Saturday 30 May 2020

साहस के साथ जीना ही जीना है !

वे स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री ही नहींहमारे स्वतंत्रता अांदोलन के प्रमुख शिल्पकार थे. वे पंडित जवाहरलाल नेहरू थे. वे जानते थे कि शरीर की गुलामी से भी ज्यादा खतरनाक होती है मन की गुलामीअौर इसलिए भारतीय मन के अंधेरे कोनों को झाड़-पोंछ करउन्हें नया बनाने में उन्होंने अपना अस्तित्व झोंक दिया था. उन्हें गुलाम देश अौर भयग्रस्त अादमीदोनों ही नापसंद थे. इस दोहरे जाल को काटने के लिए उन्होंने एक अाह्वान भरा सूत्र ही बनाया था : लीव डेंजरसलीथिंक डेंजरसली एंड एक्ट डेंजरसली : दु:साहस के साथ जिअोदु:स्साहस के साथ सोचो अौर दु:स्साहस के साथ करो ! 

            खतरों से जो खेलते हैं उनका जीना तो ऐसे ही होता हैफिर जो बाकी रह जाता है वह मरने के ही भिन्न-भिन्न प्रकार हैं. 
      अाप लॉकडाउन में घर के भीतर मरते हैं कि कौरंटीन में मरते हैं या सड़क पर खतरों को रौंदते हुए मरते हैंसबकी मौत डाली तो मौत के खाते में ही जाती है. लेकिन हमें मरते-मरते भी यह देखना चाहिए कि हमारी मौत तो एक अांकड़ा भर होती हैलेकिन वह जो सड़क पर उतर कर चला तो चलता गया तब तक जब तक घर नहीं पहुंचा या जब तक मरा नहींतो उसकी मौत अांकड़ा नहीं बनीअंकित हो गई. वह जिंदगी से भी दो-दो हाथ करता रहा अौर मौत से भी उसने सीधी टक्कर ली. 

      साहस की इस खिड़की से कोरोना को देखिए. पहले लॉकडाउन से इस चौथे लॉकडाउन तक देखिए तो एक ही चीज समान पाएंगे - भय ! हर तरफहर अादमी डरा हुअा है. क्या डर कोरोना के इलाज की दवा है वैज्ञानिक बताते हैं कि यह वायरस किसी प्राणी से निकला है अौर मनुष्य तक पहुंचा है. मनुष्य में पहुंच कर यह वायरस हमारे स्नायु-तंत्र पर हमला करता है अौर फिर धीरे-धीरे हमारी सांस बंद हो जाती है. यह छोटी-सी कहानी है कोरोना अौर अादमी के बीच के रिश्ते की. अब अाप भी देखिए अौर हम भी देखते हैं कि इस कहानी में डर कहां अपनी जगह बनाता है बस वहींजहां सांस बंद होने की बात अाती है. लेकिन क्या अाप कभी भूले हैं कि सांस बंद होने का वह क्षण तो अाना ही है जीवन में. क्या उससे हम जीना छोड़ देते हैं क्या जीवन अपना अस्तित्व समेट लेता है कि उसे एक दिन तो खत्म होना है नहींसच तो यह है कि जीवन वही सही व सच्चा होता है जो अंत की हर कहानी से अपनी कहानी शुरू करता है.

