Sunday 29 April 2018

हत्या का हथियार



कुछ ऐसा ही अालम बना हुअा है देश में कि अाप सर धुनें या रोयें ! महाराष्ट्र के पुलिस सुपरिटेंडेंट अभिनव देशमुख ने गढ़चिरौली में पुलिस की भीषण सफलता वाले अभियान का जो ब्योरा दिया है वह ऐसा ही है. दुश्मन के किले पर की गई चढ़ाई-लड़ाई, योजना-हमला, हत्या- सफलता सबका उनका बखान कुछ ऐसा हुअा है कि कहीं से भी लगता नहीं है कि यह अपने ही लोगों को मारने का लाचारी भरा कदम था. नक्सली हमारे देश के भटके नागरिक हैं. उनके भटकने की स्थितियां उन सबने बनाई हैं जिन पर राह दिखाने की जिम्मेवारी थी. हमारी विफलता अपनी जगह फिर भी कोई यह तो कह ही सकता है कि जो भटका है, उसे भटकने की कीमत अदा करनी होगी. यह बात भी ठीक है अौर नक्सली अपनी जान दे कर वह कीमत अदा कर रहे हैं. हमें उनके मारे जाने का अफसोस है लेकिन उन्होंने समाज व सरकार के सामने दूसरा कोई रास्ता छोड़ा भी तो नहीं है. यह लाचारी है जिसके तहत हमें अपने ही नागरिकों की हत्या करनी पड़ रही है. अगर ऐसा अहसास है तो फिर गढ़चिरौली के बोरिया तथा दूसरे इलाके में जिस तरह 37 नक्सलियों को मार गिराया गया, उसका जश्न नहीं मनाया जाता. इन 37 नक्सलियों में 8 महिलाएं थीं. 

राज्य की पुलिस को हमला करने का यह मौका वहां मिला जहां से गढ़चिरौली से बहती इंद्रावती नदी छत्तीसगढ़ में प्रवेश करती है. इस मुहाने को नक्सलियों ने अपना अड्डा बनाने के लिए चुना था अौर अनुमान है कि कोई 40 नक्सलियों की टोली वहां पहुंची थी. किसी खबरिये ने इसकी सूचना पुलिस तक पहुंचाई अौर एक रात पहले ही पुलिस ने वहां घात लगा लिया था. कहते हैं कि नक्सलियों का सूचना-तंत्र बहुत तेज होता है लेकिन उस रोज वह तंत्र फेल कर गया अौर सारी नक्सली टोली गाफिल भाव से वहां जमा हो गई. वे अभी वहां पहुंच कर स्थिर भी नहीं हो पाए थे कि तैयार व सन्नद्ध पुलिस का हमला शुरू हुअा. बकौल अभिनव देशमुख : हमने कम-से-कम 12-13 ग्रेनेड फेंके तथा 2000 राउंड गोलियां दागीं. असावधान नक्सली बुरी तरह घिर गये - न भागने की जगह थी, न बचने की. भुन डाले गये. कुछ ने बचने के लिए इंद्रावती नदी में छलांग लगा दी. अभिनव देशमुख ने बताया कि वे इस कदर घायल हो चुके थे कि तैर तो क्या पाए होंगे, नदी में ही जल-समाधि ले ली होगी या फिर उनके ही रक्त से लपकते मगरमच्छों ने उनको निवाला बना लिया होगा. अौर फिर हमारी गोलियां भी तो बरस ही रही थीं. बोरिया गांव के लोगों का कहना है कि रविवार की सुबह करीब दो घंटे तक गोलियां चलती रहीं. इसके बाद पुलिस का कोंबिंग अॉपरेशन शुरू हुअा ताकि कोई घायल कहीं निकल भागा हो अौर छुपा हो तो उसे भी धर दबोचा जाए. 

अपने शिकारगाह का दौरा करने पहुंचे बड़े पुलिस अधिकारियों से जब किसी ने पूछा कि यह कैसे हुअा कि इतनी बड़ी मुठभेड़ में नक्सलियों ने पुलिस पर कोई चोट नहीं की, तो विजयी भाव से जवाब दिया गया कि हमने उन्हें कुछ करने का मौका ही नहीं दिया अौर न उनके भागने की कोई जगह ही छोड़ी ! हमने उनको एकदम असहाय कर दिया था. 
    
राज्य द्वारा की गई कानूनी हत्या का यह वह विवरण है जिसे जान कर न कोई खुशी होती है, न गर्व ! एक दर्द उठता है भीतर अौर फिर कहीं भीतर ही बैठ जाता है. असहाय नक्सलियों के इस कत्लेअाम की निंदा कोई कैसे करे ? रोज-ब-रोज गश्ती दलों पर, पुलिस पार्टियों पर, नागरिकों पर इसी तरह घात लगा कर नक्सली भी तो हमले करते हैं न, अौर कितनों को मार डालते हैं ! वे भी इसी तरह अपनी उपलब्धियों का बखान करते हैं भले उनके पास अौर उनके साथ कोई अखबार या मीडिया नहीं होता है. हत्या का हथियार इस्तेमाल करने वालों का अंत हत्या से ही होता है. जब नक्सली किसी तरह के विवेक की बात सुनने से इंकार कर देते हैं अौर लाशों की गिनती को अपने बच्चों की बारहखड़ी बना लेते हैं, तब उनकी रक्षा में हम कौन-सी ढाल अागे कर सकते हैं ? दो पाटों के बीच में पिसने का यह अहसास बहुत दारुण है. फिर भी मुझे कहने दीजिए कि लोगों की, समूहों की, संगठित नक्सली या ऐसी ही जमातों की हिंसा अौर राज्य की संिवधानपोषित हिंसा में फर्क करना अगर हम नहीं सीखेंगे तो इसके गर्भ से वैसा गृहयुद्ध पैदा हो सकता है जिसे कोई राज्य काबू नहीं कर सकेगा. हिंसा जहरीली ही नहीं होती है, अंधी भी होती है. दूसरे सबसे ले कर हत्या का यह हथियार हमने राज्य के हाथ में यही सोच कर सौंपा था कि वह न्याय,समता अौर विकास के दूसरे हथियार भी चलाएगा तो नंगी हिंसा का हथियार चलाने की नौबत कभी-कभार ही अाएगी. लेकिन राज्य ने एक-एक कर, दूसरे सारे हथियार छोड़ दिए अौर केवल हिंसा का एक ही हथियार उठा लिया. इसलिए हिंसा का घटाटोप छा रहा है अौर हम लगातार अरक्षित हुए जा रहे हैं. ( 28.04.2018) 

Friday 27 April 2018

महाभियोग नहीं लेकिन अभियोग तो है !




