हे राम !




महात्मा गांधी की हत्या एक व्यक्ति कीकिसी कारणविशेष के लिए की गई हत्या नहीं थी. मानवता के इतिहास में सत्य-असत्यसंस्कृति-विकृतिधर्म-अधर्म की एक शाश्वत टकराहट पहचानीजा सकती है. सत्य - संस्कृति - धर्म की शक्तियां हमेशा उर्द्धगामी होती हैंबल्कि कहें कि वे उर्द्धगामी होती हैं इसलिए ही वे सत्य-संस्कृति-धर्म की शक्तियां कहलाती हैं. असत्य - अधर्म - विकृति की ताकतें हमेशा यथास्थितवादी होती हैंपरिवर्तन पर घात करती हैंऔर इसलिए हत्या उनका पहला और आखिरी हथियार होता है.

 

महात्मा गांधी इस शाश्वत द्वंद्व के प्रमाण भी हैं और शिकार भी !

 

कई किताबें हैं जो इस हत्या के पीछे की कहानी बताती हैं. फिर भी बार-बार जरूरत पड़ती है कि नये संदर्भों मेंनये खुलासों के संदर्भ में इस हत्या को जांचा जाएपरिभाषित किया जाए. विभिन्न समय परविभिन्न संदर्भों में लिखे गये मेरे ऐसे सभी लेख इस खंड में संकलित किए गये हैं


महात्मा गांधी के साथ

महात्मा गांधी से माफी 

अब रही सही कसर भी निकल गई-संघ परिवार के अधिपति मोहन भागवत ने कह दिया कि महात्मा गांधी दिव्य महापुरुष थे. लगता है कि गांधी ने अच्छे दिन लौट रहे हैं ! 

 

संघ परिवार के स्वंयसेवकों की बात करें तो सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गांधी की महानता को पहचाना और प्रधानमंत्री की हैसियत से दुनिया भर में मंचों पर गांधी का नाम लेते घूमते रहे. युद्ध-बुद्ध” जैसी कितनी ही उनकी तुकबंदियां सामने आती रही हैं. उन्होंने ही गांधी की आंख छोड़ करगांधी का चश्मा प्रतीकस्वरूप लिया और स्मार्ट सिटी के अपने काल्पनिक देश में उन्होंने ही गांधी को सड़क सफाई का जमादार बना कर दूर-दूर तक पहुंचाया. उन्होंने इतनी सावधानी जरूर बरती कि उनकी पार्टी व सरकार का कोई सदस्य गांधी-द्वेष से पीड़ित हो करकुछ अनाप-शनाप बके तो वे उसे अनसुना कर दें. आखिर हम भी तो यह मानते ही हैं कि लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने की आजादी है !  

 

 लेकिन मोहन भागवत ने प्रधानमंत्री से आगे की बात कही: महात्मा गांधी को उनकी १५०वीं जयंती के अवसर पर याद करते हुए हमें यह संकल्प लेना ही चाहिए कि हम उनके पवित्रसमर्पित और पारदर्शी जीवन तथा स्व-केंद्रित जीवन-दर्शन का अनुपालन करेंगेऔर इसी रास्ते हम भी अपने जीवन में इन्हीं गुणों का बीजारोपण करते हुए भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए स्वंय को समर्पित करेंगे. उन्होंने महात्मा गांधी की सामाजिक समता और सुसंवादिता के सिद्धांत की अनुशंसा की.

 

 संघ परिवार के मुखपत्र ऑर्गनाइजर’ ने महात्मा गांधी और स्वराज्य का दर्शन शीर्षक से एक विशेष अंक ही प्रकाशित किया है जिसमें ऐसा कहा गया है कि स्वतंत्रता के बाद महात्मा गांधी के संदेश पर अमल किए बिना उनके नाम व गांधी’ उपनाम का उपयोगदुरुपयोग और बदनीयति से इस्तेमाल होता रहा है. लेकिन अब हम इस हैसियत में हैं कि भारतमाता के नि:संदेह ही इस सबसे प्रभावी संतान व संदेशवाहक को फिर से समझें और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैश्विक चुनौतियों का जवाब दें. 

 

 यह महात्मा गांधी का पुनर्मूल्यांकन है या संघ की विचारधारा काकहना मुश्किल है. संघ परिवार का इितहास हमें सावधान करता है कि हम ऐसे शब्दजालों में न फंसेंक्योंकि यह परिवार सत्य में नहींरणनीति में विश्वास करता है. लेकिन हम विचार-परिवर्तन और ह्रदय-परिवर्तन में भी मानते हैंतो किसी को भीकभी भी सत्य को समझने की दृष्टि मिल सकती हैइसमें हमारा भरोसा है. मोहन भागवत राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को एक नई पहचान देने की कसरत करते दिखाई देते हैं. उन्होंने कई स्तरों पर शाब्दिक बदलाव के संकेत दिए हैं और यह भी कहा कि रास्वंसं किसी एक विचार या विचारक से बंधा हुआ नहीं है. इसी क्रम में उन्होंने गुरु गोलवलकर की उस आधारभूत किताब का भी जिक्र किया जिससे रास्वंसं आज तक अपनी प्रतिबद्धता घोषित करता आया है. भागवत कहते हैं कि गोलवलकर की वह किताब भी संघ के लिए अंतिम नहीं है. यह खुलापन संघ के अब तक के चरित्र से मेल नहीं खाता है.

 

 परिवर्तन की यह संभावना कहां से पैदा हुई है संघ भारतीय समाज की जिस कल्पना में विश्वास करता आया है और उसके लिए जैसी संरचना वह चाहता रहा हैवह दिनोदिन कालवाह्य होती जा रही है. आजादी के बाद के ७० से अधिक सालों में भारतीय समाज की जैसी संरचना बन रही हैउसमें किसी जाति या धर्म के वर्चस्व की बात सोचना गलत है. यह सोचना भी गलत है कि संचार-संवाद की जैसी क्रांति हुई है उसके बाद किसी उन्माद या संकीर्णता के ईंधन से भारतीय समाज चलाया जा सकता है. ऐसा लग सकता है कि हिंदुत्व या किसी दूसरे का नाम उछाल कर सफलता पाई जा सकती हैकि कोई गाय या कोई सूअर समाज को गोलबंद कर सकता है कि कोई एक नेता या नारा सारे देश को बांध या भरमा सकता है लेकिन यह सब क्षणजीवी सुख से ज्यादा नहीं है. सत्ता पाने में ये हथियार सफलता दिला भी दें शायद लेकिन वह बहुत क्षणिक होगा. समाज पहले से कहीं अधिक तार्किकसचेत और परिणाम की चाह व पहचान करने वाला हो गया है. समाज इसी दिशा में आगे बढ़ता जाएगाउत्तरोत्तर विकसित ही होता जाएगा. समाज का यह विकास ही कारण है कि महात्मा गांधी वक्त के साथ चलते हुए लगातार नये होते जाते हैं जबकि दूसरी विचारधाराएं  समाज को अपने सांचे में ढालने या अपनी हद में बांधने की कोशिश करती हुई काल के गाल में समाती जाती हैं. क्या गांधी का यह स्वरूप  संघ-परिवार की समझ में आता है 

 

 गांधी की कैसी भी प्रशंसा या पूजा निरर्थक व आत्मघाती होगी यदि उसके पीछे उनके जीवन व दर्शन से सहमति भी न हो. कांग्रेस का वर्तमान राजनीतिक हश्र इसी का उदाहरण है. भारत में समाजवादी दलों के पराभव की जड़ भी यहीं है. गांधी-विचार के संगठनों ने भी यहीं आ कर मुंह की खाई है. गांधी के साथ क्षद्म नहीं चल सकता हैक्योंकि असत्य या बनावटीपन के साथ गांधी को पचाना संभव नहीं है. ऑर्गनाइजर’ के उसी अंक में संघ के वरिष्ठ नेता मनमोहन वैद्य का लेख ऐसे ही क्षद्म का उत्तम उदाहरण है. वे महात्मा गांधी की प्रशंसा कर रहे हैं या उन्हें खारिज कर रहे हैं याकि यह रहस्य खोल रहे हैं उन्हें गांधी की बुनियादी बातों की समझ ही नहीं हैयह मोहन भागवत को ही हमें बता सकते हैं. मनमोहन वैद्य लिखते हैं कि हम गांधीजी की हमेशा सराहना करते रहे हैं हालांकि हमारी उनसे असहमति रही है. मुस्लिम समाज के जिहादी और अतिवादी तत्वों के समक्ष उन्होंने जिस तरह आत्मसमर्पण कर दिया थाउसके बावजूद हम चरखा तथा सत्याग्रह जैसे सरल व सर्वस्वीकृत तरीकों से भारत के स्वतंत्रता संग्राम को व्यापक जनाधार देने की उनकी कोशिशों को उनकी महानता के रूप में देखते रहे हैं. अब अगर संघ के एक धड़े का यह विश्लेषण हो कि गांधीजी ने मुस्लिम समाज के अतिवादी तत्वों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था और चरखा व सत्याग्रह सरल व सर्वस्वीकृत रास्ते थेतो सोचना पड़ता है कि मोहन भागवत कि मनमोहन वैद्य - संघ का असली चेहरा कौन-सा है मोहन भागवत गांधी को समझते लगते हैं तो मनमोहन छद्म करते ! 

 

 अब मोहन भागवत को संघ का असली चेहरा साफ करने के लिए एक कदम और चलना होगा : अगर गांधी की महानता और पवित्रता का उनका मूल्यांकन पक्का है तो उनकी हत्या से ले कर अब तक उनकी चारित्र्य-हत्या तक की तमाम कोशिशों की उन्हें माफी मांग लेनी चाहिए. इतिहास का चक्र पीछे तो नहीं लाया जा सकता हैइतिहास से माफी मांगी जाती है. इतिहास में ऐतिहासिक गलतियों का अध्याय बहुत बड़ा है. उससे खुद को बाहर निकालने का एक ही तरीका है कि आप इतिहास से माफी मांग लें. अगर ब्रिटिश आर्चबिशप अभी-अभी जालियांवालाबाग में मत्था टेक कर उन ज्यादतियों की माफी मांगता है जो गुलाम रखने के दर्प में ब्रितानी हुकूमत ने तब किए थे तब कोई कारण नहीं है कि संघ परिवार महात्मा गांधी की हत्या और उनके प्रति चलाए घृणा अभियान की माफी न मांग लें ! इस माफी के साथ वह अध्याय बंद हो जाएगा और संघ परिवार को आगे निकलने का मौका मिल जाएगा. फिर आगे संघ परिवार कैसे और कौन-सी दिशा पकड़ता हैउस पर ही हमारी नजर रहेगी.

