Wednesday 24 May 2017

जैदी साहब की जिद

जैदी   साहब   की   जिद
० कुमार प्रशांत


जिसे सब चुनौती दे रहे थे, उस चुनाव अायोग ने एक साथ सबको चुनौती दे डाली है. मुख्य चुनाव अायुक्त डॉ. नसीम जैदी ने उन सभी राजनीतिक दलों को, जिन्होंने पंजाब, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गोवा अौर मणिपुर का चुनाव लड़ा है, यह चुनौती दी है कि वे ३ जून से ७ जून के बीच इवीएम मशीन का बेजा इस्तेमाल संभव बना कर दिखाएं ! उन्होंने कहा है कि हर राजनीतिक दल को २६ मई तक  अपने ३ प्रतिनिधि नियुक्त करने का मौका मिलेगा अौर समय होगा ४ घंटे का. इन ४ घंटों में उन ३ प्रतिनिधियों को इवीएम को मनचाहा काम करते हुए दिखाना है. 
यह अच्छा है. हमारा लोकतंत्र जिस तरह चुनाव अाधारित बना दिया गया है उसमें यह जरूरी हो गया है कि चुनाव के इस अाधार के बारे में किसी को कोई शंका न रहे. शंका लोकतंत्र को हमेशा कमजोर अौेर खोखला करती है. जब हम कागज के मतपत्र पर ठप्पा लगा कर वोट देते थे तब उसके बारे में गहरी शंका पैदा हो गई थी. चुनाव वोट छीनने, खरीदने अौर लूटने का नाम बनता जा रहा था. लोग वोट डालते तो थे लेकिन यह लाचारी घर करती जा रही थी कि होगा तो वही जो ‘वोट लुटेरे’ चाहेंगे. यह प्रतीति लोकतंत्र के बारे में निराशा भी पैदा करती थी अौर उपेक्षा भी. इसका असर दीखने लगा था. फिर यह अहसास भी गहराता जा रहा था कि इस प्रक्रिया में कितना कागज व्यर्थ होता है अौर हम कितने जंगल काटते जा रहे हैं ! इवीएम मशीन इतनी सारी शंकाअों का जवाब बन कर अाई. इससे वोट छीनना, खरीदना अौर लूटना मुश्किल होता गया अौर कागज की बर्बादी पर रोक लगी. मन में कहीं यह बात जरूर अंटकी रही कि मशीन अाखिर तो अादमी के हाथ का खिलौना ही है न ! लेकिन चुनाव अायोग की मजबूती, तटस्थता अौर सावधानी पर भरोसा कर १७ साल पहले यह सफर शुरू हुअा अौर अब तक अच्छा ही चला. अब तक इवीएमधारी चुनाव अायोग ३ लोकसभा के चुनाव अौर १०७ विधान सभा के चुनाव झेल चुका है. 
२००४  के लोकसभा चुनाव के बाद यह सवाल उठा अौर तेज हुअा कि क्या इवीएम मशीनों से छेड़-छाड़ संभव है ? सवाल भारतीय जनता पार्टी ने उठाया था क्योंकि उस चुनाव में वह कांग्रेस के हाथों इस तरह पिटी थी कि उसे खुद पर भरोसा नहीं रह गया था. लेकिन इसे हारे का प्रलाप से अधिक महत्व किसी ने दिया नहीं. लेकिन इलेक्ट्रोनिक मशीनें जीवन के जितने करीब अाती गईं, उनकी अांतरिक बनावट से समाज जितना परिचित होता गया, यह सवाल गहराता गया कि इवीएम मशीनें क्या उतनी विश्वनीय हैं जितना इन्हें बताया जा रहा है ? कुछ गड़बड़ियां यहां-वहां सामने अाईं भी अौर कुछ खटका-सा मन में बैठ गया. 
लोकसभा के पिछले चुनाव के बाद अावाजें ज्यादा सघन हुईँ. गुजरात के कुछ नागरिक संगठनों ने चुनाव अायोग को बताया कि किस तरह इन मशीनों से छेड़-छाड़ संभव है. यह अावाज न्यायालय तक भी पहुंची लेकिन न्यायालय ने ठीक ही किया कि ऐसी सारी शिकायतों को चुनाव अायोग का रास्ता दिखा दिया. विधान सभाअों के हालिया चुनावों के नतीजे कुछ इस तरह हैरान करने वाले रहे कि हारी हुई पार्टियां के मन में ही नहीं, मतदाताअों की मन में भी शंका पैदा हो गई. अावाजें ज्यादा तेज हो गई जब मायावतीजी, अरविंद केजरीवाल अादि ने इसमें अपनी अावाज जोड़ दी. तब लालकृष्ण अाडवाणी थे, अब इतने सारे लोग थे ! इसे तब अौर भी बल मिला जब न्यायालय ने भी यह निर्देश दिया कि इवीएम मशीनों के साथ वह मशीन जोड़ कर ही चुनाव करवाया जाए जो हर डाले गए वोट का कागजी प्रमाण भी रखती है. चुनाव अायोग ने इसे स्वीकार कर लिया अौर सरकार पर जिम्मेवारी डाल दी कि वह इवीएम के साथ ऐसी मशीन जोड़ कर उसे मुहैय्या करवाए. यह निर्देश इवीएम मशीन के एकदम निर्दोष न होने की गवाही देने जैसा है. यह सारी उहापोह जरूरी थी अौर ठीक ही चल रही थी कि चुनाव अायोग ने खेल खराब कर दिया. 
