Thursday 25 June 2020

रंगभेदी गांधी ?

            मोहनदास करमचंद गांधी एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय अपराधी हैं जिसने अपने हर अपराध का साक्ष्य इकट्ठा कर हमें सौंप दिया है. उनके खिलाफ जब भी हमें कुछ कहना या लिखना होउनकी ही किताबों की दुनिया में सैर करें अौर उन पर हमला करने के लिए जरूरी गोला-बारूद ले अाएं. इसलिए हमें जबजहांजैसी जरूरत होती है तबतहांहम उसका इस्तेमाल करउन्हें सजा दे लेते हैं. सजा सुना दी जाती हैकभी दे भी दी जाती है अौर फिर ऐसा होता है कि हम खुद ही पूछते रह जाते हैं कि हमने यह क्या किया ! गांधी हर बार किसी व्यक्ति या भीड़ के गुस्से के शिकार होते हैंअौर वे ही हैं जो हमें बता गये हैं कि गुस्सा दूसरा कुछ नहींछोटी अवधि का पागलपन है.

 

       पागलपन के ऐसे ही दौर में वे कभी दलितों को तो कभी नारीवादियों को अपने खिलाफ लगते हैंजिन्होंने कभी स्वतंत्रता की लड़ाई नहीं लड़ी उन्हें वे साम्राज्यवादियों के दलाल लगते हैंजिन्होंने देश- विभाजन रोकने के लिए कभी चूं तक नहीं की वे गांधी को देश-विभाजन का अपराधी बताते हैंसांप्रदायिकता की बूटी खा-खा कर जिंदा रहने वाले उन्हें मुसलमानों का तुष्टिकरण करने वाला बताते हैंकभी उन्हें क्रूर पिता व अन्यायी पति बताया जाता है. वे जब तक जीवित थेतीर चलाने वालों की कमी नहीं थी. वे नहीं हैं तब भी तीरंदाज बाज नहीं अा रहे. 

 

            अभी-अभी ऐसा ही हुअा. अमरीकी अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लायड की दिन-दहाड़े हत्या हुई. हत्यारा एक श्वेत अमरीकी पुलिस अधिकारी था. अमरीकी पुलिस के हाथों प्रतिवर्ष 100 अश्वेत अमरीकी मारे जाते हैं. न सरकार चेतती हैन अदालत ! लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुअाक्योंकि अमरीका चेत गया ! कालों का जीवन भी मतलब रखता है’  जैसी चीख के साथ पूरा अमरीकी समाज खौल उठा - सभी प्रांतों केसभी रंग के अमरीकी सड़कों पर उतरे. यह चीख यूरोप के दूसरे देशों में भी फैल गई. बहुत दिनों के बाद रंगभेद के खिलाफ सभी रंगों की मिली-जुली इतनी बड़ी ललकार सुनाई दी ! गांधी होते तो ऐसे प्रतिवादों में सबसे अागे दिखाई देते … लेकिन यहां तो वे भू-लुंठित दिखाई दिए. प्रदर्शनकारियों ने उन सारे प्रतीकों पर हमला किया जिनने कभी रंगभेद को चालना दीगुलाम-प्रथा का व्यापार कियाकालों को कमतर माना . तो कई बुत तोड़े गयेकई पर कालिख पोती गई अौर सबको एक नाम दिया गया - रंगभेदी !!  वाशिंग्टन डीसी में लगाई गई गांधीजी की प्रतिमा भी निशाने पर अाई. उसका भी विद्रूप करउसे भी रंगभेदी की उपाधि दे कर उसका ऐसा हाल किया गया कि अमरीकी प्रशासन ने अपनी शर्म छिपाने के लिए उसे ढक दिया अौर यह अाश्वासन भी दिया कि इसे ठीक कर जल्दी ही पुनर्स्थापित कर दिया जाएगा. किसी के कैसे भी अपमान से गुरेज न करने वाले राष्ट्रपति ट्रंप ने इसे अपमानजनक कह कर मान कमाने की कोशिश की ! ऐसा ही इंग्लैंड में भी हुअा लेकिन थोड़े रहम के साथ ! लंदन के पार्लियामेंट स्क्वायर पर लगी गांधी-प्रतिमा पर प्रदर्शनकारियों ने स्प्रे’ कर दिया अौर उसकी सीढ़ियों पर रंगभेदी या रेसिस्ट’ लिख दिया. 