     कोरोना की कहानी डर से शुरू नहीं होती है. चीन के उस वुहान मेंजहां संसार का पहला कोरानावायरस देखा-पहचाना अौर पकड़ा गयावहां एक डॉक्टर था ली वेनलियांग ! वह वायरस विज्ञान का शोधकर्मी था अौर उसने ही अपनी प्रयोगशाला में देखी थीं कुछ रहस्यमय वायरसों की रहस्यमय गतिविधियां ! उसके कान खड़े हुए. उसने देखा कि शहर के कुछ मरीजों में सांस की रहस्यमय बीमारी दिखाई दे रही है. रहस्यमय यानी जिसे पहले कभी देखा-जाना नहीं था. उसने वह देखा जो तब तक किसी ने देखा नहीं था. लेकिन ली डरा नहींउसने चुप्पी लगाना ठीक नहीं समझा. उसने सारे अस्पतालों को तक्षण सावधान किया कि यह रहस्यमय बीमारी खतरा बन कर फूट पड़े इससे पहले इसका मुकाबला करने का रास्ता खोजो. जगह थी वुहान सेंट्रल हॉस्पिटल अौर तारीख थी 30 दिसंबर 2019. वुहान के उसी सेंट्रल हॉस्पिटल में 7 फरवरी 2020 को ली का देहांत हो गया. वह मरा कि विज्ञानविरोधी ताकतों के हाथ मारा गयायह विवाद अाज भी जारी है. लेकिन वह किस्सा फिर कभी. अगर मैं कहूं कि ली की जिंदगी मात्र 40 दिनों की थी तो बात बहुत गलत नहीं होगी - लेकिन बात बहुत गलत भी हो जाएगीक्योंकि अागे संसार में जहां भीजब भी कोई कोरोना पर शोध करेगाली का जिक्र अाएगा.  फिर वह मरेगा कैसे ?  खतरों से खेलने का साहस जिनमें होता है वे ऐसे ही मर कर भी मरते नहीं हैं. 

     कोरोना डराता है तो हम घरों में बंद हो जाते हैं. लेकिन लॉकडाउन से कोरोना का कैसा रिश्ता है क्या घरों में हमारे बंद होने से वह वायरस भूखा मर जाता है ?  वह तो जिंदा रहता है अौर हमारे ही दरवाजे पर बैठा लॉकडाउन से हमारे  निकलने का इंतजार करता होता है. ऐसा नहीं होता तो कहिए भलासंक्रमण के अांकड़ों में इतनी वृद्धि कैसे हो रही है हर दिन हमारे भारत में 6 हजार नये मामलों का पता चलता है जब कि हम दुनिया के उन देशों में हैं कि जहां सबसे कम परीक्षण हो पा रहा है. हम उन देशों में हैं जहां दो गज की सुरक्षित दूरी बनाए रखना असंभव की हद तक कठिन है. अापने देखा क्या कि सड़कों पर खाना लेते अौर खाते लोगपैदल-ट्रकों-बसों-रेलों से अपने घरों की तरफ जाते लोग किस हाल में हैं वहां कोई सुरक्षा-व्यवस्था अाप बना नहीं सकते हैं. वहां एक ही सुरक्षा-व्यवस्था काम कर रही है -सावधानी ! 

      हम जानते हैं कि हम ऐसे दुश्मन से लड़ रहे हैं जिसे हम जानते ही नहीं हैं. हमारे पास अब तक इससे लड़ने का कोई हथियार भी नहीं है. तो अपनी पुराण-गाथाअों में खोजेंगे तो अापको ऐसे युद्ध-कौशल की जानकारी मिलेगी जो हथियारों के बगैर लड़ी जाती थी. वह अज्ञान की लड़ाई नहीं थीसमस्त ज्ञान को एकत्रित कर लड़ी जाने वाली लड़ाई थी. डरना नहींसाहसी बनना ! सावधानी के साथ बाहर निकलनासारी हिदायतों का पालन करते हुए अपना काम करनासावधानी के साथ दूसरों की मदद करनाईमानदार व उदार बनना कोरोना से लड़ने वाले सिपाही की पहचान है.

