Saturday 30 June 2018

कर्नाटक : कोई नहीं जीता



तो कर्नाटक मेें वह हो रहा है जो किसी ने नहीं चाहा था - न कर्नाटक के मतदाता ने, न भाजपा अौर कांग्रेस ने. वह भी नहीं हो पाया जो मोदी-शाह की अजेय जोड़ी ने दिल्ली में बैठ कर चाहा था; न वही हो पाया जिसकी कोशिश में राज्यपाल वजूभाई वाला ने अपना पूरा केरियर दांव पर लगा दिया; अौर न केजी बोपय्या ही एक दिन के लिए विधानसभा अध्यक्ष( प्रो-टर्म !) बन कर जो करने की सोच रहे थे वही कर सके. सब देखते रह गये अौर अब सब देखते रहेंगे…

अगर किसी ने कुछ चाहा अौर वही हुअा तो वह सर्वोच्च न्यायालय है. ऐसा लगता है कि अाधी रात में न्यायालय को न्याय अधिक साफ दिखाई देता है. 16-17 मई की अाधी रात को, जब सारा देश नींद में सो रहा था, भारतीय न्यायालय अपने कर्तव्यों के प्रति नियति से किया वादा पूरा करने, सजग पहरेदार की तरह जागा हुअा था. उसने किसी पर कोई टिप्पणी किए बिना सबको कठघरे में खड़ा कर दिया - राज्यपाल द्वारा दी गई पंद्रह दिन की मोहलत को काट कर, 24 घंटे की बना दी लेकिन राज्यपाल को शपथ दिलाने अौर येदियुरप्पा को शपथ लेने से नहीं रोका; उसने केजी बोपय्या को प्रो-टर्म अध्यक्ष बनाने पर अापत्ति नहीं की लेकिन उनके पर इस तरह कतर दिए कि वे न उड़ सकते थे, न उड़ा सकते थे. उसने कांग्रेस की कोई दलील कबूल नहीं की लेकिन न्याय की अपनी टेक कहीं से भी कमजोर नहीं पड़ने दी. अौर यह भी कि उसने यह सब इतने दबंग तरीके से किया कि केंद्र सरकार या सर्वोच्च न्यायाधीश को जुबान खोलने का मौका भी नहीं मिला. अौर अब अाप देखिए कि देश में किसी को इसकी नहीं पड़ी है कि नया मुख्यमंत्री कौन बनता है. अाज कर्नाटक में सत्ता संदर्भहीन हो गई है. 

  सारे देश की नजर जिस चुनाव पर लगी थी, अौर देश के सारे राजनीतिक दलों ने जिसे जीतने में अपनी पूरी ताकत झोंक रखी थी, उस चुनाव के नतीजों के प्रति ऐसी उदासीनता ? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को िजस एक राजनीतिक कर्म का विशेषज्ञ माना जाता है उस चुनावी नौटंकी में, उनकी सारी छटाएं देख लेने के बाद भी लोग यह नहीं पूछ रहे हैं कि कर्नाटक में कौन जीता; पूछ यह रहे हैं अौर हतप्रभ से देख भी यही रहे हैं कि कौन, कितने गर्त में गिरता है अौर लोकतंत्र को गिराता है. कर्नाटक में पतन की प्रतियोगिता है. पतन का चरित्र ही यह है कि एक गिर कर जहां पहुंचता है, दूसरा उसकी अगली सीढ़ी तैयार करता है. मोदी-शाह की जोड़ी ने इस पतन के नये-नये कीर्तिमान स्थापित किए हैं; अब दूसरे भी इसमें योगदान दे रहे हैं.  