 

गांधी होते तो क्या करते या क्या कहते वे कहते : यह अाग जली है तो बुझनी नहीं चाहिए ! वे करते :  चलोमैं भी चलता हूंअौर वाशिंग्टन हो कि लंदन कि कहीं अौरवे हर प्रदर्शन के अागे-अागे चल पड़ते लेकिन अनशन करते हुए चलते ताकि इसके भीतर जो हिंसा व लूट अौर मनमानी हुई उससे अपनी असहमति भी जाहिर करें अौर उसके प्रति सबको सचेत भी करें. अौर जब वे ऐसा करते तब कोई अनजाना कह बैठता कि यह अादमी तो जन-संघर्ष विरोधी है! फिर अाप क्या करते इतिहास के पन्ने पलटते अौर उसमें गांधी को खोजतेजैसे मैं खोज रहा हूं कि गांधी रंगभेदी थे यह बात कहां से अाई है ?

 

             दक्षिण अफ्रीका पहुंचे बैरिस्टर गांधी ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति मोहग्रस्त हैं. उन्हें लगता है कि यह न्यायप्रिय अौर उदार साम्राज्य है जिसकी हम भी प्रजा हैं तो साम्राज्य पर अाया हरसंकट हमारा अपना संकट है अौर हमें उसमें साम्राज्य की मदद करनी चाहिए. इसलिए बैरिस्टर साहब बोअर-युद्ध में घायलों की तिमारदारी के लिए उतरते हैं. जब बोअर लड़ाई में अंग्रेजों की अपेक्षा से ज्यादा भारी पड़े तो अंग्रेजों के अनुरोध पर गांधी अपनी टोली ले कर युद्धभूमि में भी उतरे. जंगे-मैदान से घायलों को निकाल कर ले जाते रहे अौर कई मौकों पर 20-25 मील की दूरी पर स्थित चिकित्सा-केंद्र तक घायलों की डोली पहुंचाते रहे. इस प्रयास से उन्हें मिला क्या ? ‘अात्मकथामें गांधी लिखते हैं : “ मैं समझ पाया कि यह न्याय का नहींकालों को दबाने का युद्ध है. मेरे इस प्रयोग से  हिंदुस्तानी कौम अधिक संगठित हो गईमैं गिरमिटिया हिंदुस्तानियों के अधिक संपर्क में अाया. गोरों के व्यवहार में भी स्पष्ट परिवर्तन दिखाई दिया।” 

 

             दूसरा मौका अाया जुलू विद्रोह के वक्त. अब तक गांधी बहुत प्रौढ़ हो चुके थे. उन्होंने फिर इंडियन एंबुलेंस टोली का गठन किया. अारोप यह है कि यह गोरे इंग्लैंड के प्रति उनका पक्षपात था. लेकिन सच यह है कि उनका यह कदम बोअर-युद्द के अनुभवों में से निकला था. उन्होंने देख लिया था  कि श्वेत डॉक्टर व नर्सें व अस्पताल के दूसरे लोग काले घायलों को हाथ लगाने को तैयार नहीं थे. इसलिए गांधीजी ने इसकी तरफ ध्यान दिलाया अौर  इंडियन एंबुलेंस टोली को घायल जुलू विद्रोहियों की देख-भाल का ही काम मिला. गांधी-टोली ने जिस तरह घायल जुलुअों की सेवा की उसकी सर्वत्र प्रशंसा हुई अौर एक-दूसरे की भाषा न जानने वाले जुलुअों ने भी अपनी तरह से कृतज्ञता प्रकट की. यह इतिहास सामने रखो तो वे अारोप लगाते हैं कि गांधी जुलुअों के साथ मिल कर लड़े क्यों नहीं अब अाप दीवारों से बात तो नहीं कर सकते ! इन दो प्रसंगों को छोड़ दें तो गांधी का रंग के साथ कभी बदरंग रिश्ता रहा ही नहीं.

