Wednesday 6 December 2017

कांग्रेस के लिए यह पुराना ही नया है


चाह तो सभी रहे थे - पार्टी भी अौर लोग भी कि कांग्रेस को अपना यह अाखिरी हथियार भी अाजमा ही लेना चाहिए ! तो उसने अाजमा लिया अौर राहुल गांधी कांग्रेस के नये अध्यक्ष बन गये ! कोई पूछे कि राहुल में नया क्या है, तो जवाब अासान नहीं है, क्योंकि वे पिछले वर्षों से देश की राजनीति में ताक-झांक भी करते रहे हैं, अौर सीधे उतर कर दो-दो हाथ भी करते रहे हैं. उन्हें अपने पिता की तरह पार्टी की गद्दी प्लेट पर रख कर नहीं मिली है, अौर न दादी की तरह विधि के विधान की तरह; अौर न परनाना की तरह ऐसे मिली कि जैसे वे इसके लिए ही पैदा हुए थे. राहुल बहुत कुछ अनीक्षापूर्वक मां की मदद में अाए, कई बार गिरते-लुढ़कते, ‘पप्पू’ कहलाते हुए पार्टी अौर राजनीति में अपनी जमीन तैयार की, अाधी-अधूरी ही सही, अपनी एक सोच भी देश के सामने रखी; फिर चुनावों की कमान संभाली अौर उसकी रणनीतियां तैयार कीं, हारे भी अौर पिटे भी; नरेंद्र मोदी मार्का लफ्फाजी अौर भाजपा मार्का अवसरवादिता के सामने कहीं से भी टिक न पाने के बावजूद वे टिके रहे, बहुत सतही तरीके से सही लेकिन देश के किसी भी दूसरे राजनीतिक नेता से अधिक वे किसानों अादि के सवालों ले कर संघर्ष करते हुए एक तरह की ताकत का प्रतीक बनते गये, अौर अब गुजरात के चुनाव परिणाम चाहे जो भी हों, राहुल देश की एक मान्य राजनीतिक अावाज बन चुके हैं. कांग्रेसी पहचानें कि यही राहुल गांधी का नयापन है. 

उन्होंने वर्षों तक कांग्रेस के एक सिपाही की तरह देश के कोने-कोने में चप्पलें घिसी हैं जबकि उन्हें ऐसा करने की जरूरत नहीं थी.  वे जब भी चाहते, कांग्रेस अध्यक्ष बन जाते ! वंशवाद का अारोप अाज भी लग रहा है, तब भी लगता लेकिन ऐसे अारोपों की कांग्रेसियों को कब फिक्र रही है कि अब होती ! लेकिन राहुल गांधी ने इतना संयम तो रखा कि पार्टी अौर सरकार दोनों पर विराजमान हो सकने के तमाम अवसरों को छोड़ा अौर अपनी पहचान व ताकत खुद ही बनाई. उनकी मां ने भी ऐसा ही किया था. एक मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री बनने की जैसी छिछोरी जल्दीबाजी दिखाई अौर जैसी क्रूरता से उसे अंजाम दिया, अौर भारतीय राजनीति में चाटुकारिता का जैसा नया अध्याय जोड़ दिया, उसके सामने राहुल गांधी को रखें हम तो राहत-सी महसूस होती है. लेकिन किसने कहा कि भारतीय राजनीति के शीर्ष पर बैठने के लिए निजी ईमानदारी अौर एक किस्म का भोलापन काफी है ? ऐसे एक व्यक्ति के दिए जख्म अभी ताजा ही हैं.  

राहुल गांधी ने ऐसे वक्त में कांग्रेस की कमान संभाली है जब पार्टी रेगिस्तान में खड़ी है.  रेगिस्तान में इसलिए खड़ी नहीं है कि इसके पास बहुत थोड़ी सरकारें बची हैं अौर दिल्ली इसके हाथ से ऐसी निकली है कि वापस अाती दीखती नहीं है. यह रेगिस्तान में इसलिए खड़ी है इसके पास  संगठन जैसी कोई चीज बची नहीं है, इसके खाते में जिला स्तर के नेता भी नहीं रह गये हैं, जो कुछ हैं वे सब छत्रप हैं जिनकी हवाबाजी बहुत है लेकिन हवा पर असर या पकड़ नहीं है. इसका शीर्ष नेतृत्व उनका है जिनका राजनीतिक जीवन समाप्त हो चुका है. अब उनमें कुछ भी बनाने की भूख नहीं बची है, वे बस बने रहें तो बस है. राजनीति को जो सत्ता में अाने-जाने का खेल भर समझते हैं अौर एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक ही जिनकी सारी दौड़ रहती है, उनके लिए किसी रणनीति के तहत काम करना अौर पार्टी की जड़ें सींचना संभव नहीं है. 

राज्यों से कांग्रेस के हर जनाधार वाले नेता की जड़ काटना अौर मनमानी कलमें रोपना अौर इस तरह खुद को बड़ा अौर हरा रखना इंदिरा गांधी की राजनीतिक शैली थी. उन्होंने कांग्रेस की जड़ें खोद कर अपनी जड़ रोपी थी. यह राजमहल की वह राजनीति थी जिसे देखते हुए राजीव गांधी बड़े हुए थे अौर यह मान बैठे थे कि राजनीति का मतलब बस इतना ही होता है. वे कुछ ज्यादा समझते-झेलते इससे पहले ही उनका दुखद अंत हो गया. राजीव के बाद की कांग्रेस का कोई चरित्र नहीं रहा. वह इस या उस समीकरण से सत्ता में अाने वाली दरबारियों की वह पार्टी बन गई जिसे सोनिया गांधी ने संभाल रखा था. सोनियाजी के लिए इससे अधिक कुछ करना संभव भी नहीं था, अौर जो संभव था वह उन्होंने बखूबी किया. मनमोहन सिंह का दोनों कार्यकाल जितना उनका नहीं था उससे कहीं ज्यादा सोनिया गांधी का था. इसलिए जैसे दैत्याकार घोटाले उस दौर में हुए, उसकी जिम्मेवारी से वे बच नहीं सकती हैं. अौर राहुल भी बच नहीं सकते हैं क्योंकि वे मां के साथ तब भी कांग्रेस के संचालकों में एक थे, अौर मां-बेटे दोनों में से किसी ने भी इस बारे में मनमोहन सिंह से सफाई मांगी हो या मनमोहन सिंह की मदद की हो कि वे ऐसे घोटालेबाजों को मंत्रिमंडल से निकालें अौर जेल भेजें, ऐसा उदाहरण हो, तो हमें पता नहीं. 

इन सबसे राहुल गांधी की जो तस्वीर उभरती है वह बहुत अाशा तो नहीं जगाती है लेकिन एक बड़ी बात यह है कि राहुल गांधी यहीं अा कर खत्म नहीं हुए. कांग्रेस के नेता-कार्यकर्ता की भूमिका में पार्टी को लोगों से जोड़ने की कोशिश में वे बराबर हाथ-पांव मारते रहे. पार्टी के भीतर चुनाव अादि की प्रक्रिया में सुधार से ले कर नागरिक जीवन में पार्टी की भूमिका के बारे में उनकी कोशिशें दूसरों से अलग भी रहीं हैं अौर अागे की भी. फेंकू’ अौर ‘पप्पू’ में से गुजरात चुनाव के दौरान ‘पप्पू’ का अवसान हो गया है. अब एक सजग, गतिमान राहुल को हम देख पा रहे हैं. लेकिन कांग्रेस को संभालते हुए भारतीय राजनीति में अपनी निश्चित जगह बनाने की दिशा में अभी उन्हें बहुत चलना है. वे चल सकते हैं, ऐसा भरोसा अब बन रहा है. 

देश में भी अौर पार्टी में भी ऐसे लोग होंगे जो मान रहे होंगे कि राहुल की अध्यक्षता की सफलता की एक ही कसौटी होगी कि वे कांग्रेस को सत्ता में कैसे लाते हैं. मुझसे कोई पूछे तो मैं कहूंगा कि राहुल इस कसौटी को स्वीकार न करें, न जेहन में रखें. कांग्रेस को सत्ता में वापस लाना न कोई लक्ष्य होना चाहिए अौर न उसकी रणनीति बननी चाहिए. राहुल की पहली कसौटी यह होगी कि क्या वे देश में ऐसा भरोसा पैदा कर सकते हैं कि कांग्रेस सत्ता के लायक है ? कांग्रेस के क्षत्रपों को हिलाए बगैर यह संभव नहीं है. यह काम दृढ़ता के साथ लेकिन सावधानी से करना होगा क्योंकि योग्य लोगों की खोज का रास्ता कांग्रेस में अब तक बंद रहा है. कांग्रेस नये लोगों की स्वाभाविक पसंद बने, यहां तक पार्टी को खींच लाना राहुल की प्राथमिकता होनी चाहिए. यह कैसे भी अौर किसी भी कीमत पर सत्ता की राजनीतिक शैली से यह अलग काम है. राहुल चाहें तो इसे समझने के लिए कांग्रेस का इतिहास टटोल सकते हैं. क्या सत्ता अौर चुनाव के अलावा पार्टी की समाज में कोई भूमिका होती ही नहीं है ? पर्यावरण संरक्षण, पेड़ों को बचाने व नये पेड़ लगाने का अभियान, पानी बचाअो तथा तालाबों का जीर्णोद्धार करना, खेती-किसानी की मदद की टोलियां गठित करना अौर उनके लिए मंडियों का जाल बिछाना, जातीय दमन व शोषण के खिलाफ संगठित प्रयास करना, पुलिस की अक्षमता के खिलाफ अावाज उठाना, महिलाअों की सुरक्षा के सवालों पर हमेशा उनके साथ तत्पर रहना अादि-अादि कितने ही गैर-राजनीतिक काम हैं जिनसे राजनीति को नया चेहरा दिया जा सकता है. क्या राहुल कांग्रेस को इनकी तरफ मोड़ सकेंगे ? इसी दो-राहे पर देश की राजनीति खड़ी है. राहुल मुड़ते हैं या मोड़ते हैं, यही उनसे जुड़ी तमाम संभावनाअों की कसौटी है. ( 06.12.2017)             

Tuesday 28 November 2017

184 किसान संगठन अौर एक किसान



राजधानी दिल्ली के संसद मार्ग पर अाज किसानों की जो रैली दिन भर जमी रही अौर लगातार अपनी बात कहती रही, वह इस अर्थ में नई थी कि उसमें 184 किसानों संगठनों ने शिरकत की थी. यह नया था कि जैसी टूट राजनीति के मंच पर है, वैसी ही टूट किसानों के मंच पर भी है. यह कहना भी गलत नहीं होगा कि हमारे सारे जन अांदोलन अापस में भी अौर एक-दूसरे के साथ भी इस कदर टूटे हुए हैं कि न अावाज एक हो पाती है, न निशाना ! टूट की यह त्रासदी  उन सबको भीतर-भीतर एक किए देती है जिनसे लड़ने का खम भरते हैं ये अांदोलन ! 