इस लेख के प्रारंभ में ही मुझे यह कह देना चाहिए कि उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने जिस तरह 7 दलों द्वारा, सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च न्यायाधीश दीपक मिश्रा के लिए पेश किए गए महाभियोग का संज्ञान लेने से इंकार कर दिया, मैं उससे सहमत हूं, लेकिन मुझे साथ ही यह भी कह देना चाहिए कि उनकी इस बात से मैं सहमत नहीं हूं कि उन्होंने यह फैसला एक माह के गहन सोच-विचार के बाद किया ! इसका मतलब तो यह हुअा कि अविश्वास प्रस्ताव के पेश होने से पहले ही उन्होंने इस बारे में एक नजरिया बना लिया था जिसे अविश्वास प्रस्ताव पेश होते ही उन्होंने पेश कर दिया ! महाभियोग पेश करने वालों का यही तो अभियोग है अौर वेंकैया नायडू ने अपने कथन से उस पर ही मुहर लगा दी है. 

हमारे संविधान की यह संरचना जटिल तो है लेकिन है बहुत विवेकपूर्ण की उसमें निर्णय का हक सबके पास है लेकिन अंतिम निर्णय किसी एक के पास नहीं है - राष्ट्रपतिजी के पास भी नहीं ! संसद की दुम अदालत के पास फंसी है; अदालत की संसद के पास; दोनों की दुम राष्ट्रपति के पास फंसी है तो राष्ट्रपति की दुम दोनों के पास ! इस नाजुक संतुलन को समझने अौर हर कीमत पर इसे बचाए रखने की जरूरत है. यहां हर संवैधानिक कुर्सी एक प्रक्रिया को जन्म देती है, अंतिम फैसला नहीं करती. उप-राष्ट्रपति ने अंतिम फैसला करने की भूल की.

मुझे यह भी कह देना चाहिए कि कांग्रेस समेत जिन 7 दलों ने यह महाभियोग दाखिल किया, मैं उनसे सहमत हूं. यह किया जाना चाहिए था लेकिन अब इस मामले को ले कर सर्वोच्च न्यायालय जाने के उनके इरादे से मैं सहमत नहीं हूं. मैं मानता हूं कि यह मामला जितनी दूर तक लाया गया, उतनी दूर तक लाना जरूरी था; लेकिन अब इससे अागे इसे खींचना न जरूरी है, न शुभ ! मैं उन सब लोगों से सहमत हूं जो यह मानते-कहते रहे हैं िक न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा न्याय की मूर्ति नहीं हैं, अौर उनसे उस पद की गरिमा नहीं बढ़ी है जिस पर उन्हें अवस्थित किया गया. मैं चाहता था कि जैसे ही न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा पर अविश्वास के बादल घिरे, वे बगैर पल भी देर लगाए, इस्तीफा दे देते. उनके  लिए इसका स्वर्णिम मौका बना दिया था उनके सहयोगी उन 4 न्यायमूर्तियों ने, जो देश के सामने यह कहने अाए थे कि न्यायपालिका व लोकतंत्र खतरे में है. हमारी न्यायपालिका के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुअा था अौर इसके लिए हमें इन 4 न्यायमूर्तियों का अाभारी होना चाहिए कि वे मूर्ति साबित नहीं हुए ! 


अाज से नहीं, भारतीय समाज के पुनर्जागरण काल से ही एक धारा ऐसी रही है जो सांप्रदायिकता को अपनी सामाजिक-राजनीतिक ताकत बनाने में लगी रही है. इसे बार-बार पराजित कर हमारा समाज अागे बढ़ता गया है - महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति का बलिदान देकर भी !  भारतीय समाज की इस कोशिश को हमारा संविधान स्वीकार करता है अौर उसे दार्शनिक व कानूनी जामा पहनाता है. सांप्रदायिक धारा भारतीय समाज की इस सामूहिक स्वीकृति अौर खोज को तोड़ने-बिखेरने अौर अंतत: ध्वस्त करने में लगी रही है. बाबरी मस्जिद का ध्वंस किसी इमारत का गिरना नहीं था, सांप्रदायिकता को अस्वीकार करने वाले भारतीय समाज को सीधी चुनौती थी; अौर है. अाज जब उस चुनौती को संसद, कार्यपालिका, न्यायपालिका अौर मीडिया के रास्ते अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश हो रही हो तब संविधान के रक्षा की संविधानप्रदत्त जिम्मेवारी जिसकी है उसके मुखिया का काम इतना ढीला अौर व्यक्तिपरक कैसे हो सकता है ? लेकिन वे दीपक मिश्रा अाज संविधान की तलवार लिए नहीं, अात्मरक्षा की ढाल लिए नजर अाते हैं अौर उस ढाल को संभालने की जिम्मेवारी भी उन्होंने सरकार को सौंप दी है. यह न्यायपालिका के लिए बहुत बुरा वक्त है. 

सर्वोच्च न्यायालय का कॉलिजियम अाज जैसी अर्थहीन दशा में कभी नहीं था. सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति की सिफारिशों पर सरकार जिस तरह कान बंद कर बैठी है, एंठी है, वह संवैधानिक अधिकार का दुरुपयोग तो है ही, कॉलिजियम की व्यवस्था में पलीता लगाने की सुनियोजित कोशिश है. देश के पांच सबसे वरिष्ठ न्यायमूर्तियों की, जिनमें एक दीपक मिश्रा स्वंय भी हैं, सम्मिलित राय की ऐसी उपेक्षा के बाद भी यदि दीपक मिश्रा चुप हैं, तो लोग बोलेंगे कि नहीं ! देश में छुद्र पहचानों की, जातीयता की, सांप्रदायिकता की, हर किस्म के अलगाव की अाग भड़क रही है. ऐसे में कहां तो संविधान िनर्मित हर संस्था को सावधान हो कर अपनी भूमिका के निर्वाह में लगना चाहिए अौर कहां न्यायपालिका अांख फेरती मिल रही है. नरोदा पाटिया, मक्का मस्जिद, जज लोया जैसे मामलों में न्यायपालिका के भीतर जैसी सर्वसम्मति दीखनी जरूरी थी, वह नहीं दिखाई देती है, यह तो चिंता की बात है ही, इससे भी बड़ा अपशकुन यह है कि दीपक मिश्रा को इसकी फिक्र भी नहीं है. मतलब यह कि न्यायपालिका अपने इस सबसे बुरे दौर में भीतर से टूटी हुई अौर एक-दूसरे के प्रति अविश्वास से भरी हुई है.     
ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोगों को अक्सर यह भ्रम होता है कि जो नीचे हैं वे उन्हें देख नहीं रहे. सच यह है कि ऊंची कुर्सी वालों को नीचे दिखाई नहीं देता जबकि नीचे वालों के पास ऊपर देखने के अलावा देखने को कुछ होता नहीं है. इसलिए ऊपर वाले अक्सर बेमौके पकड़े जाते हैं. सर्वोच्च न्यायालय अौर सर्वोच्च न्यायाधीश के साथ पिछले दिनों से ऐसा ही हो रहा है. न्यायालय से जैसे फैसले अा रहे हैं अौर न्यायालय के भीतर जो चल रहा है उससे न्याय की भी अौर न्यायमूर्तियों की भी मूर्तियां धूल हुई हैं. न्याय-व्यवस्था तो टिकी ही इस विश्वास पर है कि वहां सच खुद गवाही देने अाता है. न्यायाधीशों का काम तो बस इतना ही कि वे यह पहचान लें कि उनकी अदालत में सच कैसे कपड़े पहन कर अाया है. इसलिए अदालत अौर न्यायाधीश दोनों उस दिन अपने होने का अौचित्य खो बैठते हैं जिस दिन किसी मामले को वे यह कह कर बंद कर देते हैं कि उनके सामने पर्याप्त सबूत नहीं पेश किए गये. तो फिर अाप किस लिए वहां थे हुजूर ? जब अापने यह पहचान लिया कि न्याय तक पहुंचने के रास्ते बंद किए जा रहे हैं तब न्याय का तकाजा ही यह है कि उसकी मूर्तियां न्याय तक पहुंचने के दूसरे रास्ते खोजें; अौर जब तक अाप न्याय तक पहुंच नहीं जाते हैं तब तक अापकी भी अौर न्याय की अात्मा भी कुलबुलाती रहनी चाहिए. जो न्याय की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठा है उसकी कुलबुलाहट सबसे ज्यादा होनी चाहिए. अाज इसका सर्वथा अभाव है अौर यह सारा देश देख व जान रहा है. 