 

 क्या माफी का ऐसा विनय और माफी की ऐसी वीरता संघ परिवार के पास है ? ( 06.10.2019)



इतिहास की गलियों से वर्तमान तक का सफर

1948 की 12 जनवरी थी ! अभी-अभी आजाद हुए देश की राजधानी दिल्ली का बिरला भवन… दमघोंट चुप्पी सब ओर जमी हुई थी - थरथराती हुई ! हर सुबह की तरह आज भी 3.30 बजे सभी प्रार्थना के लिए जमा थे लेकिन कहीं कुछ था कि जो बर्फ की तरह जमा धरा था. बापू थे और प्रार्थना में डूबे थे… लेकिन जैसे वे वहां नहीं थे… आज उनका मौन दिवस था … लेकिन यह दूसरे मौन दिवसों से कुछ अलग थाक्योंकि बापू कहीं भीतर ही गुम थे. प्रार्थना खत्म हुईउन्होंने इधर-उधर देखा कि जैसे कुछ खोज रहे हों… मनु करीब आईं और उनके सहारे वे उठे… उलझते-से पांवों से अपने कमरे की अोर चले… मनु ने उढ़ा कर सुला दिया और खुद भी सोने चली गईं… बापू सोये नहींउठ बैठे और कुछ लिखने लगे… 

 

 जो लिखा उसका अनुवाद सुशीला नैयर करती थीं. वे अनुवाद बोलती जाती थीं और मनु लिखती जाती थीं. हर सोमवार को यह अनुवाद-बैठक होती थी. उस रोज भी हुई और सुशीलाजी ने पढ़ना शुरू किया कि अचानक वे चीख पड़ीं : “ अरेमनुदेख यह क्या… वे जो पढ़ रही थीं और जो कह रही थीं उस पर उनका ही भरोसा नहीं बैठ रहा था… “ अरे… मनु…  देख… बापू तो कल से अनशन पर जा रहे हैं !!” … और मनु कुछ समझतीं-समझतीं कि सुशीलाजी बेतहाशा भागीं बापू के पास ! … बापू मौन थे. कुछ भी सुनना-कहना नहीं था उन्हें ! इशारे से इतना ही कहा कि बात तो मौन खत्म होने पर ही होगीअभी तो जो लिखा है उसका अनुवाद करो ! … यह कैसे संभव है ?? … उपवास फिर ? …  अभी ही तो बमुश्किल छह माह पहले कलकत्ता का वह भयंकर उपवास हुआ था … मौत एकदम सामने आ बैठी थी … पागल कलकत्ता … खून सवार था जिसके सर पर उसके सामने प्रार्थनारत उपवास पर बैठी बापू की वह दुबली-पतली काया … सारी शैतानी के केंद्र में थे सुहरावर्दी जो आज खुद का सामना भी नहीं कर पा रहे थेहैदरी मैंशन का वह दृश्य भला कौन भूल सकता था … जैसे तेज आंधी में कोई दीया जल रहा हो … हवा का हर झोंका जिसकी लौ को खात्मे तक खींच ले जाता था और बुझते-बुझते फिर-फिर लौ संभल कर स्थिर हो जाती थी… कलकत्ता में बापू के प्रार्थनामय उपवास से क्या होगा न कोई जानता थान मानता था … लेकिन हर कोई भीतर-भीतर यह जान रहा था कि इस आदमी के अलावा दूसरा कोई नहीं है कहीं कि जो सब कुछ लील जाने वाली इस आग को लील सकता है … इस आग को लगाने-उकसाने वाले सुहरावर्दी को कहां पता था कि यह आदमी अपनी जान उनके हाथ में छोड़ कर इस कदर निर्विकार प्रार्थनारत हो जाएगा… सुहरावर्दी इस उपवास का मुकाबला नहीं कर सके और हालात पर काबू करने में उन्होंने खुद को झोंक दिया … फिर वह सब हुआ कि जिसे वाइसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन ने अपनी वनमैन आर्मी’ का चमत्कार कहा … बापू को अस्तित्व की आखिरी लकीर तक पहुंचा कर वह उपवास पूरा हुआ था… बापू की बात छोड़ें हमबापू के लोग भी अभी उस उपवास से संभले नहीं थे िक अनुवाद से निकल आया यह नया उपवास !! … हालत कलकत्ता से भी बुरी है और यहां कोई सुहरावर्दी भी नहीं है. सुशीला,मनु सभी पागल हुए जा रहे थे लेकिन वे दोनों जान रही थीं कि अनुवाद पूरा करना उनकी पहली प्राथमिकता है… वह पूरा नहीं हुआ या अधूरा छोड़ा गया तो उपवास की परीक्षा और दारुण हो जाएगी… इसलिए घनश्यामदास बिरला तक बात पहुंचा कर दोनों अनुवाद पूरा करने बैठ गईं

 

 बात जंगल में आग की तरह फैल गई. सरदारजवाहरराजेन बाबूमौलानादेवदास सभी… एक-पर-एक पहुंचने लगे सब एक-दूसरे से आंखें चुरा रहे थे… किसी के पास कहने को कुछ नहीं था … ढले चेहरेझुके कंधे और खोई निगाहें … सब कितनी ही रातों से सोये नहीं थे… सड़कों पर भागतेदंगाइयों से लड़तेअधिकारियों को कसते और भीड़ को समझाते-समझाते वक्त किधर से आ कर किधर जा रहा थाकिसी को पता नहीं था… लेकिन यह सबको पता था कि यह बूढ़ा आदमी नहीं रहा तो किसी के बस का कुछ भी नहीं रह जाएगा… 

 

 आशंका सबको थी क्योंकि इस बार कलकत्ते से जब बापू लौटे तबसे ही जैसे कुछ था जो उन्हें मथ रहा था. वे बहुत चुप हो गये थेज्यादा सुनने में लगे रहते थे. हर खबरहर आदमीहर घटना जैसे उन्हें कुचल कर निकल जाती थी… वे आए थे तब दिल्ली में रुकने की बात ही नहीं थी. उन्हें पश्चिमी पंजाब जाना था. कलकत्ते में अग्नि-स्नान कर केअब वे पंजाब के दावानल में उतरना चाहते थे. दिल्ली तो रास्ते का पड़ाव भर था… लेकिन … दिल्ली स्टेशन उतरते ही वे उस बारूदी गंध को भांप गये जो सब तरफ फैली थी. उन्हें लेने स्टेशन पर सभी आए थे लेकिन जैसे हर कोई उनसे नजरें चुरा रहा था. दिल्ली में किसी श्मशान की शांति पसरी हुई थी. 

 

 मौन पूरा हुआ. बापू को ही कहना थाबापू ने ही कहा: “ पंजाब जाने के लिए आया था यहां लेकिन देखा कि दिल्ली तो वो दिल्ली बची नहीं है. हमेशा ही हंसी-मजाक करने वाले सरदार के चेहरे पर हंसी की एक रेखा  नहीं थी. मैंने समझ लिया कि यह मेरा पहला मोर्चा है. सिपाही तो वही है न जो सामने आए पहले मोर्चे पर डट जाए न कि आगे के किसी मोर्चे के लिए इस खतरे से मुंह फेर ले. मैंने भी अपना धर्म समझ लिया. दिल्ली हाथ से निकली तो हिंदुस्तान निकला समझिए ! … यह खतरा मोल नहीं लिया जा सकता है. मैंने देखा कि हिंदूमुसलमानसिख एक-दूसरे के लिए पराये हो चुके हैं. कल की दोस्ती का आज कहीं पता नहीं है. ऐसे में कोई सांस भी कैसे ले सकता है ! जो मिला उसी ने बताया कि दिल्ली में मुसलमानों का रह पाना अब संभव नहीं है. मुसलमान भाइयों के चेहरे पर एक ही सवाल मैं पढ़ पा रहा था : “ हम क्या करें ? “ मेरे पास कोई जवाब नहीं था. ऐसा बेजुबान तो मैं कभी भी नहीं हुआ था. ऐसी लाचारी के साथ जीना तो मैं कभी कबूल न करूं. लेकिन करूं क्या !! ऐसे में कोई सत्याग्रही कैसे अपनी भूमिका तै करे और उस निभाये यही सवाल मुझे मथे जा रहा था. फिर जैसे भीतर ही कहीं बिजली कौंधी… रोशनी में मुझे अपना कर्तव्य साफ दिखाई दे गया! जब दूसरे की जान की कोई कीमत नहीं की जा रही हो तब अपनी सबसे कीमती चीज कोअपनी जान को अपनी राजी-खुशी से दांव पर लगा देने का रास्ता ही तो बचता है न ! इस प्रार्थना के साथ मैं उपवास के रास्ते आ लगा हूं कि मुझमें अगर पवित्रता है तो यह आग बुझेगी ही ! मेरे उपवास का कोई अरसा नहीं हैकोई शर्त भी नहीं है. मेरी प्रार्थना से जब यह आवाज आएगी कि सभी कौमों के दिल मिल गये हैं और वे किसी बाहरी दवाब के कारण नहीं बल्कि अपना धर्म समझ कर रास्ता बदल रहे हैंमेरा उपवास छूट जाएगा…”, वे थोड़ा रुके जैसे अपने ही भीतर कुछ टटोल रहे हों. आज उनके शब्द मुंह से नहींआत्मा की अतल गहराइयों से निकल रहे थे, “ आज एशिया के और दुनिया के ह्रदय से भारत की शान मिट रही है. इसका सम्मान कम होता जा रहा है. अगर इस उपवास के कारण हमारी आंखें खुलें तो वह शान वापस लौट आएगी. मैं आपसे हिम्मत के साथ कहता हूं कि अगर भारत की आत्मा खो गई तो आज के झंझावात में घिरी दुखी और भूखी दुनिया की आशा की अंतिम किरण का भी लोप हो जाएगा… मेरे कोई मित्र या दुश्मन - अगर ऐसा कोई अपने को मानता होतो - मुझ पर गुस्सा न करें. कई लोग हैं कि जो उपवास के मेरे तरीके को ठीक नहीं मानते हैं. मेरी प्रार्थना है कि वे मुझे बर्दाश्त करें और जैसी आजादी वे खुद के लिए चाहते हैं वैसी ही आजादी मुझे भी दें. एक ईश्वर ही है कि जिसकी सलाह से मैं चलता हूं. मुझे दूसरी कोई सलाह चाहिए नहीं. अगर यह उपवास मेरी भूल हैऐसा जिस किसी भी क्षण मुझे लगेगामैं सबके सामने अपनी भूल कबूल कर उपवास छोड़ दूंगा. लेकिन इसकी संभावना कम है. अगर मेरी अंतररात्मा की आवाज स्पष्ट हैजो है ऐसा मेरा दावा हैतो उस आवाज को रद्द कैसे किया जा सकता है ! इसलिए आप सबसे मेरी प्रार्थना है कि मेरे साथ दलील न करेंमेरे फैसले को उलटने की कोशिश न करें. जिस निर्णय को बदला नहीं जा सकताउसमें आप मेरा साथ  दें… शुद्ध उपवास भी शुद्ध धर्म-पालन की तरह है. उसका बदला अपने-आप मिल जाता है. मैं कोई परिणाम लाने के लिए उपवास नहीं करता. मैं उपवास करता हूं क्यों कि तब वही मुझे करना चाहिए... अगर मुझे मरना है तो शांति से मरने दें. मुझे शांति तो मिलने ही वाली हैयह मैं जानता हूं. हिंदुस्तान काहिंदू धर्म कासिख धर्म का और इस्लाम के नाश का बेबस दर्शक बने रहने के बनिस्बत मृत्यु मेरे लिए सुंदर रिहाई होगी… जो लोग दूसरे विचार रखते हैंवे मेरा जितना भी कड़ा विरोध करेंगेमैं उनकी उतनी ही इज्जत करूंगा. मेरा उपवास लोगों की आत्मा को जाग्रत करने के लिए हैउसे मारने डालने के लिए नहीं. जरा सोचिए तो सही कि आज हमारे प्यारे हिंदुस्तान में कितनी गंदगी पैदा हो गई है ! इसलिए आपको तो खुश होना चाहिए कि हिंदुस्तान का एक नम्र सेवकजिसमें इतनी ताकत हैऔर शायद इतनी पवित्रता भी है कि वह इस गंदगी को िमटा सकेवह कदम उठा रहा है. अगर इस सेवक में ताकत और पवित्रता नहीं हैतब तो यह पृथ्वी पर बोझ रूप है. जितनी जल्दी यह उठ जाए और हिंदुस्तान को इस बोझ से मुक्त करेउतना ही उसके लिए और सबके लिए अच्छा है. मेरे उपवास की खबर सुन कर सब दौड़ते हुए यहांमेरे पास न आएं. आप जहां हैं वहां का वातावरण सुधारने का प्रयत्न करेंतो यही काफी है… उपवास के दरम्यान मैं नमकसोडा और खट्टे नींबू के साथ या इनके बिना पानी पीने की छूट रखूंगा.

 

  बात पूरी हो गई ! 

