Wednesday 1 May 2019

आदमकद देश का बौना चुनाव

कहते हैं कि चुनाव लोकतंत्र का महापर्व है; लेकिन यही चुनाव है कि जिसमें देश का दर्द-दर्प-गर्व सब धूल-धूल हो जाता है; अौर यह काम वे करते हैं जो कसमें खा-खा कर देश की दुहाई देते हैं. देश को धूल बनाने वाले इस चुनाव की व्याख्या करते हुए कभी विनोबा भावे ने बड़ी मार्मिक बात कही थी : हमारे यहां चुनाव का सूत्र है :  मिथ्या भाषण, परनिंदा अौर अात्मस्तुति ! अाज चुनाव के सभी स्टार प्रचारक एंड़ी-चोटी का जोर लगा कर विनोबा को सही साबित करने में जुटे हैं; जो जितना बड़ा प्रचारक है वह इस सूत्र का उतना ही बड़ा सूत्रधार है. हमने चुनाव का हाल ऐसा बना दिया है कि वोट मांगने वाला उम्मीदवार नहीं, वोट देने वाला मतदाता ही याचक बना फिरता है. अौर चुनाव अायोग ? उसके हाथ में एक चमकती हुई, दिनोदिन महंगी होती जा रही तलवार है जिसका राज यह है कि वह गत्ते की है.   

चुनाव अायोग के पास इतनी भी ताकत नहीं है कि वह चुनाव की तारीखों की घोषणा स्वविवेक से कर सके; उम्मीदवारों द्वारा घोषित संपत्ति के ब्योरों को जांच भी सके अौर उसके अाधार कर काररवाई भी कर सके. चुनाव अायोग के पास ऐसी भी कोई ताकत नहीं है कि वह अपराधियों को उम्मीदवार बनने से रोक सके अौर ऐसे लोगों को प्रश्रय देने वाले दलों को चेतावनी जारी कर सके. चुनावों का लोकतांत्रिक चेहरा तभी गढ़ा जा सकता है जब रोज-ब-रोज उभरने वाले उसके दोषों का निराकरण होता चले. अगर यह एक बंद तालाब है तो इसका सड़ना निश्चित है.   

लोकतंत्र में चुनाव पंचायत से शुरू होते हैं अौर कई स्तरों पर चलते-चलते, कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के छात्रसंघों तक पहुंचते हैं