Friday 27 July 2018

किधर हैं गांधी अौर किधर है उनका अंतिम अादमी




हमारे देश में कुछ मनपसंद शगल हैं जिनमें से एक महात्मा गांधी भी हैं ! अाप देखेंगे कि बुद्धिवादियों की बुद्धि जब काम नहीं देती है तब वे एक सेमीनार या व्याख्यान या वर्कशॉप अायोजित करते हैं जिसका विषय होता है : क्या महात्मा गांधी अाज भी प्रासांगिक हैं ? जब महात्मा गांधी थे तब भी अौर जब महात्मा गांधी नहीं रहे तब भी अौर अाज जब उनका काम तमाम किए ७० साल से अधिक हो रहे हैं तब भी, शब्द या वाक्य बदल-बदल कर इसी अाशय के सवाल खड़े किए जाते हैं. जवाब कहीं होता नहीं है, सो फिर अगले साल यही सवाल लौट अाता है. अाप देखेंगे कि जिन राहबरों को अपना रास्ता न दिखाई देता है, न सुझाई देता है वे जब-तब यही सवाल खड़ा करते हैं कि हम खोजें कि अाज देश में गांधी कहां हैं ? मैं कहता हूं कि हम बंद करें गांधी की सामयिकता समझने की यह कसरत; हम बंद करें देश में गांधी कहां हैं, इसकी पड़ताल ! अगर समझना जरूरी ही है तो हम यह क्यों न समझने की कोशिश करें कि हमारे जिस संसदीय लोकतंत्र की उम्र ७० साल की हो रही है उस लोकतंत्र में हमारी, लोकतंत्र के नागरिक की, मतदाता की कोई सामयिकता बची है क्या ? अगर खोजने का ही शौक हो तो हम गहराई अौर ईमानदारी से खोजें कि ७० साल के सफर में वह अादमी कहां छूट गया है जिसे गांधी ‘अंतिम अादमी’ कहते थे ? गांधी के लिए वही ‘अंतिम अादमी’ अाजादी का मकसद भी था अौर अाजादी की असलियत को परखने की कसौटी भी. अाप खोजें कि वह ‘अंतिम अादमी’ कहीं छूट गया है ? कि कहीं खो गया है कि खत्म ही हो गया है ? नहीं, गांधी की नहीं, खुद की कसौटी करें; गांधी को नहीं, उनके अंतिम अादमी को खोजें. 

गांधी में शिफत है कि वे अपनी बात बहुत कम शब्दों में अौर बड़ी सरल भाषा में कह देते हैं. यह सरलता उन सबको बहुत कठिन जान पड़ती है जो गांधी को जी कर नहीं, पढ़ कर समझना चाहते हैं. गांधी ने जो जिया नहीं, वह कहा नहीं; हमने जो कहा उसे कभी जिया नहीं, जीना चाहा भी नहीं. उन्होंने कहा : सबके भले में अपना भला है ! उन्होंने कहा : वकील अौर नाई दोनों के काम की कीमत एक-सी होनी चाहिए, क्योंकि अाजीविका पाने का हक दोनों को एक-सा ही है. उन्होंने कहा : मजदूर अौर किसान का सादा जीवन ही सच्चा जीवन है. अाजादी के बाद कुर्सी पर बैठने वालों से उन्होंने कहा : इस पर मजबूती से बैठो लेकिन इसे हल्के से पकड़ो - सिट अॉन इट टाइटली बट होल्ड इट लाइटली ! कहा कि सत्ता की कुर्सी पर पूरे अात्मविश्वास व इरादे से बैठ कर अपनी जिम्मेवारी निभाअो लेकिन उससे चिपके मत रहो ! लेकिन हम कहां हैं ? सभी मानते हैं, अपने बच्चों को सिखाते हैं कि संसार में जो कुछ है, हमारे लिए ही है अौर अपनी सोचो, दूसरों की नहीं ! नई अाकांक्षा के पंख फड़फड़ाते युवा से कहते हैं : तू ही अाया है क्या महात्मा गांधी बनने ! वकील अौर नाई की कौन कहे, अापसी अार्थिक असमानता इतनी बढ़ी है कि कोई ३० दिन अपना पूरा अस्तित्व घिस कर भी इतना नहीं कमा पाता है कि परिवार के लिए दोनों शाम का खाना जुटा सके; दूसरी तरफ लोग हैं कि जो दिनों में नहीं, घंटों में कमाते हैं अौर वह कमाई भी लाखों में होती है. सत्ता अौर संपत्ति का ऐसा गठबंधन तो कल्पना में भी नहीं था. कहां मजबूती से बैठो अौर हल्के से पकड़ो की सीख अौर कहां अाज का अालम कि जो जहां पहुंच गया है वहीं चिपक गया है : तुझसे पहले जो यहां सत्तानशीं था/ उसको भी अपने खुदा होने का इतना ही यकीं था. एक राष्ट्रीय दल के अध्यक्ष बार-बार ललकारते हैं अपने ‘भाड़े के कार्यकर्ताअों’ को कि हमें अगले २५ साल तक जीतते ही जाना है, ऐसी तैयारी करनी है.  
    