डॉ. जैदी ने तस्वीर को इस तरह रंगा मानो किसी ने उनकी निजी ईमानदारी पर ऊंगली उठा दी है ! यह न केवल गलत रवैया है बल्कि अायोग की विश्वसनीयता को भी खतरे में डालता है. सवाल किसी की ईमानदारी पर शक करने का नहीं है. सवाल उस मशीन की विश्वसनीयता पर देश का भरोसा मजबूत करने का है जिसे हमने अपने चुनाव का अाधार बना कर अायोग को सौंपा है. वह मशीन कितनी विश्वसनीय है, इसकी पूरी अौर हर संभव जांच में अायोग की भी उतनी ही दिलचस्पी होनी चाहिए जितनी किसी भी दूसरे नागरिक की हो सकती है. अायोग की या डॉ. जैदी की ईमानदारी कोई मुद्दा है ही नहीं. इसलिए अायोग का यह रुख की अाज नहीं, इतनी तारीख के बाद ही इवीएम की जांच की जा सकेगी, जांच राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि ही करेंगे, ४ घंटे में ही करेंगे, फलां तारीख के बाद नाम नहीं लिए जाएंगे अादि-अादि शर्तें व्यर्थ भी हैं अौर नाहक की नौकरशाही दर्शाती हैं. जो मशीनें कभी भी, कहीं भी चुनाव में उतार दी जाती हैं, वह मशीन कहीं भी, कभी भी जांच के लिए क्यों नहीं दी जा सकती ? अौर यह भी कोई शर्त हुई क्या कि केवल राजनीतिक दल ही इसकी जांच करेंगे ? क्या देश का लोकतंत्र केवल राजनीतिक दलों के बीच का मामला है ! अायोग का रवैया तो ऐसा होना चाहिए कि देश का कोई भी नागरिक ऐसी जांच कर सकता है, अौर मशीन से कैसी भी छेड़छाड़ कर सकता है, क्योंकि वह जो भी करेगा अौर उसका जो भी परिणाम अाएगा, उसे देश के सामने रखकर उसकी सफाई बताना चुनाव अायोग का ही अधिकार है. अाप अवधि निर्धारित जरूर करें कि इतने माह तक इवीएम से गड़बड़ करने का दावा करने वाले अपनी कोशिशें करें. उनकी कोशिशों की समीक्षा सार्वजनिक की जाएगी अौर सबकी राय भी ली जाएगी. यदि यह बात सामने अाई कि मशीन में छेड़छाड़ की संभावना है तो उसमें अावश्यक सुधार किया जाएगा. छेड़छाड़ की संभावना सिद्ध करने वाले भी इसमें मदद करेंगे कि यह संभावना कैसे खत्म की जाए. यह किसी को गलत या झूठा साबित करने का मसला नहीं है, अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पुख्ता करने का सवाल है. इस मशीन के दूसरे विशेषज्ञ भी अपनी अक्ल चलाएंगे अौर हम एक गारंटी के साथ अागे चलेंगे. अगर निश्चित अवधि के भीतर कोई बात सिद्ध नहीं हो सकी तो चुनाव अायोग पूरे अात्मविश्वास से देश से कह सकेगा कि मशीन न पहले गलत थी अौर न अाज गलत है. 
इतने सीधे मामले को जैदी साहब अपनी जिद का मुद्दा न बनाएं अौर लोकतंत्र की प्रहरी, एक लोकतांत्रिक संस्थान की तरह सामने अाएं ! अौर एक बात हम सबको कहनी चाहिए कि अरबों रुपये इवीएम मशीनों भी झोंकने के बाद हम अपना कागज भी बर्बाद करें, यह बात स्वीकार्य नहीं है. अगर कागज का ही विकल्प है तो कागज की तरफ ही लौटें हम अौर मशीनों में लगने वाला नाहक का खर्च बचाएं. हमें चुनावी प्रक्रिया की अौर उसमें होम होने वाले संसाधनों की फिक्र करनी चाहिए. यह दलों का नहीं, देश का मामला है. ( 24.05.2017)  