 

  सन्नाटा और गहरा हो गया ! अब कोई एकदम शांत व उत्फुल्ल था तो बापू ही थे.  अब उन्हें रास्ता मिल गया था - सत्याग्रही का अंतिम रास्ता ! दोपहर में वे स्वतंत्र भारत के पहले वाइसरॉय माउंटबेटन से मिलने गये. लौटे तो सारा कमरा खचाखच भर चुका था. “ अब यह क्या ?…” वे परेशानी से हंसेऔर फिर बोले, “ कोई भी न घबराये ! सभी जहां-जहां हैंवही रहें और अपना काम करें.” देवदास गांधी से बोले- “ पटना के मोर्चे पर ही रहना है !” जवाहरलाल भी हैं और सरदार भी हैं. देवदास इस उपवास से सहमत नहीं हैं. उन्हें लगता है कि यह बापू के अधैर्य का प्रतीक है. सरदार तो बहुत ही नाराज हैं… सरकार कानून-व्यवस्था बनाने में परेशान हूं और बापू ने बिना सलाह-मश्विरे के अनशन शुरू कर दिया ! … यह क्या बात हुई ? … देवदास गांधी ने पूछा : यह अनशन मुसलमानों के लिए है और हिंदुओं के खिलाफ है जवाब आया : हांयहां यह मुसलमानों के लिए है और हिंदुओं के सम्मुख है. पाकिस्तान में यह हिंदुओं के लिए है और मुसलमानों के सम्मुख है. यह उपवास हर उस कमजोर और अल्पसंख्यक के लिए है जिसे कोई ताकतवालाबड़ी संख्या वाला दबा या डरा रहा है. ऐसे मुल्क कैसे चल सकता है 

 

 टुकड़ों में बापू ने जब भी कुछ कहाउन्हें जोड़ दें तो बात कुछ इस तरह बनती है : मैं जब से यहां हूंदेख रहा हूं कि लोग मेरे मुंह पर एक बात कहते हैं और होती है दूसरी बात ! सरकार के दो बड़ों के बीच गंभीर मतभेदों का दंड आम जनता को भुगतना पड़ रहा है. सरकार के भीतर गंदगी बढ़ती जा रही है… भगवान सभी को शुद्ध करें और सम्मति दें… दो शब्द अपने मुसलमान भाइयों से अदब के साथ कहना चाहता हूं. यह अनशन उनके नाम से शुरू हुआ है तो उनकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है. उन्हें कम-से-कम इतना तो निश्चय करना ही चाहिए कि हम हिंदू और सिखों के दोस्त बन कर रहेंगे. जो यूनियन में रहना चाहते हैं वे यूनियन के प्रति वफादार रहें. ये लोग कहते तो हैं कि हम वफादार रहेंगे पर आचरणा वैसा नहीं करते. मैं तो कहूंगा कि कम बोलो पर कर के ज्यादा दिखाअो… मैं तो कहूंगा कि चाहे पाकिस्तान में सभी हिंदू-सिख काट डाले जाएंतो भी यहां एक नन्हा-सा मुस्लिम बच्चा भी असुरक्षित नहीं रहना चाहिए. जो कमजोर हैंनिराधार हैंउन्हें मारना बुजदिली है. पाकिस्तान में जितनी मार-काट मचेदिल्ली अपने फर्ज से न चूके !सुहरावर्दी जैसे भीजिन्हें गुंडों का सरदार कहा जाता हैजहां चाहें आजादी से घूम-फिर सकें… आज मैं हिम्मत के साथ कहता हूं कि पाकिस्तान एक पाप’ ही है. मै पाकिस्तान के नेताओं के खेल या भाषण देखना नहीं चाहता. मैं तो मांगता हूं उनका सदाचरणसत्कर्म ! अगर ऐसा होगा तो भारत के लोग अपने-आप सुधर जाएंगे. आज मुझे शर्म के साथ कहना पड़ता है कि हम लोग सचमुच पाकिस्तान की बुराइयों की नकल कर रहे हैं

 

 ऐसी पृष्ठभूमि में शुरू हुआ उपवास 18 जनवरी 1948 तक यानी 6 दिनों तक चलता रहा. हर दिन जैसे एक आग में वे भी और उनके साथी भी उतरते थे और फिर उससे कहीं ज्यादा दहकती आग में प्रवेश की तैयारी करते थे. करीब 80 साल के होने जा रहे बापू ने आश्चर्यजनक मानसिक व शारीरिक उत्फुल्लता से ये 6 दिन निकाले. आवाज लगातार क्षीणतर होती गई और बोलनाचलना असंभव होता गया. लेकिन वे सबको संभालते-संवारते चलते गये. सभी बेसहारा थे - जो सांप्रदायिक आग में जले वे भी और वे भी जो इस आग से लोगों को बचाने में लगे थेएकदम अकेले व बेसहारा थे…  आसारा बस यही था - 80 साल का बूढ़ा ! … वाइसरॉय और सारी भारत सरकार और सारा भारत सारे दिन-रात यहीं के चक्कर काटता मिलता था. बापू रोज सुबह 3.30 पर उठते और रात 9 बजे सोने जाते. … लेकिन उपवास कैसे छूटे बापू ने इसकी सात शर्तें सामने कर दीं : 1. महरौली में िस्थत ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तयार की मजार महफूज रहेगी और मुसलमानों को वहां आने-जाने में कोई खतरा नहीं होगा. आने वाला उर्स का मेला पहले की तरह ही लगेगा और महरौली के हिंदू-सिख इसकी गारंटी दें कि वहां मुसलमानों को कोई खतरा नहीं होगा. 2. दिल्ली की 117 मस्जिदों पर हिंदू-सिख शरणार्थियों ने कब्जा कर लिया है या उन्हें मंदिर में बदल लिया है. वे सब मुसलमानों को वापस कर दी जाएं और वहां के हिंदू-सिख यह भरोसा दिलाएं कि सभी मस्जिदें पहले जैसी ही रहेंगी और मुसलमान वहां बेखटके आ-जा सकें. 3. करौलबागसब्जीमंडी और पहाड़गंज में मुसलमान आजादी से आ-जा सकें और उन्हें कोई खतरा न हो। 4.जो मुसलमान डर से या परेशान हो कर पाकिस्तान चले गये हैं वे अगर वापस आ कर फिर से बसना चाहें तो हिंदू-सिख उसमें बाधा न बनें.5. रेलों में सफर करने वाले सुरक्षित सफर कर सकें. 6. मुसलमान दूकानदारों का बहिष्कार न किया जाए.  7. दिल्ली शहर के जिन इलाकों में मुसलमान रहते हैं उनमें हिंदुओं-सिखों के बसने का सवाल वहां के मुसलमानों की रजामंदी पर छोड़ दिया जाए… बसयही सात बातेंऔर कुछ नहीं !! … उनका एलान ही समझिए कि मेरी जान बचानी हो तो भारतीय समाज को सात कदमों का यह सफर पूरा करना होगा. 

 

 कियालोगों ने सात कदमों का यह सफर पूरा किया ! 18 जनवरी को भावावेश में कांपती आवाज में कांग्रेस के सभापति राजेंद्र प्रसाद ने बापू के कमरे में मौजूद दिल्ली के आला प्रतिनिधियों की उपस्थिति में कहा : सबने उन बातों की गारंटी दी है जिनका जिक्र आपने हमसे किया है. हालात की निगरानी के लिए कुछ समितियां भी हम बना रहे हैं… फिर तो सभी बोले - मौलाना आजाद भीहबीब-उल रहमानगोस्वामी गणेश दत्तराष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के हरिश्चंद्रपाकिस्तान के हाईकमिश्नर जहीद हुसैनसिखों के हरवसन सिंहदिल्ली के उपायुक्त रंधावाफिर सबकी तरफ से अंतिम बात राजेन बाबू बोले : अब आप उपवास छोड़ें ! 

 

   अब जवाब बापू को देना था लेकिन अब आवाज इतनी भी नहीं रह गई थी कि सुनी जा सके ! उन्होंने अपनी बात लिखवाई जिसे प्यारेलालजी ने पढ़ कर सुनाया : “ यह मुझे अच्छा तो लगता हैमगर एक बात अगर आपके दिल में न हो तो यह सब निकम्मा समझिए ! इस मसविदे का अगर यह अर्थ है कि दिल्ली को आप सुरक्षित रखेंगे और बाहर चाहे जितनी भी आग जलेआपको परवाह न होगीतो आप बड़ी गलती करेंगे और मैं भी उपवास छोड़ कर मूर्ख बनूंगा. मैं देखता हूं कि ऐसा दगा आज हिंदुस्तान में बहुत चलता है. हमें आला दर्जे की बहादुरी दिखानी है. यह कहना कि हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं का है और पाकिस्तान सिर्फ मुसलमानों के लिए हैतो इससे बड़ी बेवकूफी क्या हो सकती है ! शरणार्थी समझें कि पाकिस्तान का उद्धार भी दिल्ली के ही मार्फत होगा… आज हम सीखें कि कोई भी इंसान होकैसा भी होउसके साथ हमें दोस्ताना तौर पर काम करना है. हम किसी के साथकिसी हालत में दुश्मनी नहीं करेंगेदोस्ती ही करेंगे. शाहिद साहब और दूसरे चार करोड़ मुसलमान यूनियन में पड़े हैं. वे सब-के-सब फरिश्ते तो हैं नहीं. हममें अच्छे लोग भी हैं और बुरे भी. मुसलमान बड़ी कौम है. यहीं नहींसारी दुनिया में मुसलमान पड़े हैं.  अगर हम ऐसी उम्मीद करें कि सारी दुनिया के साथ हम मित्र भाव से रहेंगे तो क्या वजह है कि हम यहां के मुसलमानों से दुश्मनी करें. मैं भविष्यवक्ता नहीं हूं फिर भी ईश्वर ने मुझको अक्ल दी हैदिल दिया है. उन दोनों को टटोलता हूं और आपको भविष्य सुनाता हूं कि अगर किसी-न-किसी कारण से हम एक-दूसरे से दोस्ती न कर सकेवह भी यहां के ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के और सारी दुनिया के मुसलमानों से हम दोस्ती न कर सके तो हम समझ लें - इसमें मुझे कोई शक नहीं है - कि हिंदुस्तान हमारा न रहेगापराया हो जाएगा. गुलाम हो जाएगा - पाकिस्तान गुलाम होगायूनियन भी गुलाम होगा और जो आजादी हमने पाई है वह हम खो बैठेंगे… मैं फाका छोडूंगा. ईश्वर की जो मर्जी होगीवही होगा. आप सब साक्षी बनते हैंतो बनें. 12.25 मिनट हुआ था जब काल जर्जरित काया को मौलाना आजाद ने 12 अौंस ग्लूकोज मिला रस पिलाया… कल तक जो बिजली गुल थीआजअभी सबके चेहरों पर दमक उठी… कितने सारे लोग रो रहे थे… जवाहरलाल रो रहे थे कि हंस रहे थेकहना कठिन था. वे इस पूरी अवधि में मौन ही रहे थे- पीड़ा में और संभवत: इस ग्लानि में कि यह आजाद भारत थायह उनकी सरकार थी और छह माह के भीतर बापू को ऐसी पीड़ा से गुजरना पड़ा… वे इस प्रकरण की समाप्ति के बाद चले गये… वे कोई सौ बुर्काधारी मुसलमान महिलाएं वहां रह गईं कि जो आज यह कहने आई थीं कि आप उपवास तोड़िए. बापू ने हाथ जोड़े और सारी ताकत समेट कर इतना कहा : मेरे सामने क्या बुरका ? …मैं तो आपका बाप-भाई हूं… ह्रदय का पर्दा ही काफी है !… बहनों ने तुरंत बुरका निकाल दिया… इंदिरा गांधी ने सिर्फ बापू से कहा : पंडितजी भी आपके साथ अनशन कर रहे हैं ! … जाते कदम रुके… एक कागज मंगवाया और अशक्त हाथों से लिखा : चिरंजीव जवाहरलालअनशन छोड़ो !… बहुत वर्ष जियो और हिंद के जवाहर बने रहो.

