Wednesday 26 December 2018

अाअो हे नव वर्ष !



कैलेंडर बदलने से जिनका नया साल अाता है उन्हें उनका नया साल मुबारक हो ! लेकिन कपड़े बदलने से अादमी कब, कहां नया हुअा है. अाप देखें कि प्रकृति भी, उसके समस्त वन-वृक्ष-पौधे भी जब तक नये उल्लास के नये पल्लव अपने भीतर कहीं गहरे उतर कर पा नहीं लेते, वसंत उतरता ही नहीं है. हम भी अपने भीतर उतरें गहरे कहीं, अौर खोजें कि क्या है वह सब जो हमें नया सोचने, करने अौर बनने से रोकता है ? क्यों बाहरी हर सजावट हमें भीतर से रसहीन अौर हतवीर्य छोड़ जाती है ? ऐसा क्यों है कि हमारी जनसंख्या बढ़ती जाती है अौर हमारा जन छोटा भी अौर अकेला भी अौर निरुपाय भी होता जाता है ? अच्छे दिन की चाह क्यों हमें बुरे मंजर की तरफ धकेलती है ? 

नये साल की दहलीज पर खड़े हैं हम तो जरा बीतते वर्ष के करीब चलें, जरा भीतर उतरें ! दीखता है न कि नया करने की कोशिशें कम नहीं हुई हैं. सरकारों ने कागजों पर कितनी ही बड़ी अौर कल्याणकारी योजनाएं लिखीं, बनाई अौर सफल भी कर ली हैं लेकिन धरती पर कोई रंग पकड़ता नहीं है. हमने भी काफी जद्दोजहद की है कि हमारे अौर हमारों के हालात बदलें अौर शुभमंगल हो. लेकिन जैसे होते-होते बात बिगड़ जाती है, चढ़ते-चढ़ते पांव फिसल जाते हैं, पकड़ते-पकड़ते हाथ छूट जाता है. यह जाता हुअा साल भी तो अभी-अभी, बारह माह पहले ही नया-नया अाया था ! इतनी जल्दी पुराना कैसे हो गया ? जवाब में लिखा है किसी ने : पूत के पांव / पालने में मत देखो / वह अपने पिता के / फटे जूते पहनने अाया है ! तो पिता के जूते फटे ही क्यों होते हैं ? अौर क्यों ऐसा सिलसिला बना है कि हर पिता अपने बच्चे को अौर वह बच्चा अपने बच्चे को अौर वह अपने बच्चे को … ऐसा लंबा सिलसिला फटे जूतों का ही है ? नहीं, जूते नहीं, हमारे मन फटे हैं ! इसकी सिलाई करनी है ताकि यह साबुत हो जाए. 

अाप देखेंगे तो समझेंगे कि चादर हो कि मन कि समाज, सभी अनगिनत धागों से मिल कर बने हैं. बड़ी जटिल बुनावट है - दीखती नहीं है लेकिन बांधे रखती है. लेकिन चादर हो कि मन कि समाज, बस एक धागा खींचो तो सारा बिखर जाता है. रेशा-रेशा हवा में उड़ जाता है. लगता है कि अभी-अभी जो साकार था, मजबूत था अौर बड़ी मोहकता से चलता चला जाता था वह नकली था, कमजोर था अौर दिखावटी था. जो बिखर सकता है, टूट सकता है, उसे संभालने की विशेष जुगत करनी पड़ती है न ! घरों में भी टूटने वाली क्रॉकरी अालमारी के सबसे ऊपर वाले खाने में, बच्चों अौर काम करने वाली बाइयों की पहुंच से ऊपर रखते हैं न ! ऐसा ही हमें मन के साथ भी अौर समाज के साथ भी करना चाहिए. जहां चोट लगने की गुंजाइश हो वहां से इन दोनों को बचाते हैं. गालिब तो कब के कह गये न : दिल ही तो नहीं संगो-खिश्त/ गम से न भर अाए क्यूं / रोएंगे हम हजार बार /  कोई हमें रुलाए क्यों. यही खेल समझना है हमें कि इंसानी दिल इतना नाजुक अौर मनमौजी है कि कहीं भी, किसी से भी चोट खा जाता है, तो उसे चोट पहुंचाने का कोई अायोजन होना नहीं चाहिए; अौर ऐसा कोई कुफ्र हो ही गया हो तो हजारो-हजार लोग, लाखों-लाख हाथ-पांव ले कर उसकी मरम्मत में लग जाएं. यह जरूरी ही नहीं है, एकमात्र मानवीय कर्तव्य है, हमारे मनुष्य होने की निशानी है. न कोई जाति, न कोई धर्म, न कोई भाषा, न कोई प्रांत, न कोई देश, न कोई विदेश, न कोई काला, न कोई गोरा, न कोई अमीर, न कोई गरीब ! बस इंसान !! …यह नया है. यह नया मन है. हमारे मन में उमगी यह नई कोंपल है. विनोबा कहते थे कि अब हम इतने बड़े हो गये हैं अौर इतने करीब अा गये हैं कि कामना भी करेंगे तो जय जगत की करेंगे ! जगत की जय नहीं होगी तो अकेले हिंदुस्तान की जय संभव भी नहीं अौर काम्य भी नहीं; अौर जगत की जय होती है तो हिंदुस्तान की जय तो उसी में समाई हुई है. 