       


Tuesday 9 May 2017

गांधी का स्कूल

गांधी का स्कूल 
० कुमार प्रशांत 

महात्मा गांधी गुजरात के थे ? हां भी, नहीं भी ! इस ‘नहीं’ को पहचान कर ही तो अल्बर्ट अाइंस्टाइन ने वह बात कही थी कि जो अमर हो गई कि अानेवाली पीढ़ियां शायद ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस का ऐसा एक अादमी इस पृथ्वी पर चला होगा ! उन्होंने गुजरात भी नहीं कहा, भारत भी नहीं कहा, क्योंकि वे इस अादमी के नाप का कोई एक भौगोलिक स्थान नहीं खोज सके. उन्हें यही तर्कसंगत लगा कि सारी पृथ्वी को ही उसकी लीलास्थली बना दी जाए ! इंसानों में कोई-कोई ऐसे होते हैं कि किसी भी नाप में बैठते नहीं हैं अौर तब अापको अपने पैमाने बदलने पड़ते हैं. अाइंस्टाइन ने यही किया- पैमाना ही बदल दिया ! लेकिन कहने वाले ऐसे होंगे कि जो कहेंगे कि वे जनमे थे गुजरात में तो वे गुजरात के थे ! उनका कहना सही भी है ! यह सही है तो यह भी सही है कि एक नहीं, गुजरात में अनेक स्थान हैं जिनसे गांधीजी का नाता रहा है. क्या उन सारे स्थानों को हम गांधीजी के नाम पर ‘शून्यवत’ रख सकते हैं ? रखना चाहिए ? क्या वहां के नागरिक ऐसा चाहते हैं ? 
यह सवाल पूछना जरूरी इसलिए हो गया है कि राजकोट स्थित उस स्कूल के बंद किए जाने की खबर अाई है जिसमें गांधीजी की स्कूली पढ़ाई हुई थी.  वहां की नगरपालिका ने फैसला किया है कि इस स्कूल को बंद कर दिया जाए अौर इसकी जगह गांधी-स्मृति जैसा कोई म्यूजियम बनाया जाए ( क्या यह स्कूल अपने-अाप में गांधी की स्मृति नहीं था ? ) यह वह स्कूल था कि जिसे राजकोट अाने वाला वह हर कोई, जिसे गांधी से किसी भी स्तर पर, कैसा भी लगाव रहा हो, देखने जाता था. वहां गांधी कहीं भी नहीं थे लेकिन वह धरती थी जिस पर किशोर गांधी चला था, वह हवा थी जो उसे छू कर बही थी, वे दीवारें थीं जिन्होंने उसे किशोरवय में देखा था, तो यह सब कुछ अलग अहसास तो जगाता था ही. वर्षों पहले जब मैं राजकोट गया था अौर मैंने उस स्कूल को देखने का अाग्रह किया था तब मेजबानों को मेरी बात में कोई तुक नजर नहीं अाया था लेकिन ‘गांधीवाला अौर क्या देखना चाहेगा !’ जैसी कुछ सहमति बना कर वे मुझे वहां ले गये थे. मैंने बहुत तन्मयता अौर प्यार से वह स्कूल, उसका वह बरामदा अौर वहां लगी मोहनदास की ‘मार्क्सशीट’ देखी थी. मैंने बच्चों से जानना चाहा था कि क्या वे जानते हैं अौर कुछ खास महसूस करते हैं कि यह वह स्कूल है जिसमें महात्मा गांधी भी पढ़ते थे ?  हां, वे सब यह जानते थे लेकिन ‘महसूस’ कुछ नहीं करते थे. मेरा मन तब भी छोटा हुअा था अौर कहीं से यह अावाज उठी थी कि यह लंबा चलेगा नहीं ! 