इसलिए दीपक मिश्रा को बगैर देर किए अपने दो वरिष्ठतम न्यायमूर्तियों, रंजन गोगई अौर मदन लोकुर के उस पत्र पर अमल करना चाहिए जो इन सारे विवादों के बीच सबसे विवेकपूर्ण अावाज लगाता है. दीपक मिश्रा को लिखे दो पंक्तियों के इस पत्र से वह रास्ता खुलता है जो शासक दल की भी अौर विपक्ष की भी राजनीतिक मंशा को पीछे कर, न्यायपालिका को अपनी जमीन पर खड़ा होने का अवसर देता है. गोगई-लोकुर साहबान का यह पत्र कहता है कि तुरंत ही ‘फुल कोर्ट’ बिठाई जाए जो हमारी अांतरिक व्यवस्था के बारे में भी अौर इस कोर्ट के भावी के बारे में भी फैसला करे. अब तक के सारे विवाद अौर सारे पात्रों का हमें शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन सबने मिल कर दीपक मिश्रा को यह रास्ता दिया है कि वे न्याय-व्यवस्था के प्रमुख संरक्षक बनें, कठपुतली नहीं.  ( 26.04.2018)

Thursday 19 April 2018

मात्र 70 सालों में देश भिखमंगा हो गया !


लोकगाथा में वर्णित समुद्र-मंथन से वह कैसा विष निकला था कि जिसके प्रभाव से सारी सृष्टि का विनाश हो जाता, पता नहीं; अौर यह भी पता नहीं कि वह देवाधिदेव शंकर कैसे रहे होंगे कि जिन्होंने अागे अा कर, सृष्टि का विनाश रोकने के लिए उस विष का पान कर लिया !भुगतना तो उन्हें भी पड़ा कि जन्मजमांतर के लिए नीलकंठ हो गये ! लेकिन हम ? हम क्या करें अौर किससे जा कर कहें कि सत्ता-धर्म-राजनीति-सांप्रदायिकता-जातीयता का यह जो पंचगव्य विष पीने के लिए हम अभिशप्त किए जा रहे हैं, यह सृष्टि का विनाश नहीं कर रहा है, यह  हमें मार नहीं रहा है, यह हमारा योनि परिवर्तन कर रहा है. यह मनुष्य को पशु बना रहा है ! उन्नाव, कठुअा अादि में जो घटा वह किसी भी ‘पुरुष’ के डूब मरने के लिए काफी है लेकिन उसके साथ अौर उसके बाद जो हुअा अौर हो रहा है वह सारे समाज का पाशविकरण है. भारतीय समाज के पतन का यह नया प्रतिमान है. 

मानो किसी ने, सारे मुल्क को हांक कर ऐसी अंधेरी गुफा में पहुंचा दिया है जिसमें न हवा है, न रोशनी, न राह; अौर घुटता हुअा सारा समाज अापस में टकरा-टकरा कर लहूलुहान हो रहा है अौर उसी  रक्त का पान कर उन्मत्त हो रहा है. वर्षों-वर्ष पहले लोकनायक जयप्रकाश ने  सत्ता-धर्म-राजनीति-सांप्रदायिकता-जातीयता के मेल से बन रहे इस विष को पहचाना था अौर कहा था कि यह ऐसा ही है जैसे कुत्ता किसी सूखी हड्डी को चबा-चबा कर मस्त हुअा जाता है क्योंकि उसे उस रक्त का स्वाद मिलता रहता है जो हड्डी का नहीं, खुद उसका अपना है. उन्होंने कहा ता कि यह राजनीति तो गिर रही है, अभी अौर भी गिरेगी, टूटेगी-फूटेगी, छिन्न-भिन्न हो जाएगी अौर तब उसके मलबे से एक नई राजनीित का जन्म होगा जो राजनीति नहीं, लोकनीति होगी. उनकी वह अभागी, खतरनाक भविष्वाणी अक्षरश: सत्य हो रही है लेकिन उन्होंने हमें यह नहीं बताया कि हम अभागे लोग इस विषज्वार का मुकाबला हम कैसे करें ! 

यह डराता भी है अौर चुनौती भी देता है. डरते हैं तो मरते हैं; चुनौती कबूल करते हैं तो न रास्ता मिलता है, न नेता ! कोई अचानक कपड़े बदल कर मंच पकड़ लेता है, अौर फिर हम पाते हैं : कैसी मशालें ले के चले तीरगी में अाप / जो भी थी रोशनी वह सलामत नहीं रही !  

धर्म के ध्वजधारक कहते हैं कि धर्म-राज के बिना देश न बचेगा, न बनेगा. इसलिए राष्ट्र-धर्म घोषित करो. लेकिन राष्ट्र-धर्म है क्या, यह कौन तै करेगा ? अापका ही धर्म राष्ट्र-धर्म मान लिया जाए ? तो दूसरे धर्मों का क्या ? वे भी तो अापकी ही तरह कहते हैं कि धर्म-राज के बिना देश न बचेगा, न बनेगा ! जवाब में खूनी अांखें अौर तेजाबी जुबान से अलग व अधिक कुछ मिलता नहीं है. 

जाति की जयकार करने वाले कहते हैं कि जातीय लड़ाई के बिना सामाजिक न्याय संभव नहीं है; अौर जहां सामाजिक न्याय नहीं है, समता व समानता नहीं है, वह भी कोई राष्ट्र है क्या ? हम भी कहते हैं कि सामाजिक न्याय अौर समता अौर समानता की अापकी मांग ठीक है लेकिन यह मांगने वाला कौन है ? अौर वह किससे मांग रहा है? क्या यह मामला भीख मांगने का है ? न्याय, समता अौर समानता कमानी पड़ती है, सत्ता के सौदे में मिलती नहीं है. अौर जातिवालों से यह भी तो पूछिए कि कोई ४००० जातियों में टूटा-बिखरा यह देश कितनी जातीय पहचानों को मान्य करेगा अौर कितनों को, किस अाधार पर खारिज करेगा ? अपनी-अपनी जातियों के उन्मादी सिपाही अब अौर कुछ नहीं खालिस गुंडा जमातों में बदल गये हैं. 