 ०००

 यह सब क्या हुआ आज यह हमारे इतिहास का हिस्सा है याकि यही हमारा वर्तमान है एक आदमी पागल हो तो हम उसे पागलखाने में डालते हैंहजारों-लाखों-करोड़ों लोग पागल हो जाएं तब कहां रखेंगे आप उनको ?…और आप कौन हैंआप भी तो पागलों की उसी दुनिया में हैं समाज को भीड़ बना करइंसानों को पागलों की जमात बना कर जब सत्ता और संपत्ति का शिकार किया जा रहा होतब एक आदमी के बस का बचता ही क्या है भले वह आदमी महात्मा गांधी ही हो ? … बच रहता है यही आत्मबलिदान !! … बापू का यह उपवासजिसे हमने उनका अंतिम उपवास बना दिया कि जिसके बारह दिन बाद30 जनवरी 1948 को हमने उनका अंत ही कर दियासद्विवेक जगाने की आंतरिक पीड़ा से उपजा हाहाकार था ! हमारे भीतर जो खो गया हैसो गया हैउन्मादियों ने जिसे जहरीला बना दिया हैउस पर विवेक की बूंदें गिराने का यह उपक्रम था… आज भी कुछ ऐसा ही दौर लौटता लगता है. क्या इसे ही इतिहास का दोहराना कहते हैं अगर यह इतिहास का यांत्रिक दोहराव मात्र है तब तो बहुत फिक्र नहीं क्योंकि तब तो बापू भी होंगे ही कहीं दोहराने के लिए … लेकिन नहींऐसी कार्बन कॉपियां इतिहास में चलती ही नहीं हैं. हर दौर को अपना गांधी खुद ही पैदा करना पड़ता है. ०००


छठी सफलता से पहले 

यह कुछ अजीब ही है कि जिन्ना चाहते थे कि अंग्रेजों के सामने ही उन्हें उनका पाकिस्तान मिल जाएभले गांधी विभाजन टालने की कितनी भी कोशिश करेंआंबेडकर चाहते थे कि अंग्रेज जाने से पहले भारतीय समाज में दलितों की स्थिति की गारंटी कर देंभले गांधी कहते रहें कि हम खुद ही यह सब कर लेंगे;  सावरकर-कुनबा चाहता था कि अंग्रेजों के जाने से पहले ही गांधी का काम तमाम कर दिया जाए ताकि गांधी उनकी राह का रोड़ा  न बनें। 

 

इसलिए अंग्रजों ने जैसे ही भारत से निकलने की जल्दीबाजी शुरू कीइन सबने भी अपनी-अपनी कोशिशें तेज कर दीं। गांधी पर बार-बार हमले होने लगे। 

 

      30 जनवरी 1948 को जो हुआ वह तो महात्मा गांधी की हत्या के कायर नाटक का छठा अध्याय था। उससे पहले सावरकर-मार्का हिंदुत्ववादियों ने 5 बार महात्मा गांधी की हत्या के प्रयास किए और हर बार विफल हुए। हम उन घटनाओं में उतरें तो यह भी पता चलेगा कि इनमें से किसी भी प्रयास के बाद हमें गांधीजी की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती है। मृत्यु और उसके भय की तरफ मानो उन्होंने अपनी पीठ कर दी थी।

 

      गांधीजी की जान लेने की जितनी कोशिशें दक्षिण अफ्रीका में हुईं - हमें ध्यान रखना चाहिए कि वहां हिंदू-मुसलमान का याकि किसी सुहरावर्दी का याकि 55 करोड़ का कोई मसला नहीं था। डरबन से प्रीटोरिया जाते हुए ट्रेन से उतार फेंकने की घटना हो या चार्ल्सटाउन से जोहानिसबर्ग के बीच की घोड़ागाड़ी की यात्रा में हुई बेरहम पिटाई का वाकया,दोनों में उनका अपमान-भर हुआ ऐसा नहीं था बल्कि दोनों ही प्रकरणों में उनका अंग भंग भी हो सकता था,जान भी जा सकती थी। चार्ल्सटाउन से जोहानिसबर्ग के बीच की यात्रा के बारे में उन्होंने आत्मकथा में लिखा है कि “ मुझे ऐसा लगने लगा था कि मैं अब अपनी जगह पर जिंदा नहीं पहुंचूंगा।” लेकिन वे अपनी जगह पर जिंदा पहुंचे और इन सब घटनाओं के बीच ही कभीकहीं उन्हें उस कीड़े ने काटा जिसने उनकी जिंदगी का रंग व ढंग दोनों बदल दिया। 

 

      जानकारी के अभाव में या किसी आंतरिक कालिमा के प्रभाव में कुछ लोगों को लगता है कि गांधीजी की अहिंसा की बात एकदम कागजी थीक्योंकि उन्होंने क्रूर हिंसा का या मौत का सीधा सामना तो कभी किया ही नहीं ! ऐसे लोगों को भी और हम सबको भी जानना चाहिए कि किसी को मारने की कोशिश में अपनी मौत का आ जाना और खुद आगे बढ़ कर मौत का सामना करनादो एकदम भिन्न बातें है। पहली कोटि में गांधीजी कहीं मिलते नहीं हैंदूसरी कोटि मे झांकने का भी साहस हममें है नहीं। इसलिए हमें इतिहास का सहारा लेना पड़ता है। 

 

      गांधीजी की संघर्ष-शैली ऐसी थी कि जिसमें हिंसा या हमला था ही नहींइसलिए जीत या हार भी नहीं थी। वे वैसा रास्ता खोज रहे थे जिसमें लड़ाई तो होकठोर व दुर्धर्ष हो लेकिन उससे सामने वाला खत्म न होसाथ आ जाए। वे अपने-से असहमत लोगों को साथ ले कर अपनी फौज खड़ी करने में जुटे थे - फिर चाहे वे जनरल स्मट्स हों कि रानी एलिजाबेथ कि रवींद्रनाथ ठाकुर कि आंबेडकर कि जिन्ना कि जवाहरलाल नेहरू ! हमें सदियों सेपीढ़ी-दर-पीढ़ी सिखाया तो यही गया है न कि दुश्मन से न समझौतान दोस्ती ! लेकिन यहां भाई गांधी ऐसे हैं कि जो किसी को अपना दुश्मन मानते ही नहीं हैं। तुमुल संघर्ष के बीच भी उनकी सावधान कोशिश रहती थी कि सामने वाले को ज्यादा संवेदनशील बना कर कैसे अपने साथ ले लिया जाए। 

 

      वह प्रसंग याद करने लायक है। दूसरे गोलमेज सम्मेलन के दौरान लंदन के बिशप गांधीजी से मिले। मुलाकात के दौरान गांधीजी का चरखा कातना चलता ही रहता था। उस दिन भी वैसा ही था। बिशप चाहते होंगे कि गांधीजी सारा काम छोड़ कर उनसे ही बात करें। इसलिए पहुंचते-ही-पहुंचते बिशप ने अपना दार्शनिक तीर चलाया: मिस्टर गांधीप्रभु जीजस ने कहा है कि अपने दुश्मन को भी प्यार करो ! आपका इस बारे में क्या कहना है गांधीजी की चरखे में निमग्नता नहीं टूटी। जवाब भी नहीं आया और सूत भी नहीं रुका,तो बिशप को लगा कि शायद मेरा सवाल सुना नहीं ! सो फिर थोड़ी ऊंची आवाज में अपना सवाल दोहराया। अब गांधीजी का हाथ भी रुका,सूत भीऔर वे बोले: “ आपका सवाल तो मैंने पहली बार में ही सुन लिया था। सोचने में लगा था कि मैं इस बारे में क्या कहूंमेरा तो कोई दुश्मन ही नहीं है !बिशप अवाक उस आदमी को देखते रह गये जो फिर से चरखा कातने में निमग्न हो चुका था।… लेकिन जो किसी को अपना दुश्मन नहीं मानता है उसे इसी कारण दुश्मन मानने वाले तो होते ही हैं। 

 

      1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका छोड़ कर,फिर वापस न जाने के लिए भारत आ गये। उस दिन से 30 जनवरी 1948 को मारे जाने के बीचउनकी सुनियोजित हत्या की 5 कोशिशें हुईं। 

 

पहली कोशिश : 1934 : तब पुणे हिंदुत्व का गढ़ माना जाता था। पुणे की नगरपालिका ने महात्मा गांधी का सम्मान समारोह आयोजित किया था और उस समारोह में जाते वक्त उनकी गाड़ी पर बम फेंका गया। नगरपालिका के मुख्य अधिकारी और पुलिस के दो जवानों सहित 7 लोग गंभीर रूप से घायल हुए। हत्या की यह कोशिश विफल इसलिए हुई कि जिस गाड़ी पर यह मान कर बम डाला गया था कि इसमें गांधीजी हैंदरअसल गांधीजी उसमें नहींउसके पीछे वाली गाड़ी में थे। चूक हत्या की योजना बनाने वालों से ही नहीं हुईउनसे भी हुई जिन्हें इस षड्यंत्र का पर्दाफाश करना था। मामला वहीं-का-वहीं दबा दिया गया। 

 

दूसरी कोशिश : 1944 : आगाखान महल की लंबी कैद में अपने पित्रवत् महादेव देसाई व अपनी बा को खो कर गांधीजी जब रिहा किए गये तो वे बीमार भी थे और बेहद कमजोर भी। इसलिए तै हुआ कि बापू को अभी तुरंत राजनीतिक गहमागहमी में न डाल करकहीं शांत-एकांत में आराम के लिए ले जाया जाए। इसलिए उन्हें पुणे के निकट पंचगनी ले जाया गया। पुणे के नजदीक बीमार गांधीजी का ठहरना हिंदुत्ववादियों को अपने शौर्य प्रदर्शन का अवसर लगा और वहां पहुंच कर वे लगातार नारेबाजीप्रदर्शन करने लगे। फिर 22 जुलाई को ऐसा भी हुआ कि एक युवक मौका देख कर गांधीजी की तरफ छुरा ले कर झपटा। लेकिन भिसारे गुरुजी ने बीच में ही उस युवक को दबोच लिया और उसके हाथ से छुरा छीन लिया। गांधीजी ने उस युवा को छोड़ देने का निर्देश देते हुए कहा कि उससे कहो कि वह मेरे पास आ कर कुछ दिन रहे ताकि मैं जान सकूं कि उसे मुझसे शिकायत क्या है। वह युवक इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उस युवक का नाम था नाथूराम गोडसे। 

 

तीसरी कोशिश : 1944 : 1944 में ही तीसरी कोशिश की गई ताकि पंचगनी की विफलता को सफलता में बदला जा सके। इस बार स्थान था वर्धा स्थित गांधीजी का सेवाग्राम आश्रम।पंचगनी से निकल कर गांधीजी फिर से अपने काम में डूबे थे। विभाजन की बातें हवा में थीं और मुहम्मद अली जिन्ना उसे सांप्रदायिक रंग देने में जुटे थे। सांप्रदायिक हिंदू भी मामले को और बिगाड़ने में लगे थे। गांधीजी इस पूरे सवाल पर मुहम्मद अली जिन्ना से सीधी बातचीत की योजना बना रहे थे और यह तय हुआ कि गांधीजी मुंबई जा कर जिन्ना से मिलेंगे। 

 

      गांधीजी के मुंबई जाने की तैयारियां चल रही थीं कि तभी सावरकर-टोली ने घोषणा कर दी कि वे किसी भी सूरत में गांधीजी को जिन्ना से बात करने मुंबई नहीं जाने देंगे। पुणे से उनकी एक टोली वर्धा आ पहुंची और उसने सेवाग्राम आश्रम घेर लिया। वे वहां से नारेबाजी करतेआने-जाने वालों को परेशान करते और गांधीजी पर हमला करने का मौका खोजते रहते। पुलिस का पहरा था। गांधीजी ने बता दिया कि वे नियत समय पर मुंबई जाने के लिए आश्रम से निकलेंगे और विरोध करने वाली टोली के साथ तब तक पैदल चलते रहेंगे जब तक वे उन्हें मोटर में बैठने की इजाजत नहीं देते। गांधीजी की योजना जान कर पुलिस सावधान हो गई: ये उपद्रवी तो चाहते ही हैं कि गांधीजी कभी उनकी भीड़ में घिर जाएं। पुलिस के पास खुफिया जानकारी थी कि ये लोग कुछ अप्रिय करने की तैयारी में हैं। इसलिए उसने ही कदम बढ़ाया और उपद्रवी टोली को गिरफ्तार कर लिया। सबकी तलाशी ली गई तो इस टोली के सदस्य ग.ल.थत्ते के पास से एक बड़ा छुरा बरामद हुआ। युवाओं का वर्धा पहुंचना,उनके साथ ही राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के निर्माताओं में से एक माधवराव सदाशिव गोलवलकर का अचानक वर्धा आगमन और यह छुरा- सब मिल कर एक ही कहानी कहते हैं - जिस तरह भी हो,गांधी का खात्मा करो !  