वे सारी संवैधानिक संस्थाएं व व्यवस्थाएं एक-एक कर जमींदोज की जा रही हैं जिनकी रचना इसलिए की गई थी कि जब कभी, जब कहीं राजनीतिक चालबाजियां अौर सत्ता की अजगरी भूख लोकतंत्र का भक्षण करने लगे तो उसे रोकने व थामने वाली ताकतें संविधान के भीतर से निकल कर अाप ही सामने अा जाएं. कर्नाटक में ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि राजनीतिक नेतृत्व का पतन सारी संवैधानिक व्यवस्थाअों को दीमक की तरह चाट गया है. बाबासाहब अांबेडकर ने ऐसे ही नहीं कहा था कि अच्छा-से-अच्छा संविधान भी बुरे लोगों के हाथ में पड़ कर एकदम बुरा साबित होता है. हमारे सारे राजनीतिक दल मिल कर बाबा साहब को सही साबित करने में जैसी निष्ठा से लगे हैं, वह हैरान करने वाला है ! 

कर्नाटक में जो हुअा वह लोकतंत्र का खेल था. 114 सीटों तक पहुंचती भारतीय जनता पार्टी 104 पर ऐसी जा टिकी जैसे अंगद के पांव; अौर कांग्रेस व देवेगौड़ा की पार्टी ने बढ़ कर  सारी खाली जगहें हथिया लीं. दिन भर में बना सारा राजनीतिक समीकरण दोपहर बाद छिन्न-भिन्न हो गया. जो जश्न मना रहे थे उन्हें लकवा मार गया; जो लकवाग्रस्त थे वे दौड़ने लगे. अब पतन की दौड़ दो तरफ शुरू हुई - राजभवन की तरफ अौर फिसलने वाले विधायकों की तरफ. लोकतंत्र ने अपना खेल कर दिया; फिर शुरू हुअा लोकतंत्र से खिलवाड़. इसे राजभवन से एक झटके में रोका जा सकता था लेकिन तभी न जब वहां कोई राज्यपाल होता ! वहां तो राज्यपाल था ही नहीं. वहां बैठा था नाम-गुणविहीन केंद्र का एक अंधसेवक ! राजनीति में जोड़-तोड़ की एक जगह होती ही है लेकिन सारी राजनीति मात्र जोड़-तोड़ तो नहीं है. राजनीति अौर राजनीतिबाजी में फर्क होता है - गहरा फर्क ! जो यह फर्क या तो समझते नहीं हैं या मानते नहीं हैं, वे ही लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल देते हैं. अगर चुनाव धन अौर डंडे का खेल बना दिया जाए, राजभवन में खोज-खोज कर ऐसे लोग बिठाये जाएं जिनकी एकमात्र योग्यता यह हो कि उनका न सर है, व रीढ़, तो अाप लोकतंत्र का पतन रोक नहीं सकते हैं. राज्यपालों से यह पाप कांग्रेस ने खूब करवाया है, अब भाजपा की बारी है. 

फिसलने वाले िवधायकों का हाल यह था कि कांग्रेस व जनता दल(एस) फिसलने वालों की पहचान करने में नहीं, खरीददारों से उन्हें बचाने-छिपाने में जुट गये. किसी को इस पतन का दर्द नहीं था कि 10 करोड़ हो कि 100 करोड़, जो बिकने को तैयार है उसे देश में रखो कि विदेश में, वह बिका ही रहेगा. राजनीति जब बाजार बन जाती है तब वहां भी सब कुछ बिकाऊ होता है. अौर जो बिक सकता है वह जमीर क्या अौर देश क्या, कुछ भी बेंच सकता है. वह बेंच सकता है, अाप खरीद सकते हैं तो पाप न इधर ज्यादा हुअा, न उधर कम ! यह वह नैतिक फिसलपट्टी है जो सिर्फ नीचे की तरफ ही जाती है. 

लोकतंत्र में नैतिकता न हो ( संविधान न हो ! ) तो वह चोरों-बटमारों की िमलीभगत से अलग कुछ भी नहीं है. सौ साल से भी ज्यादा हुअा कि जब महात्मा गांधी ने ‘हिंद-स्वराज्य’ में लिखा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा अादमी देशभक्त होता है, यह कहते मेरी जीभ ऐंठती है.  उनका सीधा मतलब इसी नीतिविहीन राजनीति के शीर्षपुरुष से था. वे जान गये थे कि जो बाजार से खरीद कर लाया गया है, उस लोकतंत्र का शीर्षपुरुष सौदा करने में सबसे घाघ व्यक्ति ही हो सकता है. कहें कि राजनीति का शाइलॉक ! 