यह अाता हुअा नया साल- २०१९ - सच में नया हो जाएगा यदि इस साल हम सब एक-दूसरे से संवाद करने का संकल्प करेंगे. अापसी संवाद लोकतंत्र की अाधारभूत शर्त है. संवाद करो अौर विश्वास करो : यह नये साल का हमारा नारा होना चाहिए. हमारे देश जैसी विभिन्नता वाले समाज में तो संवाद अौर विश्वास प्राणवायु हैं. जितना विश्वास करेंगे उतना नजदीक अाएंगे; जितनी बातचीत करेंगे उतनी शंकाएं कटेंगी. शक वह जहरीला सांप है जिसके काटे का कोई इलाज नहीं. यह सांप अ-संवाद की बांबी में रहता है अौर अविश्वास की खुराक पर पलता है.  इसलिए हम जिनसे सहमत नहीं हैं उन तक विश्वास के पुल से पहुंचेंगे अौर वहां संवाद की छोटी-बड़ी गलियां बनाएंगे. इसलिए सरकार कश्मीर में वार्ता करे कि न करे, कश्मीर से हमारी वार्ता बंद नहीं होनी चाहिए, कश्मीरियों से हमारा संवाद खत्म नहीं होना चाहिए, कश्मीरियों पर हमारा विश्वास टूटना नहीं चाहिए. 

हर पुल बड़ी मेहनत से बनता है अौर हर पुल के जन्म के साथ ही उसके टूटने-दरकने की संभावना भी जन्म लेती है. लेकिन हम पुल बनाना बंद तो नहीं करते हैं न ! हां, मरम्मत की तैयारी रखते हैं. फिर इंसानों के बीच पुल बनाने में हिचक कैसी ? टूटेगा तो मरम्मत करेंगे ! हमें छत्तीसगढ़ के माअोवादियों के बीच, पूर्वांचल के अलगाववादियों के बीच, राम मंदिर को गदा की भांति भांजने वालों के बीच, अोवैशियों की कर्कश चीख के बीच, हाशिमपुरा-बुलंदशहर के अांसुअों के बीच लगातार-लगातार जाना है क्योंकि इसके बिना हम कैलेंडर कितने भी बदल लें, कोई भी साल नया नहीं हो सकेगा. 

ऐसा ही नया साल १९३२ में अाया था अौर गांधीजी ने किसी  को लिखा था : देखता हूं कि तुम नये साल में क्या निश्चय करते हो ! जिससे न बोले हो, उससे बोलो; जिससे न मिले हो उससे मिलो; जिसके घर न गये हो उसके घर जाअो; अौर यह सब इसलिए करो कि दुनिया लेनदार है अौर हम देनदार हैं. १९३२ का नया साल, २०१९ में भी हमारी राह देख रहा है क्योंकि इतने वर्ष निकल गये, नया साल तो अाया ही नहीं ! 
सूरज-सी इस चीज को हम सब देख चुके / सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह ! ( 27.12.2018)                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                         

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                   

अदालत में खड़ी है अदालत



मैं इन दिनों खुद ही तै नहीं कर पा रहा हूं कि मेरी कलम स्याही से चलती है या अांसुअों से ? कभी फैज साहब ने खून में अंगुलियां डुबो कर लिखने की बात लिखी थी लेकिन हम कहां फैज हैं ! मुझे तो शक यह भी होता है कि हमारी कलम में स्याही भी भरी है कि नहीं ? अगर स्याही होती तो कभी तो दीखता कि दिल या दिमाग पर कोई दाग छूटा है ? नहीं, मैं लोगों की बात नहीं कर रहा हूं. उनका दिल-दिमाग तो साबूत है. पांच राज्यों में हुए चुनावों के परिणामों से इतना तो पता चलता ही है. मैं तो अपने अांसुअों की बात कर रहा हूं अौर अदालत की बात कर रहा हूं. 

अदालत क्या कर रही है अौर क्या कह रही है, यह समझना मेरे लिए बहुत मुश्किल होता जा रहा है. क्या अदालत यह समझ पा रही है कि हमारे लड़खड़ाते लोकतंत्र में वह अाखिरी खंभा है जहां हमारी नजर ही नहीं, हमारी अास्था भी टिकी है ? उसकी एक चूक, उसकी एक भूल, उसकी एक कमजोरी अौर उसका एक सतही रवैया हमारे लड़खड़ाते विश्वास को वैसी गहरी चोट दे जाता है जैसी चोट रफाल के मामले में लगी है. सवाल किसी को अपराधी या किसी को निरपराधी करार देने का नहीं है. वह तो अापका अधिकार क्षेत्र है ही, सवाल है अापके रवैये का; सवाल है कि अाप जो कर व कह रहे हैं क्या उससे न्यायालय की सदाशयता में, उसकी विश्वसनीयता में इजाफा होता है ? सवाल है कि रफाल के अौर ऐसे ही कई मामलों में अदालत ने जो निर्णय सुनाया अौर जिस भाषा में, जिन तर्कों के साथ सुनाया उससे ऐसा क्यों लगा कि हम देश की सबसे बड़ी अदालत का फैसला नहीं, सरकार का कोई हैंडअाउट पढ़ रहे हैं ? ऐसा नहीं है कि मेरे जैसे अनगिनत लोग अदालत से अपनी पसंद का फैसला सुनना चाहते हैं. नहीं, हम सुनना चाहते हैं सिर्फ वह जो तर्कसंगत, विधानसम्मत अौर सच व न्याय की अंतिम हद तक शोध के बाद कहा जा रहा हो.  

