Monday 21 May 2018

झूठ का सच


सेवाग्राम की बापू-कुटी के भीतर की एक दीवार पर, जिसके सम्मुख गांधीजी बैठा करते थे, कुछ सुवाक्य लिख कर टांगे हुए हैं. वे अाज के नहीं हैं, बापू के वक्त के हैं. उसमें एक वाक्य कहता है कि झूठ कई तरह से बोला जाता है - मौन रख कर भी अौर अांखों के इशारों से भी. वचन से बोले गये झूठ की अपेक्षा इन दो प्रकारों से बोला गया झूठ ज्यादा खतरनाक होता है. पता नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कभी यह सुवाक्य पढ़ा है या नहीं लेकिन अाज हर कोई उनका इस मानी में मुरीद है कि वे किसी भी तरह का असत्य सत्य की मुद्रा में बोल सकते हैं. यह महारत बहुत कम लोगों में होती है ( इसके लिए हमें भगवान को धन्यवाद देना चाहिए !)

चुनावी मौसम हो तब तो प्रधानमंत्री मोदी की यह कला बला की परवान चढ़ती है. वे इस सुवाक्य में पूरा यकीन करते हैं कि युद्ध व प्यार मेें सब कुछ जायज होता है; अौर कौन कहेगा कि चुनाव युद्ध का ही दूसरा नाम नहीं है ? फिर यह भी कि जैसे प्यार में कोई एक होता है कि जो अापके होने का कारण होता है, वैसे ही  युद्ध में कोई एक होता है जो अापके निशाने पर होता है. भारत के १५वें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निशाने पर हैं भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ! वे हर हथियार से, हर कहीं नेहरू पर प्रहार करते हैं। अर्द्धसत्य अौर असत्य उनका सबसे बड़ा हथियार होता है जिसे वे इतिहास के मैदान से चुन-चुन कर लाते हैं. लेकिन इतिहास ही उनका हर वार तुक्का साबित करता जाता है. प्रधानमंत्री इतिहास का यह गुण नहीं पहचानते हैं शायद कि वह न तो सदय होता है, न निर्दय; वह तटस्थ होता है. यही जवाहरलाल नेहरू की ताकत है, यही नरेंद्र मोदी की कमजोरी ! 

    प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने गुजराती कार्ड खेला था अौर सरदार पटेल व नेहरू की कुश्ती करवाई थी. वे ऐसा प्रचारित करने में जुटे रहे कि जैसे जवाहरलाल किसी तिकड़म से देश के पहले प्रधानमंत्री बन गये थे. तोड़-मरोड़ कर कही गई उनकी सारी बातें खोखली साबित हुईं क्योंकि वे यह सच कभी बोल ही नहीं पाये कि सही या गलत, देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में जवाहरलाल का चयन तो महात्मा गांधी ने किया था; अौर मुख्यमंत्री की या किसी दूसरी सत्ता की अाड़ में छिप कर नहीं, कांग्रेस कार्यसमिति के खुले मंच पर बैठ कर किया था, अौर यह जानते हुए किया था कि देश की अधिकांश प्रांतीय कांग्रेस समितियां सरदार पटेल के पक्ष में हैं. तो गुजराती मोदी को लड़ाई लड़नी हो तो गुजराती महात्मा गांधी से लड़नी चाहिए, जवाहरलाल नेहरू से नहीं. अौर गांधी ने ऐसा करके यह बतलाया कि लोकतंत्र केवल संख्यासुर का गणित नहीं होता है; गुणवत्ता की तुला पर भी उसे तोलना पड़ता है. यहां पिटे नरेंद्र मोदी ने फिर यह सच खोज निकाला कि सरदार की मृत्यु के शोक में शरीक होने की मनुष्यता भी नेहरू नहीं दिखा सके. एक गुजराती की ऐसी उपेक्षा ? लेकिन वे उस फोटो का जवाब नहीं दे सके जिसमें सरदार के पार्थिव शरीर के पास शोकग्रस्त जवाहरलाल को सबने देखा ! सरदार के निधन पर लोकसभा में उन्हें दी गई जवाहरलाल की श्रद्धांजली का हर एक शब्द इन दो महापुरुषों के रिश्तों की ऊंचाई व गहराई का दस्तावेज ही है. मतभेद, तो वे तो थे; लेकिन दोनों ने बापू की खींची उस लक्ष्मण-रेखा को कभी पार नहीं किया जिसे 30 जनवरी 1948 को गांधी ने तब खींची थी जब हमारी गोली खाने से ठीक पहले सरदार उनसे मिले थे. उन्होंने गांधी से कहा था कि अब वे जवाहरलाल की सरकार से त्यागपत्र देना चाहते हैं. गांधी ने देर होती अपनी प्रार्थना की तरफ बढ़ते हुए अंतिम वाक्य यही कहा था कि यह तो सरदार वाली बात नहीं हुई ! बस, उस दिन से अंतिम सांस तक सरदार सरदार ही बने रहे; सरदार यानी जो मोर्चे से पांव पीछे खींचता ही नहीं है. 