उसके नहीं चलने का समय अा गया है. स्कूल बंद हो गया है. कारण पूछते हैं अाप तो बताता हूं कि वहां का परीक्षाफल बहुत खराब हो चला था, पढ़ने वालों की संख्या लगातार गिरती जा रही थी. जब से शिक्षा को शिक्षा न मान कर एक उद्योग मान लिया गया है अौर हर दो कौड़ी का ‘बहुमूल्य राजनेता’ इस ‘सेक्टर’ में निवेश कर कमाई करने में लग गया है,’एजुकेशन माफिया’ विशेषण सम्माननीय बन गया है, तब से हर स्कूल-कॉलेज का प्रबंधन यही तो देखता है कि वह जो चला रहा है वह बाजार में चल रहा है या नहीं ? अौर यह एकदम तर्कशुद्ध बात है कि जो चलता नहीं है, उसे चला कर क्यों रखा जाए ? सरकार भी अौर बाजार भी यही सिखा रहे हैं. तो फिर हम राजकोट के ।अल्फ्रेड हाईस्कूल को ऐसी नसीहत कैसे दे सकते हैं कि उसे अपना स्कूल किसी भी हाल में चलाए ही रखना चाहिए, क्योंकि इस स्कूल में गांधीजी ने पढ़ाई की थी ? तब तो गांधीजी उस स्कूल के लिए भार ही हो जाएंगे न ! गांधी का नाम लेने वाले कुछ लोगों को बहुत दर्द हो रहा है कि नगरपालिका ने इस स्कूल को बंद करने का फैसला कैसे किया ? उन्हें यह राष्ट्रपिता का अपमान भी लग रहा है अौर वे इसे ‘मोदी सरकार’ की गांधी को समूल उखाड़ फेंकने की ‘दुष्ट योजना’ का एक हिस्सा भी मान रहे हैं. कुछ गांधी वाले हैं कि जो दूसरे गांधीवालों को ललकार रहे हैं कि अागे अाअो, गांधी का स्कूल बचाअो ! 
मैं हैरान हूं ! कोई यह नहीं कह रहा है कि राजकोट के स्कूल की तो छोड़िए, देश में कहीं भी गांधी के कामों को, गांधी की दिशा को बचाने में हम विफल क्यों हो रहे हैं ? राजकोट के उस स्कूल में तो गांधी का कुछ भी नहीं है सिवा इसके कि १८ साल की उम्र तक मोहनदास ने वहां कुछ वक्त पढ़ाई की थी. लेकिन जिन स्कूलों की अात्मा ही गांधी ने रची थी, उन स्कूलों-संस्थानों का क्या हाल है ?  ‘मोदी सरकार’ की ‘दुष्ट योजना’ तो कई जगहों पर दिखाई-सुनाई देती है; वह होगी, लेकिन जवाब तो हमें भी देना होगा कि हमारी योजना क्या थी जो इस कदर बिखर गई है ? गांधी होते तो पहले हमसे ही पूछते कि उनके सारे रचनात्मक कामों की यहां-वहां कब्रगाह क्यों बन गई ? वे हमसे पूछते कि उनके अाश्रमों का जनाजा क्यों निकल रहा है ? गांधी के स्मृतिचिन्हों अौर उनके चश्मों को ले कर हाहाकार करने वालों को यह बताने की जरूरत है कि जो खोया है वह चश्मा नहीं है, वह नजर ही खो गई है जो जान की कीमत दे कर गांधी ने पैदा की थी ! गुजरात की राष्ट्रीय शालाअों का क्या हाल है ? उन दो विद्यापीठों का क्या हाल है अौर उसमें कहां, कितने गांधी खोज सकते हैं अाप ? ये सारी शिक्षण संस्थाएं अंग्रेजों अौर अंग्रेजियत के वर्चस्व को जड़ से काटने के लिए अौर अाजाद हिंदुस्तान का दिल व दिमाग बनाने के लिए बनाई गई थीं. अाज ये सभी सरकारी अाश्रय की तलाश में पामाल हुए जा रहे हैं अौर यहां पढ़ व पढ़ा रहे अधिकांश लोग विवशता व विफलता के बोध से भरा जीवन जी रहे हैं. इसमें गांधी का जो अपमान छिपा है वह हमें क्यों नजर नहीं अाता है ?  
