Monday 9 November 2020

बाइडन के बाद

 सभी राहत की सांस ले रहे हैं - जो बाइडन भी, कमला हैरिस भी, सारा अमरीका भी; भारत में हम सब भी ! राहत इस बात की कि अमरीका में अब वह सब नहीं होगा जो पिछले चार सालों से हो रहा था - जिसने अमरीका को दुनिया भर में जोकर भी बना दिया था अौर किसी हद तक वितृष्णा का पात्र भी. अगर बाइडन इतना भी न कर सके कि अमरीका की धरती से वे सारे नक्श-निशान मिटा दें कि जो ट्रंप की याद दिलाते हैं तो वे अमरीका के लालू प्रसाद यादव ही कहलाएंगे जो असीम संभावनाअों के दरवाजे पर खड़े थे लेकिन असीम विफलता के प्रतीक बन गये. 

      77 साल की सबसे बड़ी उम्र में अमरीका के राष्ट्रपति का पद हासिल करने वाले बाइडन को यह भूलना नहीं चाहिए कि उनकी कुर्सी के नीचे  उन 2.30 लाख अमरीकों के शव दफन हैं जो ट्रंप के कोविड के शहीद हुए. यह संख्या बाइडन-काल में बढ़ेगी. इसलिए मास्कसुरक्षित दूरी अौर सस्ती-से-सस्ती स्वास्थ्य-सेवा बाइडन-काल की पहचान कैसे बनेयह पहली चुनौती है. इसके लिए जरूरी होगा कि बाइडन अमरीकी समाज का विश्वास जीतें. यह अासान नहीं है. अगर करीब-करीब अाधा अमरीका बाइडन के साथ है तो अाधा अमरीका वह भी तो है जो ट्रंप के साथ है. लेकिन यह भी सच हैअौर यह सच बाइडन को पता है कि ट्रंप के साथ अमरीका का भरोसा कमउन्माद अधिक था. उस उन्मादित जमात में यदि बाइडन भरोसा जगा सकेंगे तो सस्ती स्वास्थ्य-सेवा के साथ जुड़ कर अमरीका मास्कसुरक्षित दूरी भी व्यापक तौर पर अपना लेगाअौर तब तक कोविड का वैक्सीन भी परिस्थिति को संभालने के लिए मैदान में होगा. तो पहली चुनौती घर में ही है - खाई को पाटना ! 


      अोबामाकेयर की पुनर्जीवित करना लोगों तक सस्ती स्वास्थ्य-सेवा पहुंचाने का रास्ता है. अमरीका को यह भरोसा दिलाना कि अोबामाकेयर अश्वेतों का ही नहींसभी अल्पसाधनों वालों का मजबूत सहारा हैएक चुनौती है. बाइडन के लिए यह यह अपेक्षाकृत अासान होगा क्योंकि उनके साथ कमला हैरिस खड़ी होंगी. ट्रंप की तुलना में अपनी उदारवादी छवि बनाना अासान थाउदारवादी नीतियों का निर्धारण करना अौर उन पर मजबूती से अमल करना गहरी व व्यापक सहमति के बिना संभव नहीं होगा. महिलाअोंअल्पसंख्यकोंउम्रदराज व युवा अमरीकियोंट्रंप को ले कर असमंजस में पड़े मतदाताअों अौर अंतत: अपनी पार्टी का दामन छोड़ने वाले रिपब्लिकन मतदाताअों ने बाइडन को विजेता बनाया. हुअा तो यह भी कि चुनाव परिणाम को अस्वीकार करने की ट्रंप की निर्लज्ज बचकानी बयानबाजी का उनकी पार्टी के सांसद भी अालोचना करने लगे. यह वह अाधार है जिस पर बाइडन को भरोसे की नींव डालनी है. 


           लेकिन इतना काफी नहीं है. अमरीका को अब यह अंतिम तौर पर समझने की जरूरत है कि वह न तो दुनिया का चौकीदार हैन थानेदार ! संसार में कहीं भी बेबुनियाद तर्कों से युद्ध छेड़नेदूसरों के हर फटे में टांग डालने अौर दूसरों की स्वायत्तता का सम्मान न करने की अमरीकी नीति उसे कमजोर ही नहीं बना रही है बल्कि उसकी अंतरराष्ट्रीय किरकिरी भी करवा रही है. अोबामा के खाते में ही कम-से-कम छह युद्ध दर्ज हैं जबकि ट्रंप ने अपनी बतकही से अमरीका की जितनी भी किरकिरी करवाई होउन्होंने कहीं युद्ध नहीं बरपाया. अोबामा-काल के इन युद्धों से बाइडन खुद को अलग नहीं कर सकते. बाइडन को अपनी अौर अमरीका की इस छवि को तोड़ना पड़ेगा. 


            मैं उस अादर्श विश्व की बात नहीं कर रहा हूं कि जिसमें युद्ध होंगे ही नहीं बल्कि उस संसार की बात कर रहा हूं कि जिसने अापसी सहमति से युद्ध की अनुमति देने के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ नाम की एक संस्था बना रखी है. अमरीका अपनी सुविधा अौर शेखी के लिए उसका इस तरह इस्तेमाल करता अाया है कि दुनिया के दूसरे देश भी उसे पांवपोंछ की तरह बरतने लगे हैं. बाइडन को अमरीका की इस छवि को भी तोड़ना होगाअौर इसमें कोई शक ही नहीं है कि अमरीका जिस दिन से संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनुशासन को अपनी मर्यादा के रूप में स्वीकार कर लेगादुनिया के दूसरे देशों के लिए उस लक्ष्मण-रेखा को पार करना मुश्किल हो जाएगा. 


            बाइडन को एक द्रविडप्रणायाम भारत के संदर्भ में भी करना होगा. वे अौर डेमोक्रेटिक पार्टी भारत से अच्छे रिश्तों की बात करती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें बधाई देते हुए रिश्तों को अौर मजबूत बनाने की बात की है. लेकिन बाइडन को दिक्कत यह अाएगी कि जब भी भारत सरकार भारतीय संविधान की मर्यादाअों को अपनी बेड़ियां समझेगी अौर उन्हें कुचल कर अागे जाएगी तब उनकी सरकार क्या करेगी भारत के अांतरिक मामलों में दखलंदाजी कोई भी भारतीय स्वीकार नहीं करेगा लेकिन अांतरिक मामलों का तर्क दे कर मानवीय अधिकारों व लोकतांत्रिक मर्यादाअों का हनन भी कैसे पचाया जा सकेगा अोबामा को बराक’ बना कर इस सरकार ने यही खेल करना चाहा था अौर अोबामा इस जाल में किसी हद तक फंसे भी थे. अाते-जाते मौकों पर उन्होंने कभी इस सरकार कर रवैये पर थोड़ी तेजाब डाली हो तो डाली होअधिकांशत: वे बच निकलने में ही लगे रहे. फिर तो हाउदी मोदी’ अौर जश्न-ए-ट्रंप’ का दौर अा गया अौर सब कुछ धूलधूसरित हो गया. बाइडन क्या करेंगे वे भारत के संदर्भ अाज से ही नट की तरह रस्सी पर चलना शुरू करेंगे तो कहीं कोई संतुलन साध सकेंगे. अपने संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई तो हमें ही लड़नी है. सवाल रह जाता है तो बस इतना कि इस लड़ाई की अनुगूंज विश्व बिरादरी में उठती है या नहींउठनी चाहिए या नहीं बाइडन को इसका जवाब देना है. वे ट्रंप नहीं बन सकते अौर अोबामा बनने का वक्त निकल गया है. 

                                                                        

यह तो अागाज भर है. रास्ता लंबा व कांटों से भरा है. ( 08.11.2020)

                                                                           

Tuesday 3 November 2020

यह फ्रांस का आंतरिक मामला है

    फ्रांस अभी लहूलुहान है. असीम शांति अौर प्यार के प्रतीक नोट्रडम चर्च के सामने की सड़क पर गिरा खून अभी भी ताजा है. वहां जिसकी गर्दन रेत दी गई अौर जिन मासूम लोगों की हत्या कर दी गईउन अपराधियों के गैंग को दबोचने में लगी फ्रांस की सरकार अौर प्रशासन को हमारा नैतिक समर्थन चाहिए. यह खुशी अौर संतोष की बात है कि भारत में भी अौर दुनिया भर में भी लोगों ने ऐसा समर्थन जाहिर किया है. कोई भी मुल्क जब अपने यहां की हिंसक वारदातों को संभालने व समेटने में लगा हो तब उसका मौन-मुखर समर्थन सभ्य राजनीतिक व्यवहार है. यह जरूर है कि इसे बारीकी से जांचने की जरूरत होती है कि कौन सा मामला अांतरिक हैसंकीर्ण राज्यवाद द्वारा बदला लेने की हिंसक काररवाई नहीं है अौर नागरिकों की न्यायपूर्ण अभिव्यक्ति का गला घोंटने की असभ्यता नहीं है. फ्रांस की अभी की काररवाई इसमें से किसी भी अारोप से जुड़ती नहीं है. 

