिसकी रक्षा करने खड़ी हो जाए वह चाहे कुछ भी हो, धर्म कि देश कि समाज कि नेता, अधर्म में बदल जाता है. अधर्म यानि दूसरे धर्म की जगह छीनना, अधर्म यानि दूसरे मनुष्य की हैसियत छीनना, अधर्म यानी अपने ही धर्म की ध्वजा लहराना ! ऐसा पहले भी हुअा है. अासमान को मुट्ठी में करने की ऐसी बचकानी लेकिन बेहद खतरनाक कोशिश पहले भी हुई है. ऐसी कोशिश हुई कि हजारों साल की सभ्यता वाला भारतीय समाज ही टूट गया. एक देश दो बन गया. 

ऐसी कोशिश में लगी ताकतों ने यह पहचाना कि उनकी कोशिश की सफलता के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा यह अादमी है कि जिसका नाम मोहनदास करमचंद गांधी है. इसलिए रास्ता यह निकाला गया कि इस गांधी को भी किसी एक दायरे में, किसी एक पहचान में बांध कर दुनिया के सामने पेश किया जाए. अंग्रेजों ने इसलिए वह पूरा नाटक रचा वहां सुदूर इंग्लैंड में - लंदन में - अौर तमाम दवाब डाल कर गांधी को भी वहां ले गये. गांधी इस दूसरे गोलमेज सम्मेलन में जाना नहीं चाहते थे अौर कांग्रेस से उन्होंने बार-बार इसरार भी किया था कि उन्हें वहां न जाने को कहा जाए. लेकिन कांग्रेस जानती थी कि अगर यह अादमी वहां नहीं गया तो भारत ही वहां गैरहाजिर हो जाएगा. अंग्रेज भी जानते थे कि यह अादमी वहां नहीं पहुंचा तो उनका सारा खेल बिगड़ जाएगा. इसलिए गांधी को वहां जाना पड़ा अौर गोलमेज सम्मेलन की गोल मेज के चारो अोर अंग्रेजों ने भारत की भीड़ लगा दी ! गांधी एक भारत की बात करते थे अौर उस भारत की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था कांग्रेस को बताते थे अौर इतिहास के अनेक मोड़ों पर वे ही कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि बन कर सारे भारत की बात कहते थे. यह समीकरण अंग्रेजों को बहुत भारी पड़ रहा था. वे समझ गये थे कि जब तक गांधी की यह विशिष्ट स्थिति वे तोड़ नहीं डालेंगे तब तक उनके उस जादुई असर की काट नहीं निकल सकती है जो तब समाज के सर चढ़ कर बोलता था. इसलिए गांधी के सामने वहां उन्होंने कई हिंदुस्तान खड़े कर दिए - हिंदू हिंदुस्तान, मुस्लिम हिंदुस्तान, दलित हिंदुस्तान, सिख हिंदुस्तान, रियासतों वाला हिंदुस्तान, राजाअों वाला हिंदुस्तान, एंग्लो-इंडियन हिंदुस्तान अादि-अादि ! यह गांधी को उनकी अौकात बताने की साम्राज्यवाद की तिकड़म थी जिसमें सभी शामिल थे - पूरी रजामंदी के साथ अौर पूरी रणनीति के साथ ! गांधी को बिखरने, उनके प्रभाव को छिन्न-भिन्न करने की इस कोशिश में वे सब साथ अा जुटे थे जो वैसे किसी भी बात में एक-दूसरे के साथ नहीं थे. 

सनातनी हिंदू अौर पक्के मुसलमान दोनों एकमत थे कि गांधी को उनके धार्मिक मामलों में कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है. दलित मानते थे कि गैर-दलित गांधी को हमारे बारे में कुछ कहने-करने का अधिकार ही कैसे है ? ईसाई भी धर्मांतरण के सवाल पर खुल कर गांधी के खिलाफ थे. बाबा साहब अांबेडकर ने तो अाखिरी तीर ही चलाया था अौर गांधी को इसलिए कठघरे में खड़ा किया था कि अाप भंगी हैं नहीं तो हमारी बात कैसे कर सकते हैं ! जवाब में गांधी ने इतना ही कहा कि इस पर तो मेरा कोई बस है नहीं लेकिन अगर भंगियों के लिए काम करने का एकमात्र अाधार यही है कि कोई जन्म से भंगी है या नहीं तो मैं चाहूंगा कि मेरा अगला जन्म भंगी के घर में हो. अांबेडकर कट कर रह गये. इससे पहले भी अांबेडकर तब निरुत्तर रह गये थे जब अपने अछूत होने का बेजा दावा कर, उसकी राजनीतिक फसल काटने की कोशिश तेज चल रही थी. तब गांधी ने कहा : मैं अाप सबसे कहीं ज्यादा पक्का अौर खरा अछूत मैं हूं, क्योंकि अाप जन्मत: अछूत हैं, मैंने अपने लिए अछूत होना चुना है. 

गांधी ने जब कहा कि वे रामराज लाना चाहते हैं, तो हिंदुत्व वालों की बांछें खिल गईं - अब अाया ऊंट पहाड़ के नीचे ! लेकिन उसी सांस में गांधी ने यह भी साफ कर दिया कि उनका राम वह नहीं है जो राजा दशरथ का बेटा है ! अब सनातनी हिंदुत्ववादी कट कर रह गये. गांधी ने रामराज्य का अपना संदर्भ साफ करते हुए कहा कि जनमानस में एक अादर्श राज की कल्पना रामराज के नाम से बैठी है. मैं उस सर्वमान्य विभावना को छूना चाहता हूं. हर क्रांतिकारी जनमानस में मान्य, प्रतिष्ठित प्रतीकों में नये अर्थ भरता है. उस पुराने माध्यम का छोर पकड़ कर वह अपना नया अर्थ समाज में मान्य कराने की कोशिश करता है. इसलिए गांधी ने खुलेअाम कहा कि वे सनातनी हिंदू हैं लेकिन हिंदू होने की जो कसौटी बनाई उन्होंने, वह ऐसी थी कि कोई कठमुल्ला हिंदू उन तक फटकने तक की हिम्मत नहीं जुटा सका; उनकी परिभाषा अौर मान्यता को स्वीकारना तो एकदम ही अलग बात थी. पूछा किसी ने कि सच्चा हिंदू कौन है - गांधी ने संत कवि नरसिंह मेहता का भजन सामने कर दिया :  वैष्णव जन तो तेणे रे कहिए जे / पीड पराई जाणे रे !कौन है सच्चा अौर अच्छा अादमी ? किसे कहेंगे सच्चा  भक्त इंसान ? गांधी ने कहा :  सबसे सच्चा अौर अच्छा इंसान वह है जो दूसरों की पीड़ा जानता है. अौर फिर यह शर्त भी बांध दी -  पर दुखे उपकार करे तोय / मन अभिमान ना अाणी रे ! पीड़ा जानना ही काफी नहीं है, पीड़ा में हिस्सेदारी भी करनी होगी. बात यहीं रुकती नहीं है, अागे बढ़ जाती है कि दूसरे को उसकी पीड़ा के क्षण में मदद करना, उसकी पीड़ा को अपनी पीड़ा समझ कर उसे दूर करने के उपाय करना, यह सच्चे व अच्छे अादमी की पहचान तो है लेकिन ऐसा करने का अभिमान न हो ! यह जताते अौर अपने नाम का पत्थर न लगवाते फिरो कि यह हमने किया   है याद रखना ! मन अभिमान ना अाणी रे ! गांधी कहते हैं कि यही सच्चे व अच्छे अादमी की पहचान है. फिर कौन हिंदुत्व वाला अाता गांधी के पास ! 

वेदांतियों ने फिर गांधी को गांधी से ही मात देने की कोशिश की : अापका दावा सनातनी हिंदू होने का है तो अाप वेदों को मानते ही होंगे, अौर वेदों ने जाति-प्रथा का समर्थन किया है. गांधी ने दो टूक जवाब दिया:  वेदों के अपने अध्ययन के अाधार पर मैं मानता नहीं हूं कि उनमें जाति-प्रथा का समर्थन किया गया है लेकिन यदि कोई मुझे यह दिखला दे कि जाति-प्रथा को वेदों का समर्थन है तो मैं उन वेदों को मानने से इंकार करता हूं. मैं सनातनी हिंदू हूं, बार-बार ऐसा दावा करते रहने के बावजूद वे कठमुल्ले हिंदुत्ववादियों के लिए किसी भी मंच पर, कोई जगह छोड़ने को तैयार नहीं थे. वे मुसलमानों के कठमुल्लेपन पर भी इसी तरह लगातार चोट करते रहते थे. ईसाइयों अौर मुसलमानों के धर्म परिवर्तन के दर्शन से वे बिल्कुल भी सहमत नहीं थे. उनकी मान्यता थी, अौर दुनिया के सभी धर्मों के लिए थी कि सारे धर्म, अपने वक्त अौर समाज की जरूरतों को देखते हुए इंसान ने ही बनाए हैं अौर चूंकि इंसान सारे ही अधूरे हैं, इसलिए सारे धर्म अधूरे हैं. तो फिर गांधी पूछते हैं कि एक अधूरे से निकल कर दूसरे अधूरे में जाने का मतलब क्या ? क्या प्रयोजन सिद्ध होगा - इस बंजर धरती में बीज डालो कि उस बंजर धरती में, बीज का अंत ही होना है. तो फिर क्या करें ? गांधी कहते हैं : धर्म परिवर्तन मत करो, धर्म में परिवर्तन करो ! अौर इतना कह कर वे अपने हिंदू धर्म की कालातीत हो चुकी, प्रतिगामी प्रथाअों अौर मान्यताअों के खिलाफ एक ऐसी लड़ाई छेड़ते हैं जो कभी रुकी नहीं - रोकी जा सकी तो उन तीन गोलियों के बल पर ही जो हिंदुत्व की अंधी व विवेकशून्य ताकतों ने 30   जनवरी 1948 को उनके सीने में उतारी थी. एक गुरु, एक अवतार, एक किताब अौर एक अाराध्य वाली सोच में से पैदा होने वाली एकांगी कट्टरता को वे पहचानते थे अौर इसलिए  संगठित धर्मों के साथ उनका संवाद-संघर्ष लगातार चलता रहा.  