     कोरोना का एक सिपाही वह है जो अस्पतालों में रात-दिन बीमारी से जूझ रहा है - सिर्फ डॉक्टर अौर नर्स नहींवार्ड में हमारी मदद करने वाला हर एक-एक स्टाफ ! वह ईमानदारी से अपना काम करता है तो सिपाही हैईमानदारी से नहीं करता है तो यही है कि जिसके कारण हम यह लड़ाई हार जाएंगे. दूसरा सिपाही वह है जो हमारी नजरों अौर हमारे कैमरों अौर हमारी कलमों से बहुत दूर खेतों-खलिहानों मेंफूल-फलों के बगीचों मेंछोटे-बड़े उद्योगों में लगातार मेहनत कर उत्पादन की श्रृंखला को टूटने नहीं दे रहा है. तीसरा सिपाही वह है जो सिपाही के कपड़ों में हर सड़क-चौराहे पर खड़ा मिलता है. वह हमें रोकता हैनिषेध करता हैकभी मुंह से तो कभी डंडे से बात करता है. जब वह डंडे से बात करता है तब वह हारा हुअाअकुशल सिपाही होता है लेकिन उसे देख कर हम उन अनगिनत सिपाहियों को नजरंदाज कैसे कर सकते हैं जो हर लॉकडाउन में न लॉक’ होताे हैंन डाउन’ होते हैं चौथा सिपाही वह है जो अपनी प्रेरणा सेअपनी छोटी मुट्ठी में बड़ा संकल्प बांध कर खाना-पानी-मास्क-ग्लब्स ले कर कभी यहां तो कभी वहां भागता दिखाई देता है. यह किसी के अादेश से नहींअपनी मानवीय प्रेरणा से काम करता है अौर उससे ही बल पाता है. इसके सामने सिर्फ अाकाश होता हैदीवारें नहीं होती हैं - न धर्म कीन जाति कीन रंग की,न लिंग की. यह प्रेम व विश्वास के अलावा दूसरी कोई भाषा न सुनता हैन बोलता है. इनकी गिनती नहीं है क्योंकि अाप अादमी को तो गिन भी लेंअादमियत को कैसे गिन सकते हैं ! पांचवां सिपाही वह है जो सहानुभूतिपूर्वक हर किसी की तकलीफ सुन रहा है अौर सद्भावपूर्वक उसे रास्ता बता रहा है. यही है जो हमारे घरों-सड़कों-पेड़ों पर रहने वाले बेजुबानों के लिए कहीं पानी धर देता हैकहीं रोटी डाल देता है. यह है जो हमारे उस प्राचीन गणित को सही साबित करता चलता है जिसमें 1 अौर 1,  2 नहीं11 होते हैं. यह गलत गणित नहीं हैहमारे गलत गणित को सही करने वाला शाश्वत गणित है. 

     अाप लॉकडाउन में घरों के भीतर ही नहींघरों के बाहर क्या कर रहे हैं अौर किस नजर से कर रहे हैं यही बताएगा कि अाप स्वंय ही कोरोना हैं कि कोरोना के खिलाफ छेड़ी गई लड़ाई के सिपाही हैं. ऐसा हर बार होता है अौर बार-बार होता है कि सही मोर्चे पर गलत सिपाही पहुंच जाता है. लेकिन लड़ाई तो तभी जीती जाती है न जब असली मोर्चे पर असली सिपाही पहुंचता है. तो यह खतरे में साहस अौर सावधानी का हथियार ले कर उतरने का समय हैबैठने का नहींलड़ने का समय हैहारने का नहीं जीतने का समय है. ( 29.05.2020)  

Monday 11 May 2020

कोरोना से लड़ने का उपाय

             एक नया शब्द गढ़ा गया है - कोरोना वारियर्स !! कौन हैं ये ? वे सारे सफेदपोश लोग जो अपने-अपने सुरक्षित अारामगाहों में बैठ कर हमें ललकारते हैं, क्या वे कोरोना वारियर्स हैं ? जिनके लिए हमसे थाली-ताली बजवाई गई; जिनके लिए हमसे पटाखे अौर चिराग जलवाए गये; जिनके लिए हवाबाजों ने हवाई करतब किए अगर वे सब कोरोना के सिपाही हैं तो फिर हम यह जंग जीत क्यों नहीं पा रहे हैं ? नहीं, अाप मुझे वह सब मत समझाइए जिसे खुद बिना समझे सारे विशेषज्ञ हमें रोज समझाते हैं; अौर रोज ही हम यह समझ कर अगली सुबह का इंतजार करते हैं कि किसी की समझ में कुछ भी नहीं अा रहा है. उस रोज एक सरकारी विशेषज्ञ कह गया कि हमें कोरोना के साथ ही जीना सीखना होगा. अरे, तुमने बताया भी तो क्या बताया, हम तो उसके साथ ही जी रहे हैं भाई ! हर संक्रमण हमें सिखा कर जाता है कि जो मर-मर कर जीना सिखाता है वही कोरोना के भी, अौर दूसरे हर  तरह के संक्रमण के खिलाफ के युद्ध का सिपाही है.