          

        जिस फ्रांसीसी शिक्षक ने समाज विज्ञान की अपनी कक्षा में मुहम्मद साहब का वह कार्टून दिखला कर अपने विद्यार्थियों को अपना कोई मुद्दा समझाने की कोशिश की वह इतना अहमक तो नहीं ही रहा होगा कि जिसे यह भी नहीं मालूम होगा कि यह कार्टून फ्रांस में भी अौर दुनिया भर में कितने बबाल का कारण बन चुका है. फिर भी उसे जरूरी लगा कि अपना विषय पढ़ाने व स्पष्ट करने के लिए उसे इस कार्टून की जरूरत है तो इसका सीधा मतलब है कि फ्रांस में उस कार्टून पर कोई बंदिश नहीं लगी हुई है. मतलब उसने फ्रांस के किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया. उसने जो किया वह विद्या की उस जरूरत को पूरा करने के लिए किया जो उसे जरूरी मालूम दे रही थी. उसका गलाउसके ही एक मुसलमान शरणार्थी विद्यार्थी ने खुलेअामबीच सड़क पर काट दिया अौर वहां मौजूद लोगों ने उसे अल्लाह-हो-अकबर’ का उद्घोष करते सुना. ऐसा ही नोट्रडम चर्च के सामने की वारदात के वक्त भी हुअा. फ्रांस का कानून इसे अपराध मानता है अौर वह उसे इसकी कानूनसम्मत सजा दे तो इस पर हमें या किसी दूसरे को कैसे अापत्ति हो सकती है इसलिए सवाल मुहम्मद साहब का कार्टून बनाने व दिखाने का दिखाने का नहीं है.


         फ्रांस में किसी भी देवी-देवतापैगंबर-नबीअवतार-गुरू का कार्टून बनाने पर प्रतिबंध नहीं है. वहां कार्टूनों की प्रतिष्ठित पत्रिकाएं चलती हैं जो सबकीसभी तरह की संकीर्णताअों को अाड़े हाथ लेती हैं. फ्रांसीसी समाज की अपनी कुरीतियों अौर मूढ़ताअों परईसाइयों के अहमकाना रवैये पर सबसे अधिक कार्टून बनते व छपते हैं. अब तक कभी भी उन पर यह अारोप नहीं लगा कि वे कार्टून किसी के पक्षधर हैं या किसी के खिलाफ ! यह परंपरा व यह कानूनी छूट कि अाप किसी का भी कार्टून बना सकते हैंफ्रांस का निजी मामला है. हम उससे असहमत हो सकते हैं अौर उस असहमति को जाहिर भी कर सकते हैं. लेकिन उसके खिलाफ जुलूस निकालनाफ्रांसीसी राजदूतों की हत्या के लिए उकसानाराष्ट्रपति मैंक्रों की तस्वीर को पांवों तले कुचलनाफ्रांसीसी सामानों के बहिष्कार का अाह्वान करना - अौर यह सब सिर्फ इसलिए करना कि अाप मुसलमान हैंदुनिया भर के धार्मिक अल्पसंख्यकों की जिंदगी को शक के दायरे में लाना अौर खतरे में डालना है. यह संकीर्ण सांप्रदायिकता का सबसे पतनशील उदाहरण है. यह फ्रांस के अांतरिक मामले में शर्मनाक दखलंदाजी है अौर अपने देश की संवैधानिक उदारता का सबसे बेजा इस्तेमाल है.                                                                            


        यह अौर भी शर्मनाक व कायरता भरा काम है कि कुछ लोगों नेजो मुसलमान हैंइस कत्ल के समर्थन में बयान जारी किए. वे सामाजिक कार्यकर्ता हैंसाहित्य-संस्कृति से जुड़े हैंराजनीतिज्ञ हैं यह सब भुला दिया गया. याद रखा गया तो सिर्फ इतना कि वे मुसलमान हैं. फ्रांस में मुसलमानों को उनकी गैर-कानूनी हरकतों की सजा मिले तो भारत का मुसलमान सड़कों पर उतर कर अल्लाह-हो-अकबर’ का घोष करेअौर खून को जायज ठहराए अौर दूसरों का खून करने का अाह्वान करेतो प्रशासन का क्या दायित्व है भारत के प्रशासन का ही नहींदुनिया भर के प्रशासन का दायित्व है कि पूरी सख्ती से इसे दबाया जाए. इसे जड़ से ही कुचलने की जरूरत है. यह फ्रांस के अांतरिक मामले का सम्मान भी होगा अौर अपने लोगों को यह संदेश भी कि सड़कों पर कैसी भी एनार्की सह्य नहीं होगी. 


         सड़कों पर उतरने अौर लोगों को उतारने का संवैधानिक दायित्व यह है कि वह किसी दूसरे के अांतरिक मामले में हस्तक्षेप न होकिसी दूसरे के प्रति हिंसा को उकसाता न होवह धार्मिक संकीर्णता को बढ़ावा न देता हो अौर धार्मिक ध्रुवीकरण को प्रेरित न करता हो. ऐसा न हो तो सड़कों को सबकी अावाजाही के लिए खुला रखनासड़कों से चलते हुए कहीं भी पहुंच सकने की अाजादी बरकरार रखना अौर सड़कों पर लोगों की अावाज को बेरोक-टोक उठने देना सरकार व प्रशासन का दायित्व है. इस पर हमारे यहां भी अौर दुनिया में सभी जगहों पर नाजायज बंदिशें लगी हैं. लेकिन इन नाजायज बंदिशों का विरोध नाजायज जुलूसों द्वारा किया जा सकता है क्या बल्कि नाजायज जुलूस इन नाजायज बंदिशों का अौचित्य ही प्रमाणित करते हैं. हमारी सड़कों पर या संसार की किसी भी सड़क पर फ्रांस के खिलाफ निकला हर जुलूस ऐसा ही नाजायज जुलूस है जिसका जायज प्रतिरोध सरकार व समाज की जिम्मेवारी है. ( 1.11.2020)     

दिल ही तो है, नहीं संग-ओ-खिश्त …

            5 अगस्त को दिल इतनी जोर से धड़का था कि छलक पड़ा था ! कहते हैं न कि दिल की कटोरी गहरी होनी चाहिए ताकि न छलके, न दीखे. लेकिन कितनी गहरी ? बहुत शोर तो हम भी सुनते थे दिल का, जब चीरा तो कतरा-ए खूं निकला ! मतलब कितना गहरा ?  कतरा भर; अौर उस पर वार-पर- वार; घाव- पर- घाव ! छलकना ही था. 

      अब हिसाब करता हूं कि कितना तो जज्ब किया था. पूरे छह से ज्यादा सालों से एक दिन भी नहीं गुजरा जब कोई नया घाव न लगा हो. एक अभी भरा भी नहीं कि दूसरा - पहले से भी गहरा ! उसे भी संभाला नहीं कि तीसरा … ऐसा भी कैसे कर सकते हैं आप आपके हाथ में खंजर है तो कहीं दिल भी तो होगा उसने कुछ नहीं कहा सुनता हूंखंजर वाले हाथ दिल की नहीं सुनते. इतने बौने होते हैं कि उनकी पहुंच दिल तक होती ही नहीं है. दिल भी कमबख्त सबका धड़कता कहां है 


             5 अगस्त के बाद नींद कहीं खो गई. रात के अंधेरे में कहां-कहां नहीं भटकता रहा - उन सब निषिद्ध स्थानों तक गया जहां संस्कारी लोग जाते नहीं हैं. रात-रात भरजागे-अधजाने कितना गलीज रौंदाउनमें उतरापार करने की कोशिश की. कितने लोगों से मिला - अनायासनिष्प्रयोजन लेकिन कितने सवाल थे जो बहस में बदलते रहे अौर मैं फिर-फिर लौटता रहा. जानता था कि जवाब इनसे मिलेगा नहीं लेकिन जाता रहा बार-बार. हिंदुत्व की कोई परिभाषा तो बने ऐसी जिस पर मैं भी अौर वे भी टिक सकें लेकिन ऐसा कुछ नहीं था सिवा गालियों अौर अारोपों के. वे सब वही थे जो अाजादी से पहले के थे. कहीं कोई विकास नहींकोई नई सोच नहीं. सपनों में भी इतनी जड़ता तभी कोविड ने भी दबोच लिया. दिल को देखते डॉक्टर ठिठक गये. अब 


      नींद पर हमला अौर गहरा हो गया -  वह कहीं गुफा में समा गई ! मैं कहता था - नींद जिस कोण से अादमी में प्रवेश करती हैमेरा वह कोण ही खो गया है ! रात-रात भर जागना अौर अंधेरे में घूमना. अपने उस सफर में पहाड़ों पर भी गयातलहटियों में भी उतरा. जीवन के साधक तो वहीं मिलती हैं न ! लेकिन गांजाभांगचरस अादि से अागे की कोई साधना वहां मिली नहीं. जीवन को  भुलाने की ऐसी अंधाधुंधी मची है वहां  कि जीवन के सवालों के लिए अवकाश ही नहीं रह गया है. लेकिन  रोज रात यह सफर चलता रहा - नींद में नहींजाग्रत अवस्था मेंमैं जानता था कि मैं जागा हुअा हूं लेकिन मन व अवस्था दोनों मेरे बस में नहीं थे. रात भर में घर में घूमता रहता था अौर हर कोने से एक नई कहानी बनती थी जो खिंचती हुई कहां से कहां चली जाती थी. डरा भी. ऐसे सफर भय पैदा करते ही हैं. लेकिन कहीं मन में यह बात घर कर गई थी कि कहीं भी जाऊंगाबेटी खींच लाएगी. बेटियां ऐसी ही होती हैं क्या या इसी के लिए बनी होती हैं. मैं तो गवाही दूंगा. 


