Wednesday 10 June 2020

यह माफी नहीं चाहिए !

      अमरीका का अश्वेत समाज खौल रहा है; अौर इस खौलते अशांत मन के कुछ छींटे महात्मा गांधी पर भी पड़े हैं. वाशिंग्टन स्थित भारतीय दूतावास के प्रवेश-द्वार पर लगी गांधीजी की मूर्ति कुछ क्षतिग्रस्त भी कर दी गई है, उस पर कोई रंग या रसायन भी पोत दिया गया है, अगल-बगल कुछ नारे वगैरह भी लिख दिए गये हैं. जैसी नकाब पहन कर अाज सारी दुनिया घूम रही है वैसा ही एक लंबा नकाब - कहिए कि एक खोल - गांधी-प्रतिमा को भी पहना दिया गया है. खंडित प्रतिमा अच्छी नहीं मानी जाती है इसलिए. अश्वेतों का क्षोभ अमरीका पार कर दुनिया के उन दूसरे मुल्कों में भी पहुंच रहा है जहां अश्वेत बड़ी संख्या में रहते हैं. यह प्रदर्शन लंदन में भी हो रहा है अौर वहां भी गांधीजी की प्रतिमा को निशाने पर लिया गया है. भीड़ का गुस्सा ऐसा ही होता है बल्कि कहूं तो भीड़ उसे ही कहते हैं कि जिसके पास सर बहुत होते हैं, दिल नहीं होता है

लेकिन हम भूलें कि दिलजलों की भीड़ भी होती है. अभी वैसी ही भीड़ के सामने हम खड़े हैं. लंदन में भीड़ ने एडवर्ड कॉल्स्टन की मूर्ति उखाड़ फेंकी है. कॉल्स्टन इतिहास के उस दौर का प्रतिनिधि था जब यूरोप-अमरीका में दासों  का व्यापार हुअा करता था. कॉल्स्टन भी ऐसा ही एक व्यापारी था. अश्वेतों को दास बना कर खरीदना-बेचना अौर उनके कंधों पर अपने विकास की इमारतें खड़ी करना, यही चलन था तब. हम भी तो उस दौर से गुजरे ही हैं जब अछूत कह कर समाज के एक बड़े हिस्से को अपमानित कर, गुलाम बना कर उनसे जबरन सेवा ली जाती थी. अाज भी उसके अवशेष समाज में मिलते ही हैं. लंदन के मेयर ने बहुत सही कहा है कि इंग्लैंड की सड़कों पर से अौपनिवेशिक दौर के प्रतीकों की प्रतिमाएं हटानी चाहिए. उन्होंने कहा कि यह सत्य बहुत विचलित करने वाला है कि हमारा देश अौर यह लंदन शहर दास-व्यापार की दौलत से बना सजा है. इसने उन बहुतेरों के अवदान को दर्ज ही नहीं किया है जिन्होंने भी इसे शक्ल--जमील दी है.    