            वह सिपाही अभी भी सड़कों पर है - उसके पास पीपीई नहीं हैवह हर वक्त सेनेटाइजर से हाथ धोता नहीं हैक्योंकि वही हमें यह याद दिलाता है कि संसार में पानी की कमी का संक्रमण फैलने ही वाला हैउसने नाक-मुंह बंद करने वाला मुखौटा ( ?) भी नहीं लगा रखा है क्योंकि वही हमें याद दिलाता है कि जो बार-बार चेहरे बदलते हैं वे चोर-डाकू होते हैंसिपाही नहींवह हमारे विमान-रेल-बस-टैक्सी का इंतजार किए बगैर मौत की बेरहम दुनिया से निकल पड़ा है कि बकौल दुष्यंत कुमार - “ मरें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले !” लिखा शहर के दुष्यंत कुमार ने है तो इसलिए इसमें बगीचा भी हैगुलमोहर भी हैक्रांति का प्रतीक भी हैकिसी दुलाई कुमार ने लिखा होता तो लिखता - “ मरें तो अपनी झुंपड़िया की छांह तले !” यही तो परंपरा नेमाता-पिता नेगांव ने सिखाया है कि कमाने-खाने के लिए जहां किस्मत ले जाएजाअोलेकिन बबुअामरने वास्ते यहीं अपनों में अा जाना. मिट्टी अपनी मिट्टी में मिलती है तो मोक्ष मिलता है.  

            वह पैदल-मन अाया थापांव-पैदल लौट रहा है. उसे मार्क्स ने समझाया था न कि तुम्हारे पास खोने को अपनी बेड़ियों के सिवा दूसरा कुछ नहीं है ! वह उसे याद है. इसलिए लॉकडाउन के साथ ही उसने बेड़ियों से निकल कर वापसी की यात्रा शुरू कर दी थी. 

            हम न जाने कब से इन मजदूरों को हजारों किलोमीटर की यात्रा पर अपनी दो पहिया गाड़ी से निकल पड़े देख रहे थे. इस महानिभिष्क्रमण में सभी शरीक हैं - बूढ़े माता-पिता जो अपने पांवों के जवाब देने पर जवानों के कंधों के पांवों पर बैठ कर जा रहे हैंएकदम दुधमुहें जो मां-बाप की गोदी में चिपके हैंवह भावी पीढ़ी भी है जो मां के साथ उसके पेट में ही चल रही है. इनका सारा संसार कंधे पर धरे-लटकते बैगों में बंद है क्योंकि इनकी असली दौलत तो वे हथेलियां अौर वे पांव हैं जिनसे दुनिया नाप करयह सारा संसार रचा है इन्होंने. वह साथ है तो ये इंसान अौर भगवान से एक साथ भिड़ते अाए हैंभिड़ने निकल पड़े हैं. 