हिंदुअों-मुसलमानों के बीच बढ़ती राजनीतिक खाई को भरने की कोशिश वाली जिन्ना-गांधी की ऐितहासिक मुंबई वार्ता टूटी ही इस बिंदु पर कि जिन्ना ने कहा कि जैसे मैं मुसलमानों का प्रतिनिधि बन कर अापसे बात करता हूं, वैसे ही अाप हिंदुअों के प्रतिनिधि बन कर मुझसे बात करेंगे, तो हम सारा मसला हल कर लेंगे. लेकिन दिक्कत यह है मिस्टर गांधी कि अाप हिंदू-मुसलमान दोनों के प्रतिनिधि बन कर मुझसे बात करते हैं. अापकी यह भूमिका मुझे कबूल नहीं है. मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि मैं ही हूं. गांधी ने कहा: यह तो मेरी अात्मा के विरुद्ध होगा कि मैं किसी धर्मविशेष या संप्रदायविशेष का प्रतिनिधि बन कर सौदा करूं ! इस भूमिका में मैं न जीता हूं, न सोचता हूं. इस भूमिका में मैं किसी बातचीत के लिए तैयार नहीं हूं. अौर जो वहां से लौटे गांधी तो फिर उन्होंने कभी जिन्ना से बात नहीं की- मृत्यु तक ! 

    पुणे करार के बाद अपनी-अपनी राजनीतिक गोटियां लाल करने का हिसाब लगा कर जब करार करने वाले सभी करार तोड़ कर अलग हट गये तब अकेले गांधी ही थे जो उपवास से खोखली अौर उम्र से कमजोर होती अपनी काया समेटे देशव्यापी ‘हरिजन यात्रा’ पर निकल पड़े -  मैं तो उस करार से अपने को बंधा मानता हूं, अौर इसलिए मैं शांत कैसे बैठ सकता हूं ! उनकी ‘हरिजन यात्रा’ क्या थी, सारे देश में जाति-प्रथा, छुअाछूत अादि के खिलाफ एक तूफान ही था ! लॉर्ड माउंटबेटन ने तो बहुत बाद में पहचाना कि यह ‘वन मैन अार्मी’ है लेकिन ‘एक अादमी की इस फौज’ ने सारी जिंदगी ऐसी कितनी ही अकेली लड़ाइयां लड़ी थीं. उनकी इस ‘हरिजन यात्रा’ की तूफानी गति अौर उसके दिनानुदिन बढ़ते प्रभाव के सामने हिंदुत्व की सारी कठमुल्ली जमातें निरुत्तर व असहाय हुई जा रही थीं. तो सबने मिल कर दक्षिण भारत की यात्रा में गांधी को घेरा अौर सीधा ही हरिजनों के मंदिर प्रवेश का सवाल उठा कर कहा कि अापकी ऐसी हरकतों से हिंदू घर्म का तो नाश ही हो जाएगा ! गांधी ने वहीं, लाखों की सभा में इसका जवाब दिया कि मैं जो कर रहा हूं, उससे अापके हिंदू धर्म का नाश होता हो तो हो, मुझे उसकी फिक्र नहीं है. मै हिंदू धर्म को बचाने नहीं अाया हूं. मैं तो इस धर्म का चेहरा बदल देना चाहता हूं ! … अौर फिर अछूतों के लिए कितने मंदिर खुले, कितने धार्मिक अाचार-व्यवहार मानवीय बने अौर कितनी संकीर्णताअों की कब्र खुद गई, इसका हिसाब कोई लगाना चाहे तो इतिहास के पन्ने पलटे ! सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों पर भगवान बुद्ध के बाद यदि किसी ने सबसे गहरा, घातक लेकिन रचनात्मक प्रहार किया तो वह गांधी ही हैं; अौर ध्यान देने की बात है कि यह सब करते हुए उन्होंने न तो कोई धार्मिक जमात खड़ी की, न कोई मतवाद खड़ा किया अौर न भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष को कमजोर पड़ने दिया !

    सत्य की अपनी साधना के इसी क्रम में गांधी फिर एक ऐसी स्थापना दुनिया के सामने रखते हैं कि जैसी इससे पहले किसी राजनीतिक चिंतक, अाध्यात्मिक गुरू या धार्मिक नेता ने कही नहीं रखी थी. उनकी इस एक स्थापना ने सारी दुनिया के संगठित धर्मों की दीवारें गिरा दीं, सारी धार्मिक-अाध्यात्मिक मान्यताअों को जड़ें हिला दीं. पहले उन्होंने ही कहा था : ईश्वर ही सत्य है ! फिर वे इस नतीजे पर पहुंचे कि अपने-अपने ईश्वर को सर्वोच्च प्रतिष्ठित करने के द्वंद्व ने ही तो सारा कुहराम मचा रखा है ! इंसान को मार कर, अपमानित कर, उसे हीनता के अंतिम छोर तक पहुंचा कर जो प्रतिष्ठित होता है, वह सारा कुछ ईश्वर के नाम से ही तो होता है. इसलिए गांधी ने अब एक अलग ही सत्य-सार हमारे सामने उपस्थित किया : ‘ईश्वर ही सत्य है’ नहीं बल्कि ‘सत्य ही ईश्वर है’ ! धर्म नहीं, ग्रंथ नहीं, मान्यताएं-परंपराएं नहीं, स्वामी-गुरु-महंत-महात्मा नहीं, सत्य अौर केवल सत्य ! सत्य को खोजना, सत्य को पहचानना, सत्य को लोक-संभव बनाने की साधना करना अौर फिर सत्य को लोकमानस में प्रतिष्ठित करना - यह हुअा गांधी का धर्म ! यह हुअा दुनिया का धर्म, इंसानियत का धर्म ! ऐसे गांधी की अाज दुनिया को जितनी जरूरत है, उतनी कभी नहीं थी शायद !  ( 23.08.2019)  

Thursday 15 August 2019

प्रधानमंत्री ने जो नहीं कहा …

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अाधे घंटे से कुछ ज्यादा ही समय तक राष्ट्र को संबोधित किया लेकिन देश यह समझने में असफल रहा कि वे किसे अौर क्यों संबोधित कर रहे थे. यदि उनके संबोधन का सार ही कहना हो तो कहा जा सकता है कि वे कश्मीरियों के बहाने देश को अपने उस कदम का अौचित्य बता रहे थे जिसे वे खुद भी जानते नहीं हैं. वे ऐसा सपना बेचने की कोशिश कर रहे थे जिसे वे देश में कहीं भी साकार नहीं कर पा रहे हैं. कश्मीर को जिस बंदूक के बल पर अाज चुप कराया गया है, उसी बंदूक को दूरबीन बना कर प्रधानमंत्री कश्मीर को देख अौर दिखा रहे थे. ऐसा करना सरकार के लिए दुर्भाग्यपूर्ण अौर देश के लिए अपशकुन है. 

प्रधानमंत्री ने इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा कि ऐसा क्यों हुअा है कि दिन-दहाड़े एक पूरा राज्य ही देश के नक्शे से गायब हो गया - भारतीय संघ के 28 राज्य थे, अब 27 ही बचे ! यह किसी पी.सी. सरकार का जादू नहीं है कि अचंभित हो कर हम जिसका मजा लें, क्योंकि जादू के खेल में हमें पता होता है कि हम जो देख रहे हैं वह यथार्थ नहीं है, जादू है, माया है. लेकिन यहां जो हुअा है वह ऐसा यथार्थ है जो अपरिवर्तनीय-सा है, कुरूप है, क्रूर है, अलोकतांत्रिक है अौर हमारी लोकतांत्रिक राजनीित के दारिद्रय का परिचायक है. 

इंदिरा गांधी ने भी अापातकाल के दौरान लोकसभा का ऐसा अपमान नहीं किया था, अौर न तब के विपक्ष ने ऐसा अपमान होने दिया था जैसा पिछले दो दिनों में राज्यसभा अौर लोकसभा में हुअा अौर उन दो दिनों में हमने प्रधानमंत्री को कुछ भी कहते नहीं सुना. यह लोकतांत्रिक पतन की पराकाष्ठा है. कहा जा रहा है कि लोकतंत्र बहुमत से ही चलता है, अौर बहुमत हमारे पास है ! लेकिन ‘बहुमत’ शब्द में ही यह मतलब निहित है कि वहां मतों का बाहुल्य होना चाहिए। राज्यसभा अौर लोकसभा में क्या उन दो दिनों में मतों का कोई अादान-प्रदान हुअा ? बस, एक अादमी चीख रहा था, तीन सौ से ज्यादा लोग मेजें पीट रहे थे अौर बाकी पराजित, सर झुकाए बैठे थे. यह बहुमत नहीं, बहुसंख्या है. अापके पास मत नहीं, गिनने वाले सर हैं. 

