Saturday 28 August 2021

क्या भूलूं, क्या याद करूं ?

    मुझे एकदम प्रारंभ में ही कह देना चाहिए कि मैंने इस आलेख का शीर्षक बच्चनजी से नहीं लिया है. मुझे तो याद भी नहीं है कि हरिवंश राय बच्चनजी ने अपनी आत्मकथा के पहले खंड के इस शीर्षक के साथ प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया था या नहीं लेकिन मैं जान-बूझकर यह प्रश्नवाचक चिन्ह लगा रहा हूं . मेरे सम्मुख प्रश्न यह है कि किसी भी मुल्क को अपना वर्तमान गढ़ने के लिए अतीत का क्या कुछ याद रखना चाहिए और क्या कुछ भूल जाना चाहिए, भूलते जाना चाहिए ? इतिहास के कूड़ाघर में वक्त ने जितना कुछ फेंक रखा है, वह सब-का-सब संजोने लायक नहीं होता है. जो जाति या मुल्क वह सारा कुछ संजोते हैं, वे इतिहास के सर्जक नहीं, इतिहास के कूड़ाघर बन कर रह जाते हैं. 

   यह इसलिए कहना पड़ रहा है कि स्वतंत्रता दिवस को लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि राष्ट्र ने तय किया है कि आगे से 14 जनवरी का दिन वह विभाजन विभीषिका स्मृति दिन के रूप में मनाएगा. सुन कर पहली बात तो यही उठी मन में कि किसी प्रधानमंत्री को यह अधिकार कैसे मिल गया कि वह राष्ट्र की तरफ से ऐसी घोषणा कर दे प्रधानमंत्री को राष्ट्र ने चुना नहीं है. राष्ट्र ने उन्हें बस एक सांसद चुना हैउन्हें प्रधानमंत्री तो उनकी पार्टी के सांसदों ने चुना है. जैसे राष्ट्र की तरफ से ऐसी घोषणा का अधिकार किसी सांसद का नहीं हो सकता हैवैसे ही प्रधानमंत्री का भी नहीं हो सकता है. यह अधिकार तो केवलऔर केवल संसद का है कि वह ऐसे मामलों पर खुला विमर्श करेदेश में जनमत के दूसरे माध्यमों को भी उस पर सोचने-समझने का पूरा मौका दे और फिर आम भावना को ध्यान में रख कर फैसला करे. ऐसे निर्णयों की घोषणा भी संसद में ही होनी चाहिए भले बाद में प्रधानमंत्री लालकिले से उसका जिक्र करें. और यह भी समझने की जरूरत है कि संसद को भी दूसरी संवैधानिक व्यवस्थाअों से बंध कर ही चलना चाहिए. हमारा संविधान स्वयंभू जैसी हैसियत किसी को नहीं देता है. इसलिए भी 15 अगस्त की गई यह अटपटी घोषणा ज्यादा ही अटपटी लगी. 


   हर आदमी का और हर मुल्क का इतिहास स्याह व सफेद पन्नों के मेल से बना है. दोनों पन्ने सच हैं. फर्क है तो इतना ही कि स्याह पन्नों पर आप न कुछ पढ़ सकते हैंन दूसरा नया कुछ लिख सकते जबकि सफेद पन्ने आपको पढ़ने और  लिखने का आमंत्रण देते हैं. स्याह पन्नों में छिपाने जैसा कुछ नहीं होता हैक्योंकि आखिर वह सच तो होता ही है. लेकिन उसमें भुलाने जैसा बहुत कुछ होता हैक्योंकि वह सारा अमंगल होता है. जो इतिहासकार हैं वे दोनों पन्नों को संजो कर रखते हैंक्योंकि उनकी जिम्मेवारी होती है कि वे इतिहास के प्रति सच्चे रहें. सामान्य नागरिक इतिहासकार नहीं होता है. उसकी जिम्मेवारी होती है कि अपना देश ईमानदारी व प्रेम से गढ़ेआगे बढ़ेऔर इस पुरुषार्थ में इतिहास से जितनी मदद मिलती होउतनी मदद ले. 