यह सब चल रहा है तो एक दूसरा नाटक भी सामने अा रहा है. गांधी-प्रतिमा के अनादर के लिए भारत में अमरीका के राजदूत ने भारत सरकार से माफी मांगी है अौर यह अाश्वासन भी दिया है कि जल्दी ही हम उस प्रतिमा को सादर अवस्थित कर देंगे. इंग्लैंड की सरकार भी कुछ ऐसा ही कर देगी. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी मूर्ति को नुकसान पहुंचाने को अपमानजनक बताया है. फिर भारत सरकार भला पीछे कैसे रहती ! उसने अमरीका के राज्य विभाग, शहरी पुलिस अौर नेशनल पार्क सर्विस के पास अपनी अापत्ति दर्ज कराई है. ट्रंप को जो अपमानजनक लगा, राजदूत को जिसके लिए माफी मांगनी पड़ी अौर भारत सरकार को जो अापत्तिजनक लगा, वह क्या है ? गांधी-प्रतिमा का अपमान याकि अपनी नंग छिपाने की असफल कोशिश ? महात्मा गांधी होते तो क्या कहते ? कहते कि मेरी गूंगी मूर्ति को देखते हो लेकिन मैं जो कहता रहा वह सुनते नहीं हो, तो ऐसे सम्मान का फायदा क्या ? हम क्या कहें जो गांधी का सम्मान भर नहीं करते हैं बल्कि कमजोर कदमों से ही सही, उनकी दिशा में चलने की कोशिश करते हैं ? हम कहते हैं कि अश्वेतों का यह विश्व्यापी प्रदर्शन ही गांधी का सबसे बड़ा सम्मान है. दुनिया भर से महात्मा गांधी की तमाम मूर्तियां हटा दी जाएं अौर दुनिया भर में अश्वेतों, श्रमिकों, मजलूमों को अधिकार सम्मान दिया जाए तो यह सौदा हमें सहर्ष मंजूर है. अौर अमरीका को माफी मांगनी ही हो तो अपनी अश्वेत अाबादी से मांगनी चाहिए जिसके जान-माल की रक्षा में वह असमर्थ साबित होता अाया है

मुझे याद अाता है कि जब भारत के महान समाजवादी नेता अश्वेत डॉ. राममनोहर लोहिया को अमरीका के उस होटल में प्रवेश से रोक दिया गया था जो श्वेतों के लिए अारक्षित था तो उन्होंने इसे वहीं सत्याग्रह का मुद्दा बनाया था अौर इसलिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. गिरफ्तारी हुई तो हंगामा हुअा. अमरीकी सरकार ने जल्दी ही समझ लिया कि यह कोई अाम अश्वेत नहीं है. फिर तो वहीं-के-वहीं उनकी रिहाई भी हुई अौर अमरीकी सरकार ने उनसे माफी भी मांगी. तब भी डॉक्टर साहब ने यही कहा था : मुझसे नहीं, उन अश्वेतों से माफी मांगो जिनका अपमान करते तुम्हें शर्म नहीं अाती है.    

अमरीका इस कदर कभी लुटा-पिटा नहीं था जैसा वह अाज दिखाई दे रहा है. कोरोना की अांधी में उसका छप्पर ही सबसे पहले अौर सबसे अधिक उड़ा. वह अपने 1.25 लाख से अधिक नागरिकों को खो चुका है अौर लाखों संक्रमित नागरिक कतार में लगे हैं. लेकिन ऐसे अांकड़े तो सभी मुल्कों के पास हैं जो बताते हैं कि इस वायरस या विषाणु का कोई इलाज अब तक दुनिया के पास नहीं है. जो दुनिया के पास नहीं है वह अमरीका के पास हो, यह तो संभव है, अपेक्षित ! इसलिए बात इन आंकड़ों की नहीं है

बात इसकी भी नहीं है कि वहां राष्ट्रपति का चुनाव अासन्न है अौर राष्ट्रपति ट्रंप अपने दोबारा चुने जाने की तिकड़म में लगे हैं. जिनके पेट में देश-सेवा का दर्द रह-रह कर उठता ही रहता है वैसे सारे सेवक, सारे संसार में ऐसी ही तिकड़म करने में लगे हैं, तो अकेले राष्ट्रपति ट्रंप को क्या कहें ! तो बात तिकड़म की भी नहीं है. बात है अाग में धू-धू कर जलते-लुटते अमरीका की. 25 मई 2020 को एक श्वेत पुलिस अधिकारी ने, 46 साल के एक अश्वेत जॉर्ज फ्लायड की बेरहम, अकारण हत्या कर दीखुले अाम सड़क पर गला दबा कर ! वह गुहार लगाता रहा किमुझे छोड़ो, मेरा दम घुट रहा हैलेकिन उस पुलिस अधिकारी ने उसे खुली सड़क पर गिरा कर, अपने घुटनों से उसका गला करीब 9 मिनटों तक दबाए रखा- तब तक, जब तक वह दम तोड़ नहीं गया.  