पिछले सालों में हमसे कहा जा रहा था कि कश्मीर का सारा अातंकवाद सीमा पार से पोषित, संचालित अौर निर्यातित है. इसलिए तो बारंबार हम पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा कर रहे थे अौर सर्जिकल स्ट्राइक कर रहे थे. अचानक गृहमंत्री अौर प्रधानमंत्री ने देश के पैरों तले से वह जमीन ही खिसका दी. अब पाकिस्तान कहीं नहीं है, प्रधानमंत्री ने कहा कि अातंकवाद का असली खलनायक धारा-370 थी, अौर तीन परिवार थे. वे दोनों ध्वस्त हो गये हैं अौर अब अातंकवादमुक्त कश्मीर डल झील की सुखद हवा में सांस लेने को अाजाद है. कैसा विद्रूप है ! हम भूलें नहीं हैं कि यही प्रधानमंत्री थे अौर ऐसा ही एक सरविहीन फैसला था नोटबंदी ! उसके आौचित्य की बात कहां से चली थी अौर कितनी-कितनी बार बदलती हुई कहां पहुंचाई गई थी ! ऐसा ही कश्मीर-प्रकरण का हाल होने वाला है. 

कहा जा रहा है कि कुछ मुट्ठी भर लोगों ने अौर तीन परिवारों ने कश्मीर में सारी लूट मचा रखी थी ! मचा रखी होगी, तो उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दें अाप; अापने तो सारे राज्य को जेल बना दिया ! क्या अापकी सरकार, अापका राज्यपाल, प्रशासन, पुलिस सब इतने कमजोर हैं कि तीन परिवारों का मुकाबला नहीं कर सकते थे ? कल तक तो इन्हीं परिवारों के साथ मिल कर कांग्रेस ने, अटलजी ने, आपने सरकारें चलाई थीं ! तब क्या इस लूट में अापसी साझेदारी चल रही थी ? अौर कौन कह सकता है कि यह पूरा राजनीतिक-तंत्र बगैर लूट के चल सकता है ? कौन-सी सरकारी परियोजना है कि जहां अावंटित पूरी रशि उसी में खर्च होती है ? कौन-सा राज्य है जो इस या उस माफिया के हाथ में बंधक नहीं है ? अब तो माफियाअों की सरकारें बना रहे हैं हम ! कोई यही बता दे कि राजनीतिक दलों की कमाई के जो अांकड़े अखबारों में अभी ही प्रकाशित हुए हैं, उनमें ये अरबों रुपये शासक दल के पास कैसे अाए ? ऐसा क्यों है कि जो शासन में होता है धन की गंगोत्री उसकी तरफ बहने लगती है ? बात कश्मीर की नहीं है, व्यवस्था की है. महात्मा गांधी ने इस व्यवस्था को वैसे ही चरित्रहीन नहीं कहा था.          

कश्मीर हमें सौंपा था इतिहास ने इस चुनौती के साथ िक हम इसे अपने भूगोल में समाहित करें. ऐसा दुनिया में कहीं अौर हुअा तो मुझे मालूम नहीं कि एक भरा-पूरा राज्य समझौता-पत्र पर दस्तखत कर के किसी देश में सशर्त शरीक हुअा हो. कश्मीर ऐसे ही हमारे पास अाया अौर हमने उसे स्वीकार किया. धारा-370 इसी संधि की व्यवहारिकता का नाम था जिसे अस्थाई व्यवस्था तब ही माना गया था - लिखित में भी अौर जवाहरलाल नेहरू के कथन में भी. बहुत कठिन चुनौती थी, क्योंिक इतिहास ने कश्मीर ही नहीं सौंपा था हमें, साथ ही सौंपी थी मूल्यविहीन सत्ता की बेईमानी, नीतिविहीन राजनीति की लोलुपता, सांप्रदायिकता की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कुचालें तथा पाकिस्तान के रास्ते साम्राज्यवादी ताकतों की दखलंदाजी ! कश्मीर भले स्वर्ग कहलाता हो, वह हमें स्वार्थ के नर्क में लिथड़ा मिला था. अौर तब हम भी क्या थे ? अपना खंडित अस्तित्व संभालते हुए, एक ऐसे रक्तस्नान से गुजर रहे थे जैसा इतिहास ने पहले देखा नहीं था. भारतीय उपमहाद्वीप के अस्तित्व का वह सबसे नाजुक दौर था. एक गलत कदम, एक चूक याकि एक फिसलन हमारा अस्तित्व ही लील जाती ! इसलिए हम चाहते तो कश्मीर के लिए अपने दरवाजे बंद कर ही सकते थे. हमने वह नहीं किया. सैकड़ों रियासतों के लिए नहीं किया, जूनागढ़ अौर हैदराबाद के लिए नहीं किया, तो कश्मीर के लिए भी नहीं किया. वह साहस था, एक नया ही राजनीतिक प्रयोग था. अाज इतिहास हमें इतनी दूर ले अाया है कि हम यह जान-पहचान नहीं पाते हैं कि जवाहरलाल-सरदार पटेल-शेख अब्दुल्ला की तिकड़ी ने कैसे वह सारा संभाला, संतुलन बनाया अौर उसे एक अाकार भी दिया. ऐसा करने में गलतियां भी हुईं, मतभेद भी हुए, राजनीतिक अनुमान गलत निकले अौर बेईमानियां भी हुईं लेकिन ऐसा भी हुअा कि हम कह सके कि कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है; अौर जब हम ऐसा कहते थे तो कश्मीर से भी उसकी प्रतिध्वनि उठती थी. अाज वहां बिल्कुल सन्नाटा है. कश्मीर का मन मरघट बन गया है.

हम कश्मीर को इसी तरह बंद तो रख नहीं सकेंगे. दरवाजे खुलेंगे, लोग बाहर निकलेंगे. उनका गुस्सा, क्षोभ सब फूटेगा. बाहरी ताकतें पहले से ज्यादा जहरीले ढंग से उन्हें उकसाएंगी. अौर हमने संवाद के सारे पुल जला रखे हैं तो क्या होगा ? तस्वीर खुशनुमा बनती नहीं है. शासक दल के लोग जैसा मानस दिखा रहे हैं अौर अब कश्मीर के चारागाह में उनके चरने के लिए क्या-क्या उपलब्ध है, इसकी जैसी बातें लिखी-पढ़ी व सुनाई जा रही हैं, क्या वे बहुत वीभत्स नहीं हैं ? प्रधानमंत्री ने ठीक कहा कि यह छाती फुलाने जैसी बात नहीं है, नाजुक दौर को पार करने की बात है. लेकिन प्रधानमंत्री इसी बात के लिए तो जाने जाते हैं कि वे कहते कुछ हैं अौर उनका इशारा कुछ अौर होता है. अाखिर संसद को रौशन करने की क्या जरूरत थी ? अपने देश के एक हिस्से पर हमें लाचार हो कर कड़ी काररवाई करनी पड़ी इसमें जश्न मनाने जैसा क्या था ? यह जख्म को गहरा करता है.    

जनसंघ हो कि भारतीय जनता पार्टी- इसके पास देश की किसी भी समस्या के संदर्भ में कभी कोई चिंतन रहा ही नहीं है. रहा तो उनका अपना एजेंडा रहा है जो कभी, किसी ने, कहीं तैयार कर दिया था, इन्हें उसे पूरा करना है.  इसलिए ये सत्ता में जब भी अाते हैं, अपना एजेंडा पूरा करने दौड़ पड़ते हैं. उन्हें पता है कि संसदीय लोकतंत्र में सत्ता कभी भी हाथ से निकल सकती है. जनता पार्टी के वक्त या फिर अटल-दौर में, तीन-तीन बार सत्ता को हाथ से जाते देखा है इन्होंने. लोकतंत्र सत्ता दे तो भली; सत्ता ले ले, यह हिंदुत्व के दर्शन को पचता नहीं है, क्योंकि वह मूल में एकाधिकारी दर्शन है. इसलिए 2012 से इस नई राजनीतिक शैली का जन्म हुअा है जो हर संभव हथियार से लोकतंत्र को पंगु बनाने में लगी है. इसके रास्ते में अाने वाले लोग, व्यवस्थाएं, संवैधानिक प्रक्रियाएं अौर लोकतांत्रिक नैतिकता की हर वर्जना को तोड़-फोड़ देने का सिलसिला चल रहा है. 2014 से हमारी संवैधानिक संस्थाअों के पतन के एक-पर-एक प्रतिमान बनते जा रहे हैं अौर हर नया, पहले वाले को पीछे छोड़ जाता है. कश्मीर का मामला पतन का अब तक का शिखर है.