            इनके जाने का दर्द किसी को नहीं हुअा क्योंकि इनको रखने का नुकसान उठाने को कोई तैयार नहीं था. कभी नहीं कहा प्रधानमंत्री ने कि हमारे ये श्रमिक ही कोरोना के खिलाफ की लड़ाई के असली सिपाही हैं. क्या कभी प्रधानमंत्री ने याकि सारे करामाती मुख्यमंत्रियों में से किसी ने सोचा कि यदि इन्हें सुरक्षित कर लिया जाएसंभाल कर अपने साथ रख लिया जाए तो कोरोना से लड़ने में भरपूर मदद मिलेगीक्योंकि ये अपनी जगह होते तो ऐसा अार्थिक अंधेरा नहीं होताउत्पादन का चक्का इस तरह एकदम रुक नहीं जाताबाजार भी चलता होताखेतों-खलिहानों में अनाज होता. इस व्यवस्था को चलाए रखने के लिए लोगों की कमी नहीं होती. हमारे अनपढ़-अकुशल श्रमिक वे पुर्जे हैं कि जो किसी भी मशीन मेंकहीं भीकभी भी फिट हो जाते हैं. 21 दिनों के पहले लॉकडाउन से पहले यह हिसाब कर लेना था कि हमारी यह ताकत कहां-कहां हैकितनी है अौर इसे टिकाए-बनाए-चलाए रखने के लिए क्या-क्या व्यवस्था अनिवार्य हैवह कौन,कैसे बनाएगा अौर कौनकैसे उसे संचालित करेगा.       

           50 दिनों की तालाबंदी अौर सड़कों पर कट-मर गये मजदूरों को देखने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री को लगा कि यह व्यवस्था पूरी तरह विफल हो गई है. अब उन्होंने मजदूरों से अपील की है कि वे दिल्ली से न जाएंदिल्ली सरकार उनकी पूरी व्यवस्था करेगी. इतनी देर लगी उन्हें यह समझने में कि वे भी अौर उनके जैसे तमाम मुख्यमंत्री अौर उनकी सरकारें भीअौर करिश्माई प्रधानमंत्री भी किसके कंधों पर बैठे हैं जिसकी अभ्यर्थना में ये सब रात-दिन झुके रहते हैंसभी सरकारें जिनकी सुविधा के लिए हैंइस अंधेरे दौर में भी जिसके इशारे पर श्रम कानूनों में ऐसे अंधे परिवर्तन किए गये हैं कि श्रमिक पहले से भी ज्यादा कवचविहीन हो गया हैवह सारा कारपोरेट जगत अाज घुटनों पर हैक्योंकि यह नंगा-भूखा-उपेक्षित मजदूर उनके साथ नहीं हैउनके पास नहीं है.                    
  
          श्रमिकों के साथ जैसा व्यवहार हम कर रहे हैं वह अमानवीय भी है अौर अदूरदर्शी भी. देश का भला इसी में है अौर कोरोना की लड़ाई भी तभी श्रेयस्कर होगी कि श्रमिकों की वापसी का पूरा व पक्का इंतजाम हर राज्य में किया जाए - वह मुफ्त भी हो अौर सम्मानपूर्ण भीगांवों में उनके लिए अनाज-पानी की पक्की व्यवस्था कर दी जाएउनसे कह दिया जाए कि वे जब भी अपने काम पर वापस लौटना चाहेंगे उनके लौटने की व्यवस्था भी की जाएगी. इस बीच हर उद्योगपति अपने उद्योग-क्षेत्र में साफ-व्यवस्थित श्रमिक-अावास का निर्माण करवाएंगे तथा श्रमिक कानून का पूरा पालन करते हुएकोरोना-काल में भी अौर उसके बाद भी श्रमिकों से काम लिया जाएगा. यह मंहगा नहीं पड़ेगा क्योंकि यह न्यायपूर्ण होगाकिसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं होगासम्माजनक होगा. न्यायसम्मान अौर समान भाव का परिणाम होगा कि श्रमिक लौटेंगे भीईमानदारी से काम करेंगेपटरी से उतरी उत्पादनदैनिक कार्य-व्यवहारसेवा-क्षेत्र की गाड़ी पटरी पर लौटेगी. विफल व्यवस्था की अराजकता काबू में की जा सकेगी. सरकार भी अौर कारपोरेट भी यह समझ सकेंगे कि इस नई व्यवस्था में उनका न्यायपूर्ण मुनाफा कहीं जा नहीं सकता है लेकिन लूट नहीं चल सकती है. जिस पार्टी की भी सरकार होअब उसके पास खाने व दिखाने का एक ही दांत होगा. मान लें सब कि व्यवस्था का दूसरा दांत कोरोना खा गया है. सरकारें अपनी अौकात भी समझें अौर अपनी शक्ति भी पहचानें - वे लोकतांत्रिक खेल की खिलाड़ी नहीं हैंवे अंपायर हैं. खेल नियम से चले यह देखना उनकी धर्म हैनियम संविधान ने तै किए हैं. कोई भी तोड़े नियम तो सिटी मारना सरकार की ताकत है. बससरकार का मतलब न इससे ज्यादा कुछ हैन इससे कम कुछ. विज्ञान अपनी जगह अौर समाज अपनी जगह कोरोना से लड़ेइसका यही ब्ल्यू-प्रिंट दिखाई देता है. अभी तो राजनीति अौर नौकरशाही ने इस लड़ाई को अपना खेल बना लिया है.         