जवाहरलाल पर उन्होंने परिवारवाद का अारोप लगाया लेकिन इस सच को वे कहां छुपा कर रखते कि जवाहरलाल के बाद उनकी बेटी नहीं, लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री चुने गये थे; अौर ताशकंद में अगर शास्त्रीजी की अचानक मौत नहीं हुई होती ( इसके पीछे नेहरूजी का हाथ था, ऐसा अारोप अभी तक तो नहीं है न ! ) तो इंदिरा गांधी के लिए प्रधानमंत्री बनना कभी शक्य नहीं होता. अौर शास्त्रीजी की मृत्यु के बाद, मोरारजी देसाई को पीछे कर इंदिराजी को प्रधानमंत्री बनाया किसी जवाहरलाल ने नहीं बल्कि कामराज नडार की कमाल की खोपड़ी ने ! इतिहास की तटस्थ गवाही यहां भी पढ़ी जा सकती है. 

अभी-अभी कर्नाटक के चुनाव प्रचार में नरेंद्र मोदी को फिर जरूरत पड़ी कि प्रांतीयता की संकीर्णता को उभार कर जितना बटोर सकें, वोट बटोरें; तो उन्होंने एक सार्वजनिक सभा में असत्य की झड़ी लगा दी. उन्होंने कहा कि कर्नाटक के दो लालों को नेहरूजी ने अाजीवन अपमानित किया. कौन थे ये दो लाल ? जेनरल थिमैया अौर जेनरल करियप्पा. अाजादी के बाद की भारतीय सेना का इतिहास जब भी अौर जो भी लिखेगा, इन दो नामों को छोड़ नहीं सकता है. प्रधानमंत्री ने कहा कि १९४८ में पाकिस्तान से युद्ध में, कश्मीर को बचाने का अभूतपूर्व कार्य करने वाले भारतीय सेना के चीफ जनरल थिमैया को नेहरू अौर उनके रक्षामंत्री कृष्ण मेनन ने इतना जलील किया कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया. यह मोदीमार्का इतिहास यदि बच्चे पढ़ने लगें तो उन्हें यह कैसे पता चलेगा कि १९४८ में हमारी सेना के चीफ थिमैया थे ही नहीं, एक अंग्रेज जेनरल रॉय बुखर थे? तब कृष्ण मेनन नहीं, सरदार बलदेव सिंह देश के रक्षामंत्री थे. थिमैया साहब १९५७ में सेना प्रमुख बने अौर १९६१ में, अपना कार्यकाल पूरा कर विदा हुए. जेनरल थिमैया से नेहरू की अच्छी बनती थी अौर वे नेहरू ही थे जिन्होंने अवकाशप्राप्ति के बाद थिमैया साहब को विशेष भारतीय कार्यदल का प्रमुख बना कर कोरिया भेजा था. थिमैया सेना के उन चुनिंदा लोगों में थे जिन्हें नेहरू सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया था. फिर प्रधानमंत्री ने जेनरल करियप्पा का प्रसंग उठाया अौर चीखती हुई अावाज में कहा कि १९६२ में चीन से युद्ध में सेना प्रमुख पराक्रमी जेनरल करियप्पा के साथ नेहरू ने कैसा दुर्व्यवहार किया ! अब कोई उन्हें इतिहास की वह किताब दिखाए कि जो नागपुर से प्रकाशित नहीं हुई हो, कि १९६२ में भारत-चीन युद्ध से ९ साल पहले ही जेनरल करियप्पा रिटायर हो चुके थे. करियप्पा साहब स्वतंत्र भारत के पहले भारतीय सेना प्रमुख थे अौर उन्हें यह पद नेहरू सरकार ने दिया था. प्रधानमंत्री नेहरू के साथ करियप्पा साहब के मतभेद थे अौर यह सारे देश को पता था लेकिन उनके साथ कोई बदसलूकी नहीं हुई थी. १९८६ में वह राजीव गांधी की सरकार थी जिसने करियप्पा साहब को देश का पहला फील्डमार्शल बना कर सम्मानित किया था. 