भारत में विलय के साथ ही कश्मीर हमें कई स्तरों पर परेशान करता रहा है. अाप इसे इस तरह समझें कि जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री हों अौर उनके अादेश से उनके खास दोस्त शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी हो, उनकी सरकार की बर्खास्तगी हो तो हालात कितने संगीन रहे होंगे! यह तो भला था कि तब देश के सार्वजनिक जीवन में जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे, राममनोहर लोहिया जैसी सर्वमान्य हस्तियां सक्रिय थीं कि जो सरकार अौर समाज को एक साथ कठघरे में खड़ा करती रहती थीं अौर सरकारी मनमानी अौर अलगाववादी मंसूबों के पर कतरे जाते थे. अाज वहां भी  रेगिस्तान है।

इसलिए भारत के लोगों पर, जो भारत को प्यार करते हैं अौर भारत की प्रतिष्ठा में जिन्हें अपनी जीवंत प्रतिष्ठा महसूस होती है, अाज के शून्य को भरने की सीधी जिम्मेवारी है। संसद में जो हुअा है वह स्थाई नहीं है । कोई भी योग्य संसद उसे पलट सकती है। अपने प्रभुत्व पर इतराती इंदिरा गांधी का संकटकाल पलट दिया गया तो यह भी पलटा जा सकता है। जो नहीं पलटा जा सकेगा वह है मन पर लगा घाव, दिल में घर कर  गया अविश्वास ! इसलिए इस संकट में कश्मीरियों के साथ खड़े रहने की जरूरत है। जो बंदूक अौर फौज के बल पर घरों में असहाय बंद कर दिए गये हैं, उन्हें यह बताने की प्रबल जरूरत है कि देश का ह्रदय उनके लिए खुला हुअा है, उनके लिए धड़कता है। ( 08.08.2019) 

Saturday 10 August 2019

महात्मा गांधी होते तो हमसे कहते …

यह सबसे अासान सवाल है कि अाज की स्थिति में महात्मा गांधी होते तो क्या करते तो महात्मा गांधी तो हैं नहींउनके पास जा सकने का कोई उपाय भी नहीं हैअौर अभी अपना वैसा कोई इरादा भी नहीं है. तो फिर सवाल का मतलब क्या है क्या हम सच में महात्मा गांधी से रास्ता पूछ रहे हैंया वे भी रास्ता भूल जाएंऐसीकोशिश कर रहे हैं वैसे जब महात्मा गांधी थे अौर हमसे कहते रहते थे कि मैं क्या करूंगातब भी हम उनका कहा कितना करते थे अौर कितना समझते थे ?  वे जबतब कभी अपने हाथ अाए नहीं तो अाज क्या अाएंगे ! इसलिए मेरी सलाह यह है कि हम इस सवाल से किनारा कर लें कि महात्मा गांधी होते तो क्या करते. लेकिनमहात्मा गांधी ने एक नहीं अनेक अवसरों पर यह कहा है कि हमें किस परिस्थिति में क्या करना चाहिए. वे क्या करते यह पूछने से कहीं अच्छा यह नहीं है क्या कि हमयह समझने कि कोशिश करें कि वे होते तो हमसे क्या करने को कहते 

     वह अाजादी का उष:काल था. किसी ने महात्मा गांधी को घेरने कीकोशिश की अौर उनसे पूछा : बापूअब तो अंग्रेज चले गये ! अब अपना देश हैअपना शासन है अौर अपने लोग सरकार में हैं. अापने हमलोगों को जिन हथियारों से लड़ना सिखलाया है - हड़तालप्रदर्शनधरनाजुलूसजेल - क्या यही हथियार अागे भी हमारेकाम अाएंगे अाजाद भारत में अापकी लड़ाई के हथियार क्या होंगे 

    बापू हंसे, “ हथियार ही बदलते हैं,  लड़ाई कहां रुकती हैभाई ! मैं अब अागे की लड़ाई एक नये हथियार से लडूंगा - अौर वह होगा जनमत का हथियार - वीपन अॉफ पब्लिक अोपीनियन !” तो लड़ाई भी सामने है अौर बापूका बताया हथियार भी सामने धरा है. हम वह हथियार क्यों नहीं उठाते हैं इस हथियार को उठाने अौर चलाने की अनिवार्य शर्त है कि आपको जनता के बीच जानाव रहना होगा.

       1915में जब गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत आते हैं तो देश में अाजादी का सशक्त अांदोलन कांग्रेस चला रही थी. एक-से-एक बड़े नेता थे,बड़ी-बड़ी हस्तियां थीं. लेकिन कुछ था कि वह कांग्रेस जनमत से कटी हुईआभिजात्य लोगों के हाथों में बंदी थी. गांधी ने यह पहचाना अौर कांग्रेस को बदलना शुरू किया - पहलेइसकी भाषा बदली,फिर इसकी भूषा बदलीफिर इसके सपने बदले अौर फिर इसे मंच से उठा कर जनता के बीच ला रखा. किसानमजदूरगरीबनिरक्षर - कांग्रेसइन सबकी पार्टी बन गईइसके मंच को माटी का स्पर्श हुअा. कांग्रेस जनता से जुड़ी तो जनमत का हथियार बनाने लगी. गांधी ने जनमत को अपनीलड़ाई का अमोघ हथियार बना दिया जबकि हम अाज उस जनमत को एक भोथरे अौर बिकाऊ माल की तरह देखते हैं. अौर कहा तोयह भी जा रहा है कि जनमत जैसी कोई चीज होती ही नहीं हैहोती है तो बस भीड़ होती हैजिसे चाहे जैसे,जो अपने बस में कर ले ! कभी गरीबी हटाअो तो कभी विकास लाअोकभी इस्लाम पर खतरा बताअो तो कभी बहुजन को अल्पजन से डराअो. गांधीके बाद की कुल राजनीति का यही आम चेहरा है. लेकिन जो प्रजाअौर जनता’ का भेद नहीं समझते हैं अौर जो अादमी को सिर्फ भीड़ समझते हैं क्यावे लोकतंत्र को समझते हैं ?

       आज  एक घुटा हुअा माहौल सब अोर है. 2014 से पहले देश कई स्तरों पर हिचकोले खा रहा था अौर साफ दिखाई दे रहाथा कि जिन्हें देश का जहाज संभालना है वे जहाज संभालना तो दूरखुद को ही संभाल नहीं पा रहे हैं. वह समीकरण बदला अौर नया सवार सामने अागया. लेकिन वह भूल गया कि सवार नया है लेकिन सत्ता का हाथी तो पुराना ही है. इसलिए इतना तो हुअा कि सवार बदला लेकिन उसके बाद कुछ नहीं बदला. कितने ही नाटक हुएबातें हुईंलच्छेदार जुमले हुएइतनी घोषणाएं हुईं कि हम गिनना भी भूल गए कि किसनेकब,कहांक्या कहा. जंगल में जब एक गीदड़ बोलता है तो सभी  हुअां-हुअां करने लगते हैं. बड़े-बूढ़े कहते हैं कि जब सियारों की हुअां-हुआं हो रही हो तो उसे सुनना छोड़,अपने काम मेंलग जाना चाहिए. हम वह नहीं कर सके. हम सियारों की हुअां-हुअां सुनने में इस तरह मशगूल हुए कि अपना भी कोई काम हैकोई दर्शन हैकोई दिशा हैयह भूल ही गये. 

      अौर इसके बाद से हम देख रहे हैं गणतंत्र के महावत का महाभंजक स्वरूप ! अाजतंत्र किसी अंधे हाथी की तरह उत्पात मचा रहा है अौर गण किसी महावत की भूमिका में तो दूरकिसी हरकारे की भूमिका में भी नहीं है.यह हमारे लोकतंत्र के लिए अपशकुन की घड़ी है. लोक की स्वतंत्रता अौर किसी एक गुट या जमात की निरंकुशता में फर्क होता है. लोकतंत्र में तंत्र की प्राथमिक जिम्मेवारी हैबल्कि उसके होने की कसौटी भी यही है कि वह निरंकुशता को कैसे काबू में करता है. कानून का राज कहते ही उसे हैं जिसमें कानून हाथ में लेने की इजाजत किसी को नहीं होती है. लेकिनयहां तो देश का गृहमंत्री संसद में खड़े होकर कहता है कि कुछ नहीं करोगे तो सुरक्षित रहोगेकरोगे तो हमारे हत्थे चढ़ोगे. मतलब इन्हें देश उन नागरिकों का ही बनानाहै जो मुंह बंद करसर झुका कर अपना काम करते हों. देश बनाने का काम अाप करेंगे तो सत्ता दबोच लेगी. गांधी बता कर गये हैं कि ऐसी सत्ता अौर उसके अादेश कोन मानना लोकतंत्र में नागरिक का प्रथम कर्तव्य है. जो नागरिक का प्रथम कर्तव्य है उसके लिए उसे तैयार करना राजनीतिक कर्म का अनिवार्य अंग है.  

       नये तंत्र ने देश को अनुशासित करने की अपनी वैधानिक जिम्मेवारी छोड़ ही नहीं दी हैसमझ-बूझ कर इसे कहीं गहरे दफना दिया है. यहतंत्र कानून को या संविधान को या इन सबसे ऊपर मनुष्यता के अाधारभूत मूल्यों  को नहीं देखताहैवह देखता है कि जिसे अनुशासित करने की जरूरत है उसका धर्म क्या हैउसकी जाति क्या है अौर यह भी कि उसका दल क्या है बल्कि अब तोयह भी देखा जा रहा है कि इस अपराधी की संभावना क्या है - क्या यह भविष्य में किसी भी तरह अपने खेमे में अा सकता है अगर इसकी संभावना है तो राज्य अपनी नजर भी बदल लेता है अौर दिशा भी. इतिहास फिर कुछ उन्हीं गलियों सेकुछ उसी तरह गुजर रहा है जिनसे तब गुजरा था जब गुलामी का अंधेरा घना था. वक्त की उस संकरी गली के अंधेरे में मुहम्मद अली जिन्ना ने ऐसा ही अंधा उत्पात मचा रखा था अौर राज्य-ब्रितानी साम्राज्य- लकड़ी की तलवारें भांजता हुएउनका मुकाबला करने का स्वांग कर रहा था. लहूलुहान देश अंग्रेजों की मिलीभगत से निष्प्राण हुअा जा रहा था अौर अाजादी की पार्टी कांग्रेस उस धुंध में खोती जा रही थी. एक अकेले गांधी थे जो अपने मन -प्राणों का पूरा बल जोड़ कर इस दुरभिसंधि के खिलाफ तब तक अावाज उठाते रहे जब तक तीन गोलियों से बींध नहीं दिए गए. 