           तालाबंदी की इस पूरी अवधि में मजदूरों के कई वर्ग हैं जिनका सबसे अधिक दुरुपयोग हुअा है. उसमें पहले नंबर पर है पुलिस ! यह हमारे लोकतंत्र का वर्दीधारी मजदूर वर्ग है. राजधानी दिल्ली के एक प्रमुख पुलिस थाने का अधिकारी झुंझला कर बोला था : हमें इसी थाना में कोरंटाइन कर दिया है… सामान्य मानवीय सुविधाएं भी नहीं हैं यहां. यहीं हम सुबह से चूल्हा जला कर पूड़ियां सेंकते हैंखिचड़ी बनाते हैंपैकेट बनाते व भरते हैं अौर फिर जिप्सी में डाल कर ले चलते हैं वितरण के लिए. जाना कहां हैदेना किसे हैयह भी हमें बताया जाता है. हम बस बांट भर अाते हैं. उसी पैकेट में से हम भी खा लेते हैंयहीं सो जाते हैं. फिर अचानक कहींकुछ गड़बड़ होती है तो हम ही वर्दी डाल कर अपनी ड्यूटी पर दौड़ते भी हैं. घर जाना मना है क्योंकि हम संक्रमण फैला सकते हैं. इस पुलिस का बोझ कम किया जा सकता था अौर उसे पुलिस का काम करने दिया जा सकता था यदि बेचैन हो कर गांव भागते मजदूरों को योजनापूर्वक रोका जातानागरिकों को घरों में ठूंसने की जगह उनसे सावधानी के साथ अपनी मानवीय भूमिका निभाने को कहा जाता अौर व्यवस्था उनकी सहायक की भूमिका निभाती. 

           यह सब हो सकता था अौर अब तक हम कोरोना के कई दांत तोड़ चुके होते. काश कि हमारी स्वार्थी राजनीति खुद ही कोरोनाग्रस्त नहीं होती ! लोकतंत्र की अगली चुनौती इसका वैक्सीन बनाने की है. ( 11.05.2020)

Monday 4 May 2020

अाप कोरोना से डर रहे हैं ?


      अब जबकि जिन्होंने तालाबंदी की थी वे कह रहे हैं कि हम ढील दे रहे हैंतब “ कभी हम खुद को तो कभी अपने घर को देखते हैं!” सचमैं भी खुद को अौर अपने घर को देखता हूं अौर पाता हूं कि सभी डर रहे हैंसभी एक-दूसरे से बच रहे हैं. 

        अपने देश ने ऐसा कुछ पहले देखा नहीं थादुनिया ऐसे हालातों से पहले कभी गुजरी नहीं थी. लोग अपनों से कभी इस तरह अाशंकित नहीं हुए थेलोग अपनों से इस तरह कभी जुदा नहीं हुए थे. सब कुछ था फिर भी जैसे कुछ भी नहीं था.जीवन तो था लेकिन सब अोर सनसनी मौत की ही थी. मौत वह हकीकत बनती जा रही थी जो सभी फसानों पर भारी थी. कमरों में लगने वाला ताला मुल्कों पर लगाया जा रहा था लेकिन लगता था कि कोरोना-दैत्य को हर ताले की चाभी का पता है. ऐसा पहले भी हुअा था लेकिन इतना व्यापक नहीं हुअा था. यह तो सही अर्थों में अंतरराष्ट्रीय है. हमारी अाधुनिक सभ्यता के सारे स्वर्णिम शिखर सबसे पहले धूल-धूसरित हुए. अांसू भरी अांखों से ब्रिटेन की वह डॉक्टरनी जो कह रही थी वह जैसे सारी दुनिया की बात कह रही थी : “ हम कर तो कुछ नहीं पा रहे हैं लेकिन देखिएहम मोर्चा छोड़ कर भाग भी नहीं रहे हैं !