देश में अाज किसान दुखी है क्योंकि हर तरह से, हर तरफ से उसे दुखी करने की कोशिशें जारी हैं. हर किसी के पास किसानों के नाम पर बहाने के लिए एकड़ों अांसू हैं, पर कोई अपनी अांखों का कोर भी भिंगोना नहीं चाहता है. ऐसी त्रासदी के बीच असंगठित किसानों का एकजुट होना अौर राजधानी पहुंच कर दस्तक देना अाशा जगाए या न जगाए, ध्यान तो खींचता ही है. यह देखना भी हैरान कर रहा था कि रैली में चल-चल कर संसद मार्ग पर पहुंची महिलाअों की संख्या खासी थी अौर वे वहां किसान महिलाअों के रूप में अाई थीं. हम, जो किसानों का स्वतंत्र अस्तित्व कबूल करने को भी बमुश्किल तैयार होते हैं, महिला किसानों का यह स्वरूप, उनकी वैसी दृढ़ता, उनकी साहस भरी जागरूकता से हैरान-से थे. 

हमारे देश में महिलाअों व बच्चों को कोई असली नहीं मानता है. वे या तो छाया होती हैं या छलावा; असली नहीं होतीं ! बच्चे प्यारे होते हैं लेकिन उनका अस्तित्व नहीं होता ! लेकिन यहां मौजूद किसान महिलाएं ऐसी नहीं थीँ. वे थीं - अपनी वेदना अौर दर्द अौर दमन सबको संभालती, पीती हुई अपनी बातें कहे जा रही थीं. किसान महिलाअों की संसद वहीं संसद मार्ग पर बैठी थी अौर उस संसद की अध्यक्ष मेधा पाटकर बार-बार भर अाता अपना गला अौर बार-बार उमड़ अाती अपनी अांखें बचाती-छुपाती हमें अहसास कराना चाह रही थीं कि ये बहनें नहीं हैं, किसान महिलाएं हैं जो लड़ाई की सिपाही हैं. किसान मुक्ति संसद का यह स्वरूप अाकर्षक था लेकिन कहीं पीछे से नरेंद्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत या नीतीश कुमार के संघ व शराब मुक्त भारत की पैरोडी भी याद अा रही थी. ऐसा इसलिए नहीं था कि किसानों के दर्द के बारे में याकि उनकी ईमानदारी के बारे में कहीं कोई शंका है लेकिन ऐसे अायोजन जो कहते कम हैं, सुनाते बहुत अधिक हैं, शंकित करते हैं.  

हमारा राजनीतिक प्रशिक्षण इस तरह हुअा है कि हम किसान को भी एक वर्ग मान कर, उसे उसके लाभ के सवाल पर संगठित कर लड़ाई में उतारना चाहते हैं. किसानों को लुभाने-भरमाने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने कहा कि वह स्वामीनाथन अायोग की सिफारिशों को लागू करेगी अौर फसल की लागत की दोगुनी कीमत देगी. यह सीधा सौदा था जिसकी व्यवहारिकता या शक्यता पर किसी ने विचार नहीं किया अौर भारतीय जनता पार्टी की झोली वोटों से भर गई. तब भी ये ही नेता थे अौर ये ही किसान संगठन थे. भारतीय जनता पार्टी ने अपनी जीत पक्की कर ली, सरकार बना ली अौर फिर यह सच्चाई बयान कर दी कि उसने चुनाव के वक्त जो कुछ कहा वह सब जुमलेबाजी थी अौर जुमलेबाजी व जुमलेबाजों का कोई धर्म या ईमान नहीं होता है. वह तब भी सच्चे थे, अाज भी सच्चे हैं. भारतीय जनता पार्टी से पिटने के बाद किसान नेताअों ने उन जुमलों को ही नारा बना लिया अौर कर्जमाफी, स्वामीनाथन् अायोग की सिफारिशें तथा लाभकारी मूल्य की मांग खड़ी कर किसानों को अपने झंडे के नीचे जमा करने लगे. एक तरह की राजनीतिक होड़ शुरू हुई जिसमें किसान कम, किसान नेता ज्यादा हावी हो गए. किसान नेता पार्टियों में टूटे हैं, वे वोटों का सौदा करते हैं, वे भी खुले या पोशीदा तौर पर नाम व नामा की होड़ में लगे हैं. राजस्थान के कोटा की एक सभा में पूछा एक किसान ने कि भाईजी, किस किसान की बात अाप करते हो ? किसान है कहां यहां ?  यहां मैं हूं जो भारतीय जनता पार्टी का किसान हूं; अाप कांग्रेस के किसान हैं अौर वह बहुजन समाज पार्टी का किसान है ! किसान कहीं हो याकि अाप खोज लो तो बात अागे चले ! वह किसान कहां है ? क्या इन १८४ संगठनों में है याकि इनके बाहर जो रह गये हैं उनमें है ? 

बात यह है कि अाज देश को अौर इसके लोकतंत्र को किसान अांदोलन की जरूरत नहीं है. उसे जरूरत है एक सर्वस्पर्शी जनांदोलन की जिसका नेतृत्व किसान करे. मैं क्यों कहता हूं कि किसान करे ? इसलिए कि लड़ाई क्या है अौर किसके बीच है ? यह लड़ाई सभ्यताअों के बीच है जिसे वर्गों या पेशों में इस कदर उलझा दिया गया है कि हम असली लड़ाई अौर असली सिपाही की पहचान भूल गए हैं. अगर लड़ाई अपने लिए सुविधा या अधिकार का एक छोटा टुकड़ा मांग लेने या छीन लेने की है तो यह वर्गीय लड़ाई या पेशों की लड़ाई ठीक ही है. तब किसान भी इतना ही मांगेंगे कि उन्हें कर्जों से माफी मिल जाए अौर लागत कीमत मिल जाए; बैंक या हवाई सेवाअों के अधिकारी भी अपना वेतन बढ़वाने की मांग ले कर हड़ताल पर उतरेंगे अौर अालू-प्याज के अाढ़ती कीमतों के छप्पर फाड़ कर निकल जाने का अौचित्य बता देंगे अौर फिर कीमत दो-एक रुपये उतर अाने को हम भी बड़ी राहत मान कर कबूल कर लेंगे. सांसद अौर विधायक अौर देश की सबसे ऊंची कुर्सियों पर बैठे नौकरशाह सभी अपना-अपना वेतन बढ़ाते रहेंगे अौर हमें सबको स्वीकार कर चलना होगा. सारे राजनीतिक दलों की योजना में ऐसा देश सबसे मुफीद बैठता है, क्योंकि बिल्लियों की ऐसी ही लड़ाई में तो फैसले का तराजू बंदरों के हाथ में होता है अौर वे अपनी सुविधा देख कर उसे कभी इधर तो कभी उधर झुकाते रहते हैं. 

यह लड़ाई खेतिहर सभ्यता अौर अौद्योगिक सभ्यता के बीच है. हमारा देश खेतिहर सभ्यता का देश है. इसका अौद्योगिक विकास भी खेतिहर सभ्यता को केंद्र में रख कर ही किया जाता सकता है. खेतिहर सभ्यता मतलब मात्र किसान नहीं, पूरा खेतिहर समाज ! वे सारे लोग, वे सारी प्रणालियां, वे सारे पशु-पक्षी जो खेती से जुड़े हैं इस लड़ाई के केंद्र में है. परिवर्तन का यह अांदोलन खेतिहर परिवार के नेतृत्व चलेगा तभी परिणामकारी होगा. तब यह लड़ाई कर्जमाफी की नहीं होगी बल्कि खेती-किसानी कर्ज के बिना कैसे हो, इसकी खोज की होगी अौर ऐसी व्यवस्था बनाने की होगी कि जिसमें किसान को भाव मांगने की जरूरत नहीं होगी बल्कि उसे उसके जीवनयापन की सारी सुविधा अौर सारे अवसर समाज द्वारा सुनिश्चित होंगे. खेती-किसानी वह पेशा या नौकरी नहीं है कि जो हर साल हड़ताल करे अौर इस या उस पार्टी का दामन थामे ताकि उसे सुविधा का एक टुकड़ा मिले कि उसकी उपयोगिता का अाकलन करने के लिए अायोग बैठे अौर पे कमीशन की तरह किसान कमीशन भी बनाया जाए. यह हमारे अस्तित्व का अाधार है. हम अपनी तमाम भौतिक सुविधाअों के बावजूद खेती पर निर्भर रहते हैं. इसलिए ऐसा समाज बने कि जो खेती-किसानी को केंद्र में रखता हो अौर ऐसी खेती-किसानी हो जो संपूर्ण समाज को पालने-पोसने का कर्तव्य निभाती हो. किसान न तो ऐसी भूमिका ले पा रहे हैं, न ऐसी भूमिका के लिए उन्हें तैयार किया जा रहा है. इसलिए सारे किसान अांदोलन एक सीमित दायरे में अपने लाभ-हानि की बात करते हैं अौर मजदूर यूनियनों का चरित्र अोढ़ लेते हैं. व्यवस्था इन्हें उसी तरह लील जाती है अौर लील जाएगी जिस तरह उसने सारा मजदूर अांदोलन लील लिया है. 

किसान अपनी जमीन से उखड़ा हुअा अौर अौद्योगिक इकाइयों की छाया में जीने वाला मजदूर नहीं है जैसाकि व्यवस्था उसे बनाना चाहती है. वह अपनी जमीन से जुड़ा अौर जमीन से जीवन रचने वाला स्थायी समाज है. वही खेतिहर सभ्यता का अाधार है. हम राजा को याचक बनाने की गलती कर रहे हैं जो विफल भी होगी अौर सत्वहीन भी बनाएगी. ( 20.11.2017)  

अापने ठीक कहा है उप-राष्ट्रपतिजी !


अभी जब कोई कुछ कह नहीं रहा बल्कि सभी चिल्ला रहे हैं हमारे उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कुछ कहा है ! उन्होंने जो कहा है, उसमें खास कुछ नहीं है लेकिन जैसे माहौल में जिस तरह उन्होंने यह  बात कही है उससे वह बात बहुत खास ही नहीं बन गई है वरन बहुत जरूरी भी बन गई है.