        यह वह इतिहास है जो हम पढ़ते रहे हैं लेकिन जो इतिहास हम गढ़ रहे हैं वह क्या इससे अलग है क्या वह हमें किसी दूसरी दिशा में ले जा सकेगा अौर फिर यह हिसाब भी हमें लगाना चाहिए कि कोई 70साल पहले हमने जो गणतंत्र बनाया अौर उसके साथ जो सपने देखेवे कहां तक पूरे हुए अौर कितनों तक पहुंचे सवाल अांकड़ों का नहीं है. सवाल यह कि गांधीकी हत्या के बाद के 70सालों में हमारा गणतंत्र 70साल जवान हुअा है या 70साल बूढ़ा जवानी अौर बुढ़ापे में उम्र का फर्क नहीं होता हैउम्मीदों अौर अात्मविश्वास का फर्क होता है ! यही विरासत गांधी हमें सौंप गये हैं कि न उम्मीद खत्म होन अात्मविश्वास !

       बाबा साहब अांबेडकर ने संविधान सभा की काररवाई को समेटते हुए एक ताबीज दी थी हमें : हमने एक संविधान तो बना दिया है अौर अपनी तरफ से अच्छा ही संविधान बनाया है लेकिन अाप सब यह याद रखें कि कोई भी संविधान उतना ही अच्छा या उतना ही बुरा होता है जितना उसे चलाने वाले लोग होते हैं ! ….

     पहले भी राजनीतिक दल ऐसे ही थे कि जो राजनीतिक लाभ के लिए कभी सांप्रदायिक या जातीय खेल खेलते थे लेकिन उन्हें भी इसमें कुछ शर्म अाती थी अौर देश के सार्वजनिक जीवन में इतना बल संचित था कि ऐसी प्रवृत्तियां दुत्कारी भी जाती थीं अौर हाशिए पर रहती थीं. अाज ऐसी स्थिति है कि सांप्रदायिकता-जातीयता के अाधार पर ही राजनीतिक दल बनाए गए हैंजातीय अाधार पर हीबहुजन का निर्धारण होने लगा है अौर इतिहास को फिर से लिखने की घोषणाएं की जाने लगी हैं. किसी भी स्वतंत्र व स्वायत्त देश को इस बात का अधिकार है ही कि वह अपनी समीक्षा करे अौर अपना इतिहास खोजे ! लेकिन वह खुद ही इतिहास बनजाने की दिशा में दौड़ पड़े तो संविधान क्या कहेगा अौर क्या करेगा बाबा साहब होते तो जरूर कहते कि यह दस्तावेज तुम्हारे हाथ में सौंपते समय ही मैंने कहा था कि यह उतना ही अच्छा या बुरा साबित होगा जितने अच्छे या बुरे बनने की तुम्हारी तैयारी होगी ! महात्मा गांधी ने तो संविधान बनाने की प्रक्रिया से ही खुद को अलग कर लिया थाक्योंकि उन्होंने देख लिया था कि देश का मन जब तक नया नहीं बनेगा तब तक उसके हाथ में सौंपी हर किताब पुरानी पड़ जाएगी. अांबेडकर समेत देश के सारे बड़े राजनीतिक नेताअों ने मिल कर वह किताब तैयार की जिसकी स्थापनाअों के बारे में उनकी अपनी ही अास्था नहीं थी. दस्तावेज इसलिए ही तो खतरनाक माने जाते हैं क्योंकि वे अपने निर्माताअों को ही अाईना दिखाने लगते हैं. हमारा संविधान कहता है कि यह बहुधर्मीबहुभाषीबहुजातीय अौर स्त्री-पुरुष के बीच करीब-करीब बराबर बंटा हुअा समाज बहुसंख्यावाद के नारों से न चलाया जा सकता है,न संभाला जा सकता है.ऐसी हर कोशिश से यह टूटबिखर जाएगा ! हमने इसे नहीं समझा अौर सांप्रदायिक ताकतों की रस्साकशी ऐसी मची कि देश टूट गया.सैकड़ों सालों की गुलामी मेंअंग्रेज भी जो करने की हिम्मत न कर सके,हमने खुद ही वह कर लिया ! अौर अाप इतिहास को इतिहास की नजर से देखेंगे तो पाएंगे कि इस अात्मघाती खेल में वे सब भी शामिल थे जो संविधान बना रहे थे. हजारों साल के अथक सामाजिक-सांस्कृतिक  प्रयास से भारतीय समाज की संरचना ऐसी हुई है कि इसे संभालो तो यह कालजयी बन जाएगीतोड़ो तो रेशारेशा बिखर जाएगी. यह उस बुनी हुई चादर की तरह है कि जिसे फैला दो तो हर को पनाह देगीएक धागा खींच दो तो सारी चादर उखड़ती चली जाएगी. इसलिए बहुसंख्यावाद चाहे जाति के नाम से हो कि धर्म के नाम से कि भाषा के नाम से याकि दूसरे किसी भी नाम सेवह भारतीय समाज को तोड़ेगा,कमजोर करेगा. बहुसंख्यावाद भारत की संकल्पना के मूल पर ही चोट करता है. यह अकारण नहीं था कि गांधी ने ताउम्रबार-बार अपनी जान दे कर भी इन ताकतों का मुकाबला करने की कोशिश की - चाहे वह लंदन के गोलमेज सम्मेलन में हो कि पुणे के यरवदा जेल में कि दिल्ली में कि कोलकाता में कि नोअाखली में कि बिहार में ! अाज की तारीख में भी किसी को देखना हो कि हमें जाना किधर हैहमें पाना क्या हैहमें छोड़ना क्या है अौर हमें करना क्या है तो उसे गांधी का जीवन अौर गांधी की मौत देख लेनी चाहिए . वहां भारतीय समाज की अात्मा बसती है. 

           अत: संविधान की धाराएं हम चाहे जितनी बार बदलेंखतरा नहीं है लेकिन संविधान की अात्मा एक बार भी बदली तो यह देश हमारे हाथ से निकल जाएगा. देश हाथ सेकैसे निकलते हैं यह देखना हो तो पड़ोस में पाकिस्तान को देख लें हम. दूर जाना हो तो सोवियत संघ को देख लेंचेकोस्लावाकियापोलैंडयूगोस्लाविया अादि को देखलें. अौर 1947से पहले का अपना हिंदुस्तान क्यों न देख लें इसलिए हम सब गांठ बांध लें कि गणतंत्र में गण’ पहला तत्व हैतंत्र दोयम है ! अपनी अहर्निश सेवा-साधना से हम गण को जितना मजबूत बना सकेंगेगणतंत्र भी उतना ही मजबूत अौर फलदायीबनेगा. यह गांधी की दिशा है जिसका पालन हमें हर दशा में करना है. ( 03.08.2019)

मन के अांगन में अाजादी के फूल

          मियां गालिब - मिर्जा असादुल्ला खान गालिब - अागरा से जब पहली बार दिल्ली अाए तो 7 साल के थे. 13 साल की उम्र में शादी हो गई अौर तब वे मुकम्मल तौर पर दिल्ली अा बसेअौर फिरअगले 50 सालों तक दिल्ली गालिब की रही कि गालिब दिल्ली केयह गुत्थी हम आज तक सुलझा रहे हैं. इन 50 सालों में दिल्ली में गालिब ने अपना कोई घर नहीं बनायाबस किराये के घरों को हीअाबाद करते रहे. लेकिन ध्यान में रखें हम कि उनके वे सारे-के-सारे घर गली कासिम जान में ही सिमटे हुए थे.  उससे बाहर वे कहीं गये ही नहीं. वह आखिरी घरजहां उन्होंने अंतिम सांस ली थी,  एकमस्जिद के साये में पनाह लेता था. उसे ही लक्ष्य कर गालिब ने लिखा : मस्जिद के जेरे-साये इक घर बना लिया है / इक बंदा-ए-कमीना हमसाये खुदा है !” 

                न हम अौर न हमारा संविधान ही गालिब जात’ है. अगर होते तो हम जरूर कहते : अाजादी के जेरे-साये इक घर बना दिया है / कई बंदा-ए-कमीने इसके साये में पोशीदा हैं ! हमारे अाईन ने ऐसेनिजामों की सोहबत कर ली है कि जो रोज-रोज उसके पर कतर रहे हैं. हमें अासमान भी चाहिएअपनी उड़ान भी चाहिए अौर उसका इनाम-इकराम भी चाहिए लेकिन उड़ने वाला’ कोई नहीं चाहिए- फिरवह चाहे तोता हो कि बाज ! अाजादीस्वतंत्रताखुद-मुख्तारी कह लें हम कि महात्मा गांधी के शब्दों में ‘ स्वराज्य’ कह लेंये सब हमें शब्दों में बहुत प्रिय हैं,मतलब भी जान-समझ लें आप तो हर्ज नहीं हैलेकिन वैसा कुछ करने की आप सोचने लगें तो मुसीबत हो जाती है - हमारी भी अौर आपकी भी ! 