          अदालत बंद लिफाफे में रख कर दिया किसी का सच सच में सच मान लेती है जबकि सच यह है कि लिफाफे में क्या लिखा है, यह उनमें से किसी को मालूम नहीं है जो प्रतिवादी बन कर अदालत में पहुंचे हैं ? क्या अदालत अौर वादी के बीच प्रेमपत्रों के लेनदेन से न्याय तै किया जाएगा ? जिसने लिखा उसे मालूम था कि वह झूठ लिख रहा है; जिसने पढ़ा वह कहता है कि वह उसे समझ नहीं पाया, तो बीच में मारा कौन गया ? सच अौर न्याय ही न ! हमें इससे अापत्ति है. हमें इस चलताऊ मानसिकता से अापत्ति है.   
  शोराबुद्दीन के मामले में सारे अारोपियों को रिहा करते हुए अदालत ने कहा कि वह बेबस है, क्योंकि उसके सामने वैसे साक्ष्य लाए ही नहीं गये जो उसे मामले की तह तक पहुंचाते, अौर इसलिए अपराधियों को सजा देना संभव नहीं हुअा. इसके दो मतलब हुए. एक यह कि अदालत ने जो फैसला सुनाया वह अदालत की समझ से ही न्यायसम्मत नहीं है. तो ऐसा फैसला अापने सुनाया ही क्यों ? दूसरा यह कि न्यायपालिका यदि न्याय तक नहीं पहुंच पाती है तो वह अपने उस कर्तव्य से च्युत होती है जो संविधान ने उसे सौंपा है अौर जिसके लिए समाज उसका बोझा ढोता है. इन दोनों को समझने के बाद तो यही पूछना शेष रह जाता है कि मी लार्ड, फिर अाप अपनी दूकान बढ़ाते क्यों नहीं ? हमने न्याय-व्यवस्था बनाई ही इसलिए अौर उसका कमरतोड़ बोझ उठाए हम फिर रहे हैं तो इसलिए कि हमें एक ऐसे संस्थान की जरूरत लगती है कि जो सच तक पहुंचने में कुछ भी उठा नहीं रखता हो. यहां तो अाप अपने कमरे से बाहर बिखरे सच को देखने-समझने, उस तक चलने अौर उसे उलटने-पलटने तक को तैयार नहीं होते हैं. अाप तो चाहते हैं कि सच खुद चल कर अाप तक अाए, अापको झकझोर कर जगाए अौर कहे कि देखो, जागो मैं यहां सामने बैठा हूं ! अगर ऐसा ही होना है तो फिर हमें अाप जैसा सफेद हाथी पालना ही क्यों चाहिए? जज लोया का मामला जिस तरह निबटाया गया, क्या उससे न्याय तक पहुंचने का संतोष अदालत को मिला ? समाज को मिला ?  राफेल के मामले में जिस तरह प्रतिवादी पक्ष के किसी तर्क को फैसले में शामिल ही नहीं किया गया, उससे देश को उसकी सारी शंकाअों का जवाब मिल गया ? सोहराबुद्दीन कत्ल के सारे अारोपियों को जिस बेबसी से रिहा कर दिया गया, २१० गवाहों में से ९२ गवाहों के मुकर जाने का अदालत ने कोई संज्ञान ही नहीं लिया, क्या उससे लगता है कि अदालत ने सच तक पहुंचने की कोशिश की ? सच तक पहुंचना अदालत का धर्म है. इस या उस किसी भी  कारण से यदि वह सच तक नहीं पहुंच पाती है तो वह धर्मच्युत होती है. फिर उसके किसी भी फैसले का मतलब क्या रह जाता है ? क्या इससे कहीं बेहतर स्थिति यह नहीं होती कि जिन मामलों में वह सत्य तक नहीं पहुंच पा रही हो, उनका फैसला स्थगित कर दे अौर नये रास्तों से सत्य तक पहुंचने की कोशिश करे ? गवाहों के मुकरने के पीछे कौन है, इसका पता ही लगाया जाना चाहिए बल्कि गवाही का पेशा करने वालों को कड़ी सजा भी देनी चाहिए. रफाल के मामले में अदालत ने फौज के अधिकारियों को पूछताछ के लिए बुलाने की सावधानी बरती तो बंद लिफाफे में जिन एजेंसियों के नाम के अाधार पर सौदे को पाक-साफ बताने की बात कही गई थी, उन्हें भी बुला कर क्यों नहीं पूछ लिया ? पूछ लिया होता तो बंद लिफाफा खुल जाता अौर फैसला करने में अदालत को एक नया अाधार मिल जाता. तो क्या अदालत चूक गई ? नहीं, यह चूक नहीं है, अपने दायित्व के प्रति उदासीनता का प्रमाण है. 

भारतीय संविधान अौर भारतीय समाज दोनों अपनी व्यवस्थाअों को संपूर्णता में देखते हैं. दोनों मानते हैं कि संसद को कानून बनाने में संपूर्णता बरतनी चाहिए मतलब अाप किसी भी कानूनी प्रावधान का सामाजिक, अार्थिक, धार्मिक, नैतिक पहलू देखे बिना राजनीतिक लाभ-हानि के अाधार पर फैसला नहीं ले सकते. वह कार्यपालिका को भी ऐसी परिपूर्ण भूमिका में देखना चाहती है. न्यायपालिका को भी वह इससे कम में स्वीकार करने को तैयार नहीं है. अदालत यह जितनी जल्दी समझ ले उतना ही उसका भी भला है अौर देश का भी. ( 25.12.2018)   