  महात्मा गांधी का जीवन बहुत कठिन था, क्योंकि वे जिनके साथ जीते थे वे उनके साथ जीते नहीं थे; वे जिन मूल्यों के लिए मरते थे वे उन मूल्यों के लिए मरते नहीं थे अौर फिर भी सभी उन्हें ‘महात्मा’ कहते थकते नहीं थे. प्रशंसकों-समर्थकों की बहुत बड़ी भीड़ में अपने विश्वासों के साथ अकेले खड़े रहना विराट अास्था की मांग करता है. उनकी अास्था इतनी गहरी अौर मजबूत थी कि वे अपने लिए कह सके कि मैं बीमार-जर-ज्वराग्रस्त मरूं तो अागे अा कर हिम्मत से दुनिया को बताना कि यह नकली महात्मा था. किसी हत्यारे की गोली से मारा जाऊं अौर गोली खा कर भी मेरे मुंह से रामनाम निकले तब मानना कि मुझमें कुछ महात्मनापना था. वे अपनी कसौटी पर जी कर अौर मर कर गये. लेकिन वे जिसके लिए जिये अौर मरे वह अादमी - अंतिम अादमी - कहां रहता है ? क्या खाता-पीता-अोढ़ता-बिछाता है ? व्यवस्था ही बताती है कि पिछले १० सालों में ३ करोड़ से ज्यादा किसानों ने किसानी से तौबा कर ली है, मतलब जिस किसान का जीवन गांधी सच्चा जीवन मानते थे उसने उस किसानी को छोड़ दिया है. ३ करोड़ किसान खेत से बाहर निकल गया है तो इसका एक मतलब तो यह हुअा न कि राष्ट्र-जीवन का ईंधन अनाज पैदा करने वाले हाथ कम हुए ! तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इसी अवधि में —— किसानों ने अात्महत्या कर ली है. अात्महत्या का सीधा मतलब है कि वह जीवन व जीविका दोनों से बेजार हो चुका था. 

व्यवस्था हर समस्या का हल पैसों में निकालती है अौर उसके हर हल का निशाना वोट होता है. इसलिए सरकार ने अभी-अभी कई फसलों के लिए न्यूनतम मूल्य की घोषणा की है. वह कह रही है कि किसानों की मदद में इतनी बड़ी मूल्य-वृद्धि कभी नहीं की गई थी. जानकार कह रहे हैं कि पिछले १० से ज्यादा हो गये कि  किसानों को कैसी भी राहत नहीं दी गई थी. अगर सालों का हिसाब करें तो यह वृद्धि अपना संदर्भ ही खो बैठती है. लेकिन इस संकट का दूसरा पहलू तो अौर भी भयंकर है. जहां न सरकार की अांख पहुंचती है अौर न हाथ, उन गांवों-कस्बों की मंडियों में जब किसान अपना अनाज ले कर पहुंचता है तो सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मूल्य देने वाला वहां कोई नहीं होता है. वहां बड़े किसानों-व्यापारियों-सरकारी अधिकारियों का मजबूत त्रिभुज खड़ा होता है जो किसानों को मजबूर कर देता है कि वे उनकी बताई दरों पर अपना अनाज बेंच दें अौर घर लौटें. यही तिकड़ी है जो किसानों से सस्ते में अनाज खरीद लेती है अौर फिर सरकार को उसके न्यूनतम दर पर बेंच देती है. यह कारोबार अरबों रुपयों का है जिसमें सभी बराबरी के हिस्सेदार हैं. किसानों से लूटा पैसा निर्बाध दिल्ली तक पहुंचता है. 