किसी फिल्म या किसी रचना या किसी वक्तव्य को ले कर यदि देश में ऐसी अफरा-तफरी मच जाए कि देश मछलीबाजार बन जाए अौर व्यवस्था बनाने की जिनकी जिम्मेवारी हो वे व्यवस्था का माखौल उड़ाने में लग जाएं तो मानना चाहिए कि देश गंभीर रूप से बीमार है. मतलब देश को गहन इलाज की तत्काल जरूरत है. जब अादमी कैंसर से पीड़ित हो तब डॉक्टर यह नहीं देखता है कि उसकी सूरत कैसी है कि वह कितनी सीढ़ियां तेजी से चढ़ लेता है कि वह कितनी दंडबैठकी लगाता है कि वह कितना खाता है. डॉक्टर जानता है कि मामला वहां है जहां कहते हैं कि बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी ! इसलिए वह दूसरा कुछ भी न देखते-सोचते, इलाज में जुट जाता है. ऐसा ही देश व समाज के साथ भी होता है. अाप दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थ-व्यवस्था हैं कि अाप अपने पड़ोसियों पर भारी पड़ते हैं कि दुनिया सारी अापकी ही सुनती है जैसी बातें भूल कर इस बीमार देश-समाज के इलाज की बात सोचें हम, उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा है. एक साहित्यिक मेले में बोलते हुए उन्होंने कहा कि यदि देश के लोग एक-दूसरे को हिंसक धमकियां दे रहे हों, शारीरिक क्षति पहुंचाने की चुनौती उछाल कर करोड़ों रुपये इनाम देने की बात कह रहे हों तो किसी लोकतंत्रिक देश में यह स्वीकार्य नहीं हो सकता है. अापको दूसरे से शिकायत हो सकती है, अाप किसी से असहमत हो सकते हैं तो अापको जिम्मेदार अधिकारी के पास जा कर अपनी शिकायत या असहमति दर्ज करानी चाहिए अौर समुचित काररवाई का इंतजार करना चाहिए. लेकिन अाप शारीरिक दंड देने या हिंसक धमकियां उछालने की बात नहीं कर सकते हैं. 

उप-राष्ट्रपति जिस मामले का सीधा संदर्भ ले रहे थे वह फिल्म ‘पद्मावती’ से जुड़ा है. इतिहास में रानी पद्मावती भले दो पंक्तियों से ज्यादा की जगह न घेरती हों लेकिन इतिहास के पन्नों से निकल कर अाज के वर्तमान में उन्होंने कोई डेढ़ अरब के इस देश को हतप्रभ कर रखा है. इतिहास कहानी भी है, सच्चाई भी; इतिहास रास्ता भी है अौर रास्ते का पत्थर भी; वह अांख भी है अौर अंधता भी; वह कान भी है अौर वज्र बहरापन भी ! मतलब इतिहास तो अपनी जगह है अौर रहेगा भी, देखना तो यही है कि अाप उससे बरतते कैसे हैं ! अाप उसे विकृत कर सकते हैं, तोड़-मरोड़ सकते हैं अौर उसका बेजा इस्तेमाल भी कर सकते हैं लेकिन अाप उसे बदल नहीं सकते अौर न उसे रास्ते से हटा सकते हैं. वह मील का पत्थर भी है अौर अापके साथ निरंतर सफर पर भी है. इसलिए अाज का हिंदुस्तान देख कर मुझे अंदाजा होता है कि इतिहास के अंधों का देश कैसा होता होगा !  

इतिहास बताता है कि 1303 ई. में दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316)  ने लंबी लड़ाई अौर नाकाबंदी के बाद चित्तौड़गढ़ को जीता था. इस घटना के 237 साल बाद, 1540  ई. में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अवधी में ‘पद्मावत’ लिखा जो चित्तौड़ फतह की पूरी कहानी का काव्यांतर है. उसी कहानी से रानी पद्मावती का जन्म होता है अौर इतिहास कहानी का रूप लेता है. फिर इसी को अाधार बना कर दूसरों ने भी पद्मिनी या पद्मावती पर कुछ-कुछ लिखा है अौर हम देखते हैं कि हर की पद्मिनी भिन्न-भिन्न है. अगर कोई एक बात समान है इन सबमें तो वह यह कि पद्मिनी बेहद खूबसूरत है. उसकी यही खूबसूरती किंवदंती बन कर सैकड़ों साल का सफर तै करती रही है अौर अाज भी करती है अौर संजयलीला भंसाली जैसे लोग अपनी कल्पना का घोड़ा दौड़ाते हैं. 

एक कथा ऐसी भी है कि मेवाड़ के राजा ने जिस एक व्यक्ति को किसी अपराध में राज से निकाल दिया था उसी ने खिलजी के दरबारियों में अपनी जगह बनाई अौर बदला निकालने के लिए उसने ही खिलजी के कानों में पद्मिनी के सौंदर्य की कथा ऐसी भरी कि खिलजी उसे देखने अौर पाने को बेचैन हो उठा. उसने धोखे से चित्तौगढ़ के राजा रतन सिंह को बंदी बना लिया अौर फिर उनकी जान का सौदा पद्मिनी से किया. राजपूती अान-बान-शान खौल उठा अौर राजपूतों ने अपने राजा को छुड़ाने की लड़ाई उनके किले में घुस कर छेड़ दी. खिलजी की फौज बहुत सधी अौर युद्धकुशल थी. राजपूतों को जान-माल का भारी नुकसान उठाना पड़ा अौर अंतत: पराजय भी कबूल करनी पड़े. विजयी खिलजी जब किले में दाखिल हुअा तो उसने पाया कि रानी पद्मावती ने दूसरी महिलाअों के साथ जौहर कर लिया था. कथा यहीं पूरी हो जाती है. 

इतिहास में अाप खोजेंगे तो महारानी पद्मिनी का कोई ठोस जिक्र नहीं मिलता है. मतलब यह कहना इतिहाससंगत होगा कि पद्मिनी इतिहास नहीं, इतिहास की कहानी है. फिल्मी पर्दे पर पद्मिनी की कहानी को पकड़ने की कोशिश पहले भी कई बार हुई है जिसमें ‘चित्तौड़ की रानी’ नाम की तमिल फिल्म खूब पसंद की गई थी जिसमें वैजयंतीमाला पद्मिनी बनी थीं. श्याम बेनेगल ने जब अपना अपूर्व टीवी धारावाहिक ‘भारत : एक खोज’ बनाया तो उसका पूरा एक एपिसोड खिलजी-चित्तौड़ युद्द पर था जिसमें पद्मिनी का प्रसंग भी अाता है. हाल के वर्षों में पद्मिनी पर एक पूरा टीवी धारावाहिक भी बना है. मतलब यह कि पद्मिनी को लेकर इतिहास जितना ही चुप है, कलाकार-फिल्मकार उतने ही मुखर रहे हैं. हर फिल्मकार ने अपनी तरह की पद्मिनी बनाई है लेकिन सभी ने उसके सौंदर्य अौर उसकी नृत्य-प्रवीणता को केंद्र में रखा ही है. 
  
संजयलीला भंसाली न तो इतिहासकार हैं अौर न उनकी फिल्मों का कोई एेतिहासक संदर्भ है. वे हमारे वक्त के, सेल्यूलाइड के सिद्ध किस्सागो हैं. वे कभी इतिहास के पन्ने पलटते भी हैं तो सिर्फ इस खोज में कि कहां, क्या ऐसी कथा छुपी-दबी है कि जो बड़े पर्दे पर पंख फैला सकती है. वे बड़े दिल से कैमरे से कथा रचते हैं अौर पूरी तन्मयता के साथ उसे पर्दे पर उतारते हैं. वे कुछ कहने वाले फिल्मकार नहीं हैं कि अापको उनकी फिल्म का जवाब देना पड़े. उनकी फिल्म ‘रामलीला’ को ले कर शोर मचाने वालों ने यह समझा या नहीं पता नहीं लेकिन हमें समझना ही चाहिए कि ‘रामलीला’ का शोर उन्होंने इतना भर कर के शांत कर दिया कि नाम बदल दिया - गोलियों की रासलीला - राम  लीला ! न कहानी बदली, न कोई दृश्य काटा, बस नाम को थोड़ा बदल दिया. फिल्म बहुत अच्छी बनी थी, खूब कमाई की उसने ! ऐसा ही उन्होंने ‘बाजीराव मस्तानी’ के साथ भी किया अौर एक अच्छी फिल्म देखने का संतोष हमें मिला. एतराज उठाने वाले उनकी ‘देवदास’ पर भी एतराज उठाते रहे लेकिन शरत बाबू की कथा से अौर पहले से इसी कृति पर बनी फिल्मों से अलग ले जाकर उन्होंने अपनी ‘देवदास’ रची अौर अपनी तरह से सफल भी हुए. संजयलीला भंसाली बोलते कम हैं; जो कुछ भी बोलते हैं अपनी फिल्मों से ही बोलते हैं.  

लेकिन अब सभी बोल रहे हैं - वे सब जिन्होंने इतिहास नहीं पढ़ा है, जिन्होंने फिल्म नहीं देखी है. वे बोल रहे हैं इतना ही नहीं है, वे दूसरे किसी को बोलने देना नहीं चाहते हैं. वे किसी का सर,किसी की नाक, किसी का जौहर करने को दूसरों को ललकार रहे हैं. कायर इतने हैं ये सभी कि जातीय गौरव का यह काम खुद करने को अागे नहीं अा रहे, किराये पर यह काम करवाना चाहते हैं. उप-राष्ट्रपति ने इन्हीं लोगों को सावधान किया है कि लोकतंत्र में इसकी इजाजत नहीं है. लेकिन उप-राष्ट्रपति जो नहीं कह सके वह भी इसी के साथ कहने जैसी बात है कि हिंसा को उकसाने अौर उन्माद खड़ा करने की ऐसी कोशिेश यदि लोकतंत्र में स्वीकार्य नहीं है तो वैसी सरकारें कैसे स्वीकार्य हो सकती हैं जो इनकी पीठ थपथपा रही हैं ? सही-गलत फिल्मों का निर्धारण करने के लिए सेंसर बोर्ड नाम की एक संस्था बनी हुई है जिसकी अनुमति के बिना कोई भी फिल्म दर्शकों तक पहुंच नहीं सकती है. उसने अब तक ‘पद्मावती’ को प्रदर्शन की स्वीकृति नहीं दी है. उसकी स्वीकृति हो तब भी जिन्हें एतराज होगा वे अदालत जा सकते हैं. 

‘पद्मावती’ यदि इतिहास नहीं है तो उसकी परिकल्पना में इतिहास से छेड़छाड़ जैसी बात ही बेबुनियाद है. दूसरी बात रह जाती है जनमानस में बैठी छवि की, तो उसकी फिक्र भी की जानी चाहिए. लेकिन संजयलीला ने ऐसा कोई काम किया है कि नहीं, यह भी तो फिल्म देख कर ही तै होगा न !  फिर जिन मुख्यमंत्रियों ने बिना किसी अाधार के फिल्म का प्रदर्शन अपने राज्य में न होने देने की घोषणा की है, उनका क्या ? क्या हर राज्य का मुख्यमंत्री अब अपने राज्य का सेंसर बोर्ड अधिकारी भी बन गया है ? क्या ये सब अब मुख्यमंत्री नहीं, रियासतों के महाराजा बन गए हैं जो अपने फरमान अलग जारी करेंगे ? क्या लोकतंत्र में यह स्वीकार्य है ? संविधान हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है. अगर भीड़ उसका हनन करती है तो उप-राष्ट्रपति उसे खारिज करते हैं. अगर सरकारें करती हैं तो क्या उसका निषेध नहीं करना चाहिए तथा इस असंवैधानिक कृत्य के लिए इन सबको बर्खास्त नहीं कर देना चाहिए ? 