       अाज भी सब कुछ वैसा ही है। जिंदगी के नहींमौत के अांकड़े ही हैं जो हम एक-दूसरे के साथ बांट रहे हैं।जिंदगी अौर मौत के बीच का फासला इतना कम कब था याकि हमने कब महसूस किया था लेकिन नहींकहने अौर देखने को इतना ही कुछ नहीं है। बहुत कुछ अौर भी है : पहले से कहीं ज्यादा शांत नगर-मुहल्ले हैंसड़कों पर लोग हैं लेकिन भीड़ नहीं हैकहीं भीड़ है भी तो भीड़पन नहीं हैकई गुना साफ पर्यावरण हैधुली हवापारदर्शी पानीअपनी चमक बिखेरते जंगलअाजाद जानवरचहकते पंछी ! हिमालय की देवतुल्य चोटियां बहुत दूर से साफ दिखाई देने लगी हैं. हमने जिनके जंगल छीन लिया था वैसे कई पशु-पंछी हमारे नगरों की सड़कों का मुअायना करते दिखाई देने लगे हैं.              कौन कर रहा है यह सारा काम देश तो बंद है ! सर्वशक्तिमान सरकारें कमरों में कैदअापस में बातें कर रही हैंतो फिर कौन है जो यह सब कर रहा है हम अपना विकासविज्ञान अौर विशेषज्ञता अौर अपनी मशीनें ले कर जैसे ही हटेप्रकृति अपने सारे कारीगरों को साथ ले कर मरम्मत में जुट गई. जिन बिगाड़ों को हमारे विशेषज्ञों ने हमारी किस्मत बता कर किनारा कर लिया थाअाज वे सारे जैसे रास्ते पर अा रहे हैंअोजोन की चादर की किसी हद तक मरम्मत हो गई हैग्लैशियरों का पिघलना कम हो गया है.  अाप हिसाब करें कि हुए कितने दिन हैं तो कुल जमा 70 दिन ! इतने ही वक्त में प्रकृति ने बहुत कुछ झाड़ डाला हैपोंछ लिया हैरोप दिया है. उसने हमसे कह दिया है कि तुम अपना हाथ खींच लोमैं अपना हाथ बढ़ाती हूं। इसलिए पीछे नहीं लौटना हैरास्ता बदल कर तेजी से चलना है - अागे ! गांधी का हिंद-स्वराज्य’ इसी घर-वापसी का ब्ल्यू-प्रिंट है. 

      प्रकृति के कारीगरों की भी अपनी क्षमता है. वे रात-दिन लग कर जितना रच सकते हैंहमारा बिगाड़ा हुअा जितना बना सकते हैंहमारा प्रदूषित किया जल अौर वायु जितना साफ कर सकते हैंहमारे काटे-खोदे जंगलों अौर खदानों को  जितना परिपूरित कर सकते हैं उससे ज्यादा बोझ उन पर मत लादो ! किसान भी विवेक करता है कि अपने बैल पर कितना बोझ डालेहम उतना विवेक भी नहीं करते हैं कि अपने किसान पर कितना बोझ डालें. प्रकृति थकती नहीं है लेकिन बेदम जरूर हो जाती है. हमारी सभ्यता उसका दम निकाल लेती है. यह बंद करना होगा. विकास की पोशाक में विनाश का यह खेल बंद करना ही होगा.   