असत्य दो तरह का होता है - सफेद अौर काला ! समाज में दोनों के विशेषज्ञ हैं अौर वे अपनी कला का प्रदर्शन करते ही रहते हैं. लेकिन एक असत्य अौर भी होता है - विषैला असत्य ! यह समाज की जड़ में मट्ठा डालता है. चुनाव कोई भी जीते, ऐसे असत्य से समाज हारता ही है. हम इसी मुहाने पर खड़े हैं. ( 12.05.2018) 


कर्नाटक : कोई नहीं जीता


तो कर्नाटक मेें वह हो रहा है जो किसी ने नहीं चाहा था - न कर्नाटक के मतदाता ने, न भाजपा अौर कांग्रेस ने. वह भी नहीं हो पाया जो मोदी-शाह की अजेय जोड़ी ने दिल्ली में बैठ कर चाहा था; न वही हो पाया जिसकी कोशिश में राज्यपाल वजूभाई वाला ने अपना पूरा केरियर दांव पर लगा दिया; अौर न केजी बोपय्या ही एक दिन के लिए विधानसभा अध्यक्ष( प्रो-टर्म !) बन कर जो करने की सोच रहे थे वही कर सके. सब देखते रह गये अौर अब सब देखते रहेंगे…

अगर किसी ने कुछ चाहा अौर वही हुअा तो वह सर्वोच्च न्यायालय है. ऐसा लगता है कि अाधी रात में न्यायालय को न्याय अधिक साफ दिखाई देता है. 16-17 मई की अाधी रात को, जब सारा देश नींद में सो रहा था, भारतीय न्यायालय अपने कर्तव्यों के प्रति नियति से किया वादा पूरा करने, सजग पहरेदार की तरह जागा हुअा था. उसने किसी पर कोई टिप्पणी किए बिना सबको कठघरे में खड़ा कर दिया - राज्यपाल द्वारा दी गई पंद्रह दिन की मोहलत को काट कर, 24 घंटे की बना दी लेकिन राज्यपाल को शपथ दिलाने अौर येदियुरप्पा को शपथ लेने से नहीं रोका; उसने केजी बोपय्या को प्रो-टर्म अध्यक्ष बनाने पर अापत्ति नहीं की लेकिन उनके पर इस तरह कतर दिए कि वे न उड़ सकते थे, न उड़ा सकते थे. उसने कांग्रेस की कोई दलील कबूल नहीं की लेकिन न्याय की अपनी टेक कहीं से भी कमजोर नहीं पड़ने दी. अौर यह भी कि उसने यह सब इतने दबंग तरीके से किया कि केंद्र सरकार या सर्वोच्च न्यायाधीश को जुबान खोलने का मौका भी नहीं मिला. अौर अब अाप देखिए कि देश में किसी को इसकी नहीं पड़ी है कि नया मुख्यमंत्री कौन बनता है. अाज कर्नाटक में सत्ता संदर्भहीन हो गई है. 