 

चौथी कोशिश : 1946 : पंचगनी और वर्धा की विफलता से परेशान हो कर इन लोगों ने तै किया कि गांधीजी को मारने के क्रम में कुछ दूसरे भी मरते हों तो मरें। इसलिए 30 जून को उस रेलगाड़ी को पलटने की कोशिश हुई जिससे गांधीजी मुंबई से निकल कर पुणे जा रहे थे। करजत स्टेशन के पास पहुंचते-पहुंचते रात गहरी हो चली थी लेकिन सावधान ड्राइवर ने देख लिया कि ट्रेन की पटरियों पर बड़े-बड़े पत्थर डाले गये हैं ताकि गाड़ी पलट जाए।इमर्जेंसी ब्रेक लगा कर ड्राइवर ने गाड़ी रोकी। जो नुकसान होना था वह इंजन को हुआगांधीजी बच गये।अपनी प्रार्थना सभा में गांधीजी ने इसका जिक्र करते हुए कहा, “ मैं 7 बार मारने के ऐसे प्रयासों से बच गया हूं। मैं इस  प्रकार मरने वाला नहीं हूं। मैं तो 125 साल जीने की आशा रखता हूं।” पुणे से निकलने वाले अखबार ‘ हिंदू राष्ट्र’ के संपादक ने जवाब दिया, “ लेकिन आपको इतने साल जीने कौन देगा!” अखबार के संपादक का नाम था - नाथूराम गोडसे ! 

 

पांचवीं कोशिश : 1948 : पर्दे के पीछे लगातार षड्यंत्रों और योजनाओं का दौर चलता रहा। सावरकर अब तक की अपनी हर कोशिश की विफलता से खिन्न भी थे और अधीर भी ! लंदन में धींगरा जब हत्या की ऐसी ही एक कोशिश में विफल हुए थेतब भी सावरकर ने उन्हें आखिरी चेतावनी दी थी, “ अगर इस बार भी विफल रहे तो फिर मुझे मुंह न दिखाना !” हत्या सावरकर के तरकश का आखिरी नहीं,जरूरी हथियार था। इसका कब और किसके लिए इस्तेमाल करना है यह फैसला हमेशा उनका ही होता था।

 

      गांधीजी अपनी हत्या की इन कोशिशों का मतलब समझ रहे थे लेकिन वे लगातार एक-से-बड़े-दूसरे खतरे में उतरते भी जा रहे थे। उनके पास निजी खतरों का हिसाब लगाने का वक्त नहीं था;और खतरों में उतरने के सिवा उनके पास विकल्प भी नहीं था। खतरों में वह सत्य छिपा था जिसकी उन्हें तलाश भर नहीं थी बल्कि जिसे उन्हें देश व दुनिया को दिखाना भी था कि जान देने के साहस में से अहिंसा शक्ति भी पाती है और स्वीकृति भी। हत्यारों में इतनी हिम्मत थी ही नहीं कि वे भी उन खतरों में उतर कर गांधीजी का मुकाबला करते। इस लुकाछिपी में ही कुछ वक्त निकल गया।

 

      इस दौर में सांप्रदायिकता के दावानल में धधकते देश की रगों में क्षमाशांति और विवेक का भाव भरते एकाकी गांधी कभी यहांतो कभी वहां भागते मिलते हैं। पंजाब जाने के रास्ते में वे दिल्ली पहुंचे हैं और पाते हैं कि दिल्ली की हालत बेहद खराब है। अगर दिल्ली हाथ से गई तो आजाद देश की आजादी भी दांव पर लग सकती है ! गांधीजी दिल्ली में ही रुकने का फैसला करते हैं - तब तक जब तक हालात काबू में नहीं आ जाते। इधर गांधीजी का फैसला हुआउधर सावरकर-टोली का फैसला भी हुआ! गांधीजी ने कहा: मैं दिल्ली छोड़ कर नहीं जाऊंगासावरकर-टोली ने कहा: हम आपको दिल्ली से जिंदा वापस निकलने नहीं देंगे ! स्थान गांधीजी का था - बिरला भवन- और बम सावरकर-टोली का। 

 

      बिरला भवन मेंरोज की तरह उस रोज भी20 जनवरी की शाम को भी प्रार्थना थी। 13 से 19 जनवरी तक गांधीजी का आमरण उपवास चला था। उसकी पीड़ा ने प्रायश्चित जगाया और दिल्ली में चल रही अंधाधुंध हत्याओं व लूट-पाट पर कुछ रोक लगी। सभी समाजोंधर्मोंसंगठनों ने गांधीजी को वचन दिया कि वे दिल्ली का मन फिर बिगड़ने नहीं देंगे। ऐसा कहने वालों में सावरकर-टोली भी शामिल थी जो उसी वक्त हत्या की अपनी योजना पर भी काम कर रही थी। गांधीजी अपनी क्षीण आवाज में इन सारी बातों का ही जिक्र कर रहे थे कि मदनलाल पाहवा ने उन पर बम फेंका।बम फटा भी लेकिन निशान चूक गया। जिस दीवार की आड़ से उसने बम फेंका था उससेगांधीजी जहां बैठे थेउसकी दूरी का उसका अंदाजा गलत निकला। गांधीजी फिर बच गये। बमबाज मदनलाल पाहवा विभाजन का शरणार्थी था। वह पकड़ा भी गया। लेकिन जिन्हें पकड़ना थाउन्हें तो किसी ने पकड़ा ही नहीं। 

 

छठी सफल कोशिश : 30 जनवरी 1948 : 10 दिन पहले जहां मदनलाल पाहवा विफल हुआ था10 दिन बाद वहीं नाथूराम गोडसे सफल हुआ। प्रार्थना-भाव में मग्न अपने राम की तरफ जाते गांधीजी के सीने में उसने तीन गोलियां उतार दीं और हे राम !’  कह गांधीजी वहां चले गये जहां से कोई वापस नहीं आता है।


 

महात्मा गांधी की इतनी याद क्यों आती है राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को 

 उन्होंने तो कहा ही था कि वे मर कर भी चुप नहीं रहेंगे बल्कि अपनी कब्र में से भी आवाज लगाते रहेंगेहमने भी तै किया है कि बिरला भवन में उन्हें गोली मारने और राजघाट पर उनका अग्निदाह कर देने के बाद भी हम उन्हें शांति से रहने नहीं देंगे ! महात्मा गांधी कुछ ऐसी ही किस्मत लेकर आए थे. अब तो 4 साल से भी अधिक हुए कि राजधानी दिल्ली में तथा अधिकांश राज्यों में सरकार उनकी है जो जुमलेबाजी की कलाबाजी में कभी गांधी के साथ हों तो होंभाव में गांधी के धुर विरोधी और आस्था में गांधी से एकदम विपरीत रहे हैंऔर हैं. तो अब तो ऐसा होना चाहिए था कि गांधी को हाशिये पर डाल दिया जाए. लेकिन हो यह रहा है कि भले उनके हाथ में झाड़ू पकड़ा करउन्हें अपनी कल्पना की किसी स्मार्ट सिटी’ की सड़क किनारे खड़ा कर दिया गया होकिसी-न-किसी बहाने उन्हें बीच बहस में ला कर खड़ा किया जाता है ताकि कहा जा सके कि जो हो रहा है और जो होगा सबकी सम्मति गांधी से पहले ही ली जा चुकी है. इस आदमी के साथ ऐसा खेल इतिहास पहली बार नहीं खेल रहा है. दक्षिण अफ्रीका से 1915 में लौटने के बाद से 30 जनवरी1948 को हमारी गोली खा कर गिरने तक वे सारे लोगजो गांधी से असहमत रहेउनके विरोधी रहेउनसे अपनी दुश्मनी मानते रहे वे सब भी कोशिश यही करते रहेयही चाहते रहे कि गांधी को खारिज करने की स्वीकृति भी उन्हें गांधी से ही मिले. 

 

 अभी-अभी उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने भी ऐसा ही किया. नानाजी देशमुख स्मृति व्याख्यानमाला में बोलते हुए उन्होंने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का बचाव किया और कहा कि संघ के मूल्योंआदर्शों और इसकी कार्यप्रणाली को तो महात्मा गांधी की स्वीकृति प्राप्त है ! संघ-परिवार के किसी भी व्यक्ति के लिए इतिहास को तोड़ना-मरोड़ना इतना ही आसान होता हैक्योंकि उनका अपना कोई इतिहास है ही नहीं. िजनके इतिहास नहीं होते हैंउनका वर्तमान से रिश्ता हमेशा जीभ भर का होता है. पूरा संघ-परिवार आज इसी त्रासदी से गुजर रहा है. 

 

 उप-राष्ट्रपति ने जो कहा वह कोई भोली टिप्पणी नहीं हैसंघ-परिवार की सोची-समझीलंबे समय से चलाई जा रही रणनीति है. अगर संघ-परिवार ईमानदार होताआत्मविश्वास से भरा होता तो उसे करना तो इतना ही चाहिए था कि गांधी गलत थेदेश-समाज के लिए अभिशाप थे यह कह कर उन्हें खारिज कर देता और अपनी सहीसर्वमंगलकारी विचारधारा तथा कार्यधारा ले कर आगे चल पड़ता. लेकिन सारी परेशानी यहीं है कि वह जानता है कि वह जो कहता है और करता है वह गलत और अमंगलकारी है. इस गलत व अमंगलकारी चेहरे पर  गांधी का पर्दा उसे चाहिए क्योंकि भारतीय समाज आज भी महात्मा गांधी को ही मानक मानता हैकिसी सावरकर या गोलवलकर को नहीं. 

 

 आज विवाद फिर से उठा हैक्योंकि पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 7 जून 2018 के अपने विशेष कार्यक्रम मेंअपने स्वंयसेवकों को संबोधित करने के लिए नागपुर बुलाया है. प्रणव मुखर्जी ने यह आमंत्रण स्वीकार भी कर लिया है और 7 जून की तारीख निकट आती जा रही है. कांग्रेस की पेशानी पर बल पड़े हैं तो विपक्ष को यह समझ में नहीं आ रहा है कि वह इस मामले में कहांकिसके साथ खड़ा हो. जब सारे देश में संघ-परिवार के खिलाफ माहौल बना हुआ हैकांग्रेस ने अपना सीधा मोर्चा खोल रखा हैपार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी सांप्रदायिकता को जड़ से उखाड़ फेंकने का आह्वान करते सारे देश में घूम रहे हैंविपक्ष साथ भी आ रहा है और एक आवाज में बोल भी रहा हैमतदाता जगह-जगह संघ-परिवार की खटिया खड़ी कर रहा हैऐसे में प्रणव दा का संघ-परिवार के मातृ-स्थल पर मेहमान बन कर जाना कांग्रेस के लिए भी और सारे विपक्ष के लिए भी एक बड़ा झटका साबित हो सकता है. सवाल प्रणव मुखर्जी नाम के एक व्यक्ति का नहीं है बल्कि सांप्रदायिकता के दर्शन से संघर्ष के उस पूरे इतिहास का हैजिसके प्रणव मुखर्जी किसी हद तक प्रतीक हैं. वह इतिहास नागपुर जा कर कहीं शरणागत न हो जाएइसकी आशंका हैऔर असत्य को सत्य का जामा पहनाने में सिद्धहस्त संघ-परिवार के हाथ में एक नया हथियार न आ जाएइसकी कुशंका है. आखिरकार कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने कह ही दिया कि आजन्म कांग्रेसी रहे तथा हमेशा संघ-परिवार की आलोचना करने वाले प्रणव दा को नागपुर नहीं जाना चाहिए. अब संघ-परिवार को डर यह सता रहा है कि ऐसे दवाब में आ कर कहीं प्रणव दा अपना कार्यक्रम न रद्द कर दें. इसलिए महात्मा गांधी को प्रणव दा की नागपुर यात्रा के समर्थन में ला खड़ा किया गया है. लेकिन इस मामले में इतिहास कहां खड़ा हैयह भी हम देखेंगे या नहीं 

 

 महात्मा गांधी किसी भी प्रकार की संकीर्णता के खिलाफ लड़ने वाले सदी के सबसे बड़े योद्धा थेऔर आज भी सारी दुनिया में फैले अमनपसंदउद्दात्त मानस के लोग उनसे प्रेरणा पाते हैं. यह सोचना व समझना असंभव है कि दुनिया जिसे पिछली शताब्दी में पैदा हुआ सबसे बड़ा इंसान मानती है वह सबसे कमजोरदलितअल्पसंख्यकउपेक्षितऔरत और अपमानित जमातों के खिलाफ किसी के साथकिसी भी स्थिति में खड़ा होगा. लेकिन संघ-परिवार उसकी ऐसी छवि पेश कर अपने लिए वैधता पाना चाहता है. इसलिए जरूरी हो जाता है कि जब-जब असत्य का ऐसा घटाटोप रचा जाए तब-तब सत्य को लोगों के सामने उजागर किया जाए. इसलिए थोड़ी-सी बातें. 