            कितनी-कितनी बार वहां भी गया जहां सुनता था कि धड़कते दिल वाले जाते नहीं हैं. वहां सभी थे अौर सबके दिल धड़क रहे थे. भीड़ बहुत थी लेकिन टकराहट नहीं थी. सबसे स्थिर गांधी ही थे. नीचे से गांधी-गांधी’ के अाते हाहाकार को वे असंपृक्त भाव से महादेव देसाई की अोर बढ़ा दे रहे थे. मैंने महादेव भाई से पूछा : आप इनका क्या करते हैं वे बोले : जहां से अाता हैवहीं वापस भेज देता हूं. बापू ने कहा है - सब वापस कर दो. अगर कहीं सेकिसी का कोई जवाब अाएगा तो मुझे बताना अब तक तो कोई अाया नहीं. रोज मेरा एक ही सवालरोज उनका एक ही जवाब. सबसे अलगचुप अौर कुछ पछताते-से जिन्ना साहब थे. उनके पास भी उनके पाकिस्तान से खबरें अाती थीं जिन्हें वे फाड़ फेंकते थे. मैंने टोका : अाप कुछ कहते क्यों नहीं हर बार एक ही जवाब : किससे कहूं ?  कौन सुनेगा ? … मैंने भी कहां किसी की सुनी थी ! जयप्रकाश सबसे उद्विग्न थे. बोलते नहीं थे लेकिन स्वगत कहते जाते थे : बापू ने चाहा था कि अाजादी के बाद की दौड़ में सब बराबरी से दौड़ें लेकिन तब कांग्रेस अपनी अगली कतार छोड़ने को तैयार ही नहीं थी. बापू के बाद मैंने दूसरा रास्ता खोजा. मैंने कांग्रेस की अगली कतार ही खत्म कर दी. मेरा कांग्रेस से कोई वैर नहीं थासवाल लोकतंत्र का था. अब सब बराबरी पर अा गए. मैंने चाहा कि लोकतंत्र की नई दौड़ में सब एक साथ दौड़ कर अपनी जगह बनाएं. लेकिन इन सबकी फिक्र कांग्रेस से अागे निकलने की नहींएक-दूसरे को नहीं दौड़ने देने की थी. सारा खेल बिगाड़ दिया इन निकम्मों ने ! अब फंसे हैं जिस गतालखाने में वहां से निकलने की कोई युक्ति नहीं है इनके पास. मैंने कहा : बताने वाला भी तो कोई नहीं है ! जयप्रकाश हर बार मुंह फेर लेते रहे : बताने वाला कोई नहीं होता हैखोजने वाला होना चाहिए. लेकिन अंधे क्या देखें अौर क्या खोजें !       शेख अब्दुल्ला विचलित ही मिले : कश्मीर का जो हाल किया हैक्या उसे कभी ये काबू कर पाएंगे कोई नहीं बोला भरी संसद में कि धारा 370 कश्मीर ने नहींभारत की संविधान सभा ने बनाई थी. मैं भी था बनाने वालों में. भारत की संविधान सभा नहीं चाहती तो यह धारा बनती क्याअौर तब कश्मीर भारत को मिलता क्या इन्होंने यह भी नहीं समझा कि भूगोल बनाने में पीढ़ियां निकल जाती हैंगंवाने में पल भर ही लगता है… मैं देखता था कि जवाहरलाल बगल से निकल जाते थेबोलते कुछ नहीं थे… यहां तक मैं पहुंचता कैसे था अब याद करता हूं तो उबकाई अाती है. रक्तपीव से सने रास्तों को पार करता जब मैं यहां पहुंचता था तो कहीं खड़े रहने की हालत नहीं होती थी. फिर अचानक दिल पर लगे घावों से रक्त बहने लगता था - दर्दविहीन रक्तस्राव ! मैं वैसे ही इन सबके बीच से गुजरता था. यह समझ पाता था कि इनमें से कोई मुझेमेरे रक्तस्राव को देखता नहीं था. सब स्वगत-सा वह सब बोलते थे जो मुझे टुकड़ों में याद रह आता है. कुछ भूल गया हूं फिर भी कड़ियां जोड़ पाता हूं. दोनों पांव जैसे बहतेबदबूदार परनाले में बदल जाते थे जिनसे मल बहता रहता था … 


            हर बार वैसे ही रास्तों को पार कर लौटता था - बहुत लंबा रास्ता ! अंधेरा भीबदबू भी अौर असंबद्धता भी! जितना घायल जाता थाउसे ज्यादा घायल लौटता था. विचलित अौर भ्रमित भी. बहुत भ्रम अौर बहुत भय से भरा यह अनुभव था. दिन ऐसी रोशनी से भरा होता था जिसमें चैन का एक पल भी नहीं होता था - घर को अासपास पा कर जो अाश्वस्ति होती थी वही भर ! कमजोरी इतनी कि बताने में ही दम निकल जाए. 


            दिन में रोज नये-नये जख्मों का इजाफा होता था. अौर उतने ही अांसू निकलते थे. घर के सभी अासपास न हों तो घबराहट से सिकुड़ जाता थाबाहर का कोई अाए तो परेशानी से दुबक जाता था. रोशनी राहत भी देती थी अौर डराती भी थी. रात का ख्याल भय से भर देता था कि फिर वही भटकाववहीं गंदगीवहीं बदबू अौर वही बेचैनी ! सोसाइटी के अाहाते में खड़ी हर गाड़ीअाधी रात कोजब मैं घूमता हुअा खिड़की से बाहर देखता थामेरे देखते ही चल देती थी. इतनी रात में यह कहां चली लेकिन गाड़ी ही नहीं चलती थीउसके साथ ही मैं भी चलता था अौर फिर बनती जाती थी एक कहानी- डरावनी-सीअनैतिक-सीअंतहीन सी ! थक कर बिस्तर बने सोफे के कोने में बैठ जाता था- अंधेरा भी साथ ही बैठ जाता था- नाचता हुअागहराता हुअा अौर नींद को झाड़ कर दूर भगाता हुअा. 

  

          अब यह सब याद कर रहा हूं तो पाता हूं कि यह घायल मन की भटकन तो थी हीघाव की पीड़ा भी थी. घाव जो लगातार लग रहे हैंबढ़ रहे हैं. ऐसा लगता है कि अब तो कोई जगह भी बाकी नहीं बची जहां जख्म जगह पा सकें. गालिब की जिद ही सहीमैं उसे पूरा तो रख ही दूं : दिल ही तो है/ नहीं सग-अो-खिश्त/ दर्द से भर न अाए क्यूं/ रोएंगे हम हजार बार/ कोई हमें रुलाए क्यों. ( 23.10.2020)  

Tuesday 28 July 2020

जनता की अदालत में

क्या 70 साल से ज्यादा पुराना भारतीय लोकतंत्र अापको कभी बाजार में बिकने के लिए इस तरह तैयार खड़ा मिला था जिस तरह अाज है यह हमारा नया लोकतंत्र है.  इसमें लोक कहीं है ही नहींअौर सारा तंत्र सरकार का माफिया गैंग बन कर काम कर रहा है - फिर वह चाहे चुनाव अायोग हो कि सीबीअाई कि कैग कि इडी कि इंकम टैक्स विभाग कि कहीं सुदूर में बना कोई पुलिस थाना. सभी जानते अौर मानते अौर करते हैं वही जो राजनीतिक अाका की मर्जी होती है. सांसदों-विधायकों की यह मंडी कहीं दबा-छुपा कर नहीं चलाई जा रही है. यह एकदम खुली हुई है. तब यह मध्यप्रदेश में लगाई गई थीअाज राजस्थान में लगी हुई है. 

 

      ऐसे अंधाधुंध लोकतांत्रिक माहौल में जब सर्वोच्च न्यायालय राजस्थान के संदर्भ में पूछता है कि क्या असंतोष व असहमति की अावाज को अनुशासनहीनता बता कर अाप कुचल देंगेतो जवाब कोई नहीं देता है लेकिन एक दबी हुई हंसी से माहौल भर उठता है. सवाल भी ऐसा ही है अौर ऐसे ही तेवर में पूछा भी गया है कि पहली कतार में बैठ लोग तालियां बजाएंबीच की कतार वाले चुप रहें तथा अंतिम कतार वाले पीठ फेर लें. न्याय की सबसे ऊंची कुर्सी परसबसे अागे बैठे महानुभावों को ऐसी चुप्पी किसने नहीं सुनी है ! चुप्पी अौर निरर्थक मुखरता के बीच भी एक अावाज होती है जिसे न्याय की बेअावाज अावाज कहते हैं. वह अावाज हमने अंतिम बार कब सुनी थी अापको याद अाए तो बताइएगा. 

 

      सरहदें केवल मुल्कों के बीच नहीं होती हैंजिम्मेवारियों के बीच भी होती हैं. भारतीय लोकतंत्र ऐसी ही सरहदों के मेल से बना वह खेल है जिसमें सभी अपने-अपने पाले में अाजाद हैं लेकिन लोकतंत्र के बड़े पाले में सबकी परस्पर निर्भरता है.  संविधान के रचनाकारों की कुशलता अौर दूरदृष्टि हमें हमेशा दंग कर जाती है जब हम पाते हैं कि एक दरवाजा बंद होते ही यह कई खिड़कियां खोल देता है. खुली खिड़कियों के अागे फिर नये दरवाजे खुलते हैं. अब यह दूसरी बात है कि खुली खिड़कियों की तरफ से देखते वक्त हम अांखें बंद रखें. 