गेंद अब राहुल गांधी के पाले में है



हाल ऐसे हैं कि रोयें कि हंसे, सूझ नहीं रहा है ! होने को यह 5 राज्यों में हुअा विधान सभा का चुनाव भर ही था। लेकिन 2014 में, दिल्ली पहुंचने की नरेंद्र मोदी की जिद अौर जल्दी  की सफलता के बाद अालम ऐसा बनाया गया मानो नरेंद्र मोदी सारे तार्किक विश्लेषणों से ऊपर हैं।  कुछ ऐसा मानो नरेंद्र मोदी किसी राजनीतिक दल के अवसरवादी नेता नहीं, कोई अवतार हैं। यह बात इस तरह फैलाई गई कि दूसरे तो दूसरे, खुद नरेंद्र मोदी भी इसे सही मान कर चलने लगे। कांग्रेस अौर उसका नेतृत्व कर रहे नेहरू-परिवार पर उनकी बचकानी व क्षुद्र छींटाकशी पर वे खुद मुदित होते रहे लेकिन वे अौर उनके दरबारी यह पहचान नहीं पाये कि इन सब कारणों से देश का अाम अादमी उनसे विमुख होता गया। इसलिए नहीं कि वह नेहरू या कि उनके परिवार का भक्त है। नेहरू अौर उनके परिवार के राज की अच्छाइयों अौर बुराइयों से वह परिचित ही नहीं है, वही है जिसको वह फला है, जिसे उसने भुगता है। इसलिए वह अापसे वह अाख्यान नहीं, यह सच्चाई सुनना चाहता था कि अाप क्या हैं, क्या करते हैं अौर क्या कर सकते हैं। २०१४ से अब तक इसका जवाब नहीं मिला। अापका सीना ५६ इंच का है कि नहीं, यह अापका निजी मामला है, उस सीने में क्या है यह सबका मामला है। अाम अादमी वही देखना व महसूस करना चाहता था। वहां उसे हवा अौर केवल हवा मिली।

कांग्रेस अौर राहुल गांधी ने उस हवा को पकड़ने की कोशिश की। उन्हें इस बात का श्रेय देना ही पड़ेगा कि २०१४ की चुनावी लड़ाई में बुरी तरह पिटने के बाद भी वे मैदान से हटे नहीं अौर मुट्ठी भर सांसदों अौर धेला भर कार्यकर्ता ने कांग्रेस को जिंदा रखा। ‘पप्पू’ ने ‘गप्पू’ को सांस लेने का मौका नहीं दिया ! धीरे-धीरे देश में एक नया राजनीतिक विमर्श खड़ा होता गया जो चकाचौंध करने की तमाम चालों के बावजूद जड़ पकड़ता गया। नरेंद्र मोदी अौर उनकी सरकार की फूहड़ काररवाइयों ने लगातार इस विमर्श को मजबूत किया। इसका विस्तार होता गया। विपक्ष की तमाम ताकतें, जो नवसिखुए राहुल को कमान देने या उनके साथ काम करने से हिचकते रही थीं, धीरे-धीरे पर्दे के पीछे चली गईं। वे मतदाताअों को साथ लेने की कोशिश के बिना ही वोटों की राजनीित करते रहे, इधर राहुल ने लड़ाई को जनता के बीच पहुंचाया। अाज हम देखते हैं कि राहुल ही विपक्ष का चेहरा बन गये हैं - कहें तो एकमात्र विश्वसनीय, टिकाऊ चेहरा ! अब कोई ‘पप्पू’ की बात नही करता है। राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में बनी कांग्रेस की सरकारें दरअसल राहुल की निजी जीत हैं; ठीक वैसे ही जैसे २०१४ की जीत  एकमात्र नरेंद्र मोदी की जीत करार दी गई थी। 

लेकिन राहुल गांधी ने देश में जो विमर्श खड़ा किया अौर उसे चुनावी जीत तक पहुंचाया, सर्वोच्च न्यायालय ने तुरंत ही उन दोनों की हवा निकाल दी। उसने यह तब किया जब गुब्बारे में हवा सबसे ज्यादा थी। ‘चौकीदार चोर है’ कहते हुए सारे देश में माहौल खड़ा करने वाले राहुल गांधी को अाज अदालत ने चौराहे पर बने कठघरे में खड़ा कर दिया है अौर देश उनसे पूछ रहा है कि चोर कौन है अौर कैसे है, यह तो बताइए ! राहुल गांधी के पास अब कोई विकल्प नहीं है। अभी ही अौर यही वक्त है कि राहुल गांधी के पास चौकीदार को चोर बताने वाला जो भी प्रमाण है, उसे देश के सामने रख दें। उन्होंने जिस तरह देश को बताया कि चौकीदार ने कैसे चोरी की,  अौर यह भी कि चोरी का पैसा अनिल अंबानी की जेब में  गया, वैसा विवरण बिना साक्ष्य के दिया ही नहीं जा सकता है। वह छिपा हुअा साक्ष्य देश के सामने रखने का यही, अौर यही वक्त है। अदालती फैसले के बाद हवा यह बनी है कि यह सब हवा भर था ! यह हवा यदि गाढ़ी हो गई, जिसकी पूरी संभावना है, तो कांग्रेस व राहुल गांधी के लिए २०१९ में खड़े होने की जगह नहीं बचेगी।

लोग अदालती पेंचीदगियों में नहीं जाते हैं। कपिल सिब्बल कह सकते हैं कि अदालत के सामने क्या नुक्ता था अौर अदालत ने किस नुक्ते की पड़ताल नहीं की। अदालत कह सकती है कि वह संविधान की किस धारा के तहत, किस मामले का कौन सा हिस्सा ही जांच सकती थी, अौर कौन-सा पहलू ऐसा है कि जिसे उसे जांचना नहीं था। कानून का यह जंगल उनके काम का हो सकता है जो उस जंगल का व्यापार करते हैं। लेकिन मामला तो उनका है न जो इतना ही जानते हैं, अौर जान सकते हैं कि अदालत में अाप एक चोर को ले कर गये थे अौर अदालत ने कहा - यह चोर नहीं है ! २०१९ का चुनाव इसी के इर्द-गिर्द लड़ा जाएगा। राहुल ने ही अपने चुनाव की यह कुंडली लिखी है, अौर राहुल को ही इस ग्रह के निवारण का रास्ता खोजना है। एक सवाल अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा अौर प्रशांत भूषण से भी पूछा जाना चाहिए कि जिस मामले का पूरा तथ्यात्मक विवरण ले कर अाप सारे देश में घूम रह थे, वह कैसा था कि जिसे अदालत ने विचार योग्य भी नहीं माना ?