 

                        

      दक्षिण अफ्रीका की गांधी की लड़ाई रंगभेद के कारण नहीं थी. सवाल भारतीय नागरिकों के  अधिकार का था. 1857 में अाजादी की पहली संगठित कोशिश जो हमने कीउससे साम्राज्य के कान खड़े हो गए अौर रानी विक्टोरिया ने 1858 में अपने साम्राज्य की प्रजा के समान नागरिक अधिकारों की घोषणा’ की थी. गांधी को लगता था कि यह घोषणा साम्राज्य का असली चेहरा है जिस पर कई कारणों से धूल पड़ गई है. एक बार धूल उड़ी तो चेहरा चमक अाएगा. इसलिए वे इस बात पर जोर देते हैं कि रानी की घोषणा पर अमल हो. तब उनकी समझ थी कि रंगभेद रास्ते में पड़ा एक रोड़ा है जो रानी विक्टोरिया की घोषणा पर अमल की अांधी में खुद-ब-खुद उड़ जाएगा. भारतीयों की समस्याएं अलहदा थीइसलिए अांदोलन भी अलहदा था. कालों को अांदोलन में साथ लेने का वहां कोई संदर्भ ही नहीं था. लेकिन गांधीजी अफ्रीकी लोगों से अपरिचित थे याकि उनकी समस्याअों से अनभिज्ञ थेयह अत्यंत गलत धारणा है. 

 

            1893 में जब मोहनदास करमचंद गांधी नटाल बंदरगाह पर उतरे थे उनकी उम्र 24 साल अभी पूरी ही हुई थीअौर 1914 मेंजब वे अपना बोरिया-बिस्तर बांध कर भारत लौट रहे थे तब उनकी उम्र  45 छूने पर थी. इस बीच के 21 साल बीते उनके दक्षिण अफ्रीका में. ये 21 साल बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी के 'कर्मवीर गांधी’ बनने के भी वर्ष हैं अौर बिखरे-सोये पड़े भारतीय-एशियाई समुदाय को लड़ने वाली जमात में बदलने के भी साल हैंअौर यह भी हम न भूलें कि यह मानवीय इतिहास में लड़ाई के रंग-ढंग को भी बदलने के साल भी हैं. बनने-बनाने का यह दौर ऐसा चला कि 1948 में उनकी हत्या के बाद जो श्रद्धांजलियां अाईं उनमें एक नाइजीरिया-कैमरून की तरफ से भी थी जिसमें कहा गया था कि “ संसार के सारे दलितों-वंचितों की स्वतंत्रता की मशाल का वाहक नहीं रहा !” यह अश्वेतों-अफ्रीकियों के दिल में प्रवेश किए बिना तो संभव नहीं हुअा होगा ! 

 