 

      जब देश में ऐसी स्थितियां बन रही हों कि जिनका संविधान में जिक्र नहीं है तब अदालतों के कान खड़े हो जाने चाहिए. जनता अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा-पैसा जोड़ कर ऐसे ही वक्त के लिए तो न्यायपालिका को पालती है अन्यथा किसने किसकी जमीन हड़प लीकिसने किसकी कब हत्या कर दी इसके लिए तो हर अकबर के पास उनका अपना बीरबल हुअा ही करता था. लेकिन कोई बीरबल यह तो नहीं बता सकता है कि हमारी संविधानप्रदत्त नागरिकता जब कोई विधायिका छीनना चाहे तब हमें क्या करना चाहिए संविधान ने यह काम किसी बीरबल को नहींन्यायपालिका को सौंपा है. 

 

      कमाल यह है कि वह विधायिका उस संविधान के अादेश से बनी है जिस संविधान को हम नागरिकों ने मिल कर बनाया हैअौर यह विधायिका स्थाई भी नहीं है.  उसकी अायु अधिक-से-अधिक 5 साल तै कर दी गई है. इधर नागरिकता की खूबसूरती यह है कि कुछ अपवादों को छोड़ करयह न किसी की कृपा से मिलती हैन किसी के क्रोध से छीनी जा सकती है. उस नागरिकता को वह विधायिका छीनने की कोशिश कर रही है जिसको ऐसा करने का कोई अधिकार ही नहीं है. क्या न्यायपालिका को इसका संज्ञान नहीं लेना चाहिए न्याय की देवी की अांखों पर पट्टी बंधी होती है,  इस अवधारणा को समझ कर ही हमारे संविधान ने हमारी न्यायपालिका की अांखों पर से पट्टी हटा दी. हमारी न्यायपालिका न केवल बोल सकती है बल्कि देख भी सकती है. वह खुद संज्ञान लेकर विधायिका या कार्यपालिका या जन-जीवन के किसी भी घटक को कठघरे में बुला सकती हैबुलाती रही है. फिर उसने नागरिकता के सवाल पर सरकार को कठघरे में क्यों नहीं बुलाया जबकि सारा देश नागरिकों के अांदोलन से अाप्लावित हो रहा था 


      उसने अाज उस पुलिस को क्यों नहीं कठघरे में बुलाया जो नागरिकता के अांदोलन में लगे युवाअों को नाना प्रकार के अारोपों में घेरनेवाला फर्जी एफअाइअार जारी कर रही है उसने सरकार से क्यों नहीं पूछा कि भीमा कोरेगांव मामले में जिनकी गिरफ्तारियां हुई हैं उन्हें वैसी किसी धारा में कैसे गिरफ्तार किया गया है जिसमें बगैर सुनवाई के उन्हें देशद्रोही करार दिया गया है उन पर जो अारोप है वही इस बात की मांग करता है कि उसकी तुरंत सुनवाई होगहरी छानबीन हो अौर फिर संवैधानिक अाधार पर तै किया जाए कि उन्हें किस धारा में गिरफ्तार किया जा सकता है याकि उन्हें गिरफ्तार करने का अाधार बनता भी है क्या बल्कि मैंसंविधान बनाने वाले नागरिकों का एक प्रतिनिधिमैं न्यायपालिका से पूछना चाहता हूं कि विधायिका ऐसा कोई कानून बना ही कैसे सकी जिसकी जांच-परख अदालत नहीं कर सकती है ?  यह तो संविधान की व्यवस्था को ही धता बताना हुअा. ऐसा कानून बन गया अौर न्यायपालिका ने उसका संज्ञान भी नहीं लियाविधायिका को कठघरे में नहीं बुलाया तो यह वह संवैधानिक अपराध है जिसकी सजा न्यायपालिका को मिलनी चाहिए. न्यायपालिका भी नागरिकों द्वारा बनाए संविधान द्वारा बनाई वह व्यवस्था है जिसे संविधान के संरक्षण की जिम्मेवारी दी गई है अौर उसने शपथपूर्वक उस जिम्मेवारी को स्वीकार किया है. न्यायपालिका जब अपने कर्तव्य से च्युत होती है तब उसे भी जनता की अदालत के कठघरे में खड़ा होना पड़ता है. ( 27.07.2020)  

Thursday 25 June 2020

रंगभेदी गांधी ?

            मोहनदास करमचंद गांधी एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय अपराधी हैं जिसने अपने हर अपराध का साक्ष्य इकट्ठा कर हमें सौंप दिया है. उनके खिलाफ जब भी हमें कुछ कहना या लिखना होउनकी ही किताबों की दुनिया में सैर करें अौर उन पर हमला करने के लिए जरूरी गोला-बारूद ले अाएं. इसलिए हमें जबजहांजैसी जरूरत होती है तबतहांहम उसका इस्तेमाल करउन्हें सजा दे लेते हैं. सजा सुना दी जाती हैकभी दे भी दी जाती है अौर फिर ऐसा होता है कि हम खुद ही पूछते रह जाते हैं कि हमने यह क्या किया ! गांधी हर बार किसी व्यक्ति या भीड़ के गुस्से के शिकार होते हैंअौर वे ही हैं जो हमें बता गये हैं कि गुस्सा दूसरा कुछ नहींछोटी अवधि का पागलपन है.

 

       पागलपन के ऐसे ही दौर में वे कभी दलितों को तो कभी नारीवादियों को अपने खिलाफ लगते हैंजिन्होंने कभी स्वतंत्रता की लड़ाई नहीं लड़ी उन्हें वे साम्राज्यवादियों के दलाल लगते हैंजिन्होंने देश- विभाजन रोकने के लिए कभी चूं तक नहीं की वे गांधी को देश-विभाजन का अपराधी बताते हैंसांप्रदायिकता की बूटी खा-खा कर जिंदा रहने वाले उन्हें मुसलमानों का तुष्टिकरण करने वाला बताते हैंकभी उन्हें क्रूर पिता व अन्यायी पति बताया जाता है. वे जब तक जीवित थेतीर चलाने वालों की कमी नहीं थी. वे नहीं हैं तब भी तीरंदाज बाज नहीं अा रहे. 

 

            अभी-अभी ऐसा ही हुअा. अमरीकी अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लायड की दिन-दहाड़े हत्या हुई. हत्यारा एक श्वेत अमरीकी पुलिस अधिकारी था. अमरीकी पुलिस के हाथों प्रतिवर्ष 100 अश्वेत अमरीकी मारे जाते हैं. न सरकार चेतती हैन अदालत ! लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुअाक्योंकि अमरीका चेत गया ! कालों का जीवन भी मतलब रखता है’  जैसी चीख के साथ पूरा अमरीकी समाज खौल उठा - सभी प्रांतों केसभी रंग के अमरीकी सड़कों पर उतरे. यह चीख यूरोप के दूसरे देशों में भी फैल गई. बहुत दिनों के बाद रंगभेद के खिलाफ सभी रंगों की मिली-जुली इतनी बड़ी ललकार सुनाई दी ! गांधी होते तो ऐसे प्रतिवादों में सबसे अागे दिखाई देते … लेकिन यहां तो वे भू-लुंठित दिखाई दिए. प्रदर्शनकारियों ने उन सारे प्रतीकों पर हमला किया जिनने कभी रंगभेद को चालना दीगुलाम-प्रथा का व्यापार कियाकालों को कमतर माना . तो कई बुत तोड़े गयेकई पर कालिख पोती गई अौर सबको एक नाम दिया गया - रंगभेदी !!  वाशिंग्टन डीसी में लगाई गई गांधीजी की प्रतिमा भी निशाने पर अाई. उसका भी विद्रूप करउसे भी रंगभेदी की उपाधि दे कर उसका ऐसा हाल किया गया कि अमरीकी प्रशासन ने अपनी शर्म छिपाने के लिए उसे ढक दिया अौर यह अाश्वासन भी दिया कि इसे ठीक कर जल्दी ही पुनर्स्थापित कर दिया जाएगा. किसी के कैसे भी अपमान से गुरेज न करने वाले राष्ट्रपति ट्रंप ने इसे अपमानजनक कह कर मान कमाने की कोशिश की ! ऐसा ही इंग्लैंड में भी हुअा लेकिन थोड़े रहम के साथ ! लंदन के पार्लियामेंट स्क्वायर पर लगी गांधी-प्रतिमा पर प्रदर्शनकारियों ने स्प्रे’ कर दिया अौर उसकी सीढ़ियों पर रंगभेदी या रेसिस्ट’ लिख दिया. 

 

गांधी होते तो क्या करते या क्या कहते वे कहते : यह अाग जली है तो बुझनी नहीं चाहिए ! वे करते :  चलोमैं भी चलता हूंअौर वाशिंग्टन हो कि लंदन कि कहीं अौरवे हर प्रदर्शन के अागे-अागे चल पड़ते लेकिन अनशन करते हुए चलते ताकि इसके भीतर जो हिंसा व लूट अौर मनमानी हुई उससे अपनी असहमति भी जाहिर करें अौर उसके प्रति सबको सचेत भी करें. अौर जब वे ऐसा करते तब कोई अनजाना कह बैठता कि यह अादमी तो जन-संघर्ष विरोधी है! फिर अाप क्या करते इतिहास के पन्ने पलटते अौर उसमें गांधी को खोजतेजैसे मैं खोज रहा हूं कि गांधी रंगभेदी थे यह बात कहां से अाई है ?