सारा देश भीड़ में बदल दिया जाए अौर फिर चतुर व अवांछित लोग अपनी दूकानें खोल लें, यह लोकतांत्रिक राजनीति का दर्शन नहीं है. संजयलीला भंसाली की ‘पद्मावती’ ने एक जौहर सजा दिया है जिसमें सरकारी व भीड़वादी सारे अलोकतांत्रिक रवैयों अौर मिजाजों का दहन कर देना चाहिए. उप-राष्ट्रपति की चेतावनी तभी सार्थक होगी. ( 28.11.2017) 

Saturday 21 October 2017

एक अौर गौरी

नाम की बात करूं तो दोनों के नाम ‘ग’ से शुरू होते थे, अौर ‘ग’ से ही हमारे यहां ‘गणपति’ का नाम शुरू होता है. गणपति कहूं तो हमारी परंपरा के प्रथम स्टेनोग्राफर यानी कलमधारी भगवान ! कथा है कि वेद व्यास महाभारत की कथा कहते चले गए अौर गणपति उसे लिपिबद्ध करते गये. तो ये तीनों कलम की परंपरा के लोग थे - गणपति, गौरी अौर गालिजिया ! 

अपनी गालिजिया को अभी-अभी माल्टा के लोगों ने बम से उड़ा दिया - ठीक वैसे ही जैसे हमने अपनी गौरी लंकेश को गोलियों से भुन दिया था ! अाप समझ सकते हैं कि जिस कलम को खरीदना अौर बेचना इतना अासान है कि बस एक अात्मा का सौदा करके, इस सौदे को निबटाया जा सकता है, उसी एक कलम को चुप कराना इतना कठिन हो जाता है कि अापको बम-बंदूक तक पहुंचना पड़ता है ! गालिजिया माल्टा की एक खोजी पत्रकार थी जिसने उन सबका जीना मुहाल कर रखा था जिन्होंने राजनीतिक सत्ता को धन कमाने की मशीन में बदल रखा है. दुनिया के तमाम सत्ताधारी यही एक काम समान कुशलता से, लगातार करते रहते हैं - तब तक, जब तक किसी गौरी या गालिजिया की कलम की जद में नहीं अा जाते. माल्टा के राजनीतिज्ञ इसके अपवाद नहीं हैं. इसलिए गालिजिया का ‘रनिंग कॉमेंट्री’ नाम का ब्लौग सबकी जान सांसत में डाले हुए था. धुअांधार लिखा जाने वाला अौर धुअांधार पढ़ा जाने वाला यह ब्लौग माल्टा की राजनीति में जलजला रच रहा था. 

पनामा पेपर भंडाफोड़ के बाद से राजनीतिज्ञों के अार्थिक भ्रष्टाचार का जैसा स्वरूप उजागर हुअा है, वह सबको हैरानी में डाल गया है. उसकी धमक अब अपने देश तक भी पहुंच रही है. कागजी कंपनियां बना कर, उन देशों में, जिन्हें ‘टैक्स हैवन’ कहा जाता है, खरीद-फरोख्त का फर्जी कारोबार चलता है अौर अरबों-खरबों के वारे-न्यारे किए जाते हैं. अाज की हमारी सरकार विदेशों में जमा जिस अकूत काले धन के खिलाफ जबानी जंग छेड़े रहती है, वह इसी रास्ते सफर करता है. यह बात दूसरी है कि नोटबंदी के शेखचिल्लीपने के बाद इस बात की अौर इस दावे की हवा निकल गई है लेकिन यह सच किसी से छुपा नहीं है कि धंधा बदस्तूर जारी है. 

५३ साल की डाफ्ने कारुअाना गालिजिया ने इस धंधे से अपने देश के शासकों का सीधा रिश्ता खोज निकाला अौर देश को बताया कि प्रधानमंत्री जोसेफ मस्कत की पत्नी एक कागजी कंपनी बना कर, अजरबेजान के शासक परिवार से मिल कर बेहिसाब पैसा बना रही हैं जो बाहरी बैंकों में जमा किया जा रहा है. इस भंडाफोड़ ने माल्टा की राजनीति में भूचाल ला दिया अौर लाचार हो कर प्रधानमंत्री मस्कत को नये चुनाव की घोषणा करनी पड़ी. वे जैसे-तैसे चुनाव तो जीत गये लेकिन न वह ताकत बची अौर न वह चेहरा ! चुनावी जीत अौर नैतिक हार में कितना कम फासला होता है, यह हमने अपने देश में बारहा देखा है. यही माल्टा में हुअा. प्रधानमंत्री मस्कत चुनाव तो जीत गये लेकिन लड़ाई हार गए अौर गलिजिया रोज-रोज अपने ब्लौग पर नये-नये खुलासे करने लगी. 

गलिजिया की रट यही थी कि हमारे छोटे-से द्वीप-देश का सारा राजनीतिक-सामाजिक जीवन भ्रष्टाचार से बजबजा रहा है. हमारा व्यापार-तंत्र धन की हेरा-फेरी अौर घूस खाने-खिलाने में लिप्त है अौर अपराधियों से सांठ-गांठ कर चल रहा न्यायतंत्र या तो नाकारा हो गया है या चाहता ही नहीं है कि अपराधियों तक कोई पहुंचे. माल्टा को अपराधियों ने अपना गढ़ बना लिया है अौर हमारा छोटा-सा द्वीप-देश माफिया-प्रदेश में बदल दिया गया है. वह बार-बार याद दिलाती थी कि पिछले १० सालों में माल्टा में माफिया ने १५ हत्याएं की हैं जिनमें कार को बम से उड़ा देने के मामले भी हैं. कभी कोई पकड़ा नहीं गया है, तो पकड़ने वाले कहां हैं ? कि पकड़ने वाले ही अपराधियों के साथ हैं ? जब वह ऐसे सवाल पूछ रही थी तब उसे कहां पता था कि उसकी कार में लगाया गया बम फटने पर ही है. 

अपने अंतिम ब्लौग में उसने प्रधानमंत्री के मुख्य अधिकारी के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की बात प्रमाण के साथ लिखी थी. उसने कुछ कागजातों का भी जिक्र किया था. यह सब लिख कर उसने  अपना वह अंतिम ब्लौग बंद किया था - उसके कार में रखा बम इसके अाधे घंटे के बाद फटा था अौर कार समेत गालिजिया की धज्जियां उड़ गई थीं. अपने अंतिम ब्लौग का अंत करते हुए उसने लिखा था “ : जिधर देखिए उधर शैतानों के झुंड हैं ! स्थिति बहुत नाजुक है !!” 

अब शैतानों का झुंड खामोश है. वह राजतंत्र, वह व्यापार-तंत्र अौर वह न्यायतंत्र, जिसकी बात गालिजिया ने की थी, अभी खामोश है. अाप याद करें कि गौरी की हत्या के बाद भी सारा तंत्र इसी तरह खामोश था अौर अगर कहीं कोई अावाज थी तो यही बताने के लिए थी कि ‘ हमने नहीं किया, हमसे कोई नाता नहीं !’ गालिजिया के साथ भी ऐसा ही  हुअा. प्रधानमंत्री मस्कत ने कहा: “ इस हत्या से मैं स्तब्ध हूं ! सभी जानते हैं कि करुअाना गालिजिया मेरी सबसे कटु राजनीतिक व निजी अालोचक थी जैसी वह दूसरों के लिए भी थी. फिर भी मैं कभी भी, किसी भी तरह इस बात की अाड़ ले कर उस बर्बर कृत्य का समर्थन नहीं करूंगा जो किसी भी तरह की सभ्यता व प्रतिष्ठा के खिलाफ जाता है.” 

लेकिन जिस सच को कहने की हिम्मत प्रधानमंत्री नहीं जुटा सके, वह कहा गालिजिया के बेटे मैथ्यूज ने : “ मेरी मां की हत्या कर दी गई क्योंकि वह कानून के शासन व उसका उल्लंघन करने वालों के बीच खड़ी थी… अौर वे ऐसा कर सके क्योंकि वह इस लड़ाई में अकेली थी.” 

तो अपना समाज बचाने अौर बनाने के लिए एक नहीं, कई गालिजिया की जरूरत है जिसके हाथ में कलम हो. 
( 19.10.2017) 

           

Sunday 15 October 2017

अांबेडकर डर-डर कर चलता सफर

  


यह हिसाब कोई लगाता नहीं है लेकिन किसी-न-किसी को लगाना चाहिए कि भारतीय समाज में बाबसाहेब अांबेडकर ने अपनी दलित पहचान को हथियार बना कर जो राजनीतिक सफर शुरू किया था, वह इतने वर्षों कहां पहुंचा है अौर अब अाज इसकी संभावनाएं कितनी बची हैं अौर कितनी सिद्ध हुई लगती हैं ! यह जानना या इसका अाकलन करना जरूरी इसलिए नहीं है कि इससे बाबासाहेब की महत्ता में कोई फर्क पड़ेगा याकि इसके अाधार पर हम उन्हें विफल करार दे सकते हैं. सवाल उनकी महत्ता या विफलता का नहीं है बल्कि समाज के हर उस अादमी की सार्थकता का है जो सामाजिक न्याय व समता के दर्शन में किसी भी स्तर पर भरोसा करता है. एक स्तर पर यह इसका भी अाकलन हो सकता है कि दलित नेतृत्व के नाम पर अाजादी के बाद जो राजनीति चली अौर जिसने बाबासाहेब को अाक्रामक प्रतीक बना कर सबको धमकाने-डराने का काम किया, वह सारत: क्या साबित हुई अौर उसमें अब कितनी अौर कैसी संभावना बची है.

अांबेडकर को हिंदू समाज ने जैसा जीवन दिया, अांबेडकर ने उसे वैसा ही प्रत्युत्तर दिया अौर वही उसे वापस लौटाया ! उनके मन व चिंतन में हम गहरी प्रतिक्रिया अौर तीखा विक्षोभ देखते हैं, वह वहां से अाया है. हम उसे अस्वीकार या स्वीकार कर सकते हैं लेकिन इन दोनों से ज्यादा बड़ी बात यह है कि हम उसे समझ सकते हैं. जिसे हम समझ सकते हैं वह प्रतिभाव बहुत ठोस होता है. अांबेडकर के संदर्भ में वह इतना स्वाभाविक अौर स्वाभिमान से भरा है कि उसकी तरफ से अांख फिराना अांख का अपमान होगा. इसलिए अांबेडकर के वक्त में किसी के लिए भी उनसे अांख चुराना संभव नहीं हुअा था, अांख मिलाने की स्थिति भी बिरलों की ही थी. अांख मिलाने वालों में गांधी सबसे अव्वल थे.