एक अौर सवाल अदालत से पूछना चाहिए। वह जिस भी मामले की सुनवाई करती है उसे अधूरा सुन कैसे सकती है, अौर अधूरा फैसला कैसे दे सकती है ? अगर चोरी का एक मुकदमा अापके पास लाया गया है तो उसे सुनना या न सुनना, यह फैसला जरूर अापके अधिकार क्षेत्र में अाता है, लेकिन यह अाप कैसे कह सकते हैं कि अाप सिर्फ इतना जांचेंगे कि चोर दाहिने कमरे से अाया था या नहीं ? मुकदमा तो चोरी का है - मुझे लगता है कि चोर दाहिने कमरे से अाया तो मैंने वह कहा; अाप सारी संभावनाएं जांच कर बताएं कि चोर दाहिने कमरे से अाया या नहीं; दाहिने से नहीं अाया तो बताएं कि वह किधर से अाया; याकि यह बताएं कि वह अाया ही नहीं, कि चोरी हुई ही नहीं। हमने अब तक यह समझा है कि राफेल सौदे में रक्षा सौदों की मान्य प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया; उसमें सहयोगी संस्थान का चयन सरकारी दवाब से हुअा; उसकी कीमत का निर्धारण इस तरह हुअा कि अधिक कीमत दे कर हमें कम जहाज मिले तथा इस बीच में अरबों रुपयों की हेराफेरी हुई। यह पूरा मामला है कि िजसकी जांच अदालत को करनी थी। कौन, कौन-से मुद्दे को उसके पास अाया है, यह नहीं,  अदालत के लिए सबसे अहम यह है कि सच्चाई तक कैसे पहुंचा जाए, जो सच्चाई उसकी पकड़ में अाई वह देश को कैसे बताई जाए। सच्चाई तक पहुंचना ही उसका धर्म है, उसका पेशा है अौर उसके होने का मतलब है। राफेल सौदे को शक के धुंधलके में छोड़ देना इसलिए भी गलत है कि हमारा सार्वजनिक जीवन जिस कदर जहरीला हुअा है उसमें यह कुशंका लगातार फैलती रहेगी अौर सडांध फैलती रहेगी । 

अदालत ने अपना काम पूरा नहीं किया। सरकार तो चाहती ही नहीं है िक सच खोजा जाए। बचते हैं सिर्फ राहुल गांधी। वे अब न अदालत का इंतजार करें, न जेपीसी का। अबतक वे जिस जानकारी के अाधार पर राफेल की बातें कर रहे थे, वह सारा कुछ खोल कर देश के सामने रख दें अन्यथा २०१९  की खुली लड़ाई वे अभी ही हार जाएंगे। ( 17.12.2018 ) 


                          

मेरा भी इस्तीफा


यह खेल अच्छा है ! अाप कल तो अच्छे-बुरे जैसे भी थे, थे; अच्छी हैसियत, अच्छी सुविधाएं, अच्छा पैसा अौर अच्छी शोहरत सब पा अौर समेट रहे थे. अगर कहीं, कोई परेशानी होती भी होगी तो वह अाप ही जानते थे, या फिर अापके अाका ! हम अगर जानते थे तो इतना ही कि अाप जहां हैं वहां से जो होना चाहिए था, जो सुना जाना चाहिए था, जो कहा जाना चाहिए था अौर जब, जो किया जाना चाहिए था, वह न कहा गया, न सुना गया अौर न किया गया। बाकी सब कुछ ठीक था, ठीक चल रहा था अौर एक-दूसरे के साथ तालमेल बिठाने के सारे प्रयास भी चल रहे थे। अनुभवी लोग कह रहे थे कि हां, ठीक ही है ! लोकतांत्रिक जिम्मेवारियां इसी तरह निभाई जाती हैं, निभाई जानी चाहिए।… अौर फिर एक दिन हम सुनते हैं कि अापने इस्तीफा दे दिया ! जैसे भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने 10 दिसंबर को इस्तीफा दे दिया। 9 दिसंबर तक हम यही जानते थे कि उनके अौर भारत सरकार के बीच कुछ मतभेद हैं। क्या मतभेद थे ? रिजर्व बैंक के गवर्नर की खिड़की के परदों का रंग कैसा हो, इस पर मतभेद था; याकि लंबे समय से बीमार देश के अर्थतंत्र को स्वस्थ करने की जद्दोजगद में लगे, लंबे समय से बीमार वित्तमंत्री को अपना इलाज किस डॉक्टर से कराना चाहिए, इस पर मतभेद था ? बीमार वित्रमंत्री के स्वस्थ दिखाये जाते बयान तो कभी-कभार पढ़ने को िमल भी जाते थे, हमारी बैंकिंग व्यवस्था के शीर्षपुरुष को भी देश की वित्तीय स्थिति के बारे में कुछ कहना है, यह तो हमें कभी पता भी न चला। 