तो सत्ता, धर्म, जाति, सांप्रदायिकता की यह विषबेल किसी सपने तक पहुंचती नहीं है. अब यह किसी बड़ी प्रेरणा का अाधार बनती नहीं है. इसके जरिये जो अपनी रोजी-रोटी का इंतजाम करने में लगे हैं वे इंसान बचे हैं या नहीं, यह फैसला हम उन्हीं पर छोड़ते हैं. लेकि इतना जरूर कहते हैं कि जिस इंसान के पास सपने नहीं होते वह विषधर नाग से भी ज्यादा खतरनाक होता है; जिस समाज के पास सपने नहीं बचते हैं, वह अपना वर्तमान भी खोने लगता है. हम मात्र ७० सालों में ऐसी ही दरिद्र स्थिति में अा गये हैं कि भिखमंगे हो गये !

अाज जरूरी हो गया है कि देश के सामने सपने रखें जाएं- बड़े सपने, नये सपने ! गांधी ने अपने दौर में सपनों की यह दरिद्रता समझी थी अौर इसलिए उनसे बड़ा सपनों का सौदागर दूसरा हुअा नहीं. गांधी ने सपने दिखाए, उन सपनों को धरती पर उतारने वालों की टोलियां गढ़ीं अौर फिर उनके अागे-अागे चल पड़ा. वह उन्हीं सपनों को साकार करने के लिए जीता था, उनके लिए ही मरता था. वह रात में नहीं, दिन में सपने देखता था अौर अकेले नहीं, सपनों की साझेदारी करता था वह ! वह नेता नहीं था, वह नेतृत्व था; वह सत्ता की लूट में शामिल नहीं था, वह सत्य का सर्जन करने में सबको साथ ले कर जुटा हुअा था. इसके बगैर मनुष्य न बनता है,  न बचता है.  

यही काम है जो अाज करना है, यही कीमिया है जिससे देश की हवा बदल सकती है. देश को चमत्कारी व छली नेता नहीं, सहयात्री की जरूरत है; योजनाअों की नहीं, सपनों की भूख पैदा करनी है; राज नहीं, स्वराज्य सिद्ध करना है. यह गांधी ही हमारी सबसे बड़ी ढाल है अौर यही सबसे बड़ी तलवार है.  
                   

हम इसे जानें, हम इसे मानें अौर क्षुद्र सफलताअों की तरफ नहीं, बड़े सपनों की तरफ प्रयाण करें. ( 16.04.2018)

26 अलीपुर रोड के अांबेडकर


          
१४ अप्रैल को देश में कई जगहों पर, कई लोगों द्वारा कई काम होने वाले हैं, जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस रोज दुनिया में अौर कहीं नहीं, राजधानी दिल्ली के २६ अलीपुर रोड पर होंगे जहां बाबा साहेब अांबेडकर ने अपनी अाखिरी सांसें ली थीं. २६ अलीपुर रोड के इस मकान को फिर से सजाया-संवारा गया है अौर उसे अांबेडकर स्मृति में रूप में प्रधानमंत्री राष्ट्र को समर्पित करेंगे. वहां से अलग, ११ सफदरजंग रोड पर रहते हैं सामाजिक न्याय राज्यमंत्री रामदास अठावले. वे १४ अप्रैल को अपने सरकारी घर के प्रांगण में बाबा साहेब अांबेडकर की अादमकद मूर्ति का स्थापना करेंगे. ( प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सरदार पटेल की प्रतिमा अादमकद नहीं है, यह तो हम सब जानते ही हैं ! ) अभी यह पता नहीं है कि देश भर में भाजपा के सांसदों-विधायकों को अमित शाहजी की तरफ से १४ अप्रैल को क्या करने का निर्देश दिया गया है, क्योंकि अभी वे सब अौर प्रधानमंत्री, उपवास पर हैं. क्यों? इनके पास खाना खाने लायक पैसे नहीं हैं, क्योंकि विपक्ष ने २० से ज्यादा दिनों तक संसद चलने नहीं दी, सो इतने दिनों की इनकी तनख्वाह कट गई है ! अब देश की सबसे अमीर पार्टी के इन गरीब सेवकों के पास पैसा अाए कहां से कि ये खाना खाएं ! सो गांधीजी का रास्ता पकड़ा इन्होंने ! इसलिए तो कहने वाले कहते हैं कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी ! लेकिन अाप यह कमाल भी तो देखिए कि कैसी बारीकी से इन लोगों ने गांधी-अांबेडकर के कभी न मिलने वाले ध्रुवों को मिला दिया ! गांधी का उपवास करने के बाद बाबा साहेब को नमन करने चलो २६ अलीपुर रोड !  

तो बरास्ते बिहार के नवादा, हम चलते हैं २६ अलीपुर रोड ! नवादा में अभी-अभी बाबा साहेब की ६ फीट ऊंची मूर्ति का हाथ, राष्ट्र द्वारा तोड़ डाला गया है, अौर बिहार राज्य का चुस्त-फुर्तीला प्रशासन टूटे हाथ पर प्लास्टर करने में जुटा है. तोड़ने अौर जोड़ने के इस परस्पर विरोधी कृत्य में अाप चाहें तो राष्ट्र व राज्य को दो विपरीत ध्रुवों पर, अापने-सामने खड़ा देख सकते हैं; या यह कह कर मुंह फेर ले सकते हैं कि न वे संपूर्ण राज्य के अौर न ये सारे राष्ट्र के प्रतिनिधि हैं. फिर भी यह तो मानते चलें हम कि ये दोनों यानी राष्ट्र व राज्य, एक ही देश  में बसते हैं अौर राष्ट्रपुरुषों की श्रेणी में गिने जा रहे एक ही व्यक्ति के बारे में इस कदर दो ध्रुवों पर जीते हैं. अब हम २६ अलीपुर रोड पर रहने वाले बाबा साहेब को देखने चलते हैं. 

१९५६ ! अब तक वे गांधी मारे जा चुके हैं जो इतिहास के कई मोड़ों पर बाबा साहेब को हाथ पकड़ कर खड़ा करते रहे थे; भीमराव रामजी अंबावाडेकर ( अब तो पूरे नाम की खोज हो रही है न, तो यह है उनका पूरा नाम ! ) अब कैबिनेट मंत्री भी नहीं हैं; दूसरा विवाह उन्हें क्या दे कर गया अौर क्या ले कर गया है, पता नहीं लेकिन ७५ साल की पकी उम्र में वे इस मकान में एकदम अकेले-से हैं अौर जीवन में एकदम एकाकी-से ! साथ एक नानकचंद रत्तू हैं - सेवक-सखा-सहायक जो कुछ हैं, वे ही हैं. वे इस घुलते-टूटते इंसान को रोज-रोज घटते देखते हैं. बाबा साहेब हारे हुए से, खिन्न मन हमेशा एक ही बात कहते रहते हैं : किसी दलित नेता को दलितों से प्रेम नहीं है ! बाबा साहेब देख-समझ रहे हैं कि इतने थोड़े वक्त में ही दलित राजनीतिज्ञों ने सवर्ण राजनीतिज्ञों से वह सब सीख लिया है जो बाबा साहेब मिटाना चाहते थे. अब दलित राजनीतिज्ञों का एक ही मंत्र है - सत्ता में हमारी अपनी भागीदारी ! कोई न यह चाहता है, न ऐसा कुछ करता है कि दलित समाज में उसकी सीधी भागीदारी कैसे हो ! अब सभी उस पिछड़े, निरक्षर, असभ्य समाज से निकल भागना चाहते हैं - वर्ग परिवर्तन ! 