 

 महात्मा गांधी इतिहास के उन थोड़े से लोगों में एक हैं जिन्होंने अपने मनवचन और कर्म में ऐसी एकरूपता साध रखी थी। कि किसी भ्रम या अस्पष्टता की गुंजाइश बची नहीं रहे बशर्ते कि आप ही कुछ मलिन मन से इतिहास के पन्ने न पलट रहे हों. सांप्रदायिक हिंसावादियों और हिंसक क्रांतिकारियों से उनका सामना लगातार होता रहा और उन व्यक्तियों का पूरा मान रखते। हुए भी उन्होंने उनकी विचारधारा को बड़ी कड़ाई और सफाई से खंडित किया.            

 

आरएसएस का सीधा संदर्भ लेते हुए गांधी ने कुछ कहा हैतो वैसा पहला जिक्र 9 अगस्त1942 को मिलता है जब तत्कालीन दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष आसफ अली उन्हें संघ की शिकायत करने वाला एक पत्र भेजते हैं. 9 अगस्त1942 के हरिजन’ में (पृष्ठ 261) गांधीजी लिखते हैं : “ शिकायती पत्र उर्दू में है. उसका सार यह है कि आसफ अली साहब ने अपने पत्र में जिस संस्था का जिक्र किया है (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) उसके 3,000 सदस्य रोजाना लाठी के साथ कवायद करते हैंकवायद के बाद नारा लगाते हैं कि हिंदुस्तान हिंदुओं का है और किसी का नहीं। इसके बाद संक्षिप्त भाषण होते हैंजिनमें वक्ता कहते हैं- पहले अंग्रेजों को निकाल बाहर करोउसके बाद हम मुसलमानों को अपने अधीन कर लेंगे. अगर वे हमारी नहीं सुनेंगे तो हम उन्हें मार डालेंगे.’ बात जिस ढंग से कही गई हैउसे वैसी ही समझ कर यह कहा जा सकता है कि यह नारा गलत है और भाषण की मुख्य विषय-वस्तु तो और भी बुरी है. नारा गलत और बेमानी हैक्योंकि हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए और पले हैं और जो दूसरे मुल्क का आसरा नहीं ताक सकते. इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियोंयहूदियोंहिंदुस्तानी ईसाइयोंमुसलमानों और दूसरे गैर-हिंदुओं का भी है. आजाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहींबल्कि हिंदुस्तानियों का होगाऔर वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहींबिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा. धर्म एक निजी विषय हैजिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए. विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा हो गई हैउसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने अस्वाभाविक विभाग हो गए हैं. जब देश से विदेशी हुकूमत उठ जाएगी तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद हंसेंगे. अगर अंग्रेजों की जगह देश में हिंदुओं की या दूसरे किसी संप्रदाय की हुकूमत ही कायम होने वाली हो तो अंग्रेजों को निकाल बाहर करने की पुकार में कोई बल नहीं रह जाता. वह स्वराज्य नहीं होगा.”  हम गौर करें कि यहां गांधीजी हिंदुत्व के पूरे दर्शन को सिरे से खारिज करते हैंऔर यह भी बता देते हैं कि हर संगठित धर्म के बारे में उनकी भूमिका ऐसी ही है. संख्या या संगठन बल के आधार पर कोई भी धर्म आजाद हिंदुस्तान का भाग्यविधाता नहीं होगा बल्कि जनता द्वारा चुने गये जनप्रतिनिधि ही भारत का विधान बनाएंगे व चलाएंगेयह अवधारणा भारत के आजाद होनेसंविधान सभा बनने और संविधान बनाने से काफी पहले ही उन्होंने कलमबद्ध कर दी थी. 

 

 लेकिन सांप्रदायिकता का उन्माद जगा कर सत्ता की राजनीति का खेल तब शुरू हुआ जब दो राष्ट्रों का सिद्धांत सामने रखा गया और उसे बड़े शातिर तरीके से सारे देश में फैलाया जाने लगा. इसके बाद से मारे जाने तक हम गांधी को सांप्रदायिक व राजनीतिक हिंसा के कुचक्र के बीच से आजादी की लड़ाई  को निकाल ले जाने का दुर्धर्ष व करुण संघर्ष करते पाते हैं. सबसे पहले यह जहर सावरकर बोते हैं और फिर मुस्लिम लीग के सभी बड़े-छोटे नेतागणमुहम्मद इकबाल आदि उसमें खाद-पानी पटाते हैं और जिन्ना उसकी फसल काटते हैं. कांग्रेस के कई नेताओं ने भी इस आग में घी डालने की कायर कोशिश की है. लेकिन सभी यह जानते हैं कि महात्मा गांधी अपनी अंतिम सांस तक इससे असहमत हैंरहेंगे और लड़ते भी रहेंगे. इसलिए इस पूरे दौर में प्रत्यक्ष व परोक्ष गांधी इन सबके निशाने पर रहे हैंऔर गांधी भी अपने मन-प्राणों का पूरा बल लगा कर इन्हें ललकारते और इनसे दो-दो हाथ करते हमें मिलते हैं. 

 

  फिर हमें 16 सितंबर 1947 का प्रसंग मिलता है जब आरएसएस के दिल्ली प्रांत प्रचारक वसंतराव ओक महात्मा गांधी को भंगी बस्ती की अपनी शाखा में बुला ले जाते हैं. यह पहला और अंतिम अवसर है कि गांधी संघ की किसी शाखा में जाते हैं. विरोधी हो या विपक्षीगांधी किसी से भी संवाद बनाने का कोई मौका कभी छोड़ते नहीं हैं. वसंतराव ओक का आमंत्रण भी वे इसी भाव से स्वीकारते हैं. अपने स्वंयसेवकों से गांधीजी का परिचय कराते हुए मेजबान उन्हें  हिंदू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ कहते हैं. गांधीजी को तब ऐसे किसी परिचय की जरूरत ही नहीं थी लेकिन ऐसा परिचय दे कर संघ उन्हें अपनी सुविधा व रणनीति के एक निश्चित खांचे में डाल देना चाहता था. गांधीजी ऐसे क्षुद्र खेलों को पहचानते भी हैं और उनका जवाब देने से कभी चूकते नहीं हैं. महात्मा गांधी के अंतिम काल का सबसे प्रामाणिक दस्तावेज लिखा है उनके अंतिम सचिव प्यारेलाल ने. अपनी इस अप्रतिम पुस्तक ‘ पूर्णाहुति’ ( मूल अंग्रेजी ग्रंथ का नाम ‘ लास्ट फेज’ है ) में इस प्रसंग को दर्ज करते हुए प्यारेलाल लिखते हैं कि गांधीजी ने अपने जवाबी संबोधन में कहा : मुझे हिंदू होने का गर्व अवश्य हैलेकिन मेरा हिंदू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी. हिंदू धर्म की विशिष्टताजैसा मैंने उसे समझा हैयह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है. अगर हिंदू यह मानते हों कि भारत में अ-हिंदुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दर्जे से संतोष करना होगा तो इसका परिणाम यह होगा कि हिंदू धर्म श्रीहीन हो जाएगा. मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही है कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ हैतो उसका परिणाम बुरा होगा।’ यहां गांधी दो बातें साफ करते हैं : वे संघ मार्का हिंदुत्व को हिंदू धर्म मानने को तैयार नहीं हैंवे उससे खुद को जोड़े जाने से सर्वथा इंकार करते हैं और यह चेतावनी भी देते हैं कि संघ जिस दिशा में जा रहा है वह हिंदू धर्म विरोधी दिशा है और इस कोशिश का परिणाम बुरा होगा. आगे वे कहते हैं : ‘ कुछ दिन पहले ही आपके गुरुजी से मेरी मुलाकात हुई थी. मैंने उन्हें बताया था कि कलकत्ता और दिल्ली से संघ के बारे में क्या-क्या शिकायतें मेरे पास आई हैं. गुरुजी ने मुझे बताया कि वे संघ के प्रत्येक सदस्य के उचित आचरण की जिम्मेदारी नहीं ले सकते लेकिन संघ की नीति हिंदुओं और हिंदू धर्म की सेवा करना मात्र हैकिसी दूसरे को नुकसान पहुंचाना नहीं. उन्होंने मुझे बताया कि संघ आक्रमण में विश्वास नहीं रखता है हालांकि अहिंसा में भी उसका विश्वास नहीं है.’ यहां गांधीजी फिर सावधानीपूर्वक गोलवलकरजी से हुई अपनी बातचीत का सार सार्वजनिक कर देते हैं ताकि वे या संघ उससे मुकर न सकें तथा संघ के उस वैचारिक क्षद्म को भी उजागर कर देते हैं जिसमें बात तो गहरे अनुशासन की की जाती है लेकिन अपने सदस्यों के आचरण की जिम्मेवारी नहीं ली जाती. वे तभी-के-तभी यह भी जता देने से पीछे नहीं हटते हैं कि अगर आप अहिंसा में विश्वास नहीं रखते हैं तो लड़ाई में हिंसा और आक्रमण के अलावा विकल्प ही क्या है 

 

 उस दिन गांधीजी से कुछ ऐसे सवाल पूछे गये जो संघ का वैचारिक अधिष्ठान बनाते आए हैं.  इनसे संघ की दुविधा खुल कर सामने आ गई और गांधीजी को अपनी भूमिका स्पष्ट करने का अनायास ही मौका मिल गया. पूछा गया कि गीता’ के दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण कौरवों का नाश करने का जो उपदेश देते हैंउसकी व्याख्या आप कैसे करेंगेगांधीजी ने कहा, ‘ हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आततायी कौन हैदूसरे शब्दों में कहूं तो हमें दोषी को सजा देने का अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जाएं.  एक पापी दूसरे पापी का न्याय करे या उसे फांसी पर लटकाने का अधिकारी हो जाएयह कैसे माना जा सकता है ! अगर यह मान भी लिया जाए कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया हैतो उस अधिकार का इस्तेमाल कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही कर सकती है न ! आप ही न्यायाधीश और आप ही जल्लादऐसा होगा तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जाएंगे. आप उन्हें अपनी सेवा करने का अवसर दीजिए. कानून को अपने हाथ में लेकर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए.’ (संपूर्ण गांधी वांड्ंमयखंड: 89) यहां गांधी ईसा की उस अपूर्व उक्ति पर अपनी मुहर लगाते हैं कि पहला पत्थर वह मारे जिसने कोई पाप न किया हो. फिर वे यह भी रेखांकित करते हैं कि लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार को पूरा मौका देना चाहिए कि वह सार्वजनिक विवादों का रास्ता खोजे. साफ मन से कोई भी खोजेगा तो उसे इन सारे कथनों में संघ की बुनियादी अवधारणाओं की काट मिलेगी. इसमें संघ को बदनाम करने या उसे कठघरे में खड़ा करने की बात नहीं है बल्कि अपनी गलतियों को सुधारने की बात है. गांधीजी की बातों में आलोचना का दंश नहींरचनात्मक सहायता का भाव ही भरा होता था.   

 

 प्यारेलालजी लिखते हैं कि भंगी बस्ती की शाखा से लौटने के बाद गांधीजी के साथ उनके साथियों की बात हो रही है तो एक साथी कहता है कि संघ में गजब का अनुशासन है. थोड़ी कड़ी आवाज मेंछूटते ही गांधी कहते हैं, “ लेकिन हिटलर के नाजियों में और मुसोलिनी के फासिस्टों में भी ऐसा ही अनुशासन नहीं है क्या ?” गांधी साफ कर देना चाहते हैं कि अनुशासन अपने-आप में कोई मूल्यवान गुण नहीं है अगर अनुशासन क्यों और कैसे स्थापित किया जा रहा हैइसकी विवेकसम्मत विवेचना न की जाए. हम न भूलें कि इसी हिंदुस्तान ने 1975-77 में आपातकाल का वह नारा भुगता था जो कड़े अनुशासन की बात करता था. जनता का विवेक और उसकी स्वतंत्रता का हनन करने वाले सबसे पहले इसी अनुशासन का गुणगान करते हैं. प्यारेलालजी उस दिन गांधीजी की बातों का भाव शब्दबद्ध करते हुए लिखते हैं कि उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को तानाशाही दृष्टिकोण रखने वाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया.