   देश का विभाजन हमारे इतिहास का वह स्याह पन्ना है जिस पर हमारी सामूहिक विफलता की कहानी लिखी है. केवल विफलता की नहींहमारी पशुता कीदरिंदगी की और मनुष्य के रूप में हमारे अकल्पनीय पतन की. हमारी आजादी के नेतृत्व का कोई भी घटक नहीं है कि जिसके दामन पर इस विभाजन का दाग नहीं है - महात्मा गांधी भी नहीं. दूसरी तरफ वे अनगिनत स्याह सूरतें भी हैं जो हमारी सामूहिक विफलता और पतन का कारण रही हैं. प्रधानमंत्री ने जिसे विभाजन की विभीषिका कहा हैवह प्रकृतिरचित नहींमानवरचित थी. कवि अज्ञेय’ ने तो सांप से पूछा है : सांप/ तुम सभ्य तो हुए नहीं/ नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया/  एक बात पूछूं/ उत्तर दोगे/ फिर कैसे सीखा डंसना/ विष कहां पाया ?” विभाजन के पन्ने पलटें हम तो अज्ञेय’ का यही सवाल हमें इंसानों से पूछना पड़ेगा. और ऐसा भी नहीं है कि इंसानों का ऐसा पतन हमारे इतिहास में ही हुआ है. सारी दुनिया के इतिहासों में ऐसी पतन-गाथा दर्ज है. बहुत गिर-गिर कर उठे हैं हम इंसान और तब यहां तक पहुंचे हैं. पतनशीलता आज भी कई लोगों की जेहनियत में घुल गई हैकई लोगों की जीवन-शैली बन गई है. 

 

   तो क्या भूलेंक्या याद करें विभाजन क्यों हुआयह भूलने जैसा नहीं है. उससे हम सीखेंगे कि आदमी कहां और क्यों इस तरह कमजोर पड़ जाता है कि इतिहास की प्रतिगामी शक्तियां उसे अशक्त  करअपना मनमाना करवा लेती हैंगांधी जैसा दुर्धर्ष व्यक्ति भी पूरी कोशिश कर जिसे रोक नहीं पायाभारतीय समाज की और मानव-मन की वह कौन-सी कमजोरी थीइसे गहराई से समझना है और उससे सावधान रहना है. गांधी की विफलता इसी मानी में इतनी उदीप्त और उज्ज्वल है कि वह हमें पतन की तरफ नहीं ले जाती है.  आसमान छूने की कोशिश में विफल होने में और नर्ककुंड रचने में सफल होने में जो फर्क हैवही फर्क है गांधी की विफलता और सांप्रदायिक ताकतों की सफलता में. हिंदू-मुसलमान दोनों के कायर सांप्रदायिक तत्व इसलिए इतिहास के कठघरे में हमेशा मुजरिम की तरह खड़े रहेंगे कि वे गांधी की कोशिशों को विफल करने की अंधी कोशिश करते रहे और अंतत: देश ही नहीं तोड़ बैठे बल्कि सर्वभक्षी घृणा का ऐसा समंदर रच दिया उन्होंने कि आज भी वह ठाठें मारता है. इसलिए यह जरूरी है कि गांधी की कोशिशों को हम हमेशा याद करेंकरते रहें क्योंकि आगे का रास्ता वहीं से खुलता है. 


