Tuesday 28 July 2020

जनता की अदालत में

क्या 70 साल से ज्यादा पुराना भारतीय लोकतंत्र अापको कभी बाजार में बिकने के लिए इस तरह तैयार खड़ा मिला था जिस तरह अाज है यह हमारा नया लोकतंत्र है.  इसमें लोक कहीं है ही नहींअौर सारा तंत्र सरकार का माफिया गैंग बन कर काम कर रहा है - फिर वह चाहे चुनाव अायोग हो कि सीबीअाई कि कैग कि इडी कि इंकम टैक्स विभाग कि कहीं सुदूर में बना कोई पुलिस थाना. सभी जानते अौर मानते अौर करते हैं वही जो राजनीतिक अाका की मर्जी होती है. सांसदों-विधायकों की यह मंडी कहीं दबा-छुपा कर नहीं चलाई जा रही है. यह एकदम खुली हुई है. तब यह मध्यप्रदेश में लगाई गई थीअाज राजस्थान में लगी हुई है. 

 

      ऐसे अंधाधुंध लोकतांत्रिक माहौल में जब सर्वोच्च न्यायालय राजस्थान के संदर्भ में पूछता है कि क्या असंतोष व असहमति की अावाज को अनुशासनहीनता बता कर अाप कुचल देंगेतो जवाब कोई नहीं देता है लेकिन एक दबी हुई हंसी से माहौल भर उठता है. सवाल भी ऐसा ही है अौर ऐसे ही तेवर में पूछा भी गया है कि पहली कतार में बैठ लोग तालियां बजाएंबीच की कतार वाले चुप रहें तथा अंतिम कतार वाले पीठ फेर लें. न्याय की सबसे ऊंची कुर्सी परसबसे अागे बैठे महानुभावों को ऐसी चुप्पी किसने नहीं सुनी है ! चुप्पी अौर निरर्थक मुखरता के बीच भी एक अावाज होती है जिसे न्याय की बेअावाज अावाज कहते हैं. वह अावाज हमने अंतिम बार कब सुनी थी अापको याद अाए तो बताइएगा. 

 

      सरहदें केवल मुल्कों के बीच नहीं होती हैंजिम्मेवारियों के बीच भी होती हैं. भारतीय लोकतंत्र ऐसी ही सरहदों के मेल से बना वह खेल है जिसमें सभी अपने-अपने पाले में अाजाद हैं लेकिन लोकतंत्र के बड़े पाले में सबकी परस्पर निर्भरता है.  संविधान के रचनाकारों की कुशलता अौर दूरदृष्टि हमें हमेशा दंग कर जाती है जब हम पाते हैं कि एक दरवाजा बंद होते ही यह कई खिड़कियां खोल देता है. खुली खिड़कियों के अागे फिर नये दरवाजे खुलते हैं. अब यह दूसरी बात है कि खुली खिड़कियों की तरफ से देखते वक्त हम अांखें बंद रखें. 

 

      जब देश में ऐसी स्थितियां बन रही हों कि जिनका संविधान में जिक्र नहीं है तब अदालतों के कान खड़े हो जाने चाहिए. जनता अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा-पैसा जोड़ कर ऐसे ही वक्त के लिए तो न्यायपालिका को पालती है अन्यथा किसने किसकी जमीन हड़प लीकिसने किसकी कब हत्या कर दी इसके लिए तो हर अकबर के पास उनका अपना बीरबल हुअा ही करता था. लेकिन कोई बीरबल यह तो नहीं बता सकता है कि हमारी संविधानप्रदत्त नागरिकता जब कोई विधायिका छीनना चाहे तब हमें क्या करना चाहिए संविधान ने यह काम किसी बीरबल को नहींन्यायपालिका को सौंपा है. 

 

      कमाल यह है कि वह विधायिका उस संविधान के अादेश से बनी है जिस संविधान को हम नागरिकों ने मिल कर बनाया हैअौर यह विधायिका स्थाई भी नहीं है.  उसकी अायु अधिक-से-अधिक 5 साल तै कर दी गई है. इधर नागरिकता की खूबसूरती यह है कि कुछ अपवादों को छोड़ करयह न किसी की कृपा से मिलती हैन किसी के क्रोध से छीनी जा सकती है. उस नागरिकता को वह विधायिका छीनने की कोशिश कर रही है जिसको ऐसा करने का कोई अधिकार ही नहीं है. क्या न्यायपालिका को इसका संज्ञान नहीं लेना चाहिए न्याय की देवी की अांखों पर पट्टी बंधी होती है,  इस अवधारणा को समझ कर ही हमारे संविधान ने हमारी न्यायपालिका की अांखों पर से पट्टी हटा दी. हमारी न्यायपालिका न केवल बोल सकती है बल्कि देख भी सकती है. वह खुद संज्ञान लेकर विधायिका या कार्यपालिका या जन-जीवन के किसी भी घटक को कठघरे में बुला सकती हैबुलाती रही है. फिर उसने नागरिकता के सवाल पर सरकार को कठघरे में क्यों नहीं बुलाया जबकि सारा देश नागरिकों के अांदोलन से अाप्लावित हो रहा था 


      उसने अाज उस पुलिस को क्यों नहीं कठघरे में बुलाया जो नागरिकता के अांदोलन में लगे युवाअों को नाना प्रकार के अारोपों में घेरनेवाला फर्जी एफअाइअार जारी कर रही है उसने सरकार से क्यों नहीं पूछा कि भीमा कोरेगांव मामले में जिनकी गिरफ्तारियां हुई हैं उन्हें वैसी किसी धारा में कैसे गिरफ्तार किया गया है जिसमें बगैर सुनवाई के उन्हें देशद्रोही करार दिया गया है उन पर जो अारोप है वही इस बात की मांग करता है कि उसकी तुरंत सुनवाई होगहरी छानबीन हो अौर फिर संवैधानिक अाधार पर तै किया जाए कि उन्हें किस धारा में गिरफ्तार किया जा सकता है याकि उन्हें गिरफ्तार करने का अाधार बनता भी है क्या बल्कि मैंसंविधान बनाने वाले नागरिकों का एक प्रतिनिधिमैं न्यायपालिका से पूछना चाहता हूं कि विधायिका ऐसा कोई कानून बना ही कैसे सकी जिसकी जांच-परख अदालत नहीं कर सकती है ?  यह तो संविधान की व्यवस्था को ही धता बताना हुअा. ऐसा कानून बन गया अौर न्यायपालिका ने उसका संज्ञान भी नहीं लियाविधायिका को कठघरे में नहीं बुलाया तो यह वह संवैधानिक अपराध है जिसकी सजा न्यायपालिका को मिलनी चाहिए. न्यायपालिका भी नागरिकों द्वारा बनाए संविधान द्वारा बनाई वह व्यवस्था है जिसे संविधान के संरक्षण की जिम्मेवारी दी गई है अौर उसने शपथपूर्वक उस जिम्मेवारी को स्वीकार किया है. न्यायपालिका जब अपने कर्तव्य से च्युत होती है तब उसे भी जनता की अदालत के कठघरे में खड़ा होना पड़ता है. ( 27.07.2020)  

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