गांधी अौर अांबेडकर दोनों का बोधिवृक्ष एक ही था - जातीय अपमान व घृणा ! गांधी बोध को तब उपलब्ध हुए जब वे दक्षिण अफ्रीका के मारित्सब्बर्ग स्टेशन पर, एक सर्द रात में रेल के डिब्बे से सामानसहित निकाल फेंके गए थे. अांबेडकर जन्म से ही ऐसे दारुण अनुभवों से गुजरते हुए बोध को तब उपलब्ध हुए जब बडोदरा के उस पारसी होस्टल से उन्हें सामानसहित निकाल फेंका गया जिसमें बडोदरा महाराजा के निर्देश पर, उनके एक विशिष्ट मंत्री की हैसियत से उन्हें रखा गया था. गांधी दक्षिण अफ्रीका के उस स्टेशन से उठे तो कटुता व विक्षोभ के तमाम बंधनों को काटते हुए एक नई दुनिया के सर्जन में प्राणपण से जुट गये - एक ऐसी दुनिया, जो मूल्यों के लिहाज से भी अौर व्यवहार के लिहाज से भी अाज की दुनिया से एकदम भिन्न होगी. अांबेडकर बडोदरा के होस्टल से उठे तो भारतीय राजनीति के क्षितिज पर इतनी प्रखरता से भासमान हुए कि लोगों की नजरें चौंधिया गईँ. अचानक ही तब के अछूत समाज को अपनी खोई हुई अावाज अौर अपना खोया हुअा व्यक्तित्व मिला अौर वह बोलता-चलता अौर हर विमर्श में अपनी जगह बनाता दिखाई देने लगा.

 लेकिन एक बड़ा फर्क भी हुअा - गांधी जब अपनी नई दुनिया का नक्शा बनाते अौर उसके कील-कांटे गाड़ते-ठोकते थे तो वह बुनियादी परिवर्तन के लिए ही होता था. उन्हें अपनी नई दुनिया अपने लिए नहीं बनानी थी, सारे इंसानों के लिए बनानी थी अौर इसलिए उन्हें ढांचे व मन दोनों स्तरों पर लगातार काम करना था. अांबेडकर के लिए सारे इंसानों का मतलब अपने अछूत समाज से शुरू होता था अौर अाज के समाज में जहां उसकी जगह बनती थी, वहां समाप्त हो जाता था. राजनीति का मतलब ही यही होता है - जो अाज है उसमें अपनी जगह बनाना; जो प्राप्त है उसमें से अपना हिस्सा लेना ! गांधी का रास्ता अलग जाता था क्योंकि वह अलग संसार बनाने में लगा था. यह फर्क था, है अौर जब तक हम इसे बुनियादी तौर पर समझ नहीं लेंगे तब तक बना रहेगा. इसलिए गांधी को यहीं छोड़ कर हम अागे चलते हैं. 

भारतीय समाज में अपने अछूत समाज के लिए जगह बनाने के अपने धर्मयुद्ध में अांबेडकर कहां पहुंचे अौर उनका समाज कहां पहुंचा, इसका अाकलन अाज करना शायद संभव भी है अौर जरूरी भी क्योंकि उनके नाम पर चलाई गई पूरी दलित राजनीति अाज अौंधै मुंह गिरी अौर बिखरी पड़ी है. तब वाइसरॉय की कौंसिल में जगह पाने अौर बाद में लोकसभा में जगह बनाने की अपनी कोशिशों के कारण अांबेडकर की वही विरासत बनी, वही उनके समाज ने पहचानी अौर वही संभाली भी. अपने अाखिरी दिनों में अांबेडकर खुद भी इस कटु सत्य को पहचान सके थे अौर क्षुब्ध-लाचार इसे देखते रहे थे. उनका यह अवसान भी करीब-करीब गांधी की तरह ही था. अाखिरी दिनों में अांबेडकर के सेवक रतिलाल रत्तू ने इसका मार्मिक विवरण लिखा है. 

भारतीय राजनीति में अपनी जगह बनाने की अांबेडकर की वह कोशिश बहुत रंग नहीं ला सकी क्योंकि ताउम्र अांबेडकर कभी भी पूरे दलित समाज के सर्वमान्य नेता नहीं बन सके. प्रचलित राजनीति में इस सर्वमान्यता से प्राप्त संख्याबल का ही निर्णायक महत्व होता है. इसी गणित से हिंदू समाज की सिरमौर जाति ब्राह्मण समाज से अाने के बाद भी जवाहरलाल नेहरू को चलना पड़ा, स्त्री-जाति से अाई इंदिरा गांधी को चलना पड़ा, यही गणित था जिसकी चूल बिठाने में कांशीराम की सारी उम्र गई अौर यही समीकरण है कि जिसने मायावती से ले कर तमाम दलित नेताअों को हलकान कर रखा है अौर अाज सभी अपने-अपने पिटे मोहरे संभालने में लगे हैं. सवाल है कि क्या सत्ता का समीकरण बिठा लेने से समाज का समीकरण भी बनता अौर बदलता है ? अौर शायद यह भी कि क्या समाज का समीकरण न बदले तो सत्ता का बदला हुअा समीकरण टिकाऊ होता है ? जवाब हम अांबेडकर के नाम पर चलने वाली राजनीति में खोजें तो पाएंगे कि समाज के सामान्य विकास का जितना परिणाम दलित समाज पर हुअा है, उसके अलग या अधिक राजनीति ने उसे कुछ भी नहीं दिया है. 

दलित राजनीति के नाम पर कई नेता बने भी हैं अौर स्थापित भी हो गए हैं लेकिन उनका दलित समाज से वैसा अौर उतना ही नाता है जितना किसी भी सवर्ण नेता का उसके अपने समाज से है. अगर हम ऐसा कहें कि तमाम दलित नेता सवर्ण राजनीतिक नेताअों की अच्छी या बुरी प्रतिच्छाया बन कर रह गये हैं, तो गलत होगा क्या ? सत्ता तक पहुंचने के तमाम समीकरणों का अनिवार्य परिणाम यह हुअा है कि दलित राजनीति जोड़-तोड़ का, राजनीतिक सौदा पटाने का अखाड़ा बन गई है अौर धीरे-धीरे वह पूरी तरह बिखर गई है. दलित समाज अौर दलित राजनीति के बीच भी उतनी बड़ी व गहरी खाई खुद गई है जितनी सवर्ण राजनीति व सवर्ण समाज के बीच है. जिस भूत से लड़ने का अांबेडकर का संकल्प था वही भूत  दलित राजनीति को कहीं गहरे दबोच चुका है. तब अांबेडकर की इस सोच की मर्यादा समझ में अाती है कि जैसे सत्ता बंदूक की नली से निकलती है यह भ्रामक है वैसे ही समाज परिवर्तन सत्ता की ताकत से होता है, यह भी भ्रामक है. 

सत्ता पाने की अाराधना अौर समाज बदलने की साधना दो भिन्न कर्म हैं जो भिन्न मन व संकल्प से करने होते हैं. समाज बदलेगा तो एक नई राजनीति बनेगी ही लेकिन इसी राजनीति के बंदरबांट से कोई नया समाज बनेगा यह वह अात्मवंचना है जिसे पहचानने में अांबेडकर विफल हुए थे अौर दलित राजनीति जिससे लहूलुहान पड़ी है. यहां से अागे का कोई रास्ता तभी बनेगा जब गांधी-अाबेडकर का नया समीकरण हम तैयार कर सकेंगे. अाज भारतीय समाज इसी मोड़ पर खड़ा किसी नये अांबेडकर की प्रतीक्षा कर रहा है. ( 14.10.2017 ) 

Sunday 1 October 2017

गांधी का झाडू


सफाई की बात इन दिनों इतनी जोर-जोर से देश में चल रही है कि साफ-साफ शक हो रहा है कि सफाई के नाम पर कहीं हमें तो साफ मूर्ख नहीं बनाया जा रहा है ! इस सरकार को या अौर भी साफ कहूं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात का श्रेय देना ही होगा कि स्वच्छता को उन्होंने एक मुद्दा बना दिया ! प्रधानमंत्री झाडू ले कर निकले तो सत्ताभीरू हमारा उच्च वर्ग भी झाडू ले कर खड़ा हो गया. सारे मंत्रियों को भी लगा कि उद्घाटन करते हुए फोटो खिंचाने की ही तरह ही, झाडू ले कर फोटो खिंचवाना भी मंत्रालय का एक काम है; अौर उद्घाटन कर के भूल जाना जैसे सत्ताधर्म है वैसे ही फोटो खिंचवा कर झाडू फेंक देना भी सत्ता-चरित्र है. लेकिन परेशानी यह पैदा हो गई कि प्रधानमंत्री ने इस खेल का झाडू महात्मा गांधी से ले लिया; इधर उन्होंने लिया अौर उधर महात्मा गांधी ने अपना झाडू चलाना शुरू कर दिया!
प्रधानमंत्री ने यह काम तो बड़ा किया कि देश की सफाई को राजनीति का सवाल बना दिया ! हमारा देश सच में इतनी गंदगी समेट कर जीता है कि दम घुट जाए ! वी.एस. नायपॉल ने तो लिखा ही दिया न भारत एक विस्तीर्ण खुला शौचस्थल है ! अौर हम रोज-ब-रोज उन खबरों द्वारा नायपॉल को सही साबित करते चलते हैं जो बताती हैं कि मेनहोल की सफाई में करने उसमें उतरे इतने मजदूरों ने जहरीली गैस की चपेट में अा कर दम तोड़ दिया. अभी जब मैं यह सब लिख रहा हूं, खबर बता रही है कि राजधानी दिल्ली के सबसे निकट की बस्ती गुड़गांव में मेनहोल की सफाई के लिए उसमें उतरे ३ सफाईकर्मचारियों ने जहरीली गैस से अवश हो कर दम तोड़ दिया अौर चौथा अस्पताल में अत्यंत नाजुक हालत में है. यही अखबार बता रहा है कि देश की अौद्योगिक राजधानी मुंबई के एलफिंस्टन रोड स्टेशन के गंदे-टूटे-संकरे १५० साल पुराने पुल पर मचाई गई भगदड़ में २३ लोग कुचल कर मरे हैं अौर घायल सभी अस्पतालों में हैं. अौर यही अखबार यह भी बता रहा है कि देश में यहां-वहां उस दिन बलात्कार की कितनी ही घटनाएं हुई हैँ. सड़कों पर बिखरी दृश्य गंदगी अौर हमारी व्यवस्थाजन्य गंदगी अौर हमारे मन-प्राणों में बसी गंदगी को साथ जोड़ लें तो खुद से ही घिन अाने लगेगी; अौर तब हम यह समझ सकेंगे कि महात्मा गांधी ने देवालय अौर शौचालय की सफाई को देवत्व से क्यों जोड़ा था. दरअसल में गांधी के देवता किसी देवालय में ( उसका नाम मंदिर-मस्जिद-चर्च-नामघर-अातशबहेराम-गुरुद्वारा जैसा कुछ भी हो ! ) बसते ही नहीं थे. कहीं देखा है ऐसा फोटो कि किसी देवालय में बैठकर गांधी पूजा-अर्चना कर रहे हों कि ध़्यान लगा रहे हैं कि शस्त्र-पूजा कर रहे हैं ? गांधी के देवता उनके भीतर बसते थे अौर वे स्वंय हर इंसान के भीतर बसे देवता के अाराधक थे. जब मन मंदिर हो तब वह मन जिस तन में रहता है, उसे कितना पवित्र रखने की जरूरत है, यह जीएसटी की जटिलता की तुलना में, कहीं अासानी से समझा जा सकता है. 