यूगोस्लाविया में वामपंथी क्रांति की सफलता के बाद मार्शल टीटो ने सत्ता संभाली थी अौर सबसे जल्दी से जो काम किया था वह था क्रांति के दौरा-दौर में जिसे वे अपना दाहिना हाथ कहते रहे थे, उस गहरे साथी-चिंतक मिलोवान जिलास को जेल में बंद करवाना. जेल में ही जिलास ने एक अपूर्व पुस्तक लिखी. नाम था - द न्यू क्लास ! वह कहता है कि हर क्रांति अपने दौर के सबसे अधिक सुविधा व अधिकार प्राप्त वर्ग को दरकिनार करने की बात से शुरू होती है , अौर ऐसा करती-कहती जब वह सत्ता में पहुंचती है तो खुद का एक नया वर्ग बना लेती है अौर धीरे-धीरे वे ही सुविधाएं, वे ही एकाधिकार अपने हाथ में ले लेती है जिनके खिलाफ लड़ाई लड़ी गई थी. अब नया स्वार्थ सब पर हावी हो जाता है. क्रांतिकारियों का एक नया वर्ग बन जाता है जो पुराने वर्ग की तमाम बुराइयों को समेट कर, उसमें अपनी तमाम बुराइयों को जोड़ देता है अौर फिर ‘अपने लिए’ अागे चल पड़ता है. बाबा साहेब ने २६ अलीपुर रोड के घर में बैठ कर दलितों के इस नये क्लास को उदित होते, स्थापित होते, सौदा पटाते देखा था अौर छले जाने के भाव से लगातार, रात-दिन बिद्ध होते रहे थे. 

अाज बाबा साहेब नहीं हैं, दलित-सवर्ण राजनीति की दुरभिसंधि अपने शबाब पर है. सांप्रदायिक ताकतों ने गांधी को मार कर देख लिया कि इससे उनकी ताकत नहीं बढ़ी. ताकत की उनकी एक ही परिभाषा है : सत्ता ! वह मिली तो ताकत है, नहीं मिली तो व्यर्थ ! गांधी की हत्या इस मानी में बेकार गई अौर खामियाजा यह भुगतना पड़ा रहा है कि उस हत्या का जिन्न अाज तक उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है. इसलिए सांप्रदायिक ताकतों ने दूसरा मोर्चा खोला -  हिंदुत्व का संगठन ! एक माफीनामे से बंधे विनायक दामोदर सावरकर जब अंडमान की जेल से छूटे तो फिर न कभी अाजादी की किसी लड़ाई में शामिल हुए, न गुलामी को किसी दूसरे मोर्चे पर चुनौती दी. बस एक ही नारा था उनका : भारतीय समाज का हिंदूकरण करे, हिंदुअों का  फौजीकरण करो ! यह सावरकर से ही शुरू हुअा कि हर हिंदू प्रतीक को उभार कर, बाकी समाज के मुकाबले हिंदू समाज को अाक्रामक बनाया जाए. हिंदुत्व की इसी धारा को लालकृष्ण अाडवाणी सरीखे चतुर राजनीतिज्ञ ने पहचाना अौर अपनी सत्ता के लिए इसका इस्तेमाल किया. इसी राजनीतिक चालबाजी में वह रथयात्रा चली जिसने अाजादी के बाद का सबसे व्यापक सांप्रदायिक दंगा भड़काया अौर अंतत: वह रथ बाबरी मस्जिद के ध्वंस तक पहुंचा. हिंदुत्व वाले पहचान सके या नहीं, यह तो पता नहीं लेकिन पहचानने वालों ने तभी यह पहचाना था कि ध्वंस बाबरी मस्जिद का ही नहीं हुअा, राम का भी हुअा; अौर मस्जिद-मंदिर के उस संयुक्त मलबे में से जो सत्ता निकली वह भी टूटी हुई ही निकली. इसलिए तो प्रधानमंत्री बन कर भी अटलजी कभी अटल नहीं हो सके. 

उस ध्वंस में हिंदुत्व वालों का यह विश्वास भी धूल-धूसरित हुअा कि हिंदू समाज को उन्मत्त भीड़ में बदला जा सकता है. वे किसी हद तक यह सच्चाई पहचान सके कि वे जिसे हिंदू समाज कहते अौर मानते हैं, वह कुछ अलग ही रसायन से बना है. वह एक है जब तक अाप उसकी एका को किसी धािर्मक या उन्मादी चेहरे में बांधने की कोशिश नहीं करते हैं; जैसे ही अाप ऐसी कोई कोशिश करते हैं, वह खंड-खंड हो जाता है. हजारों सालों में सभ्यताअों-विश्वासों की लेन-देन से विकसित हुई यह वह जीवन-शैली है जो जीअो अौर जीने दो, रहो अौर रहने दो, पूजो अौर पूजने दो जैसी अास्था को जीवंत अास्था की तरह पालती है. 
सावरकर के हिंदुत्व के मलबे से एक नई राजनीति उभरी जिसमें हम विश्वनाथप्रताप सिंह को मंडल कमीशन की तलवार भांजते अौर खेत होते पाते हैं. यही दौर था जब बाबा साहेब को राजनीतिक मोहरे की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश सवर्ण राजनीति ने की अौर उन्हें मरणोपरांत भारत-रत्न से विभूषित किया गया. यहां यह सवाल निरर्थक है कि बाबा साहेब भारत-रत्न थे या नहीं; मौजूं सवाल यह है कि सवर्ण राजनीति क्या बाबा साहेब को हजम कर सकती है ? अाज जैसे-तैसे, जहां-तहां, पात्र-अपात्र सब जिस बाबा साहेब का नाम उछाल रहे हैं, वह इसी संभावना का खुला प्रयोग है. सिर्फ हिंदुत्व से निर्बाध सत्ता मिल नहीं सकती, यह देख लेने के बाद संघ परिवार ने अपनी रणनीति बदली अौर दलित राजनीति को हजम करने की योजना बनाई. नरेंद्र मोदी इसके नये मोहरे हैं. 

यही अहसास दूसरी तरफ भी हुअा. कांशीराम ने भी यह समझ लिया था कि दलित राजनीति केवल दलित समाज के भरोसे सत्ता तक पहुंच नहीं सकती है. मायावती ने भी इसका सीधा अनुभव किया कि बहुजन समाज को पार्टी के रूप में जमा करने की कोशिश ऐसी ताकत पैदा नहीं कर पाती है जिससे निर्बाध सत्ता हाथ अाती हो. उसने भी रणनीति बदली. हिंदुत्ववादी, मनुवादी, दलितवादी, अांबेडकरवादी सब मुलम्मा है, सच सत्ता है ! जिस रास्ते मिले अौर जिस रास्ते टिके, वही सच्चा रास्ता है, प्रभु राम का दिया प्रसाद है. अाज हम हिंदुत्ववादियों की जो अांबेडकर-भक्ति देख रहे हैं अौर दलितों का हिंदुत्व प्रेम देख रहे हैं, दोनों इस सच्चे अहसास में से पैदा हुए हैं कि साथ अाएंगे तभी सत्ता हाथ अाएगी. इसमें राम भी अौर अांबेडकर भी महज साधन है, साध्य तो सत्ता है. 