            बहुत पहले से लेकिन मुख्तसर देखें तो 1894 में इंडियन अोपीनियन’ में गांधीजी का वह लेख मिलता है जो अफ्रीकी लोगों के समान मताधिकार की पैरवी करता है. 1909-10 में वे दक्षिण अफ्रीका के संविधान की इसी अाधार पर अालोचना करते हैं कि यह संविधान अपने अफ्रीकी नागरिकों के प्रति भेदभाव करता है.  1910 में ही हम दक्षिण अफ्रीका में उस गांधी से मिलते हैं कि जो अचानक ही निर्णय करता है कि अब से वह रेल के तीसरे दर्जे में ही सफर करेगा. ‘ यह क्या हुअा ?’ किसी ने पूछा तो जवाब मिला: ‘ तीसरे दर्जे में सफर करने की कैसी भयानक स्थितियां हैंउनका विवरण पढ़-पढ़ कर मैं तो सिहर जाता हूं. मैंने सोचा कि दूसरा कुछ नहीं कर सकता हूं तो कम-से-कम उस तकलीफ में हिस्सेदारी तो निभाऊं !’ तो हम सब तीसरे दर्जे में बैठे गांधीजी को भारत में खोजते हैं जबकि वे दक्षिण अफ्रीका में हीअफ्रीकियों के साथ एकरूप होने के लिएउनके डब्बे में जो जा बैठे तो फिर वहां से उठे ही नहीं. अौर तकलीफ में हिस्सेदारी’ का सिद्धांत भी वहीं बना. हम पाते हैं कि कोई श्वेत दक्षिण अफ्रीकी यदि अश्वेत अफ्रीकियों के बारे में उदारता दिखाता हैउनकी पक्षधरता करता है तो गांधीजी उसकी प्रशंसा करते हैंउसे समाज के सामने लाते हैं. 18 मई 1908 को जोहानिसबर्ग की एक सभा में गांधीजी भावी दक्षिण अफ्रीका की एक तस्वीर खीचते हैं : “ हम सभी जातियों - रेसेज- के लोग मिल कर यहां एक ऐसी सभ्यता का निर्माण करेंगे जैसी दुनिया ने अाज तक देखी नहीं है.”    

 

            अफ्रीकियों के तब सबसे बड़े नेता थे जॉन ड्यूबे जो अागे चल कर अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष भी हुए. गांधीजीके साथ उनका अच्छा दोस्ताना था. गांधीजी के विकास के साथ-साथ यह दोस्ताना उनके गुणों के चाहकों में बदल गया. अाज हम जिसे स्किल डेवलपमेंट कहते हैं तब वह अौद्योगिक कारीगरी का प्रशिक्षण कहलाता था अौर जॉन ड्यूबे काले युवाअों के लिए वैसे ही प्रशिक्षण का संस्थान चलाते थे - अोहलांगे इंस्टीट्यूट. जॉन ड्यूबे का यह इंस्टीट्यूट गांधीजी के फीनिक्स अाश्रम के पास में था अौर दोनों के बीच खूब अावाजाही थी. दोनों एक-दूसरे के परिसर का सुविधानुसार इस्तेमाल भी करते थे. 1912 मेंजब श्री गोपालकृष़्ण गोखले गांधीजी से मिलने व दक्षिण अफ्रीका का उनका काम देखने वहां पहुंचे थे तब गांधीजी उन्हें खास तौर पर जॉन ड्यूबे से मिलवाने ले गये थे. ड्यूबे साहब ने गोखले के सम्मान में कुछ भी उठा नहीं रखा था. मुलाकात के बाद ड्यूबे साहब की पत्रिका में इसका जो विवरण छपा उसमें गांधीजी को इस बात के लिए धन्यवाद दिया गया था कि उन्होंने ‘ इतनी बड़ी शख्सियत’ से हमें मिलवायासाथ ही यह भी कहा गया था कि अाप स्वंय ही अप्रतिम गुणों’ से भरपूर हैं. 

 

            अफ्रीकियों को जमीन की मालिकी का अधिकार मिले इसकी जद्दोजहद पर गांधीजी की नजर थी अौर 1905 में जब ट्रांसवाल की सर्वोच्च अदालत ने इसके पक्ष में फैसला दिया तो गांधीजी ने इस फैसले का खुल कर समर्थन किया अौर 1908 में जब वे जेल से छूटे तो उन्होंने अोलिव श्रेनियर का एक लेख अपनी पत्रिका में फिर से प्रकाशित किया जिसमें अश्वेतों के समान नागरिक अधिकारों की बात की गई थी. 1909 में उन्होंने राज्य की हिंसक चालाकी से सबको सावधान करने वाला एक लेख लिखा : “ वह दिन करीब अाता जा रहा है जब हमारी किसी की भीचाहे हम काले हों या गोरेकोई सुनवाई नहीं होगी. इसलिए यह अौर भी जरूरी हो गया है कि हमारी लड़ाई सत्य पर अाधारित हो. सत्य की अाध्यात्मिक ताकत को कोई झुका नहीं सकतासत्याग्रह के इस अहिंसक व्यवहार को मानते हुए हमें संघर्ष में उतरना होगा.