              अाजाद हिंदुस्तान में वह पहली बार ही हुअा था कि संविधान के नाम पर हमारी सारी नागरिक अाजादी हर ली गई थी अौर चंडीगढ़ ही एकांत कारा में बंदी,बीमार-बूढ़े जयप्रकाश सोच रहे थे किउनका गणित गलत कहां हुअा कि वेजो लोकतंत्र का क्षितिज व्यापक करने में जुटे थेअाज उसके ही कबाड़ पर बैठे हैं वे लिखते हैं कि मेरा सारा संसार मेरे सामने छिन्न-भिन्न हुआबिखरा पड़ा है अौरलगता नहीं है कि मैं इसे अपने बचे जीवन-काल में समेट भी पाऊंगातो फिर मेरा गणित गलत कहां बैठा वह क्या था कि जिसका मैंने ध्यान नहीं रखा अौर अाजादी का यह भग्नावशेष लिए अाज मैं बैठाहूं सवाल भी उनका ही था अौर खुद से ही थासो जवाब भी दिया उन्होंने खुद को ही : “ मैं यह भांपने में विफल रहा कि लोकतांत्रिक पद्धति से चुन कर बनी कोई सरकार,यहां श्रीमती इंदिरा गांधी कीलोकतांत्रिक सरकार की बात हैलोकतांत्रिक रास्तों से उठने वाली चुनौती का मुकाबला करने में कहां तक जा सकती है ! वह लोकतंत्र को ही खत्म कर देगीयह मैं अांक नहीं पाया !”  अाजादी के साथ यही परेशानी है. यह असीम है अौर असीमता में ही इसकी ताकत है. लोकतंत्र का हर प्रेमी जयप्रकाश की तरह ही इस असीमता का आराधक होता है. दूसरी तरफ एकसंविधान है जिसके तहत एक सरकार बनती हैचलती है अौर वह चाहती है कि सब उसकी तरह ही चलेंउस जैसा ही करें अौर उसकी ही मानें. फिर उसी लोकतंत्र को वही संविधान,जिससे उसकाअस्तित्व प्रमाणित होता है,जिससे ही उसके सारे अधिकार नि:सृत होते हैंवही संविधान उसे बाधक लगने लगता है,बेड़ियों की  तरह चुभने लगता है. अाजादी अौर एकाधिकार का यह संघर्ष बहुत पुरानाहै. वहां भी है जहां राजा का एकाधिकार ही संविधान हैवहां भी है जहां संविधान सत्ता की मर्जी से कपड़े बदलता है अौर वहां भी यही रस्साकसी मिलती है कि जहां संविधान हैउसकी रक्षा के लिए संसदभी हैन्यायालय भी पहरेदारी में खड़ा हैऐसे नागरिक भी हैं जो अाजादी के पैरोकार हैं. यह सब है तब इतना मतलब समझना मुश्किल क्यों कर है कि अाजादी का मतलब ही है अाजाद होने अौर अाजादरहने की सतत सावधानी ! वह कहावत पुरानी है लेकिन हमेशा सच्ची है कि सतत जागरूकता ही अाजादी की गारंटी है. जागरूकता गईदुर्घटना घटी !                                                     

          इसलिए कोई नई सरकारकोई करिश्माई नेताकोई स्वघोषित उद्धारककोई नया कानूनकोई नई करेंसी कुछ भी नया नहीं कर पाती है. अाप ही बताएं न कि कपड़े बदलने से अादमी कबकहांनया हुअा है?  प्रकृति भीउसके समस्त वन-वृक्ष-पौधे भी जब तक नये उल्लास के नये पल्लव अपने भीतर कहीं गहरे उतर कर पा नहीं लेतेवसंत उतरता ही नहीं है. हम भी अपने भीतर उतरें गहरे कहींअौरखोजें कि क्या है वह सब जो हमें नया सोचनेकरने अौर बनने से रोकता है क्यों बाहरी हर सजावट हमें भीतर से रसहीन अौर हतवीर्य छोड़ जाती है ऐसा क्यों है कि हमारी जनसंख्या बढ़ती जाती है अौरहमारा जन छोटा भी अौर अकेला भी अौर निरुपाय भी होता जाता है अच्छे दिन की चाह क्यों हमें बुरे मंजर की तरफ धकेलती है 
     
              हम यह समझने में क्यों भूल कर रहे हैं कि संसद का चेहरा जैसा होता है उसके द्वारा बनाए कानून भी वैसे ही दिखाई देते हैं यह तो अाईने में प्रतिबिंब देखने जैसा है. फिर गालिब को ही याद करता हूं: लोग बदलते नहीं गालिब / बेनकाब होते हैं !”  इसलिए यह संसद इस कदर बेनकाब हुई जाती है कि तिहरे तलाक की असभ्य व कालवाह्य हो चुकी प्रथा की समाप्ति का कानून बनाती है तो उसके हेतुपर ही शंका उठाई जाती है. ऐसा इसलिए है कि जिनका स्वघोषित एजेंडा ही बहुसंख्यावाद है अौर जो सिर्फ इस बल पर मनमाना करने में जुटे हैं कि उनके पास गिनने के लिए संसद में सर बहुत हैं,अौरकहा ही गया है कि “ जम्हूरियत वह तर्ज-ए-हुकूमत है कि जिसमें / बंदों को गिनते हैंतोला नहीं करते !” तो सवाल बना ही रहता है कि आपकी मंशा पर शक न करने की वजह क्या है जीने के लिए जैसेसांस की जरूरत होती है वैसे ही लोकतंत्र के जिंदा रहने के लिए विश्वास की जरूरत होती है. शासक दल में उसका भयंकर अभाव है. इसलिए गृहमंत्री जब संसद में खड़े हो कर डपटती अावाज अौर तोहमतलगाती भाषा में कहते हैं कि वे कानून का दुरुपयोग नहीं करेंगे तो  तक्षण उसे अस्वीकार करने की अावाज गोवा से भी अाती हैमणिपुर से भीकर्नाटक से भी अौर उत्तरप्रदेश से भी ! आप वह करने कीकोशिश कर रहे हैं जिसे करने की पात्रता आपने कमाई ही नहीं है.  

           अभी-अभी हमारी संसद में राष्ट्रवाद अौर अातंकवाद के नाम पर वह कानून पारित हुअा है जो अाजादी अौर संविधान दोनों को घायल कर गया है. वह अाजादी की संकल्पना पर ही कुठाराघात करताहै. यह कानून राष्ट्र को राज्य के हाथ का खिलौना बनाना चाहता है. इस कानून से सरकार ने अपने हाथ में यह अधिकार ले लिया है कि नागरिकता का भी फैसला वही करेगीनागरिक का भीराष्ट्रीय सुरक्षाका भी फैसला वही करेगी अौर वही यह भी तय करेगी कि क्या राष्ट्रहित में है अौर क्या नहीं अौर कौन राष्ट्रभक्त है अौर कौन नहीं ! हमारे लोकतंत्र ने बड़ी मशक्कत के बाद सरकारसत्ता अौर नौकरशाही सेसवाल पूछने अौर जानकारी हासिल करने का जो अधिकार हासिल किया था वह सूचना का अधिकार भी क्षत-विक्षत सत्ता की कुर्सियों के नीचे दबा पड़ा है. कोई पूछे कि हमारी संसद अौर हमारे लोकतंत्रके साथ ऐसा करने की आपकी हैसियत क्या हैतो जवाब इतना ही होगा न कि संसद में हमारे पास ३०० से अधिक सर हैं जो भीड़ की तरह चीखते हैं अौर चाभी वाले खिलौने की तरह मुंडी हिलाते हैं !!

              ऐसा पहले की संसदों में भी होता रहा है तभी तो महात्मा गांधी ने संसद को वेश्याजैसा कठोर नाम दिया था ! लेकिन पहले की संसद अौर आजकी संसद में एक फर्क था.  हमारी संसदमें हमेशा हीऐसे लोग होते थे कि जो स्वतंत्रता की लड़ाई के सिपाही थे. वह पीढ़ी गई तो वैसी एक जमात आ खड़ी हुई जिसके लोग नागरिक स्वतंत्रता  व मानवीय गरिमा को सरकार-दल-सत्ता से ऊपर रख पाते थे. वेसंसद में भी थे अौर संसद पर अंकुश भी रखते थे. अौर फिर था संसद के बाहर एक समाज था - मुखरजीवंत अौर पहरेदार ! संसद अौर समाज के बीच रिश्ता ही ऐसा है - दोनों एक-दूसरे के प्रतिबिंब हैं. मराहुअा समाज जीवंत संसद का निर्माण नहीं कर सकता हैअौर मरी हुईअसामाजिक अपराधियों से बनी हुई संसद समाज को अालोड़ित नहीं कर सकती है. संसद दिशा खो दे अौर समाज दम तोड़ दे तोअाजादी के लिए पांव टिकाने की जगह कहां बचती है ?