इसमें पिट कौन रहा है, विकृत कौन हो रहा है ? दोनों समाजों के वे लोग जिनके कंधों पर सत्ता की पालकी होती है अौर दिल में अपमान व असहायता का छूंछा क्रोध ! इसलिए इतनी उग्रता है, इतनी हिंसा है, इतनी घृणा है. ये दोनों उपवास, राहुल गांधी अौर नरेंद्र मोदी जिनकी अगुवाई कर रहे थे, समान रूप से नकली थे; ये दोनों बलात्कार, जो कठुअा अौर उन्नाव में हुए समान रूप से सत्ता के मद में चूर राजनीति का प्रतिफल थे. सवर्ण व दलित राजनीति की यह जुगलबंदी अभी ऐसे कई नजारे दिखा सकती है. अाज २६ अलीपुर रोड के बाबा साहेब किसी के लिए किसी मतलब के नहीं हैं, क्योंकि वे तो यही कह रहे हैं अाज भी कि किसी दलित नेता को दलितों से प्रेम नहीं है ! 

मैं गांधी अौर अांबेडकर दोनों से अनुमति ले कर, इस वक्तव्य में थोड़ा फर्क करता हूं : किसी राजनीतिज्ञ को इंसानों से प्रेम नहीं है ! ( 13.04.2018)  


Monday 9 April 2018

इतिहास बनाने की वर्जिश



यह नायाब शोध इतिहास के पन्नों में कहीं दबी-ढकी रह गई थी कि अमरशहीद राजगुरु का राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से नाता था. वे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के स्वयंसेवक थे मतलब यह कि वे संघ की शाखा में उपस्थित होते रहते थे. यह गहरी शोध नरेंद्र सहगल ने की है. सहगल साहब के बारे में तो अाप जानते ही होंगे कि वे ख्यातिप्राप्त पत्रकार ( ! ) हैं तथा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रचारक शोधकर्ता हैं. इन दिनों हिंदुत्व के बगीचे में ऐसी प्रतिभाअों की जरखेज फसल पैदा हो रही है अौर खूब काटी जा रही है. 

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की खासियत ही यह है कि अाप प्रतिबद्धता के साथ इससे जुड़ते हैं तो अाप एक साथ मौलिक चिंतक, इतिहासकार, शोधकर्ता अौर राष्ट्रवादी बन जाते हैं. तो नरेंद्र सहगल साहब के व्यक्तित्व के भी इतने अायाम हैं. उन्होंने अपने ताजा शोधग्रंथ में लिखा है कि १९३१ में जिन तीन अमर शहीदों, राजगुरु, सुखदेव व भगत सिंह को फांसी दी गई थी, उनमें से राजगुरु राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के स्वयंसेवक थे. इतना गहरा शोध मैंने पूरे कौतूहल से पढ़ा अौर फिर मुझे खेद हुअा कि शोधकर्ता ने इतिहास में थोड़ी अौर गहरी डुबकी लगाई होती तो उसे यह जरूर पता चलता कि सिर्फ राजगुरु नहीं बल्कि तीनों ही शहीद राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के स्वंयसेवक थे. जब तालाब भी अपना हो, गोताखोर भी अाप ही हों अौर मोती चुनने की ठेकेदारी भी अपनी ही कंपनी की हो तब अाप जो न निकाल लाएं अौर जिसे जो न घोषित कर दें! 

यहूदी अाइंस्टाइन जब जर्मनी से निकल अाए अौर अमरीका में जा बसे, अौर सारी दुनिया उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा से चकाचौंध होने लगी अौर उन्हें नोबल पुरस्कार मिला तो किसी ने उन्हें बताया : अब जर्मनी कह रहा है कि अाप तो उसके हैं ! 

अाइंस्टाइन ने हंसते हुए कहा : हां, ठीक ही है ! अाज जर्मनी मुझे अपना बताता है, अमरीका भी कहता है कि मैं उसका हूं. लेकिन अगर यह सारा सम्मान-सफलता न हुई होती  तो क्या होता जानते हो ? जर्मनी कहता कि वह यहूदी था अौर अमरीका कहता था कि वह शरणार्थी था ! मेरा इतिहास नहीं, मेरा वर्तमान मेरी पहचान बना कर सब उसका श्रेय लेना चाहते हैं. अाइंस्टाइन हंस दिए लेकिन वह हंसी हमारी करुण अांतरिक दरिद्रता के बारे में थी. जिनके इतिहास नहीं होते वे वर्तमान से ऐसी ही भीख मांगते चलते हैं. इसलिए कहना पड़ा सत्यशील अौर हर्षवर्धन राजगुरु को कि उनके दादा अमरशहीद राजगुरु का ऐसा राजनीतिक इस्तेमाल कोई न करे,क्योंकि ऐसा कोई अाधार नहीं है कि जिससे जोड़ कर यह बात कही जा सके कि वे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से संबंधित थे. अब कहा जा रहा है कि भूमिगत दौर में कभी राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के संस्थापक हेडगवार साहब ने राजगुरु को ठहराने में मदद की थी, कोई कह रहा है कि अरुणाअासफ अलीजी को राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के हंसराज गुप्ता ने अपने घर में छुपाया था. हुअा होगा लेकिन इससे कहां अौर कैसे साबित करेंगे अाप कि राजगुरु या अरुणा संघ परिवार की थीं ? भगत सिंह तो एक लंबे दौर तक कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी के अाश्रय रहे अौर उनकी पहचान पोशीदा रखने के लिए विद्यार्थीजी ने उन्हें अपने ‘प्रताप’ में नौकरी भी दे रखी थी. क्या इस अाधार पर कभी कोई कहने की जुर्रत कर सकता है कि भगत सिंह कांग्रेस के या गांधी के अादमी थे ? यह कायर कोशिश है.  
  