गांधी का नाम बार-बार ले कर, अपनी हर बात से उन्हें जोड़ कर प्रधानमंत्री खामख्वाह खुद के लिए भी अौर अपने सहयोगियों के लिए भी मुसीबत पैदा कर लेते हैं. गांधी का झाडू बहुत खतरनाक था, अौर अाज भी है. वे अपने पास अाने वाले हर व्यक्ति के हाथ में झाडू पकड़ा देते थे अौर उसे शौचालय का रास्ता दिखला देते थे - फिर वह किसी भी जाति-धर्म-संप्रदाय का हो; कि अवर्ण हो कि सवर्ण; कि जवाहरलाल नेहरू हों कि जमनालाल बजाज ! हां, ऐसी सफाई-सेना की अगली कतार में वे खुद खड़े रहते थे. अपने जीवन के जिस पहले कांग्रेस अधिवेशन में वे शामिल हुए वहां सबसे पहले उनकी नजर गई नेताअों की लकदक के पीछे छिपी गंदगी पर ! लिखा है उन्होंने कि अधिवेशन-स्थल पर लोगों के लिए जो शौचालय बनाए गये थे उनकी हालत ऐसी थी कि भीतर जाने के लिए पांव धरने की जगह नहीं थी. तो मोहनदास करमचंद गांधी ने व्यवस्थापकों के पास खुद जा कर सफाई कर्मचारी का काम मांगा अौर सफाई में जुट गए. फिर तो हालत ऐसी बनी कि लोग इंतजार करते रहते थे कि दक्षिण अफ्रीका से अाया यह नीम-पागल कब शौचालय से निकले कि हम जाएं !! गांधी जाने से पहले अौर निकले से पहले सारी अौर पूरी सफाई करते थे. अौर जब गांधी कांग्रेस के भीतर पहुंचे तो यह सफाई यहां तक पहुंची कि कांग्रेस की भाषा भी साफ हुई, कपड़े भी साफ हुए, कांग्रेसी होने का मतलब भी साफ हुअा ! 

सफाई कर्मकांड नहीं है; राजनीतिक चालबाजी का हथियार नहीं है; दूसरों को दिखाने अौर फोटो खिंचवाने की बेईमानी नहीं है. सफाई मन:स्थिति है जो तन-मन-धन की सफाई के बगैर चैन पा ही नहीं सकती है. प्रधानमंत्री का छेड़ा स्वच्छता अभियान इसलिए असर पैदा नहीं कर पा रहा है कि यह २ अक्तूबर अौर ३० जनवरी को भय व अादेश से यहां-वहां चलता है लेकिन यह अाज तक पता नहीं चला है कि स्वच्छता-संकल्प के बाद से प्रधानमंत्री से ले कर सचिन तेडुलकर तक के घर से एक नौकर या एक चपरासी कम हुअा है या नहीं, क्योंकि प्रधानमंत्री अब अपनी केबिन खुद ही साफ कर लेते हैं अौर सचिन बांदरा की गलियां साफ करते हों कि न करते हों, अपना कमरा तो खुद ही बुहारते हैं. स्वच्छता की यह समझ गांधी वाली है. अाप वह चश्मा देखिए न जो प्रधानमंत्री के इस अभियान का प्रतीक-चिन्ह बनाया गया है - चश्मा गांधी का है. उस चश्मे की एक कांच पर ‘स्वच्छ’ लिखा है अौर दूसरी पर ‘भारत’. जिधर भारत है उधर ‘स्वच्छता’ नहीं है, जिधर ‘स्वच्छ’ है उधर ‘भारत’ नहीं है !  यह सच्चाई की स्वीकारोक्ति है तब तो कुछ कहना नहीं है अन्यथा यह पूछा व समझा ही जाना चाहिए कि इन दोनों के बीच इतनी दूरी क्यों है ? यह अास्था व रणनीति की दूरी है. 

शौचालयों के अंधाधुंध निर्माण की सच्चाई का अाकलन पिछले दिनों प्राय: हर चैनल पर दिखाया गया ! सारा शौचालय-अभियान अरबों रुपये के घोटाले में बदल गया है. तंत्र भ्रष्ट हो, लगातार भ्रष्ट बनाया जा रहा हो तो उसके द्वारा किया काम स्वच्छ कैसे हो सकता है ? गांधी का झाड़ू इसलिए ही इतना खतरनाक था कि बाजवक्त उससे सभी पिटे हैं. नमक सत्याग्रह शुरू करने से पहले तत्कालीन वाइसराय को लिखे पत्र में सीधा ही पूछा उन्होंने कि अापके अपने वेतन में अौर इस देश के अादमी की अौसत कमाई में कितने का फर्क है, इसका हिसाब लगाएं अाप ! अौर फिर हिसाब भी लगा कर समझाया कि ब्रिटेन का प्रधानमंत्री अपने देश को जितना लूटता है, उससे कई-कई गुना ज्यादा अाप हमें लूट रहे हैं ! गांधी का झाडू चलेगा तो अाज के तमाम जन-प्रतिनिधियों से पूछेगा ही न कि अाप भी यह हिसाब लगाएं अौर हमें बताएं कि करोड़ों की बढ़ती बेरोजगारी, सदा-सर्वदा असुरक्षा में जीती लड़कियां अौर राष्ट्रीय स्तर पर अात्महत्या करते किसानों-मजदूरों के इस देश में अपनी सेवा की कितनी कीमत वसूल रहे हैं अाप ? मन की, हेतु की अौर अाकांक्षाअों की सफाई होगी, वहां हमारा अात्मप्रेरित झाडू चलेगा अौर चलता रहेगा तब ही, अौर केवल तब ही देश के शहर-नगर-गांव-मुहल्ले भी साफ होने लगेंगे, साफ रहने लगेंगे. 

सफाई मन की  जरूरी है ! वहां गंदगी का साम्राज्य फैला हुअा है. ( 1.10. 2017)                                                                                                      

                                                                                                                                                                            

Tuesday 26 September 2017

नहीं, मुझे गांधी नहीं चाहिए ! 

कॉलेज के उस हॉल में सौ के करीब युवा होंगे - हमारे देश की नई पीढ़ी के नुमाइंदे ! सभी कॉलेज वाले थे जिन्हें मैं इस देश के युवाअों का सबसे अधिक सुविधा व अवसर प्राप्त वर्ग मानता हूं. सभी गांधी को न मानने व न चाहने वाले थे. मैंने पूछा : अाप सब एक-एक कारण बताएं कि अापको महात्मा गांधी से क्या परेशानी है ? 

अभी तक का नकारात्मक माहौल अचानक चुप हो गया ! अापस में खुसफुस चल रही है, यह तो मैं देख रहा था लेकिन कोई जवाब बन रहा हो, यह नहीं देख रहा था. कुछ थे कि जिन्होंने बड़ी हिम्मत जुटा कर अाधे-अधूरे वाक्यों में अपनी बात कही जिसका बहुत सीधा संबंध गांधी से नहीं था. मसलन यह कि गांधीजी ने अहिंसा की बात की जबकि हमें तो सारे भ्रष्टाचारियों को गोली मार देनी चाहिए. 

मैंने पूछा : तुम गांधी की बात मानते हो क्या ? 

वह तुनक कर बोला : हर्गिज नहीं! 

“तो फिर रोका किसने ? गोली मार दो न !!”

वह हैरानी से मेरी तरफ देखने लगा ! लगा, जैसे ऐसा जवाब या किसी को मार देने के बारे में ऐसी सलाह उसे कभी मिली नहीं हो; या फिर उसने कभी सोचा ही न हो कि मार डालने की जो बात वह हर सांस में बोलता है, उसे करने के बारे में वह एकदम कोरा है ! 

मैंने थोड़ा अौर इंतजार किया कि कोई मजबूत जवाब अाए लेकिन सब उलझे हुए ही दीखे ! फिर मैंने ही कहा : नहीं भाई, मुझे गांधी की बिल्कुल ही जरूरत नहीं है ! मुझे तो नहीं चाहिए यह गांधी, क्योंकि मुझे पिछड़ापन नहीं चािहए ! गरीबी अौर अशिक्षा को मैं तुरंत दूर करना चाहता हूं जबकि गांधी उसी का गुणगान करते हैं. मुझे ऐसा समाज चाहिए कि जो तेजी से विकास करता हो. इसलिए मैं क्यों देखूं कि दूसरे का क्या हो रहा है, मुझे तो अपना देखना है ! मैं ऐसा समाज चाहता हूं जिसमें सबके पास अफरात हो, किसी चीज की कभी कमी न रहे, इसलिए मुझे यह देखना नहीं है कि पर्यावरण का क्या हो रहा है; कि नदियों का क्या हाल है; कि हमारे पास जो अफरात है ऐसा दीखता है, वह कहां से अाता है. मुझे मेरी जरूरत का िमल जाए मांगने से, चुराने से याकि छीनने से तो मेरे लिए बस है. मैं दूसरे का कुछ भी छीनना नहीं चाहता हूं तब तक, जब तक मेरी जरूरतें पूरी हो रही हैं. लेकिन मुझे दिक्कत होगी, तो मैं दूसरों को भी चैन से जीने नहीं दूंगा. गरीबों से मेरी भी हमदर्दी है लेकिन हमदर्दी से पेट तो भरता नहीं है. इसलिए मैं जब इतना कमा लूंगा कि मेरी सारी जरूरतें पूरी हो जाएं, तो फिर दूसरों की सोचूंगा. 

मैं ऐसा भारत चाहता हूं िक जिसमें भ्रष्टाचार न हो, मिलावट न हो, गंदगी न हो अौर सभी एक-दूसरे की मदद करते हों लेकिन ऐसा भारत बनाने का काम करने का अभी मेरे पास समय नहीं है. अभी तो यह काम दूसरे करें, जब मेरे पास समय होगा तो मैं भी जरूर इस काम में सबके साथ काम करूंगा. मेरा किसी धर्म से कोई झगड़ा नहीं है लेकिन मेरा अपना धर्म भी तो है जिसकी रक्षा करना मेरा धर्म है ! इसलिए मैं जान लगा कर अपने धर्म की रक्षा करूंगा अौर इस रास्ते में जो अाएगा, उसकी जान का भगवान मािलक ! ….