              अाजादी के बाद ही किसी ने पूछा था गांधी से :  अब तो अाजादी भी मिल गई अौर अपनी सरकार भी बन गई ! अब अापकी कल्पना का समाज बनाने की लड़ाई का हथियार क्या होगा तपाक सेकहा था गांधी ने : मैं अब अागे की लड़ाई जनमत के हथियार से लडूंगा ! गांधी मानते थे कि लोकतंत्र में जनमत हथियार बनाया जा सकता हैपार्टियों ने माना कि जनमत हथियाया जा सकता हैखरीदाअौर बेंचा जा सकता है.  तो मैदान में वे खिलाड़ी उतारे गये जो लोकतंत्र का तंत्र’ तो बखूबी साध सकते थे लेकिन लोक’ उनके लिए अनपढ़गंवार बोझ भर था. शुरू में थोड़ा मात्रा-भेद रहा लेकिन जल्दीही सबने यह अासान रास्ता अपना लिया - लोकविहीन लोकतंत्र !  कहां गांधी के अनुसार हमें जनमत को हथियार बनाना था अौर कहां  हमने जनमत में से जन’ को बाहर कर दिया अौर मत गिनने कीतमाम मशीनें ले कर बैठ गये. सत्ता की होड़ में पड़े सबने यह पाप किया अौर अाज हम एवीएम की मशीनें लिए अपने-अपने लोकतंत्र की कब्र पर फातिहा पढ़ रहे हैं.

              कई लोग - जानकारविशेषज्ञइतिहासकारविद्वान कहते मिलेंगे कि ऐसा नहीं है कि देश ने विकास नहीं किया है ! जहां सिलाई की सूई नहीं बनती थीवहां विमान बन रहे हैं ! हांवे ठीक कह रहेहैं. सच विमान बन रहे हैंउड़ रहे हैं अौरअौर तो अौर लड़कियां उसे उड़ा रही हैं ! अाजादी के बाद से आज तक को करीब से देखिए तो दीखता है न कि नया करने की कोशिशें कम नहीं हुई हैं. सरकारों नेकागजों पर कितनी ही बड़ी अौर कल्याणकारी योजनाएं लिखीं,बनाई अौर सफल भी कर ली हैं लेकिन धरती पर कोई रंग पकड़ता नहीं है या बदरंग रह जाता है.  हमने भी काफी जद्दोजहद की है कि हमारेअौर हमारों के हालात बदलें अौर शुभमंगल हो. लेकिन जैसे होते-होते बात बिगड़ जाती हैचढ़ते-चढ़ते पांव फिसल जाते हैंपकड़ते-पकड़ते हाथ छूट जाता है. यह जाता हुअा साल भी तो अभी-अभीकुछमाह पहले ही नया-नया अाया था न ! इतनी जल्दी पुराना कैसे हो गया ?जवाब में लिखा है किसी ने : “ पूत के पांव / पालने में मत देखो / वह अपने पिता के / फटे जूते पहनने अाया है ! तो पिता के जूतेफटे ही क्यों होते हैं अौर क्यों ऐसा सिलसिला बना है कि हर पिता अपने बच्चे को अौर वह बच्चा अपने बच्चे को अौर वह अपने बच्चे को फटा जूता देने ही अाता है ? … ऐसा लंबा सिलसिला फटे जूतोंका क्यों है ! नहींजूते नहींहमारे मन फटे हैं ! हम जूतों की सिलाई करने में बेतरह जुटे हैं जबकि फटे तो मन हैं,संकल्प हैं अौर एकात्मता है ! यह फांट गहरी होती जा रही है. इसलिए संसद में प्रधानमंत्रीशब्दों की बड़ी बेजान कढ़ाई कर मॉब लिंचिंग से असहमति व्यक्त करते हैं लेकिन मॉब के बीच आ कर मौन साध लेते हैं. यह सत्ता की चालाकी हैअाजादी का संकल्प नहीं ! 

 सवाल उठाया जाता है कि क्या फलां-फलां अौर फलां ने भी ऐसा ही नहीं किया है आप हमारे बारे में ही क्यों बोलते हैं इसका जवाब इतना ही है अौर यह काफी है कि फलां-फलां अौर फलां नेभी ऐसा ही नहीं किया होता तो अाप जनाब को यहां तक पहुंचने का मौका ही कैसे मिलता उनकी अयोग्यता अौर बेईमानी के रंज में ही तो हमने आपको मौका दिया न ! अाप भी वैसे ही निकले अौरफिर यह कैसे भूल गये आप कि जब वे सत्ता में थे तो हम भी अौर आप भी सारे सवाल उनसे ही पूछते थे न सत्ता में जो बैठा है उसकी जवाबदेही हमेशा ही सबसे अधिक होती है. न होती तो हमने इंदिरागांधी को क्यों हटाया होता अटलबिहारी वाजपेयी की पतंग क्यों काट दी होती राजीव गांधी की लुटिया क्यों डुबोई होती मनमोहन सिंह क्यों इस कदर बेरौनक हो कर जाते सत्ता है तो जवाबदेही हैअौर जवाबदेही है तो हर छोटे-बड़े सवाल का जवाब देने की जिम्मेवारी लेनी ही पड़ेगी. प्रधानमंत्री को यह अाजादी नहीं है कि वह जब चाहे तब बोलेजब चाहे तो मौन रह जाएअौर उसके मौन को सराहनेवाले चाटुकार शोर मचाने लगें !   

               अाप देखेंगे तो समझेंगे कि चादर हो कि मन कि समाजसभी अनगिनत धागों से मिल कर बने हैं. बड़ी जटिल बुनावट है - दीखती नहीं है लेकिन बांधे रखती है. लेकिन चादर हो कि मन कि समाजबस एक धागा खींचो तो सारा बिखर जाता है. रेशा-रेशा हवा में उड़ जाता है. लगता है कि अभी-अभी जो साकार थामजबूत था अौर बड़ी मोहकता से चलता चला जाता था वह नकली थाकमजोर थाअौर दिखावटी था. नहींसवाल उसके नकली होनेकमजोर होने या दिखावटी होने का नहीं हैसवाल है आपकी साज-संभाल का ! जो बिखर सकता हैटूट सकता हैउसे संभालने की विशेष जुगत करनीपड़ती है न ! घरों में भी टूटने वाली क्रॉकरी अालमारी के सबसे ऊपर वाले खाने मेंबच्चों अौर काम करने वाली बाइयों की पहुंच से ऊपर रखते हैं न ! ऐसा ही हमें मन के साथ भी अौर समाज के साथ भीकरना चाहिए. जहां चोट लगने की गुंजाइश हो वहां से इन दोनों को बचाते हैं. फिर गालिब से सुनें कि वे क्या कहते हैं :  दिल ही तो है नहीं संगो-खिश्त/ गम से न भर अाए क्यूं / रोएंगे हम हजार बार /  कोईहमें रुलाए क्यों. यही खेल समझना है हमें कि इंसानी दिल इतना नाजुक अौर मनमौजी है कि कहीं भीकिसी से भी चोट खा जाता हैतो उसे चोट पहुंचाने का कोई अायोजन होना नहीं चाहिएअौर ऐसाकोई कुफ्र हो ही गया हो तो हजारो-हजार लोगलाखों-लाख हाथ-पांव ले कर उसकी मरम्मत में लग जाएं. यह जरूरी ही नहीं है,यही एकमात्र मानवीय कर्तव्य हैराष्ट्रीय भावना की पहचान हैहमारे मनुष्यहोने की निशानी है. न कोई जातिन कोई धर्मन कोई भाषान कोई प्रांतन कोई देशन कोई विदेशन कोई कालान कोई गोरान कोई अमीरन कोई गरीबबस इंसान !! यह नया है. यह नया मनहै. हमारे मन में उमगी यह नई कोंपल है. विनोबा कहते थे कि अब हम इतने बड़े हो गये हैं अौर इतने करीब अा गये हैं कि कामना भी करेंगे तो जय जगत की करेंगे ! जगत की जय नहीं होगी तो अकेलेहिंदुस्तान की जय संभव भी नहीं अौर काम्य भी नहींअौर जगत की जय होती है तो हिंदुस्तान की जय तो उसी में समाई हुई है ही. इसलिए हिंदुस्तानी से छोटी किसी पहचान से जुड़ना नहींइंसान से दूर लेजाने वाले किसी कश्ती की सवारी करना नहीं. 

            इसलिए संवाद ! हम सब एक-दूसरे से संवाद करने का संकल्प करें. अापसी संवाद लोकतंत्र की अाधारभूत शर्त है. संवाद करो अौर विश्वास करो : यह अाजाद मन का हमारा नया नारा होना चाहिए. हमारे देश जैसी विभिन्नता वाले समाज में तो संवाद अौर विश्वास प्राणवायु हैं. जितना विश्वास करेंगे उतना नजदीक अाएंगेजितनी बातचीत करेंगे उतनी शंकाएं कटेंगी. शक वह जहरीला सांप है जिसकेकाटे का कोई इलाज नहीं. यह सांप अ-संवाद की बांबी में रहता है अौर अविश्वास की खुराक पर पलता है.  इसलिए हम जिनसे सहमत नहीं हैं उन तक विश्वास के पुल से पहुंचेंगे अौर वहां संवाद की छोटी-बड़ी गलियां बनाएंगे. इसलिए सरकार कश्मीर में वार्ता करे कि न करेकश्मीर से हमारी वार्ता बंद नहीं होनी चाहिएकश्मीरियों से हमारा संवाद खत्म नहीं होना चाहिएकश्मीरियों पर हमारा विश्वास टूटना नहीं चाहिए. 