 

  आरएसएस का दूसरा सीधा प्रसंग हमें 21 सितंबर1947 को उनके प्रार्थना-प्रवचन में मिलता है जहां गांधीजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुरु गोलवलकर से अपनी और डॉ. दिनशा मेहता की बातचीत का जिक्र करते हुए कहते हैं कि मैंने गुरुजी से कहा कि मैंने सुना है कि इस संस्था के हाथ भी खून से सने हुए हैं. गुरुजी ने मुझे विश्वास दिलाया कि यह बात झूठ है. उन्होंने कहा कि उनकी संस्था किसी की दुश्मन नहीं है.  उसका उद्देश्य मुसलमानों की हत्या करना नहीं है. वह तो सिर्फ अपनी सामर्थ्य भर हिंदुस्तान की रक्षा करना चाहती है. उसका उद्देश्य शांति बनाए रखना है. गुरुजी ने मुझसे यह भी कहा कि मैं उनके विचारों को सार्वजनिक कर दूं. गुरुजी की बातें सार्वजनिक करने से समाज को गुरुजी और आरएसएस को जांचने का एक ऐसा आधार मिल गया जो आज तक काम आता है. आगे गांधीजी एक दूसरा अहिंसक हथियार भी काम में लेते हैं. वे यह कह कर संघ के कंधों पर एक बड़ी नैतिक जिम्मेवारी डाल देते हैं कि संघ के खिलाफ जो आरोप लगाए जाते हैंउन्हें अपने आचरण व काम से गलत साबित करने की जिम्मेवारी संघ की है. मतलब यह कि वे उन आरोपों को खारिज नहीं करते हैं,संघ को उससे बरी नहीं करते हैं बल्कि संघ से ही कहते हैं कि वह अपने को निर्दोष साबित करे. 

 

 आरएसएस आज तक अपनी कथनी व करनी द्वारा अपने कंधों पर रखा वह नैतिक बोझ उतार नहीं पाया है. गांधी किसी बेताल की तरह आरएसएस के कंधों पर सवार हैं और इसलिए वह लौट-लौट कर किसी चालबाजी से गांधी को अपने कंधों से झटकना चाहता है. लेकिन सत्य सिर्फ सत्य से ही काटा जा सकता हैचालाकी या दगाबाजी से नहींयह वेद-सत्य वह भूल जाता है. क्या पताप्रणव मुखर्जी ही उसे यह फिर से याद दिला दें !  (03.06.2018 )    


गांधी का हिमालय !      


कभी गहरी पीड़ा और तीखे मन से जयप्रकाश नारायण ने कहा था : दिल्ली एक नहीं कई अर्थों में बापू की समाधि-स्थली है !’ देखें कि यह समाधि कहां है और कैसे बनी है ? … एक तो यही कि गांधी की हत्या इसी दिल्ली में हुई थी. लेकिन कहानी उससे पहले से शुरू होती है. 

 

 यही दिल्ली थी कि जहां प्रार्थना करते गांधी पर20 जनवरी 1948 को बम फेंका गया था. वह बम उनका काम तमाम नहीं कर सका. उसका निशाना चूक गया. उनकी हत्या की यह पांचवीं कोशिश थी. गांधी इनसे अनजान नहीं थे. उन्हें पता था कि उनकी हत्या की कोशिशें चल रही हैंकि उनके प्रति कई स्तरों पर गुस्सा-क्षोभ-शिकायत का भाव घनीभूत होता जा रहा है. लेकिन वह दौर था कि जब इतिहास की आंधी इतनी तेज चल रही थी कि हमारी नवजात आजादी उसमें सूखे पत्तों-सी उड़ जाएगीऐसा खतरा सामने था. इसकी फिक्र में जवाहरलालसरदार और पूरी सरकार ही रतजगा कर रही थी. गांधी भी अपना सारा बल लगा कर इतिहास की दिशा मोड़ने में लगे थे और यहां भी वे सेनापति की अपनी चिर-परिचित भूमिका थे.     

 

  ऐसे में ही आई थी 29 जनवरी 1948 ! नई दिल्ली का बिरला भवन ! … सब तरफ लोग-ही-लोग थे … थके-पिटे-लुटे और निराश्रित !! … इतने लोग यहां क्यों हैं क्या पाने आए हैं क्या मिल रहा है यहां ?… ऐसे सवाल यहां बेमानी हैं. कोई किसी से ऐसा कोई सवाल पूछ नहीं रहा है ! बससभी इतना जानते हैं कि यहां कोई है जो खुद से ज्यादा उनकी फिक्र करता है ! … आजाद भारत की पहली सरकार के सारे सरदार भी यहां इनकी ही तरह बैठे-भटकते-बातें करते मिल जाते हैं. वे यहां क्यों हैं उन्हें यहां से क्या मिलता है वे भी ऐसा सवाल नहीं करते हैं. वे भी यहां इसी भाव से आते हैं कि यहां कोई है जिसे उनसे ज्यादा उनकी फिक्र है. ईमान की शांति से पूरा परिसर भरा है… 

 

 और जो यहां है वह ? …  80 साल का बूढ़ा … जिसका क्लांत शरीर अभी उपवास के उस धक्के से संभला भी नहीं है जो लगातार 6 दिनों तक चल करअभी-अभी 18 जनवरी को समाप्त हुआ है… 20 जनवरी को उस पर बम फेंका जा चुका है… तन की फिक्र फिर भी हो रही है लेकिन ज्यादा गहरा घाव तो मन पर लगा है. वह तार-तार हो चुका हैअपना तार-तार मन लिए वह अपने राम की प्रार्थना-सभा में बैठावह सब कुछ जोड़ना-बुनना-सीना चाहता है जो टूट गया हैउधड़ गया हैफट गया है. यह प्रार्थना-सभा उसके जीवन की अंतिम प्रार्थना और अंतिम सभा बनने जा रही हैयह कौन जानता था 

 

 और फिर उसकी थकी लेकिन मजबूतक्षीण लेकिन स्थिर आवाज उभरी : “ कहने के लिए चीजें तो काफी पड़ी हैंमगर आज के लिए 6 चुनी हैं. 15 मिनट में जितना कह सकूंगाकहूंगा. देखता हूंमुझे आने में थोड़ी देर हो गई हैवह नहीं होनी चाहिए थी… एक आदमी थे. मैं नहीं जानता कि वे शरणार्थी थे या अन्य कोईऔर न मैंने उनसे पूछा ही. उन्होंने कहा : ‘ तुमने बहुत खराबी कर दी है. क्या और करते ही जाओगेइससे बेहतर है कि जाओ. बड़े महात्मा हो तो क्या हुआ ! हमारा काम तो बिगड़ता ही है. तुम हमें छोड़ दोहमें भूल जाओभागो !’ मैंने पूछा : ‘ कहां जाऊं?’ तो उन्होंने कहा;’ हिमालय जाओ !’ … मैंने हंसते हुए कहा:’ क्या मैं आपके कहने से चला जाऊं किसकी बात सुनूं कोई कहता हैयहीं रहोतो कोई कहता हैजाओ ! कोई डांटता हैगाली देता हैतो कोई तारीफ करता है. तब मैं क्या करूं इसलिए ईश्वर जो हुक्म करता हैवही मैं करता हूं. आप कह सकते हैं कि हम ईश्वर को नहीं मानतेतो कम-से-कम इतना तो करें कि मुझे अपने दिल के अनुसार करने दें… दुखियों का वली परमेश्वर है लेकिन दुखी खुद परमात्मा तो नहीं है… किसी के कहने से मैं खिदमतगार नहीं बना हूं. ईश्वर की इच्छा से मैं जो बना हूंबना हूं. उसे जो करना हैकरेगा… मैं समझता हूं कि मैं ईश्वर की बात मानता हूं. मैं हिमालय क्यों नहीं जाता वहां रहना तो मुझे पसंद पड़ेगा. ऐसी बात नहीं कि वहां मुझे खाना-पीनाओढ़ना नहीं मिलेगा. वहां जा कर शांति मिलेगी. लेकिन मैं अशांति में से शांति चाहता हूं. नहीं तो उसी अशांति में मर जाना चाहता हूं. मेरा हिमालय यहीं है.” 

 

 अगले दिन हमने उनकी हत्या कर दी ! हमने अपने गांधी से छुटकारा पा लिया. उसके बाद शुरू हुई आजाद भारत की एक ऐसी यात्रा जिसमें कदम-कदम पर उनकी हत्या की जाती रही. यह उन लोगों ने किया जो गांधी के दाएं-बाएं हुआ करते थे. कम नहीं था उनका मान-स्नेह गांधी के प्रति और न कम था उनका राष्ट्र-प्रेम ! लेकिन गांधी का रास्ता इतना नया था कि उसे समझने और उस पर चलने की समझ और साहस कम पड़ती गई और फिर एकदम चूक ही गई! इसलिए केंद्रित पंचवर्षीय योजनाओं का सिलसिला शुरू हुआ. गांधी ग्रामाधारित विकेंद्रित योजनास्थानीय साधन व देशी मेधा से क्रियान्वयन की वकालत करते हुए गये. सरकार ने उसकी तरफ पीठ कर दी. गांधी ने कहा था कि सरकार क्या करती हैइससे ज्यादा जरूरी है यह देखना कि वह कैसे रहती है और कैसे काम करती है. इसलिए गांधी ने कहा कि वाइसरॉय भवन को सार्वजनिक अस्पताल में बदल दो और देश के राष्ट्रपति को मय उसकी सरकार के छोटे घरों में रहने भेजो. सारा मंत्रिमंडल एक साथ होस्टलनुमा व्यवस्था में रहे ताकि सरकारी खर्च कम हो और मंत्रियों की आपसी मुलाकात रोज-रोज होती रहेवे आपस में सलाह-मश्विरा करते रह सकें. लेकिन सरकार ने किया यह कि वाइसरॉय भवन का नाम बदल कर राष्ट्रपति भवन रख दिया और प्रधानमंत्री समेत सभी मंत्री बड़े-बड़े बंगलों में रहने चले गये. सरकार ने कहा : देश की छवि का सवाल है ! उस दिन से सरकारी खर्च जो बेलगाम हुआ सो आज तक बेलगाम दौड़ा ही जा रहा है. विनोबा ने गांधी की याद दिलाई कि उद्धार में उधार रखने की बात न करे सरकार,  लेकिन सरकार ने चाहिएवाद’ का रास्ता पकड़ा. जिसे करना था वह चाहने लगाजिसे चाहना था वह गूंगा हो गया. एक-दूसरे पर जवाबदेही फेंकने का फुटबॉल ऐसा शुरू हुआ कि असली खेल धरा ही रह गया. सामाजिक समता और आर्थिक समानता की गांधी की कसौटी थी- समाज का अंतिम आदमी ! उन्होंने सिखाया थाजो अंतिम है वही हमारी प्राथमिकताओं में प्रथम होगा. हमने रास्ता उल्टा पकड़ा : संपन्नता ऊपर बढ़ेगी तो नीचे तक रिसती-रिसती पहुंचेगी. बसऊपर संपन्नता का अथाह सागर लहराने लगा और व्यवस्था ने नीचे रिसने के सारे रास्ते बंद कर दिए. गांधी का अंतिम आदमी न तो योजना के केंद्र में रहा और न योजना का कसौटी बन सका. गरीबी की रेखाएं भी अमीर लोग ही तै करने लगे. गांधी ने कहा कि शिक्षा सबके लिए होसमान हो और उत्पादक हो. सरकार ने तै किया कि सभी अपनी आर्थिक हैसियत के मुताबिक शिक्षा खरीद सकते हैं और सबसे अच्छी शिक्षा वह जो सामाजिक जरूरतों से सबसे कटी रहे. भारतीय समाज का सबसे बड़ा और सबसे समर्थ वर्ग उसी दिन से दूसरों के कंधों पर बैठ करपूर्ण गैर-जिम्मेवारी से जीने का आदी बन गया. हमारी शिक्षा करोड़ों-करोड़ युवाओं को न वैभव दे पा रही हैन भैरव ! दुनिया का सबसे युवा देश ही दुनिया का सबसे बूढ़ा देश भी बन गया है. 