 

             दक्षिण अफ्रीका पहुंचे बैरिस्टर गांधी ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति मोहग्रस्त हैं. उन्हें लगता है कि यह न्यायप्रिय अौर उदार साम्राज्य है जिसकी हम भी प्रजा हैं तो साम्राज्य पर अाया हरसंकट हमारा अपना संकट है अौर हमें उसमें साम्राज्य की मदद करनी चाहिए. इसलिए बैरिस्टर साहब बोअर-युद्ध में घायलों की तिमारदारी के लिए उतरते हैं. जब बोअर लड़ाई में अंग्रेजों की अपेक्षा से ज्यादा भारी पड़े तो अंग्रेजों के अनुरोध पर गांधी अपनी टोली ले कर युद्धभूमि में भी उतरे. जंगे-मैदान से घायलों को निकाल कर ले जाते रहे अौर कई मौकों पर 20-25 मील की दूरी पर स्थित चिकित्सा-केंद्र तक घायलों की डोली पहुंचाते रहे. इस प्रयास से उन्हें मिला क्या ? ‘अात्मकथामें गांधी लिखते हैं : “ मैं समझ पाया कि यह न्याय का नहींकालों को दबाने का युद्ध है. मेरे इस प्रयोग से  हिंदुस्तानी कौम अधिक संगठित हो गईमैं गिरमिटिया हिंदुस्तानियों के अधिक संपर्क में अाया. गोरों के व्यवहार में भी स्पष्ट परिवर्तन दिखाई दिया।” 

 

             दूसरा मौका अाया जुलू विद्रोह के वक्त. अब तक गांधी बहुत प्रौढ़ हो चुके थे. उन्होंने फिर इंडियन एंबुलेंस टोली का गठन किया. अारोप यह है कि यह गोरे इंग्लैंड के प्रति उनका पक्षपात था. लेकिन सच यह है कि उनका यह कदम बोअर-युद्द के अनुभवों में से निकला था. उन्होंने देख लिया था  कि श्वेत डॉक्टर व नर्सें व अस्पताल के दूसरे लोग काले घायलों को हाथ लगाने को तैयार नहीं थे. इसलिए गांधीजी ने इसकी तरफ ध्यान दिलाया अौर  इंडियन एंबुलेंस टोली को घायल जुलू विद्रोहियों की देख-भाल का ही काम मिला. गांधी-टोली ने जिस तरह घायल जुलुअों की सेवा की उसकी सर्वत्र प्रशंसा हुई अौर एक-दूसरे की भाषा न जानने वाले जुलुअों ने भी अपनी तरह से कृतज्ञता प्रकट की. यह इतिहास सामने रखो तो वे अारोप लगाते हैं कि गांधी जुलुअों के साथ मिल कर लड़े क्यों नहीं अब अाप दीवारों से बात तो नहीं कर सकते ! इन दो प्रसंगों को छोड़ दें तो गांधी का रंग के साथ कभी बदरंग रिश्ता रहा ही नहीं.

 

                        

      दक्षिण अफ्रीका की गांधी की लड़ाई रंगभेद के कारण नहीं थी. सवाल भारतीय नागरिकों के  अधिकार का था. 1857 में अाजादी की पहली संगठित कोशिश जो हमने कीउससे साम्राज्य के कान खड़े हो गए अौर रानी विक्टोरिया ने 1858 में अपने साम्राज्य की प्रजा के समान नागरिक अधिकारों की घोषणा’ की थी. गांधी को लगता था कि यह घोषणा साम्राज्य का असली चेहरा है जिस पर कई कारणों से धूल पड़ गई है. एक बार धूल उड़ी तो चेहरा चमक अाएगा. इसलिए वे इस बात पर जोर देते हैं कि रानी की घोषणा पर अमल हो. तब उनकी समझ थी कि रंगभेद रास्ते में पड़ा एक रोड़ा है जो रानी विक्टोरिया की घोषणा पर अमल की अांधी में खुद-ब-खुद उड़ जाएगा. भारतीयों की समस्याएं अलहदा थीइसलिए अांदोलन भी अलहदा था. कालों को अांदोलन में साथ लेने का वहां कोई संदर्भ ही नहीं था. लेकिन गांधीजी अफ्रीकी लोगों से अपरिचित थे याकि उनकी समस्याअों से अनभिज्ञ थेयह अत्यंत गलत धारणा है. 

 

            1893 में जब मोहनदास करमचंद गांधी नटाल बंदरगाह पर उतरे थे उनकी उम्र 24 साल अभी पूरी ही हुई थीअौर 1914 मेंजब वे अपना बोरिया-बिस्तर बांध कर भारत लौट रहे थे तब उनकी उम्र  45 छूने पर थी. इस बीच के 21 साल बीते उनके दक्षिण अफ्रीका में. ये 21 साल बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी के 'कर्मवीर गांधी’ बनने के भी वर्ष हैं अौर बिखरे-सोये पड़े भारतीय-एशियाई समुदाय को लड़ने वाली जमात में बदलने के भी साल हैंअौर यह भी हम न भूलें कि यह मानवीय इतिहास में लड़ाई के रंग-ढंग को भी बदलने के साल भी हैं. बनने-बनाने का यह दौर ऐसा चला कि 1948 में उनकी हत्या के बाद जो श्रद्धांजलियां अाईं उनमें एक नाइजीरिया-कैमरून की तरफ से भी थी जिसमें कहा गया था कि “ संसार के सारे दलितों-वंचितों की स्वतंत्रता की मशाल का वाहक नहीं रहा !” यह अश्वेतों-अफ्रीकियों के दिल में प्रवेश किए बिना तो संभव नहीं हुअा होगा ! 

 

            बहुत पहले से लेकिन मुख्तसर देखें तो 1894 में इंडियन अोपीनियन’ में गांधीजी का वह लेख मिलता है जो अफ्रीकी लोगों के समान मताधिकार की पैरवी करता है. 1909-10 में वे दक्षिण अफ्रीका के संविधान की इसी अाधार पर अालोचना करते हैं कि यह संविधान अपने अफ्रीकी नागरिकों के प्रति भेदभाव करता है.  1910 में ही हम दक्षिण अफ्रीका में उस गांधी से मिलते हैं कि जो अचानक ही निर्णय करता है कि अब से वह रेल के तीसरे दर्जे में ही सफर करेगा. ‘ यह क्या हुअा ?’ किसी ने पूछा तो जवाब मिला: ‘ तीसरे दर्जे में सफर करने की कैसी भयानक स्थितियां हैंउनका विवरण पढ़-पढ़ कर मैं तो सिहर जाता हूं. मैंने सोचा कि दूसरा कुछ नहीं कर सकता हूं तो कम-से-कम उस तकलीफ में हिस्सेदारी तो निभाऊं !’ तो हम सब तीसरे दर्जे में बैठे गांधीजी को भारत में खोजते हैं जबकि वे दक्षिण अफ्रीका में हीअफ्रीकियों के साथ एकरूप होने के लिएउनके डब्बे में जो जा बैठे तो फिर वहां से उठे ही नहीं. अौर तकलीफ में हिस्सेदारी’ का सिद्धांत भी वहीं बना. हम पाते हैं कि कोई श्वेत दक्षिण अफ्रीकी यदि अश्वेत अफ्रीकियों के बारे में उदारता दिखाता हैउनकी पक्षधरता करता है तो गांधीजी उसकी प्रशंसा करते हैंउसे समाज के सामने लाते हैं. 18 मई 1908 को जोहानिसबर्ग की एक सभा में गांधीजी भावी दक्षिण अफ्रीका की एक तस्वीर खीचते हैं : “ हम सभी जातियों - रेसेज- के लोग मिल कर यहां एक ऐसी सभ्यता का निर्माण करेंगे जैसी दुनिया ने अाज तक देखी नहीं है.”    

 

            अफ्रीकियों के तब सबसे बड़े नेता थे जॉन ड्यूबे जो अागे चल कर अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष भी हुए. गांधीजीके साथ उनका अच्छा दोस्ताना था. गांधीजी के विकास के साथ-साथ यह दोस्ताना उनके गुणों के चाहकों में बदल गया. अाज हम जिसे स्किल डेवलपमेंट कहते हैं तब वह अौद्योगिक कारीगरी का प्रशिक्षण कहलाता था अौर जॉन ड्यूबे काले युवाअों के लिए वैसे ही प्रशिक्षण का संस्थान चलाते थे - अोहलांगे इंस्टीट्यूट. जॉन ड्यूबे का यह इंस्टीट्यूट गांधीजी के फीनिक्स अाश्रम के पास में था अौर दोनों के बीच खूब अावाजाही थी. दोनों एक-दूसरे के परिसर का सुविधानुसार इस्तेमाल भी करते थे. 1912 मेंजब श्री गोपालकृष़्ण गोखले गांधीजी से मिलने व दक्षिण अफ्रीका का उनका काम देखने वहां पहुंचे थे तब गांधीजी उन्हें खास तौर पर जॉन ड्यूबे से मिलवाने ले गये थे. ड्यूबे साहब ने गोखले के सम्मान में कुछ भी उठा नहीं रखा था. मुलाकात के बाद ड्यूबे साहब की पत्रिका में इसका जो विवरण छपा उसमें गांधीजी को इस बात के लिए धन्यवाद दिया गया था कि उन्होंने ‘ इतनी बड़ी शख्सियत’ से हमें मिलवायासाथ ही यह भी कहा गया था कि अाप स्वंय ही अप्रतिम गुणों’ से भरपूर हैं. 

