अब हिसाब करता हूं कि कितना तो जज्ब किया था. पूरे छह से ज्यादा सालों से एक दिन भी नहीं गुजरा जब कोई नया घाव न लगा हो. एक अभी भरा भी नहीं कि दूसरा - पहले से भी गहरा ! उसे भी संभाला नहीं कि तीसरा … ऐसा भी कैसे कर सकते हैं आप ? आपके हाथ में खंजर है तो कहीं दिल भी तो होगा ? उसने कुछ नहीं कहा ? सुनता हूं, खंजर वाले हाथ दिल की नहीं सुनते. इतने बौने होते हैं कि उनकी पहुंच दिल तक होती ही नहीं है. दिल भी कमबख्त सबका धड़कता कहां है ?
5 अगस्त के बाद नींद कहीं खो गई. रात के अंधेरे में कहां-कहां नहीं भटकता रहा - उन सब निषिद्ध स्थानों तक गया जहां संस्कारी लोग जाते नहीं हैं. रात-रात भर, जागे-अधजाने कितना गलीज रौंदा, उनमें उतरा, पार करने की कोशिश की. कितने लोगों से मिला - अनायास, निष्प्रयोजन लेकिन कितने सवाल थे जो बहस में बदलते रहे अौर मैं फिर-फिर लौटता रहा. जानता था कि जवाब इनसे मिलेगा नहीं लेकिन जाता रहा बार-बार. हिंदुत्व की कोई परिभाषा तो बने ऐसी जिस पर मैं भी अौर वे भी टिक सकें ? लेकिन ऐसा कुछ नहीं था सिवा गालियों अौर अारोपों के. वे सब वही थे जो अाजादी से पहले के थे. कहीं कोई विकास नहीं, कोई नई सोच नहीं. सपनों में भी इतनी जड़ता ? तभी कोविड ने भी दबोच लिया. दिल को देखते डॉक्टर ठिठक गये. अब ?
नींद पर हमला अौर गहरा हो गया - वह कहीं गुफा में समा गई ! मैं कहता था - नींद जिस कोण से अादमी में प्रवेश करती है, मेरा वह कोण ही खो गया है ! रात-रात भर जागना अौर अंधेरे में घूमना. अपने उस सफर में पहाड़ों पर भी गया, तलहटियों में भी उतरा. जीवन के साधक तो वहीं मिलती हैं न ! लेकिन गांजा, भांग, चरस अादि से अागे की कोई साधना वहां मिली नहीं. जीवन को भुलाने की ऐसी अंधाधुंधी मची है वहां कि जीवन के सवालों के लिए अवकाश ही नहीं रह गया है. लेकिन रोज रात यह सफर चलता रहा - नींद में नहीं, जाग्रत अवस्था में; मैं जानता था कि मैं जागा हुअा हूं लेकिन मन व अवस्था दोनों मेरे बस में नहीं थे. रात भर में घर में घूमता रहता था अौर हर कोने से एक नई कहानी बनती थी जो खिंचती हुई कहां से कहां चली जाती थी. डरा भी. ऐसे सफर भय पैदा करते ही हैं. लेकिन कहीं मन में यह बात घर कर गई थी कि कहीं भी जाऊंगा, बेटी खींच लाएगी. बेटियां ऐसी ही होती हैं क्या ? या इसी के लिए बनी होती हैं. मैं तो गवाही दूंगा.
कितनी-कितनी बार वहां भी गया जहां सुनता था कि धड़कते दिल वाले जाते नहीं हैं. वहां सभी थे अौर सबके दिल धड़क रहे थे. भीड़ बहुत थी लेकिन टकराहट नहीं थी. सबसे स्थिर गांधी ही थे. नीचे से ‘गांधी-गांधी’ के अाते हाहाकार को वे असंपृक्त भाव से महादेव देसाई की अोर बढ़ा दे रहे थे. मैंने महादेव भाई से पूछा : आप इनका क्या करते हैं ? वे बोले : जहां से अाता है, वहीं वापस भेज देता हूं. बापू ने कहा है - सब वापस कर दो. अगर कहीं से, किसी का कोई जवाब अाएगा तो मुझे बताना ? अब तक तो कोई अाया नहीं. रोज मेरा एक ही सवाल, रोज उनका एक ही जवाब. सबसे अलग, चुप अौर कुछ पछताते-से जिन्ना साहब थे. उनके पास भी उनके पाकिस्तान से खबरें अाती थीं जिन्हें वे फाड़ फेंकते थे. मैंने टोका : अाप कुछ कहते क्यों नहीं ? हर बार एक ही जवाब : किससे कहूं ? कौन सुनेगा ? … मैंने भी कहां किसी की सुनी थी ! जयप्रकाश सबसे उद्विग्न थे. बोलते नहीं थे लेकिन स्वगत कहते जाते थे : बापू ने चाहा था कि अाजादी के बाद की दौड़ में सब बराबरी से दौड़ें लेकिन तब कांग्रेस अपनी अगली कतार छोड़ने को तैयार ही नहीं थी. बापू के बाद मैंने दूसरा रास्ता खोजा. मैंने कांग्रेस की