   हम क्या भूलें उस दरिंदगी को भूलें जिसे विभीषिका कहा जा रहा है. वह विभीषिका नहीं थीक्योंकि वह आसमानी नहींइंसानी थी. उसे इतिहास के किसी अंधेरे कोने में दफ्न हो जाने देना चाहिए क्योंकि वह हमें गिराता हैघृणा के जाल में फंसाता हैजोड़ता नहींतोड़ता है. दोनों तरफ की सांप्रदायिक मानसिकता के लोग चाहते हैं कि वह याद बनी रहेबढ़ती रहेफैलती और घुमड़ती रहे ताकि जो जहर गांधी ने पी लिया थावह फिर से फूटे और भारत की धरती को अभिशप्त करेइस महाद्वीप के लोगों को आदमकद नहींवामन  बना कर रखे. उनके लिए ऐसा करना जरूरी है क्योंकि वे इसी का रसपान कर जीवित रह सकते हैं. लेकिन कोई मुल्क सभ्यतासंस्कृति और उद्दात्त मानवता की तरफ तभी चल पाता है जब वह अपना कलुष मिटाने व भूलने को तैयार होता है. सभ्यता व संस्कृति की यात्रा एक उर्ध्वगामी यात्रा होती है. वह नीचे नहीं उतरती हैहमें पंजों पर खड़े होकर उसे छूना व पाना होता है. जो ऐसा नहीं कर पाते हैं वे सारे समाज को खींच कर रसातल में ले आते हैंफिर उनका नाम जिन्ना हो कि सावरकर कि उनके वारिस. इसलिए हम उन सांप्रदायिक ताकतों को याद रखें कि जिनके कारण देश टूटाअनगिनत जानें गईंअपरिमित बर्बादी हुई और पीढ़ियों तक रिसने वाला घाववैसा घाव जैसा महाभारत युद्ध में अंत में अश्त्थामा को मिला थाइस महाद्वीप के मन-प्राणों पर लगा. जिस मानसिकता के कारण वह घाव लगाहम उसे न भूलें लेकिन जितनी जल्दी हो सकेउस घाव को भूल जाएं. 


   याद रखना ही नहींभूल जाना भी ईश्वर प्रदत्त आशीर्वाद है. इसलिए 15 अगस्त को अपना स्वतंत्रता दिवस मनाने की उल्लास भरी मानसिकता बनाने के लिए जरूरी लगता हो तो हम 14 अगस्त को प्रायश्चित व संकल्प  दिवस के रूप में मनाएं. प्रायश्चित इसका कि हम इतने कमजोर पड़े कि अपना यह सामूहिक पतन रोक नहीं सकेऔर संकल्प यह कि आगे कभी अपने मन व समाज में ऐसी कमजोरी को जगह बनाने नहीं देंगे हम. महा संबुद्ध बुद्ध को साक्षी मान कर हम 14 अगस्त को गाएं : ले जा असत्य से सत्य के प्रति/ ले जा तम से ज्योति के प्रति/ मृत्यु से ले जा अमृत के प्रति. विश्वगुरु बनना जुमला नहींआस्था हो तो इस देश का मन नया और उद्दात्त बनाना होगा. 


26.08.2021)     

Wednesday 11 August 2021

देशद्रोहियों का देश

 पेगासस जासूसी के मामले में कौन किस तरफ खड़ा हैयह पता कब चलेगा यह तो पता नहीं लेकिन इससे यह तो पता चला ही है कि देश के हर कोने में देशद्रोही जड़ जमाए बैठे हैं. अगर सरकार नहीं तो कोई है जो विदेशी ताकतों की मदद से देशी देशद्रोहियों का काम तमाम करने में लगा है. लेकिन सरकार की जानकारी के बिना यदि कोई ऐसा कर पा रहा है तो खतरा यह है कि वह देश का काम ही तमाम कर देगा. 

दो सौ से ज्यादा सालों तक हमारे ऊपर बलपूर्वक शासन करनेवाले अंग्रेज खोज कर भी जितने देशद्रोही नहीं खोज पाए थेहमने महज सात सालों में उससे ज्यादा देशद्रोही पैदा कर दिए. अब तो शंका यह होने लगी है कि इस देश में देशभक्त ज्यादा हैं या देशद्रोही कहीं यह देश देशद्रोहियों का देश तो नहीं बन गया है फिर मन में यह बात उठती है कि जिस सरकार से समाज तौबा कर लेता हैउसे वह बदल डालता हैतो जिस समाज से सरकार तौबा कर ले उसे क्या करना चाहिए सीधा जवाब तो यही सूझता है कि उस सरकार को भी अपना समाज बदल लेना चाहिए. जैसे जनता नई सरकार चुनती हैसरकार को भी नई जनता चुन लेनी चाहिए.