  सारे देश की नजर जिस चुनाव पर लगी थी, अौर देश के सारे राजनीतिक दलों ने जिसे जीतने में अपनी पूरी ताकत झोंक रखी थी, उस चुनाव के नतीजों के प्रति ऐसी उदासीनता ? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को िजस एक राजनीतिक कर्म का विशेषज्ञ माना जाता है उस चुनावी नौटंकी में, उनकी सारी छटाएं देख लेने के बाद भी लोग यह नहीं पूछ रहे हैं कि कर्नाटक में कौन जीता; पूछ यह रहे हैं अौर हतप्रभ से देख भी यही रहे हैं कि कौन, कितने गर्त में गिरता है अौर लोकतंत्र को गिराता है. कर्नाटक में पतन की प्रतियोगिता है. पतन का चरित्र ही यह है कि एक गिर कर जहां पहुंचता है, दूसरा उसकी अगली सीढ़ी तैयार करता है. मोदी-शाह की जोड़ी ने इस पतन के नये-नये कीर्तिमान स्थापित किए हैं; अब दूसरे भी इसमें योगदान दे रहे हैं.  
वे सारी संवैधानिक संस्थाएं व व्यवस्थाएं एक-एक कर जमींदोज की जा रही हैं जिनकी रचना इसलिए की गई थी कि जब कभी, जब कहीं राजनीतिक चालबाजियां अौर सत्ता की अजगरी भूख लोकतंत्र का भक्षण करने लगे तो उसे रोकने व थामने वाली ताकतें संविधान के भीतर से निकल कर अाप ही सामने अा जाएं. कर्नाटक में ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि राजनीतिक नेतृत्व का पतन सारी संवैधानिक व्यवस्थाअों को दीमक की तरह चाट गया है. बाबासाहब अांबेडकर ने ऐसे ही नहीं कहा था कि अच्छा-से-अच्छा संविधान भी बुरे लोगों के हाथ में पड़ कर एकदम बुरा साबित होता है. हमारे सारे राजनीतिक दल मिल कर बाबा साहब को सही साबित करने में जैसी निष्ठा से लगे हैं, वह हैरान करने वाला है ! 

कर्नाटक में जो हुअा वह लोकतंत्र का खेल था. 114 सीटों तक पहुंचती भारतीय जनता पार्टी 104 पर ऐसी जा टिकी जैसे अंगद के पांव; अौर कांग्रेस व देवेगौड़ा की पार्टी ने बढ़ कर  सारी खाली जगहें हथिया लीं. दिन भर में बना सारा राजनीतिक समीकरण दोपहर बाद छिन्न-भिन्न हो गया. जो जश्न मना रहे थे उन्हें लकवा मार गया; जो लकवाग्रस्त थे वे दौड़ने लगे. अब पतन की दौड़ दो तरफ शुरू हुई - राजभवन की तरफ अौर फिसलने वाले विधायकों की तरफ. लोकतंत्र ने अपना खेल कर दिया; फिर शुरू हुअा लोकतंत्र से खिलवाड़. इसे राजभवन से एक झटके में रोका जा सकता था लेकिन तभी न जब वहां कोई राज्यपाल होता ! वहां तो राज्यपाल था ही नहीं. वहां बैठा था नाम-गुणविहीन केंद्र का एक अंधसेवक ! राजनीति में जोड़-तोड़ की एक जगह होती ही है लेकिन सारी राजनीति मात्र जोड़-तोड़ तो नहीं है. राजनीति अौर राजनीतिबाजी में फर्क होता है - गहरा फर्क ! जो यह फर्क या तो समझते नहीं हैं या मानते नहीं हैं, वे ही लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल देते हैं. अगर चुनाव धन अौर डंडे का खेल बना दिया जाए, राजभवन में खोज-खोज कर ऐसे लोग बिठाये जाएं जिनकी एकमात्र योग्यता यह हो कि उनका न सर है, व रीढ़, तो अाप लोकतंत्र का पतन रोक नहीं सकते हैं. राज्यपालों से यह पाप कांग्रेस ने खूब करवाया है, अब भाजपा की बारी है.
फिसलने वाले विधायकों का हाल यह था कि कांग्रेस व जनता दल(एस) फिसलने वालों की पहचान करने में नहीं, खरीददारों से उन्हें बचाने-छिपाने में जुट गये. किसी को इस पतन का दर्द नहीं था कि 10 करोड़ हो कि 100 करोड़, जो बिकने को तैयार है उसे देश में रखो कि विदेश में, वह बिका ही रहेगा. राजनीति जब बाजार बन जाती है तब वहां भी सब कुछ बिकाऊ होता है. अौर जो बिक सकता है वह जमीर क्या अौर देश क्या, कुछ भी बेंच सकता है. वह बेंच सकता है, अाप खरीद सकते हैं तो पाप न इधर ज्यादा हुअा, न उधर कम ! यह वह नैतिक फिसलपट्टी है जो सिर्फ नीचे की तरफ ही जाती है. 