               हर पुल बड़ी मेहनत से बनता है अौर हर पुल के जन्म के साथ ही उसके टूटने-दरकने की संभावना भी जन्म लेती है. लेकिन हम पुल बनाना बंद तो नहीं करते हैं न ! हांमरम्मत की तैयारी रखते हैं. फिरइंसानों के बीच पुल बनाने में हिचक कैसी टूटेगा तो मरम्मत करेंगे ! हमें छत्तीसगढ़ के माअोवादियों के बीचपूर्वांचल के अलगाववादियों के बीचराम मंदिर को गदा की भांति भांजने वालों के बीचअोवैशियों की कर्कश चीख के बीचहाशिमपुरा-बुलंदशहर के अांसुअों के बीचकश्मीर की पत्थरबाजी के बीच लगातार-लगातार जाना है क्योंकि इसके बिना हम कितना भी कर लेंअाजादी न पासकेंगेन बचा सकेंगे. अाजादी की कीमत ही सतत संवाद है. 

                १९३२ का नया साल जब अाया था तब गांधीजी ने किसी को लिखा था : देखता हूं कि तुम नये साल में क्या निश्चय करते हो ! जिससे न बोले होउससे बोलोजिससे न मिले हो उससे मिलोजिसके घर न गये हो उसके घर जाअोअौर यह सब इसलिए करो कि दुनिया लेनदार है अौर हम देनदार हैं. १९३२ का यह निर्देश २०१९ में भी हमारी राह देख रहा है क्योंकि इतने वर्ष निकल गयेअाजादी तोहाथ अाई नहीं !  मन के अांगन में अाजादी के फूल खिलते हैं तो देश में गमकते हैं. 

             सूरज-सी इस चीज को हम सब देख चुके / सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह ! ( 02.08.2019)  

Sunday 4 August 2019

कायरों की बहादुरी

  सारे देश को सुरक्षित व बहादुर बनाने में केंद्र सरकार जुटी हुई है. लोकसभा में नये गृहमंत्री की चीख-चीख कर गरजती अावाज देश को धमकाती है कि वह बहादुर बने अौर उनके पीछे चले ! लेकिन न देश बहादुर बनता है, न इनके पीछे चलता है. पहले भी ऐसा ही था कि येनकेनप्रकारेण चुनाव जीत गये लोग खुद को देश मान बैठते थे अौर अपनी आवाज को देश की आवाज मान कर चीखते-चिल्लाते थे. आज भी ऐसा ही हो रहा है. 
        नये गृहमंत्री ने पुराने प्रधानमंत्री के मुहावरों को अमली जामा पहनाने की शुरुअात कर दी है. प्रधानमंत्री ने मुहावरा गढ़ा था : घर में घुस कर मारेंगे; नये गृहमंत्री ने नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी ( राष्ट्रीय जांच एजेंसी) विधेयक को पारित कराते हुए कहा कि वे कमरों में घुस कर, चुन-चुन कर, एक-एक अवैध घुसपैठियों को देश से बाहर करेंगे. उन्होंने हैदराबाद के सांसद अोवैसी को धमकाते हुए कहा कि अाज तक जो लोग हमारी सुनते नहीं थे, उन्हें अब सुनना ही पड़ेगा. क्यों सुनना पड़ेगा ? क्योंकि सत्ता अब अापके पास है ? क्योंकि अब अाप उस कुर्सी पर बैठे हैं कि जिस पर बैठने का अापका अधिकार कभी संशय के घेरे में था ? वैसी तीखी जबान अौर जहरीले तेवर में बातें करते गृहमंत्री को सुनना एक नया ही अनुभव था.

 अब देश का प्रधानमंत्री एक ऐसा अादमी है कि जो पाकिस्तान के होश ठिकाने लगा रहा है; गृहमंत्री एक ऐसा अादमी है जो बांग्लादेश के घुसपैठियों के अक्ल ठिकाने ला रहा है. अब अाप यह मत पूछ बैठिएगा कि सीमा पर हमें ललकारता शत्रु पाकिस्तान है कितना बड़ा ? पूरा पाकिस्तान हमारे उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान जैसे दो-चार प्रांतों को मिला दें तो उसमें ही समा जाएगा ! यह वही पाकिस्तान है कि जिसे हमने दो-दो बार युद्ध में धूल चटाई है; अौर यही पाकिस्तान है कि जिसके अाका बने फौजी हुक्मरान देखते रह गये थे अौर पाकिस्तान के टुकड़े हो गये. मुल्क टूटा भी, बिखरा भी. सत्ता के क्रिकेट मैच में अचानक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बन गये क्रिकेटर इमरान खान को जब कभी अपनी तूफानी बोलिंग का कीड़ा काटता है तो वे सच बोल जाते हैं. उन्होंने कई दफा अपनी तरह से कहा है कि पाकिस्तान राजनीतिक रूप से बिखराव की कगार पर खड़ा अौर अार्थिक रूप से दिवालिया होता जा रहा है. ऐसा पाकिस्तान हमारे लिए क्या सच में ऐसा खतरा बन गया है कि जिससे हम डरे रहें अौर जिसे दिखा-दिखा कर हम दूसरों को डराते रहें ? लेकिन देश का मन ऐसा बनाया जा रहा है कि सवाल मत पूछो, प्रधानमंत्री व गृहमंत्री को सुनो ! कायरों के देश में अब यही दो बहादुर बचे हैं जो देश को बहादुर अौर अभेद्य बना कर ही छोड़ेंगे ! इसलिए यह भी कोई क्यों पूछे कि बांग्लादेश से चोरी-छिपे अाने वाले लुटे-पिटे, दरिद्रता की चक्की में बारीक पिसे शरणार्थी देश के भीतर घुस कैसे आते हैं ? क्या सीमा पर हमारे सैनिक नहीं हैं; कि देश अौर असम दोनों में ही भारतीय जनता पार्टी के नरेद्र मोदी की सरकार नहीं है ? प्रधानमंत्री मोदी के होते हुए क्या बांग्लादेशी इतना बड़ा खतरा बन गए हैं कि जिनसे निबटने के लिए हमें अपने देश का कानून बदल पड़ रहा है ? क्या सच में इतना कमजोर है यह देश कि इसे कानूनी तिकड़म का सहारा ले कर बांग्लादेश का मुकाबला करना पड़ रहा है ? बांग्लादेश में तो प्रधानमंत्री मोदी की मित्र-सरकार है न ? यह भी मत पूछिए कि आखिर ऐसा क्यों है कि पाकिस्तान हो कि बांग्लादेश कि श्रीलंका कि बर्मा कि नेपाल - हमारे  एकदम निकट के सभी पड़ोसी हमारी तरफ नहीं बल्कि कहीं अौर देखते हैं ? अौर वे जहां देख रहे हैं वहां से हमें अच्छी नजर से नहीं देखा जाता है, यह हम भी जानते हैं अौर वे भी. अौर हम सब जानते हैं कि पिछले पांच से अधिक सालों से देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू नहीं, नरेंद्र मोदी हैं !  

डर किसका है- सीमा पार की ताकतों का या सीमा के भीतर की विकराल समस्याअों का जिनका कोई हल सरकार को सूझ नहीं रहा है ? बाहरी डर दिखा कर, अांतरिक डर से शुतुरमुर्ग की तरह बचने की कोशिश न कभी कामयाब हुई है, न हो रही है. चुनाव जीतने से समस्याएं नहीं जीती जाती हैं, कानून बनाने से देश नहीं बनता है अौर मन की बात से देश का मान नहीं जुड़ता है, यह सच्चाई आप कबूल करें कि न करें, सच्चाई बदलती नहीं है. इसलिए बहादुरी का अाज का आलम किसी कायर का दंभ बन जाता है. हम जानते हैं कि संसद में बहुमत का बहादुरी से, लोक-स्वीकृति से अौर देशहित से कोई नाता नहीं होता है. हमने इससे कहीं बड़ी बहुमत की सरकारों की मिट्टी पलीद होते देखा है. यह खोखले शब्दों की सरकार है अौर शब्दों की मार अचूक होती है. लेकिन हम यह न भूलें कि शब्द खोखले भी होते हैं. शब्दों में शक्ति ईमानदारी से अौर मजबूत कामों से अाती है. अातंकवाद को, अवैध घुसपैठ को रोकने के लिए पारित कानूनों के पीछे ईमानदारी नहीं है. ७० से अधिक साल पुराने हमारे लोकतंत्र का अनुभव बताता है कि   हर सरकार, नागरिक अधिकारों को निरस्त करने का अतिरिक्त अधिकार पाते ही, उसका बेजा इस्तेमाल करती है. जयप्रकाश नारायण से ले कर हम सब दलविहीन लोग अौर अटल-आडवाणी-मोरारजी-चंद्रशेखर-मधुलिमये जैसे राजनीतिक दलों के सितारे व कार्यकर्ता ऐसे ही गैर-वाजिब अधिकार के डंडे से पीट कर, १९७५-१९७७ तक जेलों में रखे गये थे. संविधान तब भी उनके साथ था लेकिन जनता नहीं थी, अौर जब जनता साथ नहीं होती है तब सत्ता का अहंकार भी १९७७ होने से रोक नहीं पाता है.

हमारा संविधान इतना परिपूर्ण अौर समयसिद्ध है कि लोकतांत्रिक मानस की कोई भी सरकार उसमें ही वे सारे अधिकार व उपाय ढूंढ अौर पा सकती है जिससे परिस्थिित पर काबू पाया जा सके. जब भी कोई सरकार सामान्य लोकतांत्रिक परिचालन के लिए संवैधानिक व्यवस्था से बाहर जा कर, अपने लिए नया संवैधानिक अधिकार हथियाने की कोशिश करती है वह एक डरी हुई व निरुपाय सरकार बन जाती है. इसे ही कायरों की बहादुरी कहते हैं. यह सरकार, देश व लोकतंत्र के लिए अशुभ है. ( 28.07.2019)