अगली कतार ही खत्म कर दी. मेरा कांग्रेस से कोई वैर नहीं था, सवाल लोकतंत्र का था. अब सब बराबरी पर अा गए. मैंने चाहा कि लोकतंत्र की नई दौड़ में सब एक साथ दौड़ कर अपनी जगह बनाएं. लेकिन इन सबकी फिक्र कांग्रेस से अागे निकलने की नहीं, एक-दूसरे को नहीं दौड़ने देने की थी. सारा खेल बिगाड़ दिया इन निकम्मों ने ! अब फंसे हैं जिस गतालखाने में वहां से निकलने की कोई युक्ति नहीं है इनके पास. मैंने कहा : बताने वाला भी तो कोई नहीं है ! जयप्रकाश हर बार मुंह फेर लेते रहे : बताने वाला कोई नहीं होता है, खोजने वाला होना चाहिए. लेकिन अंधे क्या देखें अौर क्या खोजें ! शेख अब्दुल्ला विचलित ही मिले : कश्मीर का जो हाल किया है, क्या उसे कभी ये काबू कर पाएंगे ? कोई नहीं बोला भरी संसद में कि धारा 370 कश्मीर ने नहीं, भारत की संविधान सभा ने बनाई थी. मैं भी था बनाने वालों में. भारत की संविधान सभा नहीं चाहती तो यह धारा बनती क्या; अौर तब कश्मीर भारत को मिलता क्या ? इन्होंने यह भी नहीं समझा कि भूगोल बनाने में पीढ़ियां निकल जाती हैं, गंवाने में पल भर ही लगता है… मैं देखता था कि जवाहरलाल बगल से निकल जाते थे, बोलते कुछ नहीं थे… यहां तक मैं पहुंचता कैसे था अब याद करता हूं तो उबकाई अाती है. रक्त, पीव से सने रास्तों को पार करता जब मैं यहां पहुंचता था तो कहीं खड़े रहने की हालत नहीं होती थी. फिर अचानक दिल पर लगे घावों से रक्त बहने लगता था - दर्दविहीन रक्तस्राव ! मैं वैसे ही इन सबके बीच से गुजरता था. यह समझ पाता था कि इनमें से कोई मुझे, मेरे रक्तस्राव को देखता नहीं था. सब स्वगत-सा वह सब बोलते थे जो मुझे टुकड़ों में याद रह आता है. कुछ भूल गया हूं फिर भी कड़ियां जोड़ पाता हूं. दोनों पांव जैसे बहते, बदबूदार परनाले में बदल जाते थे जिनसे मल बहता रहता था …
हर बार वैसे ही रास्तों को पार कर लौटता था - बहुत लंबा रास्ता ! अंधेरा भी, बदबू भी अौर असंबद्धता भी! जितना घायल जाता था, उसे ज्यादा घायल लौटता था. विचलित अौर भ्रमित भी. बहुत भ्रम अौर बहुत भय से भरा यह अनुभव था. दिन ऐसी रोशनी से भरा होता था जिसमें चैन का एक पल भी नहीं होता था - घर को अासपास पा कर जो अाश्वस्ति होती थी वही भर ! कमजोरी इतनी कि बताने में ही दम निकल जाए.
दिन में रोज नये-नये जख्मों का इजाफा होता था. अौर उतने ही अांसू निकलते थे. घर के सभी अासपास न हों तो घबराहट से सिकुड़ जाता था; बाहर का कोई अाए तो परेशानी से दुबक जाता था. रोशनी राहत भी देती थी अौर डराती भी थी. रात का ख्याल भय से भर देता था कि फिर वही भटकाव, वहीं गंदगी, वहीं बदबू अौर वही बेचैनी ! सोसाइटी के अाहाते में खड़ी हर गाड़ी, अाधी रात को, जब मैं घूमता हुअा खिड़की से बाहर देखता था, मेरे देखते ही चल देती थी. इतनी रात में यह कहां चली ? लेकिन गाड़ी ही नहीं चलती थी, उसके साथ ही मैं भी चलता था अौर फिर बनती जाती थी एक कहानी- डरावनी-सी, अनैतिक-सी, अंतहीन सी ! थक कर बिस्तर बने सोफे के कोने में बैठ जाता था- अंधेरा भी साथ ही बैठ जाता था- नाचता हुअा, गहराता हुअा अौर नींद को झाड़ कर दूर भगाता हुअा.
अब यह सब याद कर रहा हूं तो पाता हूं कि यह घायल मन की भटकन तो थी ही, घाव की पीड़ा भी थी. घाव जो लगातार लग रहे हैं, बढ़ रहे हैं. ऐसा लगता है कि अब तो कोई जगह भी बाकी नहीं बची जहां जख्म जगह पा सकें. गालिब की जिद ही सही, मैं उसे पूरा तो रख ही दूं : दिल ही तो है/ नहीं सग-अो-खिश्त/ दर्द से भर न अाए क्यूं/ रोएंगे हम हजार बार/ कोई हमें रुलाए क्यों. ( 23.10.2020)
No comments:
Post a Comment