ऐसी कोशिश नई नहीं है, पहली भी नहीं है. इतिहास खंगालें तो अाप देखेंगे कि भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में जिनकी भूमिका कहीं भी दर्ज नहीं है या विपरीत है, वे सभी इस कोशिश में रहे हैं कि उस संग्राम के किसी-न-किसी प्रतीकपुरुष को अपना लें, अौर फिर इतिहास पर अपना दावा ठोंक दें. भारतीय वाम अौर दक्षिण दोनों यहां एक साथ कदमताल करते दिखाई देते हैं. दोनों ने अपने राजनीतिक रेगिस्तान में ऐसी फसलें लगाने की कोशिश की है जिनकी जड़ें वहां हैं ही नहीं. भगत सिंह-त्रयी को वामपंथी घोषित कर, उनको अपने साथ करने की कोशिश लंबी चली है. वह फसल लहलहा नहीं सकी, क्योंकि फलसफा एक चीज है अौर पार्टी दूसरी चीज है.  इसलिए भगत सिंह पचाए नहीं जा सके. फिर दक्षिणपंथी ताकतों को लगा कि जो काम पार्टी के कारण नहीं हुअा वह काम राष्ट्रउन्माद के नाम पर हो जाएगा. सो उसने इन सबको भगवा चादर पहनानी चाही. अब ये सभी देशप्रेमी थे इससे कौन इंकार कर सकता है, अौर देशप्रेम की होलसेल दूकान हमारे पास है तो इन्हें हमारी दूकान में ही होना चाहिए. लेकिन जब माल दूकान से बड़ा हो तब अाप क्या करेंगे ? या तो दूकान बदलनी पड़ेगी या तो माल ! इनके साथ यही दिक्कत हो रही है. 

सुभाषचंद्र बोस के साथ भी यह खेल खूब खेला गया. सुभाष बाबू के साथ परेशानी तो अौर भी ज्यादा थी कि उनका अपना एक राजनीतिक दल था कि जिसे उनके जाने के बाद भी अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए उन्हें जिंदा बनाए रखना जरूरी था. इसलिए सुभाष बाबू के कितने अवतार गढ़े गये अौर कितनी तरह से गांधी, नेहरू अादि सबको चालबाज साबित करने की कोशिशें हुईं. लेकिन इतिहास का कमाल यह है कि वह किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं होता है. वह सही मानी में तटस्थ होता है, समझिए कि अाईने की तरह ! जैसी सूरत ऊपर वाले ने दी है, अाईने में वही अौर वैसी ही दिखाई देती है. इतिहास किसी के एवज में न तो काम करता है, न दर्ज करता है. वहां तो बलिदान भी खुद ही देना पड़ता है अौर बलि का बकरा भी खुद ही चुनना पड़ता है. यह अकारण नहीं है कि बंगाल में जितने सशस्त्र क्रांतिकारी पैदा हुए, उतने ही या कि उससे कम मुखबिर पैदा नहीं हुए. अाज अांबेडकर को इतना अौर इस तरह घिसा जा रहा है कि उनकी सारी चमक छूट जाए अौर अांबेडकर के साथ अौर अांबेडकर वालों के साथ अासानी यह है कि इन्हें सत्ता की छांव में अासानी से बिठाया जा सकता है. अाप देख रहे हैं न कि सारे दलित राजनीतिज्ञ अौर प्रधानमंत्री इसी खेल में तो लगे हैं. 

नकली गांधी कम हुए हैं क्या ! यह तो कहिए कि गांधी की अपनी तपिश ही ऐसी है कि नकली उसमें होम हो जाता है अन्यथा लोगों ने कोई कमी तो छोड़ी नहीं थी ! मूर्ति, मंदिर, सरकारी दफ्तर, प्रात:स्मरणीय, सत्याग्रह, उपवास, चरखा, गाय, राजघाट जैसे-जैसे न मालूम कितने हथियार इस्तेमाल किए गये लेकिन यह अादमी सच में कब्र में से अावाज लगा कर इन सारे चक्रव्यूहों से बाहर अाता रहा है. 


दिक्कत हिंदुत्व वालों की यह है कि उनके पास स्वतंत्रता, समता अौर सामाजिक न्याय का इतिहास नहीं है. इसलिए उनके पास कोई नायक नहीं हैं. वे यहां-वहां हाथ मारते तो हैं लेकिन जो है नहीं वह मिलेगा कहां से ? इन्हें पता नहीं है कि इतिहास मिलता नहीं है जैसे किन्हीं अवांतर कारणों से कुर्सी मिल जाती है. इतिहास तो बनाना पड़ता है. लंबी कोशिशों के बाद यह जो सत्ता मिली है, इतिहास बनाने में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है बशर्ते कि अापके पास दृष्टि हो. लेकिन अाप देखिए कि पिछले चार सालों से एक ही खेल चल रहा है कि दूसरों के नारे छीनो, नायक छीनो, भव्यतर समारोह करो अौर एक व्यक्ति को स्थापित करो!  यह तो अपना पुराना रेगिस्तान ही बड़ा करने का काम हुअा है न ! सत्ता की तिकड़में, चुनावी लड़ाई अौर जुमलेबाजी - अगर अापके तरकश में ये तीन ही तीर हैं तब तो इतिहास बनने से रहा ! ( 6.04.2018)  

Wednesday 4 April 2018

रामनवमी का भारतबंद


      
कवि ने गाया था : राम तुम्हारा चरित् स्वंय ही काव्य है / कोई भी कवि बन जाए सहज संभाव्य है ! हम छुटभैय्यों की राम-राजनीति अाल्हादित है : राम तुम्हारा नाम ही करतार है / जब भी रगड़ो अाग-ही-अाग है ! तो अाग धधक रही है. अौर जैसे जहर ही जहर को काटता है कुछ उसी तर्ज पर दलितों ने अाग जला रखी है. बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश में रामनवमी के जुलूस से अाग भड़काई गई अौर फिर तर्क गढ़ा गया कि हिंदू परंपराअों का अपमान अौर उन पर प्रतिबंध हमें कुबूल नहीं है; कुछ उसी तरह एससी/एसटी एक्ट की कुछ धाराअों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जांच के दायरे में लाने को अपना व संविधान का अपमान घोषित कर दलित संगठनों  ने भारत बंद की अावाज अाग में बदल दी. टीवी पर यदि भरोसा किया जाए तो कम-से-कम १२ लोगों की जान गई. करोड़ों की संपत्ति का नुकसान हुअा. कभी इस बात की फिक्र हुअा करती थी कि सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान न हो; अब नहीं होती है, क्योंकि तब यह देश हमारा हुअा करता था, अब यह देश किसी का नहीं है. अब जातियां हैं, संप्रदाय हैं, नेता अौर पार्टियां हैं. तब ईश्वर-भक्त होने की साधना में लोग सारा जीवन होम कर डालते थे अौर फिर इस सत्य  को उपलब्ध होते थे कि मो सम कौन कुटिल खलकामी. अब रातोरात लोग मोदीभक्त बन भी जाते हैं अौर अपने इस योनि परिवर्तन का गुणगान भी करते हैं, क्योंकि कुल बात इतनी ही बची है कि अपनी नहीं, किसी दूसरे की जान जाए या माल, अपनी गोटी हो लाल !