 

            अफ्रीकियों को जमीन की मालिकी का अधिकार मिले इसकी जद्दोजहद पर गांधीजी की नजर थी अौर 1905 में जब ट्रांसवाल की सर्वोच्च अदालत ने इसके पक्ष में फैसला दिया तो गांधीजी ने इस फैसले का खुल कर समर्थन किया अौर 1908 में जब वे जेल से छूटे तो उन्होंने अोलिव श्रेनियर का एक लेख अपनी पत्रिका में फिर से प्रकाशित किया जिसमें अश्वेतों के समान नागरिक अधिकारों की बात की गई थी. 1909 में उन्होंने राज्य की हिंसक चालाकी से सबको सावधान करने वाला एक लेख लिखा : “ वह दिन करीब अाता जा रहा है जब हमारी किसी की भीचाहे हम काले हों या गोरेकोई सुनवाई नहीं होगी. इसलिए यह अौर भी जरूरी हो गया है कि हमारी लड़ाई सत्य पर अाधारित हो. सत्य की अाध्यात्मिक ताकत को कोई झुका नहीं सकतासत्याग्रह के इस अहिंसक व्यवहार को मानते हुए हमें संघर्ष में उतरना होगा.

 

              तब एक सरकारी अादेश था कि हर अफ्रीकी महिला को अपना पास’ साथ ही रखना पड़ता था. इधर नया पास जारी करने पर रोक भी लगी हुई थी. 1913में इसके खिलाफ एक बड़ा अांदोलन उठा तो गांधीजी ने उसको खुला समर्थन दिया अौर तभी यह भी घोषणा की कि जब तक यह अांदोलन अहिंसक रहेगाउनका समर्थन जारी रहेगा.             

 

             बैरिस्टर साहब गिरफ्तार हो कर पहली बार जब जेल पहुंचे तो उन्हें यह बात नागवार गुजरी कि उन्हें जुलू लोगों के साथ एक ही वार्ड में रखा गया है. यह एतराज रंगभेद की वजह से नहीं था. जेल में दो वर्ग होते ही हैं : अपराधी कैदी अौर राजनीतिक कैदी ! जेल मैनुअल भी यह फर्क करता हैअदालत भी अौर सरकार भी. अापातकाल के दौरान की 19 माह की अपनी जेल में हम भी यह मांग करते ही थे अौर प्रशासन भी चाहता था कि अपराधी व राजनीतिक बंदी अलग-अलगअपने-अपने वार्डों में रहें. प्रशासन तो इसलिए भी हमारे बीच दूरी चाहता था कि कहीं हम अपराधियों का राजनीतिक शिक्षण न करने लगें. अलग वार्ड की गांधी की मांग भी इसी कारण थीन कि रंगभेद के कारण. अौर जुलू अपराधियों के साथ एक ही सेल में रहने का अपना कड़वा अनुभव भी गांधी ने लिखा ही है कि एक बार जब वे शौचालय में थे तभी एक विशालकाय जुलू भीतर घुस अाया. उसने गांधी को उठा कर बाहर फेंक दिया अौर खुद फारिग होने लगा. तब दक्षिण अफ्रीका में दो शब्द प्रचलित थे - भारतीयों के लिए कुली’ तथा अफ्रीकियों के लिए ‘ काफिर’. बैरिस्टर साहब भी कहीं-कहीं काफिर’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं  लेकिन यह घृणा की अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि उनका शब्द-भंडार बहुत छोटा है. समाज में प्रचलित शब्दों को पकड़ कर अपना काम हम भी तो चलाते ही हैं न ! यह उस नीग्रो’ शब्द की तरह है जिस पर अमरीका में प्रतिबंध लगा हुअा है लेकिन जो चलन से बाहर नहीं हुअा है. लोग बोल-चाल में भी बोल जाते हैं तो कई अफ्रीकी लेखकों ने तो अपनी किताबों के शीर्षक में नीग्रो’ शब्द का इस्तेमाल किया है.                                                     

 

      अब गांधी भारत में हैं अौर महात्मा गांधी’ कहे जाने लगे हैं. 22 जुलाई 1926 के यंग इंडिया’ में वे लिखते हैं : “ दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की न्याय की कोई भी लड़ाई तब तक सफल नहीं होगी जब तक वह स्थानीय लोगों से जुड़ कर नहीं लड़ी जाएगी. संघर्ष में सबका साथ अाना जरूरी है.” गांधी का यह विराट स्वरूप बनते-बनते बना है. गांधी का भी विकास हुअा हैहोता रहा है.  लेकिन इस विकास-क्रम में वे रंगभेदी कभी नहीं रहे. इसलिए वाशिंग्टन हो या लंदन या कहीं अौर कालों का जीवन भी मतलब रखता है’ वाली मुहिम को याद रखना चाहिए कि गांधी की मूर्तियां भले वे तोड़ें या न तोड़ें लेकिन गांधी को कभी न छोड़ेंक्योंकि गांधी के बिना अात्मस्वाभिमान की लड़ाई में वे मार भी खाएंगे अौर हार भी. गांधी रास्ता भी हैं अौर उस राह पर चलने का संकल्प भी. ( 23.06.2020)     

 

 

Friday 19 June 2020

यह चीनी बुखार अासानी से उतरता नहीं है

            हमारे चारो तरफ अाग लगी है. सीमाएं सुलग रही हैं - चीन से मिलने वाली भी अौर नेपाल से मिलने वाली भी ! पाकिस्तान से मिलने वाली सीमा की चर्चा क्या करें;  उसकी तो कोई सीमा ही नहीं है. बांग्लादेशलंका अौर बर्मा से लगने वाली सीमाएं खामोश हैं तो इसलिए नहीं कि उन्हें कुछ कहना नहीं है बल्कि इसलिए कि वे कहने का मौका देख रही हैं. कोरोना ने सीमाअों की सीमा भी तो बता दी है न ! ताजा लपट लद्दाख की गलवान घाटी में दहकी है जिसमें सीधी मुठभेड़ में अब तक की सूचना के मुताबिक 20 भारतीय अौर 43 चीनी फौजी मारे गये हैं. 1962 के बाद भारत-चीन के बीच यह सबसे बड़ी मुठभेड़ है. सरकार इसे छिपाती हुए पकड़ी गई है. चीन को अपने पाले में लाने की उसकी तमाम तमाम कोशिशों के बावजूद अाज चीन सबसे हमलावर मुद्रा में है. डोकलाम से शुरू हुअा हमला अाज गलवान की घाटी तक पहुंचा है अौर यही चीनी बुखार है जो नेपाल को भी चढ़ा है. कहा तो जा रहा था कि चीनी-भारतीय फौजी अधिकारियों के बीच वार्ता चल रही है जबकि सच यह है कि हम कहे जा रहे थे अौर वे सुन रहे थे. युद्ध की भाषा में इसे वक्त को अपने पक्ष में करना कहते हैं. चीन ने वही किया है.    

      देश के संदर्भ में सीमाअों का मतलब होता है संबंध ! इसलिए अमरीका से हमारे संबंध कैसे हैं या फ्रांस से कैसे हैं इसका जायजा जब भी लेंगे हम तब यह जरूर ध्यान में रखेंगे कि इनके साथ हमारी भौगोलिक सीमाएं नहीं मिलती हैं. सीमाअों का मिलना यानी रोज-रोज का रिश्तातो मतलब हुअा रोज-रोज की बदनीयती भीबदमजगी भी अौर बदजबानी भी ! अौर रोज-रोज का यह संबंध यदि फौज-पुलिस द्वारा ही नियंत्रित किया जाता है तब तो बात बिगड़नी ही है. इसलिए जरूरी होता है कि राजनयिक स्तर पर संवाद बराबर बना रहे अौर शीर्ष का नेतृत्व गांठें खोलता रहे. यह बच्चों का खेल नहीं हैमनोरंजन या जय-जयकार का अायोजन भी नहीं है. अपनी बौनी छवि को अंतरराष्ट्रीय बनाने की ललक इसमें काम नहीं अाती है. सीमा का सवाल अाते ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति का यह सबसे ह्रदयहीन चेहरा सामने अाता है जहां सब कुछ स्वार्थ की तुला पर ही तौला जाता है. 1962 में यही पाठ जवाहरलाल नेहरू को चीन से सीखना पड़ा था    अौर अाज 2020 में नरेंद्र मोदी भी उसी मुकाम पर पहुंचते लग रहे हैं. इतिहास की चक्की बहुत बारीक पीसती है.       