अश्वेतों के दमन-दलन का यह पहला मामला था, अाखिरी है. एक अांकड़े को देखें हम तो पता चलता है कि अमरीका में हर साल श्वेत पुलिस के हाथों 100 अश्वेत मारे जाते हैं. अमरीकी पुलिस को अमरीका की सर्वोच्च अदालत ने यह छूट-सी दे रखी है कि वह नागरिकों को काबू में रखने के लिए कुछ भी कर सकती है, यहां तक कि उनकी जान भी ले सकती है. पुलिस की ऐसी काररवाइयां अदालती समीक्षा से बाहर रहती हैं. लेकिन इस बार अमरीका इस हत्या को चुपचाप सह नहीं सका. वह चीखा भी, चिल्लाया भी अौर फिर अागजनी अौर लूट-पाट के रास्ते पर चल पड़ा. उसने बता दिया है कि श्वेत अमरीका बदले, अदालती रवैया बदले, पुलिस बदले अौर समाज नई करवट ले. यह सब हो नहीं तो अब सहना संभव नहीं है

60’  के दशक में गांधी की अहिंसा की दृष्टि ले कर जब मार्टीन लूथर किंग अमरीका की सड़कों पर लाखों-लाख अश्वेतों के साथ उतरे थे तब भी ऐसा ही जलजला हुअा था. लेकिन तब गांधी थे, सो अाग लगी थी, लूटपाट हुई थी. उसके बाद यह पहला मौका है जब अश्वेत अमरीका इस तरह उबला है. यह हिंसक तो जरूर है लेकिन गहरी पीड़ा में से पैदा हुअा है. हम यह भी देख रहे हैं कि शनै-शनै प्रदर्शन शांतिपूर्ण होते जा रहे हैं. यह भी हमारी नजरों से अोझल नहीं होना चाहिए कि इस बार बड़ी संख्या में श्वेत अमरीकी, एशियाई मूल के लोग भी इसमें शरीक हैं. हर तरह के लोग इनके साथ अपनी सहानुभूति जोड़ रहे हैं. हम हिंसा की इस ज्वाला के अागे घुटने टेक कर माफी मांगते अमरीकी पुलिस अधिकारियों को भी देख रहे हैं अौर यह भी देख रहे हैं कि जब व्हाइट हाउस के सामने अश्वेत क्रोध फूटा तो  बड़बोले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति भवन के भीतर बने तहखाने में जा छिपे। 

गांधी होते तो क्या कहते ?… कहते कि पीड़ा सच्ची है, रास्ता गलत है. रास्ता यह है कि वह नया अमरीका सामने अाए जो श्वेत-अश्वेत में विभाजित नहीं है भले अब तक कुछ दूर-दूर रहा है. वह नया अमरीका जोर से बोले, तेज कदमों से चले अौर समाज-प्रशासन में अपनी पक्की जगह बनाए. पूर्व राष्ट्रपति बराक अोबामा ने ऐसी कुछ शुरुअात की थी. उन सूत्रों को पकड़ने अौर अागे ले जाने की जरूरत है. कोरोना ने भी एक मौका बना दिया है कि अब पुरानी दुनिया नहीं चलेगी. तो नई दुनिया को कोरोना-मुक्ति भी चाहिए अौर मानसिक कोरोना से भी मुक्ति चाहिए. अौर तब यह भी याद रखें हम कि ऐसी मुक्ति सिर्फ अमरीका को नहीं, हम सबको चाहिए. ( 10.06.2020) 

1 comment:

  1. आज गांधी विचार की जरूरत पूरी दुनिया को है। इससे ज्यादा उसके प्रचार-प्रसार और समय पर प्रस्तुति की है। आपने घटना से जोड़कर जो गांधीजी का संभावित हस्तक्षेप को जिस तरह से व्यक्त किया है, वह उत्साह- वर्धक है। हमें खुशी है। धन्यवाद!

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