 

              तब एक सरकारी अादेश था कि हर अफ्रीकी महिला को अपना पास’ साथ ही रखना पड़ता था. इधर नया पास जारी करने पर रोक भी लगी हुई थी. 1913में इसके खिलाफ एक बड़ा अांदोलन उठा तो गांधीजी ने उसको खुला समर्थन दिया अौर तभी यह भी घोषणा की कि जब तक यह अांदोलन अहिंसक रहेगाउनका समर्थन जारी रहेगा.             

 

             बैरिस्टर साहब गिरफ्तार हो कर पहली बार जब जेल पहुंचे तो उन्हें यह बात नागवार गुजरी कि उन्हें जुलू लोगों के साथ एक ही वार्ड में रखा गया है. यह एतराज रंगभेद की वजह से नहीं था. जेल में दो वर्ग होते ही हैं : अपराधी कैदी अौर राजनीतिक कैदी ! जेल मैनुअल भी यह फर्क करता हैअदालत भी अौर सरकार भी. अापातकाल के दौरान की 19 माह की अपनी जेल में हम भी यह मांग करते ही थे अौर प्रशासन भी चाहता था कि अपराधी व राजनीतिक बंदी अलग-अलगअपने-अपने वार्डों में रहें. प्रशासन तो इसलिए भी हमारे बीच दूरी चाहता था कि कहीं हम अपराधियों का राजनीतिक शिक्षण न करने लगें. अलग वार्ड की गांधी की मांग भी इसी कारण थीन कि रंगभेद के कारण. अौर जुलू अपराधियों के साथ एक ही सेल में रहने का अपना कड़वा अनुभव भी गांधी ने लिखा ही है कि एक बार जब वे शौचालय में थे तभी एक विशालकाय जुलू भीतर घुस अाया. उसने गांधी को उठा कर बाहर फेंक दिया अौर खुद फारिग होने लगा. तब दक्षिण अफ्रीका में दो शब्द प्रचलित थे - भारतीयों के लिए कुली’ तथा अफ्रीकियों के लिए ‘ काफिर’. बैरिस्टर साहब भी कहीं-कहीं काफिर’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं  लेकिन यह घृणा की अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि उनका शब्द-भंडार बहुत छोटा है. समाज में प्रचलित शब्दों को पकड़ कर अपना काम हम भी तो चलाते ही हैं न ! यह उस नीग्रो’ शब्द की तरह है जिस पर अमरीका में प्रतिबंध लगा हुअा है लेकिन जो चलन से बाहर नहीं हुअा है. लोग बोल-चाल में भी बोल जाते हैं तो कई अफ्रीकी लेखकों ने तो अपनी किताबों के शीर्षक में नीग्रो’ शब्द का इस्तेमाल किया है.                                                     

 

      अब गांधी भारत में हैं अौर महात्मा गांधी’ कहे जाने लगे हैं. 22 जुलाई 1926 के यंग इंडिया’ में वे लिखते हैं : “ दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की न्याय की कोई भी लड़ाई तब तक सफल नहीं होगी जब तक वह स्थानीय लोगों से जुड़ कर नहीं लड़ी जाएगी. संघर्ष में सबका साथ अाना जरूरी है.” गांधी का यह विराट स्वरूप बनते-बनते बना है. गांधी का भी विकास हुअा हैहोता रहा है.  लेकिन इस विकास-क्रम में वे रंगभेदी कभी नहीं रहे. इसलिए वाशिंग्टन हो या लंदन या कहीं अौर कालों का जीवन भी मतलब रखता है’ वाली मुहिम को याद रखना चाहिए कि गांधी की मूर्तियां भले वे तोड़ें या न तोड़ें लेकिन गांधी को कभी न छोड़ेंक्योंकि गांधी के बिना अात्मस्वाभिमान की लड़ाई में वे मार भी खाएंगे अौर हार भी. गांधी रास्ता भी हैं अौर उस राह पर चलने का संकल्प भी. ( 23.06.2020)     

 

 

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