      चीन का मामला एकदम ही अलग है. हमारे लिए यह मामला दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंक कर पीता हैजैसा है. हम हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के दौर से चल कर 1962 के युद्ध अौर उसमें मिली शर्मनाक पराजय तक पहुंचे हैं. हमारी धरती उसके चंगुल में है. चीन सीमा-विस्तार के दर्शन में मानने वाला अौर एशियाई प्रभुता की ताकत पर विश्वशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा पालने वाला देश है. हमारे अौर उसके बीच सीमा का लंबा विवादास्पद भू-भाग हैहमारे क्षेत्रीयएशियाई अौर अंतरराष्ट्रीय हित अक्सर टकराते दिखाई देते हैं. हममें से कोई भी अार्थिक दृष्टि से मजबूत होउसकी अंतरराष्ट्रीय हैसियत बड़ी हो तो दूसरे को परेशानी होती है. यह सिर्फ चीन के लिए सही नहीं हैहमारे यहां भी ऐसी ‘ बचकानी’ अंतरराष्ट्रीय समझ रखने वाले लोग सरकार में भी हैं अौर तथाकथित शोध-संस्थानों में भी. इसलिए चीन की बात जब भी हमारे बीच चलती हैअाप चाहेंन चाहें इतनी सारी बातें उसमें सिमट अाती हैं.

      क्या मोदी सरकार ने इन सारी बातों को भुला कर चीन से रिश्ता बनाने की कोशिश की थी नहींउसने यह सब जानते हुए भी चीन को साथ लेने की कोशिश की थीक्योंकि उसके सामने दूसरा कोई चारा नहीं था. दुनिया हमारे जैसी बन जाए तब हम अपनी तरह से अपना काम करेंगेऐसा नहीं होता है. दुनिया जैसी है उसमें ही हम अपना हित कैसे साध सकते हैंयह देखना अौर करना ही सफल डिप्लोमेसी  होती है. इसलिए इतिहास को बार-बार पढ़ना भी पड़ता है अौर उससे सीखना भी पड़ता है. हम चाहेंन चाहें इतिहास की सच्चाई यह है कि  भारत-चीन के बीच का अाधुनिक इतिहास जवाहरलाल नेहरू से शुरू होता है. इस सरकार की दिक्कत यह है कि यह इतिहास पढ़ती नहीं है अौर जवाहरलाल नेहरू से बिदकती है. इतिहास से ऐसा रिश्ता अात्मघाती होता है. 

      अाजादी के बाद दो बेहद अाक्रामक व क्रूर गुटों में बंटी दुनिया में नव स्वतंत्र भारत की जगह व भारत की भूमिका तलाशने का काम जिस जवाहरलाल नेहरू के सर अाया थाउनकी दिक्कत कुछ अलग तरह की थी.  उनके पास गांधी से मिले सपनों की अाधी-अधूरी तस्वीर तो थी लेकिन तलत महमूद के गाए उस गाने की तरह “ तस्वीर तेरी दिल मेरा बहला न सकेगी’ का कठोर अहसास भी था. गांधी का रास्ता उनके दिमाग में बैठता नहीं था क्योंकि गांधी अौर उनका रास्तादोनों ही खतरनाक हद तक मौलिक था. उसे छूने के लिए बला का साहसी अौर अातमविश्वासी होना जरूरी था. जवाहरलाल ने अाजादी की लड़ाई लड़ते वक्त ही इस गांधी को पहचान लिया था अौर उनसे अपनी दूरी तय कर ली थी. लेकिन यह सच भी वे जानते थे कि भारत की किसी भी नई भूमिका की परिपूर्ण तस्वीर तो इसी बूढ़े के पास मिलती है. इसलिए उन्होंने अपना एक अाधा-अधूरा गांधी गढ़ लिया था लेकिन उसके साथ चलने के रास्ते उन्होंने अपने खोजे थे. ऐसा करना भी एक बड़ा काम था. अमरीकी व रूसी खेमे से बाहर तटस्थ राष्ट्रों के एक तीसरे खेमे की परिकल्पना करना अौर फिर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उसका प्रयोग करना जवाहरलाल से कमतर किसी व्यक्ति के बूते का था ही नहीं. वे थे तो यह प्रयोग परवान चढ़ा. कई देशों को उन्होंने इसके साथ जोड़ा भी. 

      नहीं जुड़ा तो चीन. जवाहरलाल की विदेश-नीति के कई अाधारों में एक अाधार यह भी था कि एशिया के मामलों से अमरीका व रूस को किसी भी तरह दूर रखना. वे जान रहे थे कि ऐसा करना हो तो चीन को साथ लेना जरूरी है. लाचारी के इस ठोस अहसास के साथ उन्होंने चीन के साथ रिश्ते बुनने शुरू किए. वे चीन कोमाअो-त्से-दुंग को अौर साम्यवादी खाल में छिपी चीनी नेतृत्व की पूंजीवादी मंशा को अच्छी तरह जानते थे. चीनी ईमानदारी व सदाशयता पर उनका भी भरोसा नहीं था.  लेकिन वे जानते थे कि अंतरराष्ट्रीय प्रयोगों में मनचाही स्थितियां कभीकिसी को नहीं मिलती हैं. यहां जो पत्ते हैं अापके हाथ में उनसे ही अापको खेलना पड़ता है. इसलिए चीन के साथ कई स्तरों पर रिश्ते बनाए अौर चलाए उन्होंने. पंचशील उसमें से ही निकला. बात कुछ दूर पटरी पर चली भी लेकिन चूक यह हुई कि रिश्ते एकतरफा नहीं होते हैं. सामने वाले को अनुकूल बनाना अापकी हसरत होती हैअनुकूलता बन रही है या नहींयह भांपना अापकी जरूरत होती है. चीन को भारत का वह कद पच नहीं रहा था. एशियाई महाशक्ति की अपनी तस्वीर के फ्रेम में उसे भारत कदापि नहीं चाहिए था. उसने तरह-तरह की परेशानियां पैदा कीं. नेहरू-विरोध का जो चश्मा अाज सरकार ने पहन अौर पहना रखा है उसे उतार कर वह देखेगी तो पाएगी कि यह सरकार ठीक उसी रास्ते पर चल रही है जो जवाहरलाल ने बनाया था. फर्क इतना ही है कि वह नवजात हिंदुस्तान थायुद्ध व शीतयुद्ध से घिरा हुअा अौर तटस्थता की अपनी नई भूमिका के कारण अकेला पड़ा हुअा. सारी शंकाअों व सावधानी के साथ उसे चीन को साथ ले कर इस स्थिति का समाना भी करना था अौर भारत की एक नई भूमिका स्थापित भी करनी थीअौर अाज जो हिंदुस्तान हमारे सामने है वह अाजादी के बाद के 70 से अधिक सालों की बुनियाद पर खड़ा हिंदु्स्तान है.  इसके सामने एक अलग ही दुनिया है. इस सरकार के पास न तटस्थता जैसा कोई सपना हैन पंचशील जैसी कोई अवधारणा. सत्ताधीश सरकारें ऐसे सपने वगैरह पालती भी नहीं हैं. यह वह दौर है जब अमरीकारूस अौर चीन तीनों की अंतरराष्ट्रीय भूमिका सिकुड़ती जा रही है. चीन को साबरमती नदी किनारे झूला झुला करअौर अमरीका को दुनिया’ के सबसे बड़े स्टेडियम में खेल खिला कर हमने देख लिया है कि नेहरू को 1962 मिला थाहमें 2020 मिला है. सीमा पर लहकती अाग के साथ अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हम करीब-करीब अकेले हैं. यह 2020 का 1962 है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति का यह असली चेहरा है. लेकिन क्या कीजिएगारास्ता तो इसी में से खोजना है. तो यह सरकार भी रास्ता खोजे लेकिन इसके लिए जवाहरलाल नेहरू को खारिज करने की नहींउनका रास्ता समझने की जरूरत है. ( 16.06.2020)  

Wednesday 10 June 2020

यह माफी नहीं चाहिए !

      अमरीका का अश्वेत समाज खौल रहा है; अौर इस खौलते अशांत मन के कुछ छींटे महात्मा गांधी पर भी पड़े हैं. वाशिंग्टन स्थित भारतीय दूतावास के प्रवेश-द्वार पर लगी गांधीजी की मूर्ति कुछ क्षतिग्रस्त भी कर दी गई है, उस पर कोई रंग या रसायन भी पोत दिया गया है, अगल-बगल कुछ नारे वगैरह भी लिख दिए गये हैं. जैसी नकाब पहन कर अाज सारी दुनिया घूम रही है वैसा ही एक लंबा नकाब - कहिए कि एक खोल - गांधी-प्रतिमा को भी पहना दिया गया है. खंडित प्रतिमा अच्छी नहीं मानी जाती है इसलिए. अश्वेतों का क्षोभ अमरीका पार कर दुनिया के उन दूसरे मुल्कों में भी पहुंच रहा है जहां अश्वेत बड़ी संख्या में रहते हैं. यह प्रदर्शन लंदन में भी हो रहा है अौर वहां भी गांधीजी की प्रतिमा को निशाने पर लिया गया है. भीड़ का गुस्सा ऐसा ही होता है बल्कि कहूं तो भीड़ उसे ही कहते हैं कि जिसके पास सर बहुत होते हैं, दिल नहीं होता है

लेकिन हम भूलें कि दिलजलों की भीड़ भी होती है. अभी वैसी ही भीड़ के सामने हम खड़े हैं. लंदन में भीड़ ने एडवर्ड कॉल्स्टन की मूर्ति उखाड़ फेंकी है. कॉल्स्टन इतिहास के उस दौर का प्रतिनिधि था जब यूरोप-अमरीका में दासों  का व्यापार हुअा करता था. कॉल्स्टन भी ऐसा ही एक व्यापारी था. अश्वेतों को दास बना कर खरीदना-बेचना अौर उनके कंधों पर अपने विकास की इमारतें खड़ी करना, यही चलन था तब. हम भी तो उस दौर से गुजरे ही हैं जब अछूत कह कर समाज के एक बड़े हिस्से को अपमानित कर, गुलाम बना कर उनसे जबरन सेवा ली जाती थी. अाज भी उसके अवशेष समाज में मिलते ही हैं. लंदन के मेयर ने बहुत सही कहा है कि इंग्लैंड की सड़कों पर से अौपनिवेशिक दौर के प्रतीकों की प्रतिमाएं हटानी चाहिए. उन्होंने कहा कि यह सत्य बहुत विचलित करने वाला है कि हमारा देश अौर यह लंदन शहर दास-व्यापार की दौलत से बना सजा है. इसने उन बहुतेरों के अवदान को दर्ज ही नहीं किया है जिन्होंने भी इसे शक्ल--जमील दी है.    