अब कोई यह सवाल नहीं पूछता है कि रामनवमी का जुलूस उन रास्तों से गुजरे ही क्यों जिन पर रहने वालों को उससे अापत्ति है ? यह सवाल अायोजकों को खुद से पूछना चाहिए; अायोजकों से प्रशासन को पूछना चाहिए, अौर प्रशासन से सरकार को पूछना चाहिए. अौर इससे भी भला तो यह हो कि पहले ही सरकार ऐसा अादेश जारी करे कि विवादास्पद रास्तों से कोई भी, कैसा भी जुलूस नहीं ले जाया जा सकता है. या फिर बात ऐसी भी हो सकती है कि समाज के सयाने लोग साथ बैठ कर एक राय बना लें कि जुलूस कब, कैसे अौर किधर से जाएगा अौर जब, जैसे अौर जिधर से जाएगा वहां की शांति बनाए रखने की जिम्मेवारी नागरिकों की मिली-जुली समिति उठाएगी जिसकी मदद में प्रशासन सन्नद्ध रहेगा. इन दोनों में से कोई व्यवस्था न बने तो वही होगा, जो हुअा ! लेकिन लोगों को उन्माद से भरा जाए, प्रशासन को पंगु बना दिया जाए अौर सरकार को जो सब करना चाहिए, उसे छोड़ कर, सरकार वह सब करे जो उसे नहीं करना चाहिए, तो नतीजा वही होगा जो हुअा. मतलब जो हुअा वही इनकी रामनवमी है ! 

ऐसा लगता है कि हमारा संसदीय लोकतंत्र अब सबको भारी पड़ रहा है. विधायिका अौर कार्यपालिका ने तो कब के हाथ खड़े कर दिए हैं. बची थी न्यायपालिका, तो वह अपना कार्टून खुद ही बनाने में लगी है. कोई पूछे कि सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यों वाली संवैधानिक पीठ ने जो फैसला किया था, दो सदस्यों वाली सामान्य पीठ उसमें कैसे तरमीम कर सकती है ? अव्वल तो ऐसा होना नहीं चाहिए, लेकिन ऐसी नौबत अा ही जाए तो पूरी संविधान पीठ का गठन कर, मामले को फिर से जांच लेना क्या अासान रास्ता नहीं था ? इसी काम के लिए तो हम सर्वोच्च न्यायालय जैसा सफेद हाथी पीठ पर लादे चलते हैं ! न्यायमूर्ति गोयल अौर ललित को नहीं लगा कि ऐसे संवेदनशील मामले को छेड़ने से पहले, उन्हें कानूनी ही नहीं, सामाजिक तैयारी भी कर लेनी चाहिए?  सर्वोच्च न्यायाधीश दीपक मिश्रा को यह क्यों जरूरी नहीं लगा कि वे जिस पीठ को यह मामला सौंप रहे हैं, उसे यह समझ भी सौंप दें कि हमारा सामाजिक-राजनीतिक स्वास्थ्य कैसा है ? न्याय की अपनी स्वतंत्र हैसियत तो होती है लेकिन उसका सामाजिक संदर्भ भी बहुत अहम होता है बल्कि मैं तो कहूंगा कि न्याय का मतलब ही सामाजिक संदर्भ को समझना होता है. न्याय सुनने की कम, दीखने की चीज ज्यादा होती है ! अौर हम जानते हैं कि हमारे समाज का सत्तालोलुप वर्ग समाज को खंड-खंड कर, अपने वोटबैंक में बदलने अौर उसे येनकेनप्रकारेण अपनी मुट्ठी में रखने में लगा है. यह सामूहिक राष्ट्रद्रोही धूर्तता है. न्यायकर्ता की नजर में यह सत्य न हो तो न्याय किसका अौर किससे ? 

अाजादी के ७० सालों में हमारा इतना राजनीतिक विकास हुअा है कि दलितों के नाम पर राज में हिस्सा बंटाने कुछ दलित अा पहुंचे हैं लेकिन दलित समाज में शिरकत करने वाले कितने हैं ? दलितों में खोजें कि सवर्णों में, सामाजिक भागीदारी करने वाले तो अाज भी खोजे नहीं मिलते ! दलितों का राजनीतिक इस्तेमाल करने वालों की लाइन में अाप भी हैं, अौर अाप भी हैं अौर हम भी हैं लेकिन दलितों की राजनीति खड़ी करने वालों में भी हम कहीं हैं क्या ? सब उनका इस्तेमाल करने में लगे हैं. फिर किसी एकाध मामले के अाधार पर, जहां दलित वर्ग के किसी ने, किसी सवर्ण को गलत तरीके से फंसाया हो, क्या न्यायपालिका अपने फैसले का अाधार बदल देगी ? यह कहीं से अाते इशारे पर किया गया फैसला तो नहीं है ? अगर ऐसा नहीं है तो सरकार ने पुनर्विचार याचिका दाखिल करने में इतनी देर क्यों लगाई? क्या इसलिए कि वह भांपने में लगी थी कि उसके घटक दल कैसी प्रतिक्रिया देते हैं, अौर समाज  का सवर्ण तबका उसके समर्थन में कितना अागे अा कर अाग लगा सकता है ? जब उसने देखा कि जिन घटक दलों की अात्मा उसने सत्ता-सुख से कुचल रखी है, वह कुलबुलाई है, भविष्य की राजनीति के मद्देनजर वह इस फैसले में शिरकत से इंकार कर सकती है; जब उसने देखा कि दलित भीड़ का उन्माद हाथ से बाहर जा रहा है, तब लाचार वह अदालत के दरवाजे याचिका ले कर पहुंची. उसे पता है कि चुनाव वोट का खेल है अौर वोट मतदाता के हाथ में है अौर मतदाता को हमने भीड़ में बदल दिया है, अौर वह भीड़ हमारे हाथ से निकल सकती है, तो उसने अपना रुख बदला. लेकिन यह भी ध्यान रखने की बात है कि न रामनवमी का उपद्रव सारे हिंदू समाज का प्रतिनिधित्व करता है, न भारत बंद की अागजनी सारे दलित समाज का. सबके अपने-अपने गुंडा तत्व हैं अौर सबके अपने-अपने पालक हैं. सत्ता की ऐसी गर्हित चालें देश को निचोड़ कर, अपने लिए सत्ता की सुरा बनाती है. 

सोचना दलित संगठनों को भी है. क्या अारक्षण की बैसाखी अब दलितों की दोहरी पिटाई नहीं कर रही है? कोई है कि जो बीच में ही अारक्षण से मिलने वाला लाभ लपक ले रहा है,  ठीक वैसे ही जैसे केंद्रित विकास  का सारा लाभ वंचितों तक पहुंचने से पहले ही कोई लपक ले रहा है. अारक्षण की बैसाखी का कलंक अौर छूंछा अारक्षण दोनों का ठीकरा सामान्य दलित के सर फोड़ा जा रहा है. तो जैसे यह जरूरी हो गया है कि व्यापक समाज के संदर्भ में इस बिचौलिये को रास्ते से हटाने का कोई रास्ता खोजा जाए वैसे ही यह भी जरूरी हो गया है कि अारक्षण को निहित स्वार्थों से मुक्त किया जाए. यह तभी संभव होगा अौर न्यायसंगत भी होगा जब इसकी मांग ले कर दलित सड़कों पर उतरेंगे. अौर मैं मानता हूं कि एक छोटे-से वर्ग को छोड़ कर, जिसे  हमारी अदालत ने मलाईदार वर्ग कहा है, पूरा भारतीय समाज दलित है. तो रामनवमी का भारत बंद हो - शांतिपूर्ण, अनुशासित अौर निर्णायक ! ( 4.4.2018)