देशद्रोह का यही सवाल हमारे सर्वोच्च न्यायालय को भी परेशान कर रहा है. संविधान में हमने माना है कि संप्रभु जनता हैसरकार नहीं. सरकार जनता द्वारा बनाई वह संरचना है जो बहुत हुआ तो पांच साल के लिए है. हमने उसका संवैधानिक दायित्व यह तै किया है कि वह अपना काम इस तरह करे कि संप्रभु जनता का इकबाल बना भी रहे व बढ़ता भी रहे. फिर हमने न्यायपालिका की कल्पना की. वह इसलिए कि जब भी और जहां भी सरकार खुद को संप्रभु मानने लगेवहां न्यायपालिका अंपायर बन कर खड़ी हो. उसे जिम्मेवारी यह दी है हमने कि वह देखे कि इन दोनों के बीच लोकतंत्र का हर खेल खेल के नियम से हो. खेल के नियम क्या हैं तो उसकी एक किताब बना कर हमने इसे थमा दी : संविधान ! उसे संविधान के पन्ने पलटने थे और इस या उस पक्ष में सीटी बजानी थी. इस भूमिका में वह विफल हुई है. उसके सामने खेल के नियम तोड़े ही नहीं जाते रहे बल्कि कई मौकों पर नियम बदल ही दिेए गएऔर ऐसे बदले गए कि खेल ही बदलता गया. बनाना था लोकतंत्रबन गया तंत्रलोक ! 

हमारे मुख्य न्यायपालक एन.वी. रमण ने अभी-अभी यह सवाल खड़ा किया है कि भारतीय दंडसंहिता की धारा 124ए का आजादी के 70 सालों के बाद भी बने रहने का औचित्य क्या है 1870 में यह धारा भारतीय दंडसंहिता में उस औपनिेवेशिक ताकत ने दाखिल की थी जो न भारतीय थीन लोकतांत्रिक. भारत की लोकतांत्रिक आकांक्षा को कुचलने के एकमात्र उद्देश्य से बनाई गई यह धारा उन सबको देशद्रोही करार देती रहीजेलों मेंकालापानी में बंद करती रही जिनसे हमने लोकतंत्र व देशभक्ति का ककहरा सीखा है. लेकिन यह सब तब हुआ जब न हमारे पास आजादी थीन लोकतंत्रन संविधान. जब हमारे पास यह सब हो गया तब भी न्यायपालकों ने अंपायर की भूमिका नहीं निभाई बल्कि सत्ता की टीम की तरफ से खेलने लगे. धारा 124ए का चरित्र ही राक्षसी नहीं है बल्कि इसका अधिकार-क्षेत्र भी इतना दानवी है कि इसकी आड़ में पुलिस का अदना अधिकारी भी मनमानी करता रहे. इसलिए गोरे साहबों की खैरख्वाही में भूरे व काले साहबों ने आजादी के सिपाहियों के साथ कैसी-कैसी मनमानी की इसकी कहानी शर्म से आज भी हमारा सर झुका देती है. 

  1962 में 124 ए की वैधानिकता का सवाल अदालत के सामने आया था. तब अदालत ने न इसकी पृष्ठभूमि देखीन लोकतांत्रिक वैधानिकता की कसौटी पर इसे कसा बल्कि जजों की बेंच ने फैसला यह दिया कि यह धारा सिर्फ उस व्यक्ति के खिलाफ इस्तेमाल की जाएगी जो सामाजिक असंतोष भड़काने का अपराधी होगा. जजों को जमीनी हकीकत का कितना कम पता होता है ! सामाजिक असंतोष भड़काना’ ऐसा मुहावरा है जिसकी आड़ में किसी को फंसाना या फंसवाना एकदम सरल है. कोई कुटिल व्यक्ति चाहे तो जस्टिस रमण को भी असंतोष भड़काने वाला साबित कर दे सकता है.  