        सरकारी अध्ययन कहता है कि मात्र ६% किसान हैं कि जो अपनी फसल का न्यूनतम मूल्य प्राप्त कर पाते हैं. बाल्टी फूटी हो तो उसमें कुछ भी उड़ेलो अौर कितना भी उड़ेलो वह खाली ही रह जाती है. जब सरकार भूमि अधिग्रहण का कानून बना कर सारे अधिकार अपने हाथ में कर लेती है अौर कारपोरेट-बिल्डर तथा माफिया को विकास के नाम पर जमीन देने लगती है तब किसान अात्महत्या करे कि शहरी फुटपाथ पर पहुंच कर नर्क वास करे, क्या फर्क पड़ता है.
           
गणतंत्र का यह कैसा महाभंजक स्वरूप उभर रहा है कि जिसमें तंत्र किसी अंधे हाथी की तरह उत्पात मचा रहा है अौर गण किसी महावत की भूमिका में तो दूर, किसी हरकारे की भूमिका में भी नहीं है ? यह अपशकुन की घड़ी है ! इतिहास फिर उन्हीं गलियों से गुजर रहा है जिनसे तब गुजरा था जब गुलामी का अंधेरा था. लहूलुहान देश अंग्रेजों की मिली-भगत से निष्प्राण हुअा जा रहा था. एक अकेले गांधी थे जो अपने मन-प्राणों का पूरा बल जोड़ कर इस दुरभिसंधि के खिलाफ तब तक अावाज उठाते रहे जब तक तीन गोलियों से बींध नहीं दिए गए. 

हमें यह हिसाब लगाना ही चाहिए कि ७० साल पहले हमने जो गणतंत्र बनाया अौर उसके साथ जो सपने देखे, वे कहां तक पूरे हुए अौर कितनों तक पहुंचे ? सवाल अांकड़ों का नहीं है अौर न इस या उस सरकार को जिम्मेवार ठहराने या बचाने का है. सवाल यह कि हमारा गणतंत्र ७० साल जवान हुअा है या ७० साल बूढ़ा ? जवानी अौर बुढ़ापे में उम्र का फर्क नहीं होता है, उम्मीदों अौर अात्मविश्वास का फर्क होता है ! तो हम यह सवाल गांधी के अंतिम अादमी से भी पूछते हैं अौर उस अंतिम अादमी के हाथ में हमने लोकतंत्र की जो गीता - संविधान - थमाई है, उससे भी पूछते हैं कि भैया, कैसे हो तुम ? 

इसका एक जवाब- अौर कहूं तो दो टूक जवाब - बाबा साहब अांबेडकर ने संविधान सभा की काररवाई को समेटते हुए दिया था : हमने एक संविधान तो बना दिया है अौर अपनी तरफ से अच्छा ही संविधान बनाया है लेकिन अाप सब यह याद रखें कि कोई भी संविधान उतना ही अच्छा या उतना ही बुरा होता है जितना उसे चलाने वाले लोग होते हैं ! ….गांधी ने कहा था : अादमी बनाअो; हमने कहा : संविधान बनाअो ! संविधान बन गया, अादमी नहीं बना. अंतिम अादमी अंतिम ही रह गया.
 ( 05.07.2018) 

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