तीन सवाल, जिनके लिए गांधी जिए अौर मरे, वे थे हिंसा की निर्रथकता समझने वाला समाज बने, सांप्रदायिक सद्भाव की ताकत उस समाज की चालक-शक्ति बने अौर सारे गांव इस कदर स्वावलंबी व अात्मविश्वासी बनें कि ऊपर की तमाम प्रशासनिक व्यवस्थाअों का नियमन कर सकें. उनकी कल्पना के लोकतंत्र में ‘लोक’ सच में सबसे पहले अाता था. इन तीनों मोर्चों पर अाज देश कहां खड़ा है ? वह खड़ा नहीं है, तेजी से पीछे की तरफ लौट रहा है, लौटाया जा रहा है.  उसकी यह उल्टी यात्रा गांधीवालों की सामूहिक विफलता की गवाही देती है जो किसी स्कूल के बंद होने से कहीं ज्यादा गंभीर व बुनियादी बात है. इसकी फिक्र अौर इसे पलटने की कोशिश तो दिखाई नहीं देती है, अौपचारिक बातों व समारोही अायोजनों में सभी लिप्त नजर अाते हैं. 
अाज की केंद्र सरकार अौर उनकी ही राज्य सरकारें गांधी-मूल्यों को न मानने वाले अौर गांधी से विपरीत रास्ते की हिमायत करने वाले दर्शन की सरकार है. उसने यह बात कभी छुपाई भी नहीं है. गांधी-हत्या से ले कर गांधी-विचार हत्या तक को इस दर्शन की खुली व छुपी स्वीकृति मिलती रही है. सत्ता का गणित अभी कुछ दूसरा राग अलापने की नसीहत दे रहा है तो हम कभी-कभार टूटा-फूटा गांधी-राग भी यहां से सुन लेते हैं लेकिन इनका असली राग तो कुछ अौर ही है. इसलिए इनसे क्या शिकायत की कि वे गांधी का स्कूल बंद कर रहे हैं या उसे चलाए रखने में दिलचस्पी नहीं ले रहे ! ये सब तो सरस्वती वाले हैं; अौर भी कितने ही क्षद्म नामों से इनके संस्थान व संगठन चल रहे हैं. वे निश्चित ही उनकी फिक्र करेंगे क्योंकि उनकी सत्ता का समीकरण वहीं से बनता है. हम उनसे कैसे अाशा रख सकते हैं कि वे गांधी-राह का अन्वेषण भी करेंगे ? 

राजकोट का अल्फ्रेड इंग्लिश हाईस्कूल गांधी की कल्पना का स्कूल भी नहीं था अौर न वहां उनकी कल्पना की शिक्षा दी जाती थी. यहां से पढ़ कर जो मोहनदास निकला, वह अागे के वर्षों में शिक्षा की इस शैली का अौर इसके उद्देश्यों का गहरा अालोचक बना अौर उसने शिक्षा के पूरे दर्शन को नई तरह से संवार कर हमारे सामने रखा. इसलिए अपने अांतरिक व अार्थिक कारणों से यह स्कूल बंद होता है तो इससे महात्मा गांधी का अपमान नहीं होता है. महात्मा गांधी के ‘अपने सारे स्कूल’ भी बंद हो रहे हैं, उसकी जिम्मेवारी हमारी है अौर उसमें हमारा अपमान होता है, यह हमें याद रखना चाहिए. ( 07.05.2017)