रघुराम राजन जबतक रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे, हमें पता चलता रहा कि पैसा सिर्फ दीखता नहीं है, वह बोलता भी है। रघुराम राजन ने रिजर्व बैंक की वैसी ही लोकतांत्रिक साख बना दी जैसी कभी चुनाच अायोग की शेषण साहब ने बनाई थी। वैसी साख बनाना बहुत कठिन होता है, क्योंकि वैसी साख बाजार में मिलती नहीं है, कमानी पड़ती है। नरेंद्र मोदी-अरुण जेटली की जोड़ी रघुराम राजन जैसे गवर्नर को पचा नहीं सकेगी, यह अंदेशा सारे देश को था। इसलिए जब रघुराम राजन को सरकार ने दोबारा गवर्नर बनाने में अानाकानी की तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। किसी को हैरानी नहीं हुई क्योंकि हम सभी जानते थे कि देश के सबसे बड़े बैंक अौर सबसे अहमन्य सरकार के बीच रिश्ते ऐसे नहीं हैं कि वे लंबा चल सकेंगे। रघुराम राजन ने पद छोड़ने अौर ऊंची तनख्वाह वाली नौकरी पर जाने से पहले कहा कि वे नितांत निजी कारणों से इस्तीफा दे रहे हैं। जो वे कह रहे थे उसमें विमर्श संभव नहीं था। बेटी नहीं चाहती है कि मैं अागे भी रिजर्व बैंक का गवर्नर रहूं याकि बीवी को बाजार ले जाने का समय मैं नहीं निकाल पाता हूं, इसलिए अब गवर्नर नहीं रहना चाहता अादि नितांत निजी कारण ऐसे हैं कि इन पर देश कहे भी तो क्या ! 

लेकिन देश जिस दौर से गुजर रहा है, यह सामान्य दौर नहीं है। देश भयंकर अार्थिक संकट से गुजर रहा है, सरकार अांकड़े बदलने अौर छिपाने का सारा खेल खेलने के बाद भी यह छिपा कैसे सकती है कि विकास-दर लगातार गिरता जा रहा है, मंहगाई पर किसी तरह का अंकुश काम नहीं कर रहा है, बेरोजगारी खतरनाक हद तक पहुंच गई है अौर स्वत: रोजगार पैदा करने वाले विकास की कोई रूपरेखा हम बना नहीं पा रहे हैं। खुदरा व्यापार अौर छोटे कारोबारी, जो किसी भी अर्थ-व्यवस्था की नींव के पत्थर होते हैं, बुरी तरह कुचल दिए गये हैं अौर विश्व बाजार में हमारे रुपये की साख खतरे में है। शिक्षा-व्यवस्था हमारे भविष्य से ऐसा खेल कर रही है कि वर्तमान अौर भविष्य दोनों नष्ट हो रहे हैं। यह देखने के लिए किसी दिव्य दृष्टि की जरूरत नहीं है कि समाज का माफियाकरण तेजी से हो रहा है - शिक्षा माफिया; स्वास्थ्य माफिया; शराब माफिया; किसान माफिया; रक्षा सौदा माफिया; चुनाव माफिया; विकास माफिया अादि-अादि पूरा समाज लीलते जा रहे हैं अौर राजनीतिक माफिया मुस्करा रहा है। 

यह भारतीय लोकतंत्र का असामान्य दौर है। वे सभी इसके अपराधी हैं जो निर्णायक पदों पर बैठ कर सामान्य ढंग से काम चला रहे हैं। कभी कवि ‘दिनकर’ ने इनके लिए ही लिखा था : समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध/ जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। तो समय के पन्नों पर दर्ज है कि जब रघुराम राजन ने इस्तीफा दिया तो उर्जित पटेल ने उनके छोड़े जूते में ऐसे पांव धर दिया मानो उन्हें इसके खाली होने का इंतजार था। अौर फिर अार्थतंत्र में ऐसा कत्लेअाम हुअा जैसा किसी ने न देखा था, न सुना था। नोटबंदी हुई। किसने की ? उस प्रधानमंत्री ने जिसकी अार्थिक समझ का रोना अाज भी देश रो रहा है। लेकिन अभी हम नोटबंदी सही या गलत की बात नहीं कर रहे बल्कि नोटबंदी जिस तरह हुई उसकी बात कर रहे हैं। मुद्रा अौर मुद्रा से जुड़ी तमाम फैसलों की जिम्मेवारी भी रिजर्व बैंक की होती है अौर देश के हर वाशिंदे के प्रति वह जवाबदेह भी है। अाखिर हमारे हर नोट पर वही तो लिखित वचन देता है कि यह कागज का टुकड़ा नहीं, मुद्रा है जो हर हाल में अपनी कीमत के बराबर की कीमत अापको देगी। रिजर्व बैंक इसके लिए वचनबद्ध है। लेकिन एक रात, एक अादमी अाकर देश से कह देता है कि जिसे अाप मुद्रा समझ रहे हैं वह रद्दी का कागज भर है अौर उसे अाप रद्दी के भाव भी बेच नहीं सकते, अौर रिजर्व बैंक इतना भी कह नहीं सका कि यह फैसला उसकी सहमति से हुअा है अौर हमने प्रधानमंत्री से कहा है कि इसका एलान वे ही करें। उर्जित पटेल एक शब्द नहीं बोले। करोड़ों-करोड़ भारतीय, जिन्होंने रिजर्व बैंक पर भरोसा किया था, पशुअों की तरह हांक कर सड़कों पर ला दिए गये, रिजर्व बैंक कुछ नहीं बोला। जिन्होंने रिजर्व बैंक की सफेद मुद्रा का चेहरा काला कर दिया था, वे सब कहीं भी परेशान नहीं थे। काला धन जिनकी नसों में दौड़ता है वे सारे राजनीतिबाज अपने खेल में लगे रहे, देश की बैंकिंग व्यवस्था जिस अाम अादमी के कंधों पर सवारी करती है, वह गंदी सड़कों-गलियों में अपमानित किया जाता रहा, बैंकों व दूसरे सरकारी महकमों में जलील किया जाता रहा लेकिन रिजर्व बैंक ने कुछ भी नहीं कहा। उसने तो दबी जुबान से कभी यह भी नहीं कहा कि नोटबंदी का फैसला न तो उसका था अौर न वह उससे सहमत था। अाप वह पूरा दौर देख जाइए, अापको उस वक्त के अार्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम का एक शब्द भी कहीं दर्ज नहीं मिलेगा कि नोटबंदी का निर्णय उन्हें अंधेरे में रख कर लिया गया; उनका एक शब्द भी नहीं कहीं मिलेगा कि जीएसटी का फैसला भी अौर उसका कार्यान्वयन भी गलत है। वे उस पूरे असामान्य समय में, अपनी मालदार कुर्सी पर बैठे सामान्य समय काटते रहे। फिर ‘निजी कारणों’ से नौकरी छोड़ दी, अौर दूसरी मालदार नौकरी पर विदेश चले गये। वहां बैठे-ठाले एक किताब लिखी अौर अब देश में अा कर उस किताब की बिक्री सुनिश्चित करने में लगे हैं। अब वे उन सारी कमियों-कमजोरियों की सविस्तार बात कर रहे हैं जो उनके विचार से मोदी-जेटली मार्का अर्थतंत्र की पहचान है। ऐसा ही अब उर्जित पटेल करेंगे। हम उनकी किताब भी पढ़ेंगे कि कैसे मोदी-जेटली रिजर्व बैंक की स्वायत्तता खत्म करते जा रहे हैं, असामान्य अार्थिक संकट से देश को उबारने के लिए जो एक संवैधानिक कोष रिजर्व बैंक के पास रखा होता है, वह पैसा भी मोदी-जेटली अपने चुनावी वादों को पूरा करने में उड़ा देना चाहते हैं अौर मैं, उर्जित पटेल अपनी गर्दन हथेली पर ले कर उनके सामने खड़ा हो गया। प्रमाण पूछते हैं तो पढ़िये मेरी यह किताब ! इसे कहते हैं : अाम तो  अाम/ गुठलियों के दाम ! 