      उतना ही अौर वैसा ही विकास हमारे हिस्से का है जितना अौर जैसा विकास पर्यावरण के चेहरे पर धूल न मलता हो. बाकी सारा कुछ छलावा हैझूठ हैअापकी खड़ी की धोखे की टट्टी है. जरूरी है कि एक कोरोना से निकल कर हम दूसरे कोरोना में न जाएं. इसलिए बंद करनी होगी बेवजह की असुविधा पैदा करने वाली सुविधा की यह अंधी दौड़कारों-विमानों-कारखानों का यह जुलूससच को झूठ अौर झूठ को सच करने वाली विज्ञापनबाजीदो लगा कर दस पाने की भूख जगाने वाला यह अार्थिक छलावा अौर लगातार हमारी जरूरतें बढ़ाते चलने वाला यह बाजार ! पूंजी को भगवान बताने वाला अौर भगवान से पूंजी कमाने वालालोभ अौर भय के पहिए पर दौड़ने वाला यह विकास नहीं चाहिए। 

      कोई ज्ञानी पूछता है - क्या कोरोना इनसे पैदा हुअा है वह मुझे डरा कर चुप कराना चाहता है. चुप रहना अौर चुप कराते रहना इनकी सभ्यता का हथियार है. मैं अज्ञानी कहता हूं : नहींकोरोना तो विषाणु है जो प्रकृति से पैदा हुअा है। अागे भी होगा किसी दूसरे नाम से. पहले भी हुअा था - कभी हैजा के नाम सेकभी प्लेग के नाम सेकभी इंफ्लूएंजा तो कभी स्मॉलपॉक्स के नाम से. ब्लैक डेथएचअाईवीएशियन फ्लूबर्ड फ्लूइबोला अौर न जाने क्या-क्या नाम सिखाए थे अापने. इसलिए विषाणुअों का पैदा होना प्राकृतिक है. एक अध्ययन बताता है कि एक व्यक्ति एक दिन में अौसतन २-४ सौ ग्राम मल त्यागता हैअौर हमारे एक ग्राम मल में 1 करोड़ वायरस10 लाख बैक्टीरिया अादि होते हैं.   तो इन विषाणुअों से हमारा नाता पेट से ही होता है. लेकिन कोरोना से लड़ाई में हम जितने कमजोर अौर असहाय साबित हुए हैं वह जीवन केजीविका के अौर विकास के उन्हीं कारणों से जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया है. यह बीमार विज्ञान हैयह अंधा विकास हैयह अमानवीय संस्कृति हैयह डगमगाती सभ्यता है। इससे निकलना होगाइसे बदलना होगाइसे अस्वीकार करना होगा। वह छोटा-साअनमोल शब्द हमें फिर से सीखना व जीना होगा जिससे गांधी के सत्याग्रह की शुरुअात होती है - नहीं !
 
     नहींभय नहींनहींलोभ नहींनहींहिंसा नहींनहींवह नहीं जो सबके लिए समान रूप से उपलब्ध नहीं है.  नहींजरूरत से ज्यादा नहीं अौर जरूरतें ज्यादा बढ़ाना नहींनहींकिसी से डरना नहीं अौर किसी को डराना नहींनहींदूसरों के बल पर अौर दूसरों से छीने गये संसाधनों पर इतराना नहींनहींहाथ का काम अौर हाथ से काम धर्म हैकर्तव्य हैस्वाधीनता से जीने का मूलमंत्र हैभूलना नहीं. अात्मनिर्भरता अौर अात्मसम्मान जहां नहींवहां रहना नहीं. कोरोना इतना जगा जाए हमें तो वह भगवान का भेजा दूत ही कहलाएगा. नहीं तो यह कोरोना अपने किसी भाई -बंदे को अगली बार फिर ले कर अाएगा. प्रकृति अात्मसम्मान के साथ अात्मनिर्भरता का जीवन जीना चाहती है जिसमें हमारी जीवन-शैली बाधक होती है. बाधा कौन पसंद करता है न हमन प्रकृति ! ( 04.05.2020)