मैं अौर भी बहुत कुछ कहना चाह रहा था ताकि गांधीजी की अब हमें कोई जरूरत नहीं है, यह बात पुख्ता प्रमाणित हो कर इन युवाअों के मन में बैठ जाए. लेकिन मेरी हर बात के साथ सामने बैठे युवाअों के चेहरों पर जो उमड़ रहा था वह था गहरे असमंजस का भाव ! यह भाव इतना गहरा व साफ-साफ दिख रहा था कि मुझे रुकना पड़ा ! मैंने बात बंद कर दी. अब दोनों तरफ से प्रश्नाकुल नजरें थीं. कौन बोले, ऐसा भाव था. फिर मैंने ही चुप्पी तोड़ी : 

“ क्या हुअा ? … तुम सब मेरी तरफ ऐसी नजरों से क्यों देख रहे हो ?”

चुप्पी थोड़ी लंबी खिंची. फिर एक लड़की झिझकते-झिझकते बोली : “ सर, अाप यहां गांधीजी के बारे में बोलने अाए थे न !”  

“ हां !”, मैंने जल्दी से अपनी सहमति दे दी. 

“ तो अाप तो गांधीजी के खिलाफ ही बोल रहे हो !” 

“ तो तुम लोगों ने भी तो मुझको पहले ही बता दिया था न कि तुम सब न गांधी को मानते हो, न चाहते हो !” 

वह फिर बोली : “ लेकिन इसका मतलब ऐसा थोड़े ही न हुआ कि हम गांधीजी के बारे में बुरी बात करें !” 

“ लेकिन मैंने गांधीजी के बारे में कोई बुरी बात कही ही कहां ! … मैं तो इतना ही कह रहा था न कि मैं अपनी जिंदगी कैसे जीना चाहता हूं अौर मैं अपना देश कैसा बनाना चाहता हूं !”

“ लेकिन सर,” इस बार वह पहला अहिंसा न चाहने वाला युवक बोला : “ हम वैसा समाज तो नहीं चाहते हैं जैसा अाप बता रहे थे !” 

“ तो जैसा समाज चाहते हो, वैसा बनाअो तो !… बनाने लगोगे तो गांधी तुम्हारे साथ अा जाएंगे; अागे चलोगे तो तुम गांधी के साथ अा जाअोगे !… गांधी दूसरा कुछ नहीं है मित्रो, अपनी पसंद का समाज बनाने का नाम है ! … हमें गांधी इसलिए पसंद नहीं अाते हैं कि हम चाहते हैं कि समाज बनाने का काम दूसरे करें, हम उनके बनाए समाज में अाराम से रहें ! … गांधी को यह पसंद नहीं है. वे कहते हैं कि हर किसी को अपने रहने का समाज खुद ही बनाना चाहिए, अौर जब तुमको बनाने की अाजादी मिलेगी तो तुम वही बनाअोगे जो तुम्हें पसंद है; अौर तब तुम देखोगे कि तुम्हारी पसंद अौर गांधी की पसंद में ज्यादा कोई फर्क है नहीं !” 

ऐसा हाल युवाअों का ही नहीं, हम सबका है. हम मानते हैं कि गांधी हमें पसंद नहीं हैं क्योंकि हम जानते ही नहीं है कि हम गांधी को जानते नहीं हैं ! यह गांधी की भी अौर हमारी भी कमनसीबी है. ( 27.09.2017) 

Monday 18 September 2017

राहुल उवाच्

राहुल मौनी बाबा नहीं हैं ! खूब बोलते हैं. उनकी दिक्कत दो स्तरों पर है - वे अपना कुछ नहीं बोलते, दूसरों के कहे पर प्रतिक्रिया करते हैं. जब अाप प्रतिक्रिया में बोलते हैं तो हमेशा एजेंडा दूसरे का तय किया होता है. ऐसे में जरूरत होती है तुर्की-ब-तुर्की बोलने की, नहले पर दहला मारने की. राहुल को यह कला अाती ही नहीं है. नरेंद्र मोदी को अाज की राजनीति को सबसे बड़ी देन अगर कुछ है तो जीभ चलाने की. वे उन लोगों में हैं जो मानते हैं कि गाल के अागे दीवाल नहीं टिकती है. तो कांग्रेस अौर भाजपा का मुकाबला हो नहीं पाता है. राहुल के बोलने की विशेषता यह है कि वे ईमानदारी से बोलते हैं, अौर उतना ही बोलते हैं जितने की जरूरत होती है. अौर यह भी सच है कि अापके पास जब अपना कमायाबहुत कुछ हो नहीं तो बोल कर भी अाप कितना बोलेंगे !

लेकिन राहुल बोले - अपनी धरती पर नहीं तो अमरीका की दिव्य धरती पर बोले ! उस मिट्टी की सिफत ही यह है कि वहां जो जाता है सर्वज्ञानी होने का भ्रम पाल बैठता है. अमरीका के बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के एक अायोजन में,अायोजकों ने जिसका नाम रखा था ‘ 70 की उम्र का भारत : अागे का रास्तारखा था, राहुल गांधी खुल कर बोले. अाज देश की राजनीति जहां पहुंच कर ठिठक गई है अौर जहां से अागे का रास्ता ऊपर या नीचे वाले खुदाको ही मालूम है, यह बड़ा मौका था कि राहुल खुद का रास्ता साफ करते. मौका भी था अौर दस्तूर भी; राहुल ने दोनों गंवा दिया. राहुल ऐसा कुछ भी नहीं कह सके कि जिससे देश का मतदाता यह सोचे कि चलो, इस बार इसे मौका देते हैं ! मोदी को भी ऐसे ही मौकों पर सुनते-सुनते लोगों ने मौका देने का मन बनाया था. 

राहुल ने अपने देश में परिवारवाद के चलन को स्वीकार कर, अपने संदर्भ में उसे मान लेने की वकालत की. वे यह नहीं कह सके कि यह चलन गलत है, सामंतवाद/राजाशाही का अवशेष है अौर यह भारत में ही नहीं, सारी दुनिया में प्रचलित है. जिस अमरीका में वे बोल रहे थे उस अमरीका में ही बुश-परिवार, केनेडी-परिवार तथा कई दूसरे उदाहरण मिलते हैं. श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान में भी इस परिवारवाद का बोलबाला है. इंग्लैँड, जापान समेत एशिया, यूरोप के कितने ही देश अाज भी अपने राजपरिवारों को ढोते हैं. कहना तो राहुल को यह था कि यह सब खत्म हो, यह मैं चाहता हूं अौर इसलिए ही मैंने अब तक अपनी पार्टी की पैदल सेना की तरह काम किया है अौर विरासत के रूप में मिल रही गद्दी को इंकार करता रहा हूं. अब देश-समाज अौर अपनी पार्टी के मंच से पर्याप्त काम करने के बाद मैं तैयार हूं कि जिस भी तरह की जिम्मेदारी मुझे दी जाएगी, मैं उसे निभाऊंगा. उनके जवाब में न तो ऐसी सफाई थी, न अात्मविश्वास था अौर न देश को भरोसा दे सकने लायक गहराई थी. 

राहुल ने जो कुछ वहां अमरीका में कहा वह दूसरे के सामने रोना रोने जैसा भाव देता है जबकि उन्होंने ऐसा ही सब यहां कहा होता, अपनी पार्टी के मंचों से ऐसे सवाल खड़े किए होते तो वह देश से अौर पार्टी से बात करने जैसा बन सकता था अौर उनकी अपनी छवि गढ़ सकता था. उन्होंने कभी यहां तो देश से या पार्टी से नहीं कहा कि 2004 में बनाया गया कांग्रेस का विजन डाक्यूमेंट’ 10 साल की एक्सपायरी के साथ बना था अौर उसने 2010-11में ही दम तोड़ दिया था अौर उस मुर्दा दस्तावेज को अब तक ढोकर हम देश व पार्टी की कुसेवा कर रहे हैं ?  2010-11 से अब तक के तमाम चुनावी युद्धों की कमान राहुल के पास ही रही है. सरकार व कांग्रेस पार्टी पर उनके परिवार का जैसा दबदबा था अौर है, उसके बाद उस मुर्दा दस्तावेज को ले कर बार-बार मतदाता के पास जाने के अपराधी अाप नहीं, दूसरे कैसे हो सकते हैं ? नया नजरिया बनाना अौर उसे दस्तावेज की शक्ल दे कर पार्टी से पारित करवाना व देश के सामने पेश करना, क्या यही काम उनका नहीं था ? वे कह रहे थे कि 2012 में कभी ऐसा हुअा कि एक किस्म की अहमन्यता या घमंड कांग्रेस पर हावी हो गया; वे वहां अमरीका में कह रहे थे अौर मैं यहां हिंदुस्तान में देख रहा था कि थोड़ा अागे-पीछे यही दौर था कि जब राहुल अपनी विरासत संभालने की गंभीर तैयारी में लगे थे अौर उनके सारे नौसिखुअा सिपहसालार तालियां बजा कर उनकी अपरिपक्वता को अासमान पर पहुंचा रहे थे. अपनी ही सरकार के खिलाफ उनके बचकाना तेवरों का यह दौर था, इसी दौर में वे सार्वजनिक जगहों पर अपनी सरकार द्वारा पारित बिल की चिंदियां उड़ा रहे थे. यही दौर था जब प्रियंकापति वाड्रा दोनों हाथों जमीन समेट रहे थे अौर कांग्रेस की राज्य सरकारें उसमें उनकी बेकायदा अौर अनैतिक मदद कर रही थीं. बेकायदा अौर अनैतिक - इन दोनों शब्दों को इस कदर तोड़-मरोड़ दिया गया है कि अब इनका कोई संदर्भ ही नहीं रह गया है. फिर भी ये शब्द जीवित हैं अौर इनसे जुड़ी विभावनाएं बड़े-बड़े शूरमाअों को धूल चटा चुकी हैं. राहुल ने यह नहीं कहा कि जिस दौर में वह घमंड पैदा हुअा, उस दौर में मैं ही निर्णायक था अौर इसलिए उस चूक की जिम्मेवारी मेरी है. 