यह कायरता है कि बहादुरी ? फैसला अाप करेंगे या वक्त ! तब तक अाप मेरा भी इस्तीफा ले लीजिए ताकि मैं भी एक किताब लिख कर देश के प्रति अपनी जिम्मेवारी पूरी करूं ! ( 11.12.2018 ) 

दोस्ती का गलियारा

    
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को भी अंदाजा नहीं होगा कि वे जिस करतारपुर गलियारे को बनाने व खोलने की शुरुअात कर रहे हैं, उससे भारतीय राजनीति के गलियारों में ऐसे विस्फोट होने लगेंगे. क्रिकेट की भाषा में कहूं तो यह इमरान का वह बाउंसर है जिसे ‘डक’करने को भारतीय राजनीति मजबूर हो गई है. यह बेहद हास्यास्पद अौर बचकाना है. 

यह सोच भी हैरान करने वाला है कि हमने इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही पाकिस्तान के साथ राजनीतिक पहल की सारी बागडोर नवजोत सिंह सिद्धू के हाथ में सौंप दी है. सिद्धू ने राजनीति के पिच पर कभी गंभीर बल्लेबाजी नहीं की है. उनकी राजनीतिक समझ कपिल शर्मा शो में बनी अौर परवान चढ़ी है. वे दलों के दलदल में उतर कर कुर्सी पकड़ने वाले राजनीतिज्ञ हैं. उनको दल अौर अाका बदलते देर नहीं लगती है. अाज वे राहुल गांधी की कांग्रेस में हैं अौर पंजाब के सबसे नौसिखुअा मंत्री हैं .वे पाकिस्तान के साथ की हमारी राजनीति की डोर संभालें अौर केंद्र सरकार अपने बचाव में बयान जारी करे, उनके चैनल इमरान की लानत-मलानत करे, सिद्धू की देशभक्ति पर सवाल खड़े करें, क्या यह भी कपिल शर्मा शो का ही हिस्सा नहीं लगता ? यह बात यहां तक पहुंचi है कि केंद्र सरकार के दो मंत्री भी गलियारा कार्यक्रम में उपस्थित थे लेकिन वे बेजुबान बलि के बकरे से ज्यादा कुछ नहीं थे. इधर सिद्धू थे तो उधर इमरान ! यह रंग यहां तक जमा कि इमरान ने यह कह कर कूटनीतिक छक्का ही मार दिया कि भारत-पाक दोस्ती सिद्धू के प्रधानमंत्री बनने पर ही हो सकेगी, ऐसे हालात हम न बनाएं.

लेकिन इमरान खान ने गलियारा दिवस पर अौर फिर दूसरे दिन भारतीय पत्रकारों से बातचीत करते  हुए जो कुछ कहा, वह फब्तियां कसने या खिल्ली उड़ाने जैसी बात नहीं है.  ये बातें बहुत दूर तक जा सकती हैं यदि सीमा के दोनों तरफ की सरकारें मजबूत मन से चलें. इधर हाल के दिनों में दूसरे किसी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नेइतनी साफ बातें नहीं की हैं. यही मौका है कि हम पाकिस्तान को जांचने की तैयारी करें. हम न भूलें कि अाज इमरान उसी तरह अनुभवहीन हैं जिस तरह 2014 में दिल्ली पहुंचे नरेंद्र मोदी थे. अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में कितनी ही बचकानी हरकतें की थीं उनकी सरकार ने ! उन्हें लगा था कि गले लगाने, झूला झूलने, ड्रम बजाने, हर विदेशी दौरे में प्रायोजित भीड़ जुटा कर अपनी लोकप्रियता का दावा पेश करने से ले कर विदेशी राष्ट्राध्यक्षों को उनके पहले नाम से पुकारने से राजनीति अलग धरातल पर ले जाई जा सकती है. धीरे-धीरे यह सब अर्थहीन होता गया. यह सारी चमक फीकी पड़ने लगी. अब न चमक बची नहीं है, न उसका भ्रम. 