लोकतंत्र में नैतिकता न हो ( संविधान न हो ! ) तो वह चोरों-बटमारों की मिलीभगत से अलग कुछ भी नहीं है. सौ साल से भी ज्यादा हुअा कि जब महात्मा गांधी ने ‘हिंद-स्वराज्य’ में लिखा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा अादमी देशभक्त होता है, यह कहते मेरी जीभ ऐंठती है.  उनका सीधा मतलब इसी नीतिविहीन राजनीति के शीर्षपुरुष से था. वे जान गये थे कि जो बाजार से खरीद कर लाया गया है, उस लोकतंत्र का शीर्षपुरुष सौदा करने में सबसे घाघ व्यक्ति ही हो सकता है. कहें कि राजनीति का शाइलॉक ! 

न्यायपालिका की भूमिका इसलिए अहम है कि लोकतंत्र ने उसे विवेक व संविधान के अलावा दूसरा कुछ दिया ही नहीं है. न्यायपालिका के संदर्भ में विवेक यानी वह तीसरी अांख जिससे संविधान की उस चुप्पी को भी पढ़ा व समझा जा सके जिसे दूसरे गूंगा या बहरा समझते हैं. सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर ने जाते-जाते इसी चुप्पी को पढ़ने की कला को न्यायमूर्ति का अवदान कहा था. संविधान को जहां विवेक का साथ मिलता है, वह अत्यंय मारक दस्तावेज बन जाता है. कर्नाटक में हमने यही देखा. 

भारतीय जनता पार्टी ने कर्नाटक में भी लोकतंत्र से वही खिलवाड़ शुरू किया जो उसने गोवा में, मणिपुर में, मेघालय अादि में किया था. मोदी-शाह अब तक इस हेंकड़ी में रहे हैं कि वे जो चाहेंगे वह कर लेंगे अौर वही लोकतंत्र कहलाएगा. लेकिन जैसी कि कहावत है, अाप काठ की हाड़ी को दो बार चूल्हे पर नहीं चढ़ा सकते ! इसलिए पार्टियां कर्नाटक में जब खिलवाड़ कर रही थीं, लोकतंत्र अपना खेल समेट कर सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया. अब महत्वपूर्ण यह नहीं है कि किसने क्या किया, क्योंकि पतन की होड़ में कौन, कहां खड़ा था इसकी कहानी कहने से लोकतंत्र का खेल अागे नहीं बढ़ता है. खेल अागे तभी बढ़ेगा जब कोई यह कहेगा कि खेल पटरी से कब उतरा अौर किसने खेल का नियम तोड़ा. न्यायपालिका ने अपने अादेश में इसका सीधा संकेत दे दिया है कि 10 सप्ताह के बाद, मतलब कर्नाटक में लोकतंत्र से खिलवाड़ की धूल जब बैठ जाएगी अौर सारे जश्न पूरे हो चुके होंगे तब वह इस पूरे मामले की व्यापक पड़ताल करेगी अौर अपनी व्यवस्था सुनाएगी. 

यह वह तलवार है जिसे ले कर लोकतंत्र कर्नाटक से लौटा है. अब यह तलवार न्यायपालिका के ऊपर भी तनी रहेगी. अगर न्यायपालिका भी खेल में नहीं, खिलवाड़ में शामिल हो जाए तो ? धीरज रखिए, लोकतंत्र फिर कोई नया खेल शुरू करेगा. अगर कर्नाटक में जो किया गया वह संिवधानसम्मत था तो फिर गोवा, मणिपुर अादि-अादि के जवाब न्यायालय कैसे देगा ? हत्या कई माह या साल पहले हुई थी इसलिए अपराध प्रमाणित होने व अपराधी के सामने होने पर भी सजा कैसे दी सकती है, न्यायपालिका ऐसा तो नहीं कह सकेगी. तब वह क्या कहेगी ? वह जो भी कहेगी, उससे एक नया खेल शुरू होगा. हम इतने समर्थ खिलाड़ी न हों कि खेल में उतर कर उसे गति व दिशा दे सकें तो इतने धैर्यवान बनें कि खेल को ही अपना खेल बनाने दें. 


बस, इतना ही है कि खतरे की एक घंटी नजदीक अाती सुनाई दे रही है. लोकतंत्र अौर भीड़तंत्र के बीच संविधान नाम का जो अंपायर खड़ा होता है यदि वह अनुपस्थित हुअा तो सड़क संसद की जगह ले लेती है. यह भी लोकतंत्र का ही खेल है लेकिन बेहद खतरनाक खेल है. ( 19.05.2018)

Tuesday 8 May 2018

15 मिनट के लोग



कैसे-कैसे मंजर सामने अाने लगे हैं / गाते-गाते लोग िचल्लाने लगे हैं - यह विद्रूप झेलना कभी कवि दुष्यंत को भारी पड़ा था, अौर वे असमय सिधार गये थे. हम अपने दौर के विद्रूप का क्या करें कि जहां देश का काल-माप १५ मिनटों का बना दिया गया है ? 