आपातकाल का पूरा काल न्यायपालिका के लिए कालिमामय है. 1976 के हैबियस कॉरपस मामले में जिस तरह अदालत ने पलक झपकाए बिना यह फैसला दिया कि राज्य नागरिकों के जीने के अधिकार पर भी हाथ डाल सकता हैवह तो संविधान का अपमान ही नहीं थावैधानिक कायरता का चरम था. नागरिक अधिकारों का गला घोंटने वाला एनएसए जैसा भयंकर कानून 1977 में मिली दूसरी आजादी के तुरंत बाद ही1980 में पारित हुआ. 1994 में सत्ता एक कदम और आगे बढ़ी और हमारी झोली में टाडा आया. 1996 में उसने एक कदम और आगे बढ़ाया और आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट बना. 2004 में फिर एक कदम आगे : पोटा ! इसने वह रास्ता साफ किया जिस पर चल कर ऊपा या यूएपीए नागरिकों की गर्दन तक पहुंचा. ये सारे कानून सत्ता के कायर चरित्र व न्यायपालिका के शुतुरमुर्ग बन जाने की शर्मनाक कहानी कहते हैं.  

                 

गांधीजी ने न्यायपालिका के चरित्र को रेखांकित करते हुए कहा था कि जब भी राज्य के अनाचार से सीधे मुकाबले की घड़ी आएगीन्यायपालिका यथास्थिति की ताकतों के साथ खड़ी मिलेगी. तब हमने अपने भोलेपन में समझा था कि गांधीजी विदेशी न्यायपालिका के बारे में कह रहे हैं जबकि वे देशी-विदेशी नहींसत्ता व सत्ता की कृपादृष्टि की याचक सभी संरचनाओं के बारे में कह रहे थे. राष्ट्रद्रोह और राज्यद्रोह में गहरा और बुनियादी फर्क है. महात्मा गांधी ने खुली घोषणा कर रखी थी कि वे राज के कट्टर दुश्मन हैं क्योंकि वे राष्ट्र को दम तोड़ती कायर भीड़ में बदलते नहीं देख सकते.


सत्ता को सबसे अधिक डर असहमति से लगता है क्योंकि वह सत्ता को मनमाना करने का लाइसेंस समझती है. इसलिए असहमति उसके लिए बगावत की पहली घोषणा बन जाती है. विडंबना देखिए कि लोकतंत्र असहमति के ऑक्सीजन पर ही जिंदा रहता हैसत्ता के लिए असहमति कार्बन गैस बन जाती है. दुखद यह है कि ये सारे कानून न्यायपालिका की सहमति से ही बने व टिके हैं.


124 ए से हाथ धो लेने की चीफ जस्टिस रमण की बात के जवाब में एटॉर्नी जेनरल के.के. वेणुगोपाल अदालत में ठीक वही कह रहे हैं जो सत्ता व न्यायपालिका ने अब तक नागरिक अधिकारों के पांव काटने वाले हर कानून को जन्म देते वक्त कहा है : सावधानी से इस्तेमाल करें ! यह कुछ वैसा ही जैसे बच्चे के हाथ में खुला चाकू दे दें हम लेकिन उस पर एक पर्ची लगा दें: सावधानी से चलाएं ! अबोध बच्चा उससे अपनी गर्दन काट ले सकता हैकाइयां सत्ता उससे अपनी छोड़हमेशा ही असहमत नागरिक की गर्दन काटती है. यह इतिहाससिद्ध भौगोलिक सच्चाई है. फिर न्यायपालिका इतनी अबोध कैसे हो सकती है कि सत्ता के हाथ में बड़े-से-बड़ा चाकू थमाने की स्वीकृति देती जाए 


जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ कहते हैं कि जब भीजहां भी बहुमतवादी मानसिकता सर उठाती नजर आएतभी और वहीं उससे रू-ब-रू होना चाहिए, “ ऐसा न करना हमारे पुरुखों ने भारत को जिस संवैधानिक गणतंत्र के रूप में स्वीकार किया थाउस पवित्र अवधारणा से छल होगा.” जिसके हाथ में संविधानप्रदत्त शक्ति हैउस न्यायपालिका के लिए चुनावी बहुमत और संवैधानिक बहुमत का फर्क करना और उसे अदालती फैसले में दर्ज करना आसान है क्योंकि संविधान की संप्रभु जनता ऐसे हर प्रयास में उसके साथ व उसके पीछे खड़ी रहेगी. हम सब जानते हैं कि खड़ा तो अपने पांव पर ही होना होता हैफिर परछाईं भी आपको सहारा देने आ जाती है. ( 20.07.2021)