इमरान के साथ भी ऐसा हो सकता है. पाकिस्तान की राजनीति की रीढ़ तो कभी बनी ही नहीं. वह जन्म से ही इस या उस कंधे पर सवार हो कर ही चली है. इसलिए पूरी संभावना है कि जल्दी ही इमरान कोई कंधा पकड़ेंगे. इसलिए हमारी कूटनीतिक प्रौढ़ता इसमें है कि इमरान वहां कमजोर पड़ें इससे पहले हम उन्हें मजबूत बनाने की पहल करें. मजबूत अौर निर्णायक इमरान हमारी भी अौर इस उपमहाद्वीप की भी जरूरत है. दूसरी तरफ इमरान के अपने अस्तित्व के लिए इस उपमहाद्वीप में भारत की प्रभावी उपस्थिति जरूरी है. यह किसी का किसी के प्रति अनुराग नहीं, ठोस राजनीतिक सच है. तो क्या अौर कैसी पहल होनी चाहिए ? पहली पहल तो यही होनी चाहिए कि हमारी सरकार उल्टे-सीधे लोगों से, उल्टी-सीधी बयानबाजी न करवाए. इमरान को उन सारी बातों के बोझ तले न दबाएं हम जो उनके पहले के लोगों ने किया है. उनसे वे सवाल भी न पूछे जाएं जिनका जवाब जिन्हें देना चाहिए था, वे अब पाकिस्तान से कहीं दूर, अपनी बेईमानी की कमाई से अाराम की जिंदगी जी रहे हैं. हम पाकिस्तान से अाज की अौर अभी की बात करें.  अगर इमरान कहते हैं कि वे, उनकी सरकार, उनकी फौज अौर उनका मुल्क जहां तक भारत के साथ रिश्ते सुधारने का सवाल है, एक राय हैं, तो हमें उन्हें उस राय का खुलासा करने का अवसर देना चाहिए. 

कश्मीर को इमरान दोनों देशों के बीच का जिंदा सवाल मानते हैं. वह है. हम भी मानते हैं लेकिन हम यह भी जानते हैं कि कश्मीर को बीच में रख कर अब तक पाकिस्तान ने बहुत खेल खेला है. इमरान ने भी उस दिन कबूल किया कि गलतियां दोनों तरफ से हुई हैं. तो हम उन्हें तुरंत मौका दें कि वे हमारी गलतियां बताएं अौर अपनी कबूलें. ट्रंप ने गणतंत्र दिवस का अतिथि बनने का हमारा अामंत्रण शायद इसी कारण स्वीकार नहीं किया तो हम यह मौका इमरान को दें. सार्क में मोदी न जाएं क्योंकि भारत सरकार ने इस मामले में एक भूमिका ले रखी है. तो पाकिस्तान उसका सम्मान करे अौर भारत अाने का हमारा निमंत्रण स्वीकार करे. वे हमारे मेहमान बन कर अाएं, हमारा गणतंत्र दिवस देखें अौर फिर भारत-पाक वार्ता में बैठें. इस प्रस्ताव से, अभी-के-अभी उनकी कसौटी हो जाएगी. बात तो एक कदम के सामने दो कदम चलने की हुई है न ! 

पाकिस्तान के साथ हमारे अनुभव इतने बुरे रहे हैं कि उधर से बहने वाली हर हवा पर दिल्ली की प्रतिक्रिया धीरे-धीरे अौर सावधानी से ही उभरेगी, यह बात पाकिस्तान को समझनी चाहिए. इसलिए सदाशयता के एक नहीं, कई प्रमाण इमरान को देने होंगे; देते रहने पड़ेंगे. हम ऐसे हम कदम को शक की नजर से नहीं, भरोसे से देखें. पाकिस्तान देखे कि गलियारे का काम तेजी से अौर ठीक से पूरा हो; जिस हाफिज सईद के अपराध की बात प्रकारांतर से उन्होंने  कबूल की है, पाकिस्तान में उनकी अाजादी को तुरंत प्रतिबंधित किया जाये; दाऊद इब्राहिम का पाकिस्तान में होना वे कबूल करें अौर पहले कदम के तौर पर पाकिस्तान में ही उस पर मुकदमा दायर करें; सीमा पर हो रही अातंकी घुसपैठ अौर फौज की बेजा हरकतों पर प्रभावी रोक लगाएं- ऐसी रोक जो हमें दिखाई भी दे अौर महसूस भी हो. ये कुछ प्रारंभिक कदम हैं जो भारत का भरोसा मजबूत कर सकते हैं. भारत का भरोसा मजबूत करना भारत के साथ पक्षपात करना या भारत के सामने झुकना नहीं है, जैसे इमरान को गणतंत्र दिवस पर अामंत्रित करना पाकिस्तान की चापलूसी नहीं है. अाप विश्वास का अाधार नहीं खड़ा करेंगे तो दोनों में से कोई भी पक्ष पहल नहीं कर सकेगा अौर पहल नहीं होगी तो यह जड़ता नहीं टूटेगी. 


इमरान का पाकिस्तान इसे समझे अौर मोदी का हिंदुस्तान सकारात्मक रवैया रखे तो यह गलियारा हमारी दोस्ती का राजमार्ग बन सकता है. ( 1.12.18)