न्यायपालिका की भूमिका इसलिए अहम है कि लोकतंत्र ने उसे विवेक व संविधान के अलावा दूसरा कुछ दिया ही नहीं है. न्यायपालिका के संदर्भ में विवेक यानी वह तीसरी अांख जिससे संविधान की उस चुप्पी को भी पढ़ा व समझा जा सके जिसे दूसरे गूंगा या बहरा समझते हैं. सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर ने जाते-जाते इसी चुप्पी को पढ़ने की कला को न्यायमूर्ति का अवदान कहा था. संविधान को जहां विवेक का साथ मिलता है, वह अत्यंय मारक दस्तावेज बन जाता है. कर्नाटक में हमने यही देखा. 

भारतीय जनता पार्टी ने कर्नाटक में भी लोकतंत्र से वही खिलवाड़ शुरू किया जो उसने गोवा में, मणिपुर में, मेघालय अादि में किया था. मोदी-शाह अब तक इस हेंकड़ी में रहे हैं कि वे जो चाहेंगे वह कर लेंगे अौर वही लोकतंत्र कहलाएगा. लेकिन जैसी कि कहावत है, अाप काठ की हाड़ी को दो बार चूल्हे पर नहीं चढ़ा सकते ! इसलिए पार्टियां कर्नाटक में जब खिलवाड़ कर रही थीं, लोकतंत्र अपना खेल समेट कर सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया. अब महत्वपूर्ण यह नहीं है कि किसने क्या किया, क्योंकि पतन की होड़ में कौन, कहां खड़ा था इसकी कहानी कहने से लोकतंत्र का खेल अागे नहीं बढ़ता है. खेल अागे तभी बढ़ेगा जब कोई यह कहेगा कि खेल पटरी से कब उतरा अौर किसने खेल का नियम तोड़ा. न्यायपालिका ने अपने अादेश में इसका सीधा संकेत दे दिया है कि 10 सप्ताह के बाद, मतलब कर्नाटक में लोकतंत्र से खिलवाड़ की धूल जब बैठ जाएगी अौर सारे जश्न पूरे हो चुके होंगे तब वह इस पूरे मामले की व्यापक पड़ताल करेगी अौर अपनी व्यवस्था सुनाएगी. यह वह तलवार है जिसे ले कर लोकतंत्र कर्नाटक से लौटा है. अब यह तलवार न्यायपालिका के ऊपर भी तनी रहेगी. अगर न्यायपालिका भी खेल में नहीं, खिलवाड़ में शामिल हो जाए तो ? धीरज रखिए, लोकतंत्र फिर कोई नया खेल शुरू करेगा. अगर कर्नाटक में जो किया गया वह संिवधानसम्मत था तो फिर गोवा, मणिपुर अादि-अादि के जवाब न्यायालय कैसे देगा ? हत्या कई माह या साल पहले हुई थी इसलिए अपराध प्रमाणित होने व अपराधी के सामने होने पर भी सजा कैसे दी सकती है, न्यायपालिका ऐसा तो नहीं कह सकेगी. तब वह क्या कहेगी ? वह जो भी कहेगी, उससे एक नया खेल शुरू होगा. हम इतने समर्थ खिलाड़ी न हों कि खेल में उतर कर उसे गति व दिशा दे सकें तो इतने धैर्यवान तो बनें कि खेल को ही अपना खेल बनाने दें. 


बस, इतना ही है कि खतरे की एक घंटी नजदीक अाती सुनाई दे रही है. लोकतंत्र अौर भीड़तंत्र के बीच संविधान नाम का जो अंपायर खड़ा होता है यदि वह अनुपस्थित हुअा तो सड़क संसद की जगह ले लेती है. यह भी लोकतंत्र का ही खेल है लेकिन बेहद खतरनाक खेल है. ( 19.05.2018) 

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