Saturday 30 June 2018

नौ दिन चले अढ़ाई कोस



मुझे अाज लालकृष्ण अाडवाणी अौर मुरलीमनोहर जोशी एक साथ याद अा रहे हैं. मैंने इन दोनों की राजनीति को कभी, किसी सकारात्मक कारण से याद नहीं किया है लेकिन दोनों ने एक-एक बार राजनीति से बाहर जा कर ऐसा कमाल किया है कि कोई भी वाह कह उठे. 

पहली बात १९७७ की है. इंदिरा गांधी का अापातकाल खत्म हुअा था अौर दिल्ली में जनता राज अाया था. सभी, सब तरफ उन सबकी बातें करते थे जो उस अंधेरे दौर में, अंधेरे की पक्षधरता करते रहे थे. ऐसी ही काली भूमिका भारतीय प्रेस की भी थी जो अब ‘मीडिया’ कहलाता है. लालकृष्ण अाडवाणी ने, जो जनता पार्टी की सरकार में प्रेस मंत्री बने थे, प्रेस की तब की दयनीय, कायर भूमिका के बारे में एक गजब की बात कही-“ उनसे कहा तो गया था कि झुको लेकिन वे घुटनों के बल रेंगने लगे !” उस दौर में प्रेस की भूमिका के बारे में इससे अच्छा अौर मौजूं कुछ कहा ही नहीं जा सकता था. अाज के अाईने में फिर से मीडिया वैसा ही कायर अौर भयभीत दिखाई दे रहा है. लेकिन बात मुझे मुरलीमनोहर जोशी की करनी है.

नरेंद्र मोदी की सरकार के ४ साल पूरे होने पर, जैसी की रवायत बनी हुई है, सब तरफ ४ सालों का अाकलन करवाया जा रहा है. अाकलन करने अौर करवाने का जो फर्क है, वह यहां भी देखा जा सकता है. तो कभी इलाहाबाद में प्रोफेसर रह चुके भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठतम नेता ( अौर संभवत: इस सरकार के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य ) मुरलीमनोहर जोशी जी से पूछा किसी ने कि अगर अाप परीक्षक हों तो इस सरकार को कितने नंबर देंगे ? जोशीजी ने जवाब में सीधा छक्का ही जड़ दिया ! वे बोले : अरे, परीक्षा की कॉपी में कुछ लिखा हो तब तो नंबर देने की बात अाती है ! कोरी कॉपी हो तो कोई कितने नंबर दे अौर कितने काटे ? सच, नरेंद्र मोदी सरकार के ४ सालों की इससे बेहतर समीक्षा हो ही नहीं सकती है. मैं मानता हूं कि इन दो अाकलनों के लिए, इन दोनों नेताअों को पद्मश्री से भारत-रत्न के बीच जो भी उपलब्ध हो, वह दिया जाना चाहिए. 

४ सालों में जिस सरकार ने परीक्षा की अपनी कॉपी का हर पन्ना भर रखा हो अौर फिर भी वह कोरा ही दिखाई दे, तो अाप उस सरकार की अनदेखी नहीं कर सकते. मुझे लगता है कि जैसे यह सच है कि नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के लिए गुजरात से दिल्ली की तरफ जैसी दौड़ लगाई वैसी दौड़ अाज तक दूसरे किसी ने कभी नहीं लगाई, उसी तरह यह भी सच है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद से अाज तक नरेंद्र मोदी कभी चैन से बैठे नहीं. उनकी दौड़ लगातार जारी है. बस, दिक्कत यह है कि वे दौड़ नहीं रहे हैं, कदमताल कर रहे हैं. कदमताल में अाप अपनी ही जगह पर खड़े रह कर इस तरह पांव चलाते हैं कि दूर से वह दौड़ने का भ्रम पैदा करता है. इसलिए भारतीय जनता पार्टी के कैडर को लगता है कि उनका प्रधानमंत्री दौड़ रहा है. कदमताल करने से जो शोर बनता है अौर जो धूल उड़ती है उसे विकास मान कर, मोदीजी के सारे मंत्रीगण देश को यह समझाने व भरमाने में लगे रहते हैं कि देखो, विकास अा गया है; कि देखो, विकास हो रहा है; कि पहचानो विकास बड़ा हो रहा है! लेकिन कदमताल का सच यह है कि इसमें अापको चलना नहीं, अपनी जगह पर खड़े बस पांव उठाना-गिराना होता है. अाप चले नहीं कि कदमताल टूटा. यही हो रहा है. देश पिछले ४ सालों से एक ही जगह पर, रोज-रोज का यह अनवरत कदमताल देख रहा है. 

मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले ४ सालों में दो ऐसे कीर्तिमान बनाए हैं कि जिसका मुकाबला कोई कर ही नहीं सकता है. पहले दिन से अाज तक इतनी सारी योजनाएं-परियोजनाएं घोषित हुई हैं, इतने सारे ‘ऐप’ बने अौर लांच हुए हैं कि जिनकी गिनती करने के लिए एक नये मंत्रालय की जरूरत होगी. उनका दूसरा कीर्तिमान लगातार विदेश जाने या विदेशी मेहमानों का अपने यहां स्वागत करने का है. पहली को कहा गया गवर्नेंस या विकास; दूसरी को कहा गया विदेश-नीति या भारत को विश्वगुरु बनाना. अगर धुअांधार भाषणों से गरीबों का पेट भर सकता तो सच, देश में कोई भूखा नहीं रह जाता; अगर योजनाअों-परियोजनाअों, ‘ऐप’ अादि से गरीबों की किस्मत बदली जा सकती तो इंदिरा गांधी का गरीबी हटाअो का नारा सिद्ध हो गया होता. अगर नोटबंदी से कालाबाजारी अौर जीएसटी से व्यापार में चोरी रोकी जा सकती तो देश साफ व स्वस्थ हो चुका होता. विदेश जाने अौर विदेशियों को यहां बुलाने, गले लगने-लगाने, झूला झूलने या झुलाने से देश की विदेश-नीति बन सकती अौर मजबूत हो सकती तो दुनिया में हमारी तूती बोलती होती. महात्मा गांधी की दिखावटी प्रशंसा करने अौर नेहरू-परिवार को चीख-चीख कर कोसने से देश की किसी बीमारी का हल निकल सकता तो हम कहते कि चलो, इससे तो निजात मिली. लेकिन सच तो  यह है कि इस तरह न देश बनते हैं अौर न चलते हैं. इसलिए न देश बन रहा है अौर न चल रहा है. 


देश में अापसी टकराहट अौर कर्कशता बढ़ती जा रही है; लोकतंत्र को संभालने वाली संस्थाएं खुद को ही संभाल नहीं पा रही हैं; प्रधानमंत्री को छोड़ कर, मंत्रिमंडल का स्वास्थ्य चिंताजनक हद तक खराब है; मंत्रिमंडल में योग्यता, प्रतिभा अौर कुशलता की सिरे से कमी है जिसकी पूर्ति राजनीतिक चापलूसी से की जा रही है. विदेश नीति जैसी कोई चीज बनी भी नहीं है, बची भी नहीं है. रूस, चीन अौर अमरीका का त्रिभुज हमें किसी संतुलनकारी शक्ति की तरह नहीं, प्यादे की तरह देखता व बरतता है. ४ साल का यह हाल है, तो प्रोफेसर जोशी कहें भी तो क्या कहें ? ( 26.05.2018) 

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