राहुल ने नरेंद्र मोदी के बारे में कहा कि वे बहुत माहिर वक्ता हैं, संवाद साधने की उनकी कला खूब है अौर यह भी कि वे एक ही सभा के, एक ही भाषण में कई सामाजिक जमावड़ों को अलग-अलग संदेश दे लेते हैं. अच्छा है कि राहुल अपने प्रतिपक्षी के गुण भी देख लेते हैं लेकिन यह दायित्व भी उनका ही है कि कांग्रेस के सबसे बड़े नेता के नाते वे इसकी काट भी खोजें. यह संभव नहीं है कि राहुल मोदी की तरह बोलें; जरूरी भी नहीं है लेकिन यह संभव भी है अौर जरूरी भी कांग्रेस में अलग-अलग प्रतिभाअों को अागे अाने का माहौल मिले अौर वे अपनी तरह से देश से बातें करें. यह काम न तो राहुल खुद कर पाते हैं अौर न पार्टी किसी दूसरे को यह करने देती है. प्रतिभाअों को बधिया करने की कीमत कांग्रेस अाज चुका रही है. इसका अहसास राहुल को हुअा है, ऐसा कोई संकेत भी तो नहीं मिला अमरीका में. हां, अमरीका जा कर राहुल ने यह रहस्य खोला कि वे कांग्रेस की ही नहीं, देश की कमान भी संभालने को तैयार बैठे हैं.  उन्होंने कहा कि वे इस जिम्मेवारी को उठाने से हिचक भी नहीं रहे हैं, वे वैसे मूर्ख भी नहीं हैं जैसा भाजपा का प्रचार-तंत्र, जो सीधे प्रधानमंत्री के हाथ में काम करता है, प्रचारित करता है. प्रकारांतर से इससे दो बातें पता चलीं - हमें यह पता चला कि राहुल पार्टी व देश दोनों की जिम्मेवारी लेने को तैयार हैं लेकिन माताजी की कांग्रेस उन्हें वह मौका दे नहीं रही है; दूसरा यह कि प्रधानमंत्री के सीधे निर्देश पर काम करने वाले भाजपा के प्रचार-तंत्र का सामना कांग्रेस का प्रचार-तंत्र नहीं कर पा रहा है. फिर प्रशांत किशोरों का फायदा क्या ! 

2019 का चुनाव बर्कले में नहीं, राय बरेली व अन्य बरेलियों में होगा. राहुल व उनकी मंडली को अब यह बात समझ लेनी चाहिए कि लड़ाई कहां है अौर उसका तेवर क्या होगा. तो अब रणनीति बने, नया विजन स्टेटमेंट बने अौर नये राहुल अपनी नई टीम को उसे लेकर अभियान में जुट जाएं ! ऐसा करना इसलिए जरूरी नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार हमें नहीं चाहिए. ऐसा करना इसलिए जरूरी है कि गतिशील लोकतंत्र के लिए दो मजबूत विपक्षी दलों की सक्रिय व सावधान उपस्थिति जरूरी है. हमारे यहां कभी कांग्रेस के साथ यह भूमिका वाम दलों ने निभाई थी. कभी समाजवादी गठबंधनों ने भी यह भूमिका निभाई तो कभी जनसंघ ने भी ! अाज भारतीय जनता पार्टी  की बेहिसाब संसदीय उपस्थित को संयमित व संतुलित करने के लिए हमें एक मजबूत, सावधान व सक्रिय राजनीतिक दल की जरूरत है. भविष्य के गर्भ में क्या है, यह तो वही जाने लेकिन हम यह जान रहे हैं कि अगर कांग्रेस अपनी धूल झाड़कर खड़ी हो जाए तो यह वह खाली जगह भर सकती है. राहुल गांधी को इस ऐतिहासिक भूमिका के लिए तैयार होना है या फिर इतिहास में विलीन हो जाना है. चुनाव उनका, स्वीकृति हमारी ! ( 19.09.2017)  

Thursday 7 September 2017

राजकीय सम्मान के साथ हत्या

र्नाटक सरकार ने पत्रकार गौरी लंकेश का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया. यह अच्छा हुअा. अब सरकारों के पास इससे अधिक कुछ करने का या इससे पहले करने कुछ करने का माद्दा बचा भी नहीं है. अापको बात पचे नहीं या बहुत कड़वी न लगे तो यह भी कहना चाहूंगा कि इसकी घोषणा प्रधानमंत्री ने लालकिले से की थी कि अब हत्याएं राजकीय सम्मान के साथ होंगी. हां, उन्हें यह पता नहीं होगा कि गौरी इस सम्मान को इतनी जल्दी लपक लेंगी ! जब सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठा अादमी नकाब पहन कर बातें करता है अौर सफेद-काले में कोई फर्क करने को तैयार नहीं होता है तब वे लोग अच्छी तरह जानते हैं कि दरअसल में वह किधर खड़ा है वे लोग, जो लोगों के लोग होते हैं.

अब सवाल है कि हम लोग गौरी के लोग हैं क्या ? यह पूछना इसलिए जरूरी है कि अन्ना अांदोलन से यह फैशन चला पड़ा है कि लोग प्लेकार्डों पर लिख लाते हैं, या लिखा हुअा प्लेकार्ड उन्हें थमा देिया जाता है : मैं भी अन्ना !  उस रोज भी मुझे ऐसे कुछ प्लेकार्ड दिखे : अाइ एम गौरी ! होंगे अाप अौर इससे अधिक खुशी की बात होगी अौर देश के लिए अाशा की बात दूसरी क्या होगी कि हम सबके बीच से इतनी गौरीनिकल अाएं ! लेकिन क्या गौरी बनना इतना अासान है ? गौरी बनने के लिए गोली से रिश्ता बनाना पड़ता है. यह स्वाभाविक रिश्ता है. जो कलम चलाते हैं, वे जानते हैं कि एक वक्त अाता ही है, कम अाता है लेकिन अाता है जरूर कि जब कलम अपनी कीमत मांगती है. तब अाप स्याही दे कर उसकी गवाही नहीं दे सकते. वह जान मांगती है. अपनी अास्था की एक-एक बूंद निचोड़ कर जब अाप कलम में भरते हैं तब कोई गौरी पैदा होती है. 

इसे एक पत्रकार ही हत्या मानना हत्या को भी अौर गौरी को भी न समझने जैसा होगा. यह सब जो हम बार-बार कह व लिख रहे हैं कि गौरी वामपंथी थी, कि वह हिंदुत्व वालों की तीखी अालोचक थी, कि वह बहुत अाक्रामक थी, यह सब सच है लेकिन पूरा सच नहीं है ! बहुत छोटी-सी दो-एक मुलाकातों में अौर कॉफी पीते हुए मैं उन्हें जितना जाना वह यह कि वे बहुत अाजाद ख्यालों वाली महिला थीं. अपनी तरह से सोचना अौर अपनी तरह से जीना उनकी सबसे स्वाभाविक फितरत थी. अाप अाजादी से जीते अौर अपनी तरह से सोचते हैं यह खतरनाक बात है; अौर यह खतरनाक बात बेहद-बेहद खतरनाक हो जाती है जब अाप अपनी उस सोच अौर अपने उस जीवन को बांटना भी शुरू कर देते हैं. यह बड़ी बारीक-सी रेखा है कि जबतक हमारा जीवन इस बिंदु तक नहीं पहुंचता है तब तक हम दूसरों का जीवन जीते हैं अौर इतना जीते हैं कि मरने तक जीते हैं. इसे ही शायद लकीर पीटना भी कहते हैं. लेकिन जीवन तो शुरू ही उस बिंदु से होता है जहां से अाप अाजाद हो जाते हैं. अाप अाजाद होते हैं तो गौरी बन जाते हैं. 

कलम के साथ अाजाद होना खतरों में उतरने की तैयारी का दूसरा नाम है. इसलिए गौरी की हत्या के बाद यह सब जो कहा जा रहा है कि कलमकारों में भय फैल रहा है, कि कलमकारों को सरकारी संरक्षण मिलना चाहिए, कि कोई स्वतंत्र पत्रकारिता करेगा कैसे तो यह सब गौरी का सम्मान तो नहीं है ! हम अपने भीतर का डर गौरी के नाम पर उड़ेलने का काम न करें. हम गांठ बांध कर याद रखें कि कलमकारों की यह भी एक समृद्ध परंपरा है. नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पनसारे, एम.एम.कलबुर्गी अौर अब गौरी; नहीं, इससे कुछ पहले से गिने हैं हम तो मिलेंगे गणेश शंकर विद्यार्थी ! अपनी टेक पर प्रतापचलाया, महात्मा गांधी के विचारों अौर कार्यों से अनुप्राणित थे लेकिन भगत सिंह को छिपा रखने के लिए उन्हें अपने इस अखबार का पत्रकार बना लिया; फिर कानपुर के सांप्रदायिक दंगे में सरे अाम सड़क पर मारे गये. दूसरा कोई कारण नहीं था, वे अपने विश्वास के कारण मौत की उस अांधी में उतरे थे. उस दौर के सबसे बड़े कलमकार-पत्रकार महात्मा गांधी ने कहा ही कि ऐसी मौत पाने अौर इस तरह उसे गले लगाने का मौका काश कि मुझे भी मिले ! तो उन्हें भी मिली ऐसी ही मौत ! गांधी से शिकायत क्या थी किसी को ? बस यही न कि यह अादमी इतना अाजाद क्यों है ! वह अपनी तरह जीता था; अपनी बात अपनी तरह से कहता था. हिंदुत्ववादी ताकतों ने यही तो तय किया न कि इस बूढ़े को चुप कराना संभव नहीं है, हमारे लिए इसका मुकाबला करना संभव नहीं है अौर जब तक यह है हमारे लिए समाज में अपनी जगह बनाना संभव नहीं है, तो इसे चुप करा दो ! तो ८० साल के वृद्ध को चुप कराने के लिए तीन गोलियां मारी गईं. वैसी ही तीन गोलियां गौरी को भी मारी गईँ. गांधी मारे जा सके ३० जनवरी को लेकिन उनको मारने की ५ गंभीर कोशिशें तो पहले भी हो चुकी थी. सफलता छठी बार मिली. गौरी को भी मारा अब गया, धमकी काफी पहले से पहुंचाई जा रही थी. लेकिन वे धमकियां गौरी की कलम तक पहुंच नहीं रही थीं, इसलिए मौत पहुंचानी पड़ी ! देख रहा हूं कि हत्या के बाद बहुत सक्रियता दिखाने वाली पुलिस व राज्यतंत्र कह रहा है कि गौरी भी उसी पिस्तौल से मारी गई हैं जिससे दाभोलकर, पनसारे अौर कलबुर्गी मारे गये थे. मैं उनकी जानकारी के लिए इसमें जोड़ना चाहता हूं कि पिस्तौल वही थी, यह तो अाप कर रहे हैं, मैं अापको शिनाख्त दे रहा हूं कि पिस्तौल के पीछे हाथ वे ही थी जिनमें गांधी का खून लगा है. 

अब गांधी किसी व्यक्ति का नाम नहीं, एक परंपरा का, एक नैतिक व सामाजिक मूल्य का नाम है.  
यह दौर कलम घिसने का नहीं है हालांकि हम ऐसा करने से किसी को रोकने नहीं जा रहे है, कम-से-कम पिस्तौल वाले रास्ते तो हर्गिज नहीं ! लेकिन जो कलम चला रहे हैं उन्हें इस परंपरा का ध्यान रखना होगा, इस परंपरा में शामिल होने की तैयारी रखनी होगी अन्यथा अापकी कलम अपना मतलब खो देगी. ( 07.09.2017)