 

 गांधी के विद्रूप का यह सिलसिला अंतहीन चला. वह सब कुछ आधुनिक और वैज्ञानिक हो गया जो गांधी से दूर व गांधी के विरुद्ध जाता था. 2 अक्तूबर और 30 जनवरी से आगे या अधिक का गांधी किसी को नहीं चाहिए था. यह मोहावस्था जब तक टूटीबहुत पानी बह चुका था. वृद्ध-बीमार जवाहरलाल ने अपने अंतिम दिनों में लोकसभा में कबूल किया कि हमने सबसे बड़ी भूल तभी की जब गांधी का रास्ता छोड़ा… और आज आज तो हमने गांधी की आंख छोड़ दी है और उनका चश्मा भर कागज पर रख लिया है. गंदे मन से लगाया स्वच्छता का नारा सफाई नहींगंदगी फैला रहा है. अब नारा मेक इंडिया’ का नहीं, ‘मेक इन इंडिया’ का हैअब बात स्टैंडअप इंडिया’ की नहीं, ‘स्टार्टअप इंडिया’ की होती है. अब आदमी को नहीं, ‘एप’ को तैयार करने में सारी प्रतिभा लगी है. नया गांव’ बनाने की बात अब कोई नहीं करतासारी ताकतें मिल कर गांवों को खोखला बनाने में लगी हैंक्योंकि बनाना तो स्मार्ट सिटी’ है. देशी व छोटी पूंजी अब पिछड़ी बात बन गई हैविदेशी व बड़ी पूंजी की खोज में देश भटक रहा है. खेती की कमर टूटी जा रही हैउद्योगों का उत्पादन गिर रहा हैछोटे और मझोले कारोबारी मैदान से निकाले जा रहे हैं और तमाम आर्थिक अवसरसंसाधन मुट्ठी भर लोगों को पहुंचाए जा रहे हैं.  देश की 73% पूंजी मात्र 1% लोगों के हाथों में सिमट आई है. सामाजिक समरसता नहींसामाजिक वर्चस्व आज की भाषा है. अब चौक-चौराहों पर कमराजनीतिक हलकों में ज्यादा असभ्यता-अश्वलीलता-अशालीनता की जाती है. लोकतंत्र के चारो खंभों का हाल यह है कि वे एक-दूसरे को संभालने की जगहएक-दूसरे से टकराते-टूटते नजर आते हैं. सारा देश जैसे सन्निपात में पड़ा है. 

 

 गांधी अपना हिमालय छोड़ कर न तब गए थे और न अब गये हैं. वे साधनारत हैं क्योंकि देश को लौटना तो हिमालय की तरफ ही है.  ( 28.01.2018)  

हिंदू गांधी का धर्म 

जैसी आज होती लगती हैवैसी कोशिश पहले भी होती रही है कि गांधी को किसी एक दायरे मेंकिसी एक पहचान में बांध करउनके उस जादुई असर की काट निकाली जाए जो तब समाज के सर चढ़ कर बोलता थाआज कहीं गहरे में समाज के मन में बसता है. इस कोशिश में वे सब साथ आ जुटे थे जो वैसे किसी भी बात में एक-दूसरे के साथ नहीं थे. 
 
 सनातनी हिंदू और पक्के मुसलमान दोनों एकमत थे कि गांधी को उनके धार्मिक मामलों में कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है. दलित मानते थे कि गैर-दलित गांधी को हमारे बारे में कुछ कहने-करने का अधिकार ही कैसे है ईसाई भी धर्मांतरण के सवाल पर खुल कर गांधी के खिलाफ थे. बाबा साहब आंबेडकर ने तो आखिरी तीर ही चलाया था और गांधी को इसलिए कठघरे में खड़ा किया था कि आप भंगी हैं नहीं तो हमारी बात कैसे कर सकते हैं ! जवाब में गांधी ने इतना ही कहा कि इस पर तो मेरा कोई बस है नहीं लेकिन अगर भंगियों के लिए काम करने का एकमात्र आधार यही है कि कोई जन्म से भंगी है या नहीं तो मैं चाहूंगा कि मेरा अगला जन्म भंगी के घर में हो. आंबेडकर कट कर रह गये. इससे पहले भी आंबेडकर तब निरुत्तर रह गये थे जब अपने अछूत होने का बेजा दावा करउसकी राजनीतिक फसल काटने की कोशिश तेज चल रही थी. तब गांधी ने कहा : मैं आप सबसे ज्यादा पक्का और खरा अछूत हूंक्योंकि आप जन्मत: अछूत हैंमैंने अपने लिए अछूत होना चुना है.
 
 गांधी ने जब कहा कि वे रामराज लाना चाहते हैंतो हिंदुत्व वालों की बांछें खिल गईं - अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे ! लेकिन उसी सांस में गांधी ने यह भी साफ कर दिया कि उनका राम वह नहीं है जो राजा दशरथ का बेटा है ! उन्होंने कहा कि जनमानस में एक आदर्श राज की कल्पना रामराज के नाम से बैठी है और वे उस सर्वमान्य कल्पना को छूना चाहते हैं.  हर क्रांतिकारी जनमानस में मान्य प्रतीकों में नया अर्थ भरता है और उस पुराने माध्यम से उस नये अर्थ समाज में मान्य कराने की कोशिश करता है. इसलिए गांधी ने कहा कि वे सनातनी हिंदू हैं लेकिन हिंदू होने की जो कसौटी बनाई उन्होंनेवह ऐसी थी कि कोई कठमुल्ला हिंदू उस तक फटकने की हिम्मत नहीं जुटा सका. सच्चा हिंदू कौन है - गांधी ने संत कवि नरसिंह मेहता का भजन सामने कर दिया : “ वैष्णव जन तो तेणे रे कहिए जे / जे पीड पराई जाणे रे !” और फिर यह शर्त भी बांध दी - “ पर दुखे उपकार करे तोय / मन अभिमान ना आणी रे !फिर कौन हिंदुत्व वाला आता गांधी के पास ! वेदांतियों ने फिर गांधी को गांधी से ही मात देने की कोशिश की : आपका दावा सनातनी हिंदू होने का है तो आप वेदों को मानते ही होंगेऔर वेदों ने जाति-प्रथा का समर्थन किया है. गांधी ने दो टूक जवाब दिया: “ वेदों के अपने अध्ययन के आधार पर मैं मानता नहीं हूं कि उनमें जाति-प्रथा का समर्थन किया गया है लेकिन यदि कोई मुझे यह दिखला दे कि जाति-प्रथा को वेदों का समर्थन है तो मैं उन वेदों को मानने से इंकार करता हूं.” 
 
 हिंदुओं-मुसलमानों के बीच बढ़ती राजनीतिक खाई को भरने की कोशिश वाली जिन्ना-गांधी मुंबई वार्ता टूटी ही इस बिंदु कि जिन्ना ने कहा कि जैसे मैं मुसलमानों का प्रतिनिधि बन कर आपसे बात करता हूंवैसे ही आप हिंदुओं के प्रतिनिधि बन कर मुझसे बात करेंगेतो हम सारा मसला हल कर लेंगे लेकिन दिक्कत यह है मिस्टर गांधी कि आप हिंदू-मुसलमान दोनों के प्रतिनिधि बन कर मुझसे बात करते हैं जो मुझे कबूल नहीं है. गांधी ने कहा: यह तो मेरी आत्मा के विरुद्ध होगा कि मैं किसी धर्मविशेष या संप्रदायविशेष का प्रतिनिधि बन कर सौदा करूं ! इस भूमिका में मैं किसी बातचीत के लिए तैयार नहीं हूं. और जो वहां से लौटे गांधी तो फिर उन्होंने कभी जिन्ना से बात नहीं की.
 
    पुणे करार के बाद अपनी-अपनी राजनीतिक गोटियां लाल करने का हिसाब लगा कर जब करार करने वाले सभी करार तोड़ कर अलग हट गये तब अकेले गांधी ही थे जो उपवास और उम्र से कमजोर अपनी काया समेटे देशव्यापी हरिजन यात्रा’ पर निकल पड़े - “ मैं तो उस करार से अपने को बंधा मानता हूंऔर इसलिए मैं शांत कैसे बैठ सकता हूं !” ‘हरिजन यात्रा’ क्या थीसारे देश में जाति-प्रथाछुआछूत आदि के खिलाफ एक तूफान ही था ! लॉर्ड माउंटबेटन ने तो बहुत बाद में पहचाना कि यह वन मैन आर्मी’ है लेकिन एक आदमी की इस फौज’ ने सारी जिंदगी ऐसी कितनी ही अकेली लड़ाइयां लड़ी थीं. उनकी इस हरिजन यात्रा’ की तूफानी गति और उसके दिनानुदिन बढ़ते प्रभाव के सामने हिंदुत्व की सारी कठमुल्ली जमातें निरुत्तर व असहाय हुई जा रही थीं. तो सबने मिल कर दक्षिण भारत की यात्रा में गांधी को घेरा और सीधा ही हरिजनों के मंदिर प्रवेश का सवाल उठा कर कहा कि आपकी ऐसी हरकतों से हिंदू घर्म का तो नाश ही हो जाएगा ! गांधी ने वहींलाखों की सभा में इसका जवाब दिया कि मैं जो कर रहा हूंउससे आपके हिंदू धर्म का नाश होता हो तो होमुझे उसकी फिक्र नहीं है. मै हिंदू धर्म को बचाने नहीं आया हूं. मैं तो इस धर्म का चेहरा बदल देना चाहता हूं ! … और फिर कितने मंदिर खुलेकितने धार्मिक आचार-व्यवहार मानवीय बने और कितनी संकीर्णताओं की कब्र खुद गईइसका हिसाब लगाया जाना चाहिए. सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों पर भगवान बुद्ध के बाद यदि किसी ने सबसे गहराघातक लेकिन रचनात्मक प्रहार किया तो वह गांधी ही हैं और ध्यान देने की बात है कि यह सब करते हुए उन्होंने न तो कोई धार्मिक जमात खड़ी कीन कोई मतवाद खड़ा किया और भारतीय स्वतंत्रता का संघर्ष कमजोर पड़ने दिया !
 
    सत्य की अपनी साधना के इसी क्रम में फिर गांधी ने एक ऐसी स्थापना दुनिया के सामने रखी कि जैसी इससे पहले किसी राजनीतिक चिंतकआध्यात्मिक गुरू या धार्मिक नेता ने कही नहीं थी. उनकी इस एक स्थापना ने सारी दुनिया के संगठित धर्मों की दीवारें गिरा दींसारी धार्मिक आध्यात्मिक मान्यताओं को जड़ें हिला दीं. पहले उन्होंने ही कहा था : ईश्वर ही सत्य है ! फिर वे इस नतीजे पर पहुंचे कि अपने-अपने ईश्वर को सर्वोच्च प्रतिष्ठित करने के द्वंद्व ने ही तो सारा कुहराम मचा रखा है ! इंसान को मार करअपमानित करउसे हीनता के अंतिम छोर तक पहुंचा कर जो प्रतिष्ठित होता हैवह सारा कुछ ईश्वर के नाम से ही तो होता है. इसलिए गांधी ने अब एक अलग ही सत्य-सार हमारे सामने उपस्थित किया : ईश्वर ही सत्य है’ नहीं बल्कि सत्य ही ईश्वर’ है ! धर्म नहींग्रंथ नहींमान्यताएं-परंपराएं नहींस्वामी-गुरु-महंत-महात्मा नहींसत्य और केवल सत्य ! सत्य को खोजनासत्य को पहचाननासत्य को लोक-संभव बनाने की साधना करना और फिर सत्य को लोकमानस में प्रतिष्ठित करना - यह हुआ गांधी का धर्म ! यह हुआ दुनिया का धर्मइंसानियत का धर्म ! ऐसे गांधी की आज दुनिया को जितनी जरूरत हैउतनी कभी नहीं थी शायद !  ( 27.01.2018)  

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