Tuesday 26 September 2017

नहीं, मुझे गांधी नहीं चाहिए ! 

कॉलेज के उस हॉल में सौ के करीब युवा होंगे - हमारे देश की नई पीढ़ी के नुमाइंदे ! सभी कॉलेज वाले थे जिन्हें मैं इस देश के युवाअों का सबसे अधिक सुविधा व अवसर प्राप्त वर्ग मानता हूं. सभी गांधी को न मानने व न चाहने वाले थे. मैंने पूछा : अाप सब एक-एक कारण बताएं कि अापको महात्मा गांधी से क्या परेशानी है ? 

अभी तक का नकारात्मक माहौल अचानक चुप हो गया ! अापस में खुसफुस चल रही है, यह तो मैं देख रहा था लेकिन कोई जवाब बन रहा हो, यह नहीं देख रहा था. कुछ थे कि जिन्होंने बड़ी हिम्मत जुटा कर अाधे-अधूरे वाक्यों में अपनी बात कही जिसका बहुत सीधा संबंध गांधी से नहीं था. मसलन यह कि गांधीजी ने अहिंसा की बात की जबकि हमें तो सारे भ्रष्टाचारियों को गोली मार देनी चाहिए. 

मैंने पूछा : तुम गांधी की बात मानते हो क्या ? 

वह तुनक कर बोला : हर्गिज नहीं! 

“तो फिर रोका किसने ? गोली मार दो न !!”

वह हैरानी से मेरी तरफ देखने लगा ! लगा, जैसे ऐसा जवाब या किसी को मार देने के बारे में ऐसी सलाह उसे कभी मिली नहीं हो; या फिर उसने कभी सोचा ही न हो कि मार डालने की जो बात वह हर सांस में बोलता है, उसे करने के बारे में वह एकदम कोरा है ! 

मैंने थोड़ा अौर इंतजार किया कि कोई मजबूत जवाब अाए लेकिन सब उलझे हुए ही दीखे ! फिर मैंने ही कहा : नहीं भाई, मुझे गांधी की बिल्कुल ही जरूरत नहीं है ! मुझे तो नहीं चाहिए यह गांधी, क्योंकि मुझे पिछड़ापन नहीं चािहए ! गरीबी अौर अशिक्षा को मैं तुरंत दूर करना चाहता हूं जबकि गांधी उसी का गुणगान करते हैं. मुझे ऐसा समाज चाहिए कि जो तेजी से विकास करता हो. इसलिए मैं क्यों देखूं कि दूसरे का क्या हो रहा है, मुझे तो अपना देखना है ! मैं ऐसा समाज चाहता हूं जिसमें सबके पास अफरात हो, किसी चीज की कभी कमी न रहे, इसलिए मुझे यह देखना नहीं है कि पर्यावरण का क्या हो रहा है; कि नदियों का क्या हाल है; कि हमारे पास जो अफरात है ऐसा दीखता है, वह कहां से अाता है. मुझे मेरी जरूरत का िमल जाए मांगने से, चुराने से याकि छीनने से तो मेरे लिए बस है. मैं दूसरे का कुछ भी छीनना नहीं चाहता हूं तब तक, जब तक मेरी जरूरतें पूरी हो रही हैं. लेकिन मुझे दिक्कत होगी, तो मैं दूसरों को भी चैन से जीने नहीं दूंगा. गरीबों से मेरी भी हमदर्दी है लेकिन हमदर्दी से पेट तो भरता नहीं है. इसलिए मैं जब इतना कमा लूंगा कि मेरी सारी जरूरतें पूरी हो जाएं, तो फिर दूसरों की सोचूंगा. 

मैं ऐसा भारत चाहता हूं िक जिसमें भ्रष्टाचार न हो, मिलावट न हो, गंदगी न हो अौर सभी एक-दूसरे की मदद करते हों लेकिन ऐसा भारत बनाने का काम करने का अभी मेरे पास समय नहीं है. अभी तो यह काम दूसरे करें, जब मेरे पास समय होगा तो मैं भी जरूर इस काम में सबके साथ काम करूंगा. मेरा किसी धर्म से कोई झगड़ा नहीं है लेकिन मेरा अपना धर्म भी तो है जिसकी रक्षा करना मेरा धर्म है ! इसलिए मैं जान लगा कर अपने धर्म की रक्षा करूंगा अौर इस रास्ते में जो अाएगा, उसकी जान का भगवान मािलक ! ….

मैं अौर भी बहुत कुछ कहना चाह रहा था ताकि गांधीजी की अब हमें कोई जरूरत नहीं है, यह बात पुख्ता प्रमाणित हो कर इन युवाअों के मन में बैठ जाए. लेकिन मेरी हर बात के साथ सामने बैठे युवाअों के चेहरों पर जो उमड़ रहा था वह था गहरे असमंजस का भाव ! यह भाव इतना गहरा व साफ-साफ दिख रहा था कि मुझे रुकना पड़ा ! मैंने बात बंद कर दी. अब दोनों तरफ से प्रश्नाकुल नजरें थीं. कौन बोले, ऐसा भाव था. फिर मैंने ही चुप्पी तोड़ी : 

“ क्या हुअा ? … तुम सब मेरी तरफ ऐसी नजरों से क्यों देख रहे हो ?”

चुप्पी थोड़ी लंबी खिंची. फिर एक लड़की झिझकते-झिझकते बोली : “ सर, अाप यहां गांधीजी के बारे में बोलने अाए थे न !”  

“ हां !”, मैंने जल्दी से अपनी सहमति दे दी. 

“ तो अाप तो गांधीजी के खिलाफ ही बोल रहे हो !” 

“ तो तुम लोगों ने भी तो मुझको पहले ही बता दिया था न कि तुम सब न गांधी को मानते हो, न चाहते हो !” 

वह फिर बोली : “ लेकिन इसका मतलब ऐसा थोड़े ही न हुआ कि हम गांधीजी के बारे में बुरी बात करें !” 

“ लेकिन मैंने गांधीजी के बारे में कोई बुरी बात कही ही कहां ! … मैं तो इतना ही कह रहा था न कि मैं अपनी जिंदगी कैसे जीना चाहता हूं अौर मैं अपना देश कैसा बनाना चाहता हूं !”

“ लेकिन सर,” इस बार वह पहला अहिंसा न चाहने वाला युवक बोला : “ हम वैसा समाज तो नहीं चाहते हैं जैसा अाप बता रहे थे !” 

“ तो जैसा समाज चाहते हो, वैसा बनाअो तो !… बनाने लगोगे तो गांधी तुम्हारे साथ अा जाएंगे; अागे चलोगे तो तुम गांधी के साथ अा जाअोगे !… गांधी दूसरा कुछ नहीं है मित्रो, अपनी पसंद का समाज बनाने का नाम है ! … हमें गांधी इसलिए पसंद नहीं अाते हैं कि हम चाहते हैं कि समाज बनाने का काम दूसरे करें, हम उनके बनाए समाज में अाराम से रहें ! … गांधी को यह पसंद नहीं है. वे कहते हैं कि हर किसी को अपने रहने का समाज खुद ही बनाना चाहिए, अौर जब तुमको बनाने की अाजादी मिलेगी तो तुम वही बनाअोगे जो तुम्हें पसंद है; अौर तब तुम देखोगे कि तुम्हारी पसंद अौर गांधी की पसंद में ज्यादा कोई फर्क है नहीं !” 

ऐसा हाल युवाअों का ही नहीं, हम सबका है. हम मानते हैं कि गांधी हमें पसंद नहीं हैं क्योंकि हम जानते ही नहीं है कि हम गांधी को जानते नहीं हैं ! यह गांधी की भी अौर हमारी भी कमनसीबी है. ( 27.09.2017) 

Monday 18 September 2017

राहुल उवाच्

राहुल मौनी बाबा नहीं हैं ! खूब बोलते हैं. उनकी दिक्कत दो स्तरों पर है - वे अपना कुछ नहीं बोलते, दूसरों के कहे पर प्रतिक्रिया करते हैं. जब अाप प्रतिक्रिया में बोलते हैं तो हमेशा एजेंडा दूसरे का तय किया होता है. ऐसे में जरूरत होती है तुर्की-ब-तुर्की बोलने की, नहले पर दहला मारने की. राहुल को यह कला अाती ही नहीं है. नरेंद्र मोदी को अाज की राजनीति को सबसे बड़ी देन अगर कुछ है तो जीभ चलाने की. वे उन लोगों में हैं जो मानते हैं कि गाल के अागे दीवाल नहीं टिकती है. तो कांग्रेस अौर भाजपा का मुकाबला हो नहीं पाता है. राहुल के बोलने की विशेषता यह है कि वे ईमानदारी से बोलते हैं, अौर उतना ही बोलते हैं जितने की जरूरत होती है. अौर यह भी सच है कि अापके पास जब अपना कमायाबहुत कुछ हो नहीं तो बोल कर भी अाप कितना बोलेंगे !

लेकिन राहुल बोले - अपनी धरती पर नहीं तो अमरीका की दिव्य धरती पर बोले ! उस मिट्टी की सिफत ही यह है कि वहां जो जाता है सर्वज्ञानी होने का भ्रम पाल बैठता है. अमरीका के बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के एक अायोजन में,अायोजकों ने जिसका नाम रखा था ‘ 70 की उम्र का भारत : अागे का रास्तारखा था, राहुल गांधी खुल कर बोले. अाज देश की राजनीति जहां पहुंच कर ठिठक गई है अौर जहां से अागे का रास्ता ऊपर या नीचे वाले खुदाको ही मालूम है, यह बड़ा मौका था कि राहुल खुद का रास्ता साफ करते. मौका भी था अौर दस्तूर भी; राहुल ने दोनों गंवा दिया. राहुल ऐसा कुछ भी नहीं कह सके कि जिससे देश का मतदाता यह सोचे कि चलो, इस बार इसे मौका देते हैं ! मोदी को भी ऐसे ही मौकों पर सुनते-सुनते लोगों ने मौका देने का मन बनाया था. 

राहुल ने अपने देश में परिवारवाद के चलन को स्वीकार कर, अपने संदर्भ में उसे मान लेने की वकालत की. वे यह नहीं कह सके कि यह चलन गलत है, सामंतवाद/राजाशाही का अवशेष है अौर यह भारत में ही नहीं, सारी दुनिया में प्रचलित है. जिस अमरीका में वे बोल रहे थे उस अमरीका में ही बुश-परिवार, केनेडी-परिवार तथा कई दूसरे उदाहरण मिलते हैं. श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान में भी इस परिवारवाद का बोलबाला है. इंग्लैँड, जापान समेत एशिया, यूरोप के कितने ही देश अाज भी अपने राजपरिवारों को ढोते हैं. कहना तो राहुल को यह था कि यह सब खत्म हो, यह मैं चाहता हूं अौर इसलिए ही मैंने अब तक अपनी पार्टी की पैदल सेना की तरह काम किया है अौर विरासत के रूप में मिल रही गद्दी को इंकार करता रहा हूं. अब देश-समाज अौर अपनी पार्टी के मंच से पर्याप्त काम करने के बाद मैं तैयार हूं कि जिस भी तरह की जिम्मेदारी मुझे दी जाएगी, मैं उसे निभाऊंगा. उनके जवाब में न तो ऐसी सफाई थी, न अात्मविश्वास था अौर न देश को भरोसा दे सकने लायक गहराई थी. 

राहुल ने जो कुछ वहां अमरीका में कहा वह दूसरे के सामने रोना रोने जैसा भाव देता है जबकि उन्होंने ऐसा ही सब यहां कहा होता, अपनी पार्टी के मंचों से ऐसे सवाल खड़े किए होते तो वह देश से अौर पार्टी से बात करने जैसा बन सकता था अौर उनकी अपनी छवि गढ़ सकता था. उन्होंने कभी यहां तो देश से या पार्टी से नहीं कहा कि 2004 में बनाया गया कांग्रेस का विजन डाक्यूमेंट’ 10 साल की एक्सपायरी के साथ बना था अौर उसने 2010-11में ही दम तोड़ दिया था अौर उस मुर्दा दस्तावेज को अब तक ढोकर हम देश व पार्टी की कुसेवा कर रहे हैं ?  2010-11 से अब तक के तमाम चुनावी युद्धों की कमान राहुल के पास ही रही है. सरकार व कांग्रेस पार्टी पर उनके परिवार का जैसा दबदबा था अौर है, उसके बाद उस मुर्दा दस्तावेज को ले कर बार-बार मतदाता के पास जाने के अपराधी अाप नहीं, दूसरे कैसे हो सकते हैं ? नया नजरिया बनाना अौर उसे दस्तावेज की शक्ल दे कर पार्टी से पारित करवाना व देश के सामने पेश करना, क्या यही काम उनका नहीं था ? वे कह रहे थे कि 2012 में कभी ऐसा हुअा कि एक किस्म की अहमन्यता या घमंड कांग्रेस पर हावी हो गया; वे वहां अमरीका में कह रहे थे अौर मैं यहां हिंदुस्तान में देख रहा था कि थोड़ा अागे-पीछे यही दौर था कि जब राहुल अपनी विरासत संभालने की गंभीर तैयारी में लगे थे अौर उनके सारे नौसिखुअा सिपहसालार तालियां बजा कर उनकी अपरिपक्वता को अासमान पर पहुंचा रहे थे. अपनी ही सरकार के खिलाफ उनके बचकाना तेवरों का यह दौर था, इसी दौर में वे सार्वजनिक जगहों पर अपनी सरकार द्वारा पारित बिल की चिंदियां उड़ा रहे थे. यही दौर था जब प्रियंकापति वाड्रा दोनों हाथों जमीन समेट रहे थे अौर कांग्रेस की राज्य सरकारें उसमें उनकी बेकायदा अौर अनैतिक मदद कर रही थीं. बेकायदा अौर अनैतिक - इन दोनों शब्दों को इस कदर तोड़-मरोड़ दिया गया है कि अब इनका कोई संदर्भ ही नहीं रह गया है. फिर भी ये शब्द जीवित हैं अौर इनसे जुड़ी विभावनाएं बड़े-बड़े शूरमाअों को धूल चटा चुकी हैं. राहुल ने यह नहीं कहा कि जिस दौर में वह घमंड पैदा हुअा, उस दौर में मैं ही निर्णायक था अौर इसलिए उस चूक की जिम्मेवारी मेरी है. 

राहुल ने नरेंद्र मोदी के बारे में कहा कि वे बहुत माहिर वक्ता हैं, संवाद साधने की उनकी कला खूब है अौर यह भी कि वे एक ही सभा के, एक ही भाषण में कई सामाजिक जमावड़ों को अलग-अलग संदेश दे लेते हैं. अच्छा है कि राहुल अपने प्रतिपक्षी के गुण भी देख लेते हैं लेकिन यह दायित्व भी उनका ही है कि कांग्रेस के सबसे बड़े नेता के नाते वे इसकी काट भी खोजें. यह संभव नहीं है कि राहुल मोदी की तरह बोलें; जरूरी भी नहीं है लेकिन यह संभव भी है अौर जरूरी भी कांग्रेस में अलग-अलग प्रतिभाअों को अागे अाने का माहौल मिले अौर वे अपनी तरह से देश से बातें करें. यह काम न तो राहुल खुद कर पाते हैं अौर न पार्टी किसी दूसरे को यह करने देती है. प्रतिभाअों को बधिया करने की कीमत कांग्रेस अाज चुका रही है. इसका अहसास राहुल को हुअा है, ऐसा कोई संकेत भी तो नहीं मिला अमरीका में. हां, अमरीका जा कर राहुल ने यह रहस्य खोला कि वे कांग्रेस की ही नहीं, देश की कमान भी संभालने को तैयार बैठे हैं.  उन्होंने कहा कि वे इस जिम्मेवारी को उठाने से हिचक भी नहीं रहे हैं, वे वैसे मूर्ख भी नहीं हैं जैसा भाजपा का प्रचार-तंत्र, जो सीधे प्रधानमंत्री के हाथ में काम करता है, प्रचारित करता है. प्रकारांतर से इससे दो बातें पता चलीं - हमें यह पता चला कि राहुल पार्टी व देश दोनों की जिम्मेवारी लेने को तैयार हैं लेकिन माताजी की कांग्रेस उन्हें वह मौका दे नहीं रही है; दूसरा यह कि प्रधानमंत्री के सीधे निर्देश पर काम करने वाले भाजपा के प्रचार-तंत्र का सामना कांग्रेस का प्रचार-तंत्र नहीं कर पा रहा है. फिर प्रशांत किशोरों का फायदा क्या ! 

2019 का चुनाव बर्कले में नहीं, राय बरेली व अन्य बरेलियों में होगा. राहुल व उनकी मंडली को अब यह बात समझ लेनी चाहिए कि लड़ाई कहां है अौर उसका तेवर क्या होगा. तो अब रणनीति बने, नया विजन स्टेटमेंट बने अौर नये राहुल अपनी नई टीम को उसे लेकर अभियान में जुट जाएं ! ऐसा करना इसलिए जरूरी नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार हमें नहीं चाहिए. ऐसा करना इसलिए जरूरी है कि गतिशील लोकतंत्र के लिए दो मजबूत विपक्षी दलों की सक्रिय व सावधान उपस्थिति जरूरी है. हमारे यहां कभी कांग्रेस के साथ यह भूमिका वाम दलों ने निभाई थी. कभी समाजवादी गठबंधनों ने भी यह भूमिका निभाई तो कभी जनसंघ ने भी ! अाज भारतीय जनता पार्टी  की बेहिसाब संसदीय उपस्थित को संयमित व संतुलित करने के लिए हमें एक मजबूत, सावधान व सक्रिय राजनीतिक दल की जरूरत है. भविष्य के गर्भ में क्या है, यह तो वही जाने लेकिन हम यह जान रहे हैं कि अगर कांग्रेस अपनी धूल झाड़कर खड़ी हो जाए तो यह वह खाली जगह भर सकती है. राहुल गांधी को इस ऐतिहासिक भूमिका के लिए तैयार होना है या फिर इतिहास में विलीन हो जाना है. चुनाव उनका, स्वीकृति हमारी ! ( 19.09.2017)  

Thursday 7 September 2017

राजकीय सम्मान के साथ हत्या

र्नाटक सरकार ने पत्रकार गौरी लंकेश का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया. यह अच्छा हुअा. अब सरकारों के पास इससे अधिक कुछ करने का या इससे पहले करने कुछ करने का माद्दा बचा भी नहीं है. अापको बात पचे नहीं या बहुत कड़वी न लगे तो यह भी कहना चाहूंगा कि इसकी घोषणा प्रधानमंत्री ने लालकिले से की थी कि अब हत्याएं राजकीय सम्मान के साथ होंगी. हां, उन्हें यह पता नहीं होगा कि गौरी इस सम्मान को इतनी जल्दी लपक लेंगी ! जब सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठा अादमी नकाब पहन कर बातें करता है अौर सफेद-काले में कोई फर्क करने को तैयार नहीं होता है तब वे लोग अच्छी तरह जानते हैं कि दरअसल में वह किधर खड़ा है वे लोग, जो लोगों के लोग होते हैं.

अब सवाल है कि हम लोग गौरी के लोग हैं क्या ? यह पूछना इसलिए जरूरी है कि अन्ना अांदोलन से यह फैशन चला पड़ा है कि लोग प्लेकार्डों पर लिख लाते हैं, या लिखा हुअा प्लेकार्ड उन्हें थमा देिया जाता है : मैं भी अन्ना !  उस रोज भी मुझे ऐसे कुछ प्लेकार्ड दिखे : अाइ एम गौरी ! होंगे अाप अौर इससे अधिक खुशी की बात होगी अौर देश के लिए अाशा की बात दूसरी क्या होगी कि हम सबके बीच से इतनी गौरीनिकल अाएं ! लेकिन क्या गौरी बनना इतना अासान है ? गौरी बनने के लिए गोली से रिश्ता बनाना पड़ता है. यह स्वाभाविक रिश्ता है. जो कलम चलाते हैं, वे जानते हैं कि एक वक्त अाता ही है, कम अाता है लेकिन अाता है जरूर कि जब कलम अपनी कीमत मांगती है. तब अाप स्याही दे कर उसकी गवाही नहीं दे सकते. वह जान मांगती है. अपनी अास्था की एक-एक बूंद निचोड़ कर जब अाप कलम में भरते हैं तब कोई गौरी पैदा होती है. 

इसे एक पत्रकार ही हत्या मानना हत्या को भी अौर गौरी को भी न समझने जैसा होगा. यह सब जो हम बार-बार कह व लिख रहे हैं कि गौरी वामपंथी थी, कि वह हिंदुत्व वालों की तीखी अालोचक थी, कि वह बहुत अाक्रामक थी, यह सब सच है लेकिन पूरा सच नहीं है ! बहुत छोटी-सी दो-एक मुलाकातों में अौर कॉफी पीते हुए मैं उन्हें जितना जाना वह यह कि वे बहुत अाजाद ख्यालों वाली महिला थीं. अपनी तरह से सोचना अौर अपनी तरह से जीना उनकी सबसे स्वाभाविक फितरत थी. अाप अाजादी से जीते अौर अपनी तरह से सोचते हैं यह खतरनाक बात है; अौर यह खतरनाक बात बेहद-बेहद खतरनाक हो जाती है जब अाप अपनी उस सोच अौर अपने उस जीवन को बांटना भी शुरू कर देते हैं. यह बड़ी बारीक-सी रेखा है कि जबतक हमारा जीवन इस बिंदु तक नहीं पहुंचता है तब तक हम दूसरों का जीवन जीते हैं अौर इतना जीते हैं कि मरने तक जीते हैं. इसे ही शायद लकीर पीटना भी कहते हैं. लेकिन जीवन तो शुरू ही उस बिंदु से होता है जहां से अाप अाजाद हो जाते हैं. अाप अाजाद होते हैं तो गौरी बन जाते हैं. 

कलम के साथ अाजाद होना खतरों में उतरने की तैयारी का दूसरा नाम है. इसलिए गौरी की हत्या के बाद यह सब जो कहा जा रहा है कि कलमकारों में भय फैल रहा है, कि कलमकारों को सरकारी संरक्षण मिलना चाहिए, कि कोई स्वतंत्र पत्रकारिता करेगा कैसे तो यह सब गौरी का सम्मान तो नहीं है ! हम अपने भीतर का डर गौरी के नाम पर उड़ेलने का काम न करें. हम गांठ बांध कर याद रखें कि कलमकारों की यह भी एक समृद्ध परंपरा है. नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे, एम.एम.कलबुर्गी अौर अब गौरी; नहीं, इससे कुछ पहले से गिने हैं हम तो मिलेंगे गणेश शंकर विद्यार्थी ! अपनी टेक पर प्रतापचलाया, महात्मा गांधी के विचारों अौर कार्यों से अनुप्राणित थे लेकिन भगत सिंह को छिपा रखने के लिए उन्हें अपने इस अखबार का पत्रकार बना लिया; फिर कानपुर के सांप्रदायिक दंगे में सरे अाम सड़क पर मारे गये. दूसरा कोई कारण नहीं था, वे अपने विश्वास के कारण मौत की उस अांधी में उतरे थे. उस दौर के सबसे बड़े कलमकार-पत्रकार महात्मा गांधी ने कहा ही कि ऐसी मौत पाने अौर इस तरह उसे गले लगाने का मौका काश कि मुझे भी मिले ! तो उन्हें भी मिली ऐसी ही मौत ! गांधी से शिकायत क्या थी किसी को ? बस यही न कि यह अादमी इतना अाजाद क्यों है ! वह अपनी तरह जीता था; अपनी बात अपनी तरह से कहता था. हिंदुत्ववादी ताकतों ने यही तो तय किया न कि इस बूढ़े को चुप कराना संभव नहीं है, हमारे लिए इसका मुकाबला करना संभव नहीं है अौर जब तक यह है हमारे लिए समाज में अपनी जगह बनाना संभव नहीं है, तो इसे चुप करा दो ! तो ८० साल के वृद्ध को चुप कराने के लिए तीन गोलियां मारी गईं. वैसी ही तीन गोलियां गौरी को भी मारी गईँ. गांधी मारे जा सके ३० जनवरी को लेकिन उनको मारने की ५ गंभीर कोशिशें तो पहले भी हो चुकी थी. सफलता छठी बार मिली. गौरी को भी मारा अब गया, धमकी काफी पहले से पहुंचाई जा रही थी. लेकिन वे धमकियां गौरी की कलम तक पहुंच नहीं रही थीं, इसलिए मौत पहुंचानी पड़ी ! देख रहा हूं कि हत्या के बाद बहुत सक्रियता दिखाने वाली पुलिस व राज्यतंत्र कह रहा है कि गौरी भी उसी पिस्तौल से मारी गई हैं जिससे दाभोलकर, पनसारे अौर कलबुर्गी मारे गये थे. मैं उनकी जानकारी के लिए इसमें जोड़ना चाहता हूं कि पिस्तौल वही थी, यह तो अाप कर रहे हैं, मैं अापको शिनाख्त दे रहा हूं कि पिस्तौल के पीछे हाथ वे ही थी जिनमें गांधी का खून लगा है. 

अब गांधी किसी व्यक्ति का नाम नहीं, एक परंपरा का, एक नैतिक व सामाजिक मूल्य का नाम है.  
यह दौर कलम घिसने का नहीं है हालांकि हम ऐसा करने से किसी को रोकने नहीं जा रहे है, कम-से-कम पिस्तौल वाले रास्ते तो हर्गिज नहीं ! लेकिन जो कलम चला रहे हैं उन्हें इस परंपरा का ध्यान रखना होगा, इस परंपरा में शामिल होने की तैयारी रखनी होगी अन्यथा अापकी कलम अपना मतलब खो देगी. ( 07.09.2017)