राहुल गांधी जाने कब से, कहां-कहां कहते घूम रहे हैं कि बस उन्हें संसद में १५ मिनट बोलने का मौका मिल जाए तो नरेंद्र मोदी संसद में खड़े नहीं रह पाएंगे ! वे क्या कहना चाह रहे हैं ?  क्या उनके पास ऐसा भंडाफोड़ है कि जिससे प्रधानमंत्री के परखचे उड़ जाएंगे लेकिन जिसे फोड़ने के लिए उन्हें संसद की सुरक्षा का अासरा चाहिए ? ऐसे कितने ही भंडाफोड़ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के पास भी थे. उन्होंने वे सारे पटाखे मनमाने तरीके से, मनमाफिक जगहों पर फोड़े भी खूब; खूब धूल-धुअां हुअा लेकिन अाज उस धमाके की नहीं, उनकी माफी की धूल ही सब तरफ फैली हुई है; अौर ऐसा घटाटोप है कि अब वे कहीं हैं ही नहीं, सिर्फ माफी ही गूंजती है ! कभी, किसी भी हाल में अौर किसी भी मंच पर भंडाफोड़ सच की जगह नहीं ले सकता है. लेकिन राहुल बोलते ही जा रहे हैं कि उन्हें १५ मिनट बोलने दिया जाए ! कोई पूछता नहीं है कि श्रीमान, अाप रोज ही तो बोल रहे हैं, मिनटों की कौन कहे, घंटों में बोल रहे हैं, तो फिर अापका वह १५ मिनट कहां खो गया है ? अगर कोई सच है राहुल गांधी के पास तो क्या उन्हें सच की तासीर पता नहीं है कि वह संसद में बोला जाए या सड़क पर, घातक होता है, मारक होता है ! क्या किसी गांधी या किसी जयप्रकाश ने संसद में बोलने के लिए सत्य छुपा कर रखा था ? दोनों सड़कों पर ही तो बोले थे अौर साम्राज्य अौर संसद की दीवारें कांपी थीं अौर फिर गिर पड़ी थीं. सच का वह एक कण अगर अापके पास है, तो राहुलजी, संसद का इंतजार क्यों कर रहे हैं ?  देश की सड़क से बड़ी अौर अहम नहीं होती है संसद !

इधर प्रधानमंत्री हैं कि जो कुछ भी उधार नहीं रखते हैं - बातें भी नहीं ! देश के अासमान में सबसे ज्यादा अौर निरंतर का शोर उनका ही होता है. अासमान तक उसकी धूल फैली हुई है लेकिन अब कोई उसकी सुध नहीं लेता, क्योंकि उनके ही कमांडर ने उन सबको जुमलेबाजी कहकर रंग व स्वादविहीन बना दिया है.  लेकिन जुमलेबाजी की कला में निष्णात प्रधानमंत्री ने राहुल गाांधी के १५ मिनट उन्हें वापस कर दिए अौर कहा कि राहुल गांधी किसी भी भाषा में, यहां तक कि अपनी मां की भाषा में भी, १५ मिनट बोल कर तो दिखाएं - शर्त यह है कि उनके पास कागज की पर्चियां नहीं होनी चाहिए ! प्रधानमंत्री की जुमलेबाजी का यही सच है कि वे कभी, किसी बात का जवाब नहीं देते, दूसरों का अपमान करते हैं. यहां भी वे राहुल गांधी की वाकपटुता की कमी का अपमान कर रहे थे लेकिन स्तर इतना नीचा था कि इसमें वे उनकी मां को घसीट लाए ! यह वही मानस है जो हर झगड़े में मां-बहन की गाली तक पहुंचता है. लेकिन राहुल अपने जिस विस्फोटक १५ मिनट की बात करते हैं उसमें वे क्या-क्या बोलेंगे, यह भी तो वे बताते हैं. उनमें से किसी एक बात का भी जवाब प्रधानमंत्री ने दिया होता अौर फिर राहुल को अपमानित करने की कोशिश की होती तो देश सुनता भी ! लेकिन अपने दरबारियों से घिरे, मजमेबाजी में बोली उनकी राहुल के १५ मिनट की बात एक स्तरहीन उपहास की तरह हवा में तैरती रह गई. 