यह सब चल रहा है तो एक दूसरा नाटक भी सामने अा रहा है. गांधी-प्रतिमा के अनादर के लिए भारत में अमरीका के राजदूत ने भारत सरकार से माफी मांगी है अौर यह अाश्वासन भी दिया है कि जल्दी ही हम उस प्रतिमा को सादर अवस्थित कर देंगे. इंग्लैंड की सरकार भी कुछ ऐसा ही कर देगी. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी मूर्ति को नुकसान पहुंचाने को अपमानजनक बताया है. फिर भारत सरकार भला पीछे कैसे रहती ! उसने अमरीका के राज्य विभाग, शहरी पुलिस अौर नेशनल पार्क सर्विस के पास अपनी अापत्ति दर्ज कराई है. ट्रंप को जो अपमानजनक लगा, राजदूत को जिसके लिए माफी मांगनी पड़ी अौर भारत सरकार को जो अापत्तिजनक लगा, वह क्या है ? गांधी-प्रतिमा का अपमान याकि अपनी नंग छिपाने की असफल कोशिश ? महात्मा गांधी होते तो क्या कहते ? कहते कि मेरी गूंगी मूर्ति को देखते हो लेकिन मैं जो कहता रहा वह सुनते नहीं हो, तो ऐसे सम्मान का फायदा क्या ? हम क्या कहें जो गांधी का सम्मान भर नहीं करते हैं बल्कि कमजोर कदमों से ही सही, उनकी दिशा में चलने की कोशिश करते हैं ? हम कहते हैं कि अश्वेतों का यह विश्व्यापी प्रदर्शन ही गांधी का सबसे बड़ा सम्मान है. दुनिया भर से महात्मा गांधी की तमाम मूर्तियां हटा दी जाएं अौर दुनिया भर में अश्वेतों, श्रमिकों, मजलूमों को अधिकार सम्मान दिया जाए तो यह सौदा हमें सहर्ष मंजूर है. अौर अमरीका को माफी मांगनी ही हो तो अपनी अश्वेत अाबादी से मांगनी चाहिए जिसके जान-माल की रक्षा में वह असमर्थ साबित होता अाया है

मुझे याद अाता है कि जब भारत के महान समाजवादी नेता अश्वेत डॉ. राममनोहर लोहिया को अमरीका के उस होटल में प्रवेश से रोक दिया गया था जो श्वेतों के लिए अारक्षित था तो उन्होंने इसे वहीं सत्याग्रह का मुद्दा बनाया था अौर इसलिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. गिरफ्तारी हुई तो हंगामा हुअा. अमरीकी सरकार ने जल्दी ही समझ लिया कि यह कोई अाम अश्वेत नहीं है. फिर तो वहीं-के-वहीं उनकी रिहाई भी हुई अौर अमरीकी सरकार ने उनसे माफी भी मांगी. तब भी डॉक्टर साहब ने यही कहा था : मुझसे नहीं, उन अश्वेतों से माफी मांगो जिनका अपमान करते तुम्हें शर्म नहीं अाती है.    

अमरीका इस कदर कभी लुटा-पिटा नहीं था जैसा वह अाज दिखाई दे रहा है. कोरोना की अांधी में उसका छप्पर ही सबसे पहले अौर सबसे अधिक उड़ा. वह अपने 1.25 लाख से अधिक नागरिकों को खो चुका है अौर लाखों संक्रमित नागरिक कतार में लगे हैं. लेकिन ऐसे अांकड़े तो सभी मुल्कों के पास हैं जो बताते हैं कि इस वायरस या विषाणु का कोई इलाज अब तक दुनिया के पास नहीं है. जो दुनिया के पास नहीं है वह अमरीका के पास हो, यह तो संभव है, अपेक्षित ! इसलिए बात इन आंकड़ों की नहीं है

बात इसकी भी नहीं है कि वहां राष्ट्रपति का चुनाव अासन्न है अौर राष्ट्रपति ट्रंप अपने दोबारा चुने जाने की तिकड़म में लगे हैं. जिनके पेट में देश-सेवा का दर्द रह-रह कर उठता ही रहता है वैसे सारे सेवक, सारे संसार में ऐसी ही तिकड़म करने में लगे हैं, तो अकेले राष्ट्रपति ट्रंप को क्या कहें ! तो बात तिकड़म की भी नहीं है. बात है अाग में धू-धू कर जलते-लुटते अमरीका की. 25 मई 2020 को एक श्वेत पुलिस अधिकारी ने, 46 साल के एक अश्वेत जॉर्ज फ्लायड की बेरहम, अकारण हत्या कर दीखुले अाम सड़क पर गला दबा कर ! वह गुहार लगाता रहा किमुझे छोड़ो, मेरा दम घुट रहा हैलेकिन उस पुलिस अधिकारी ने उसे खुली सड़क पर गिरा कर, अपने घुटनों से उसका गला करीब 9 मिनटों तक दबाए रखा- तब तक, जब तक वह दम तोड़ नहीं गया.  

अश्वेतों के दमन-दलन का यह पहला मामला था, अाखिरी है. एक अांकड़े को देखें हम तो पता चलता है कि अमरीका में हर साल श्वेत पुलिस के हाथों 100 अश्वेत मारे जाते हैं. अमरीकी पुलिस को अमरीका की सर्वोच्च अदालत ने यह छूट-सी दे रखी है कि वह नागरिकों को काबू में रखने के लिए कुछ भी कर सकती है, यहां तक कि उनकी जान भी ले सकती है. पुलिस की ऐसी काररवाइयां अदालती समीक्षा से बाहर रहती हैं. लेकिन इस बार अमरीका इस हत्या को चुपचाप सह नहीं सका. वह चीखा भी, चिल्लाया भी अौर फिर अागजनी अौर लूट-पाट के रास्ते पर चल पड़ा. उसने बता दिया है कि श्वेत अमरीका बदले, अदालती रवैया बदले, पुलिस बदले अौर समाज नई करवट ले. यह सब हो नहीं तो अब सहना संभव नहीं है

60’  के दशक में गांधी की अहिंसा की दृष्टि ले कर जब मार्टीन लूथर किंग अमरीका की सड़कों पर लाखों-लाख अश्वेतों के साथ उतरे थे तब भी ऐसा ही जलजला हुअा था. लेकिन तब गांधी थे, सो अाग लगी थी, लूटपाट हुई थी. उसके बाद यह पहला मौका है जब अश्वेत अमरीका इस तरह उबला है. यह हिंसक तो जरूर है लेकिन गहरी पीड़ा में से पैदा हुअा है. हम यह भी देख रहे हैं कि शनै-शनै प्रदर्शन शांतिपूर्ण होते जा रहे हैं. यह भी हमारी नजरों से अोझल नहीं होना चाहिए कि इस बार बड़ी संख्या में श्वेत अमरीकी, एशियाई मूल के लोग भी इसमें शरीक हैं. हर तरह के लोग इनके साथ अपनी सहानुभूति जोड़ रहे हैं. हम हिंसा की इस ज्वाला के अागे घुटने टेक कर माफी मांगते अमरीकी पुलिस अधिकारियों को भी देख रहे हैं अौर यह भी देख रहे हैं कि जब व्हाइट हाउस के सामने अश्वेत क्रोध फूटा तो  बड़बोले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति भवन के भीतर बने तहखाने में जा छिपे। 

गांधी होते तो क्या कहते ?… कहते कि पीड़ा सच्ची है, रास्ता गलत है. रास्ता यह है कि वह नया अमरीका सामने अाए जो श्वेत-अश्वेत में विभाजित नहीं है भले अब तक कुछ दूर-दूर रहा है. वह नया अमरीका जोर से बोले, तेज कदमों से चले अौर समाज-प्रशासन में अपनी पक्की जगह बनाए. पूर्व राष्ट्रपति बराक अोबामा ने ऐसी कुछ शुरुअात की थी. उन सूत्रों को पकड़ने अौर अागे ले जाने की जरूरत है. कोरोना ने भी एक मौका बना दिया है कि अब पुरानी दुनिया नहीं चलेगी. तो नई दुनिया को कोरोना-मुक्ति भी चाहिए अौर मानसिक कोरोना से भी मुक्ति चाहिए. अौर तब यह भी याद रखें हम कि ऐसी मुक्ति सिर्फ अमरीका को नहीं, हम सबको चाहिए. ( 10.06.2020)