लेकिन उनको जवाब मिला. महिला कांग्रेस की सुष्मिता देव ने फिर १५ मिनट की चुनौती उछाली कि प्रधानमंत्री बिना कोई झूठ बोले १५ मिनट बोल कर दिखाएं ! फिर जैसे उन्हें रहम अा गया अौर उन्होंने १५ मिनट की चुनौती को १५ सेकेंड में बदल दिया ! अब देश किसी चौथे के १५ मिनट का इंतजार कर रहा है. 

सवाल यह नहीं है कि अाप क्या कह रहे हैं; सवाल यह भी है कि अाप कैसे कह रहे हैं ! अाप जो कहते हैं उसे उसके सत्य या तथ्य के अाधार पर देश सुना-अनसुना कर सकता है; अाप कैसे कहते हैं वह देश का मिजाज बनाता है. सार्वजनिक जीवन में अापसी रिश्तों का स्तर कैसा होना चाहिए, यह सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोग ही तै करते हैं. किसी ने कटाक्ष ही किया था विनोबा पर जब उनसे कहा कि जवाहरलाल नेहरू के प्रति अापका सॉफ्ट कॉर्नर है. समाजवादियों ने उन्हें ‘सरकारी संत’ कह कर कबसे उनका उपहास उड़ाया था. विनोबा ने छूटते ही जवाब िदया- नहीं,नहीं, सॉफ्टकॉर्नर नहीं है, मेरा तो पूरा दिल ही उनके लिए सॉफ्ट है ! अौर फिर कहा: लेकिन मैं अपना वोट उन्हें नहीं दूंगा, क्योंकि उनकी नीतियों के प्रति मैं सॉफ्ट नहीं हूं. विमर्श का यह स्तर था जिसे देश ने गांधीयुग से सीखा था. असहमति भी समाज का मन असुंदर न बनाए, इसकी सावधान सावधानी जो नहीं रखते हैं, वे लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालते हैं.  

अौर सार्वजनिक जीवन में व्यवहार का स्तर ? १९७७ में, जब दिल्ली से नेहरू खानदान की पकड़ पहली बात टूटी थी अौर वोटों के उस महाभारत में हर तरफ क्षत-विक्षत कांग्रेस बिखरी थी, जनता पार्टी के नाम से एकजुट हुअा विपक्ष राजधानी के रामलीला मैदान में विजय उत्सव मना रहा था अौर हर पल इंतजार हो रहा था कि उस महाभारत के कृष्ण विजय उत्सव में शिरकत करने पहुंचें, जयप्रकाश एकाकी निकले थे अौर अपदस्थ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर जा पहुंचे थे. यह उनकी इंदू थी जिसे भाई जवाहर के घर खेलते-दौड़ते उन्होंने देखा था. देश १९ महीनों बाद, इंदिरा गांधी की जेल काट कर बाहर निकला था. जयप्रकाश ने उनकी ही जेल में मरणांतक पीड़ा झेलते हुए अपनी किडनी गंवाई थी. अाज वे ही वृद्ध, बीमार जयप्रकाश उनके दरवाजे खड़े थे अौर कह रहे थे कि खेल की यह जीत-हार अंतिम नहीं होती है ! अागे का खेल खेलो इंदू लेकिन पिछली गलतियां दोहराना मत ! रामलीला मैदान का विजय उत्सव छूंछा ही रह गया लेकिन सार्वजनिक व्यवहार की एक अलग ही खुशबू सारे देश में तैर गई. समाज बनाना अौर सत्ता हथियाना दो भिन्न चीजें हैं. १५ मिनट के लोग सत्ता की चाकरी कर सकते हैं, संस्कृति के वाहक नहीं हो सकते. 


लुटती अौरतें, मरता किसान, भविष्यहीन भटकाव में घिरा युवा अौर लगातार मारा जाता जवान सब अपना वह १५ मिनट मांग रहे हैं जिसमें कितने सेकेंड होते हैं, कोई जानता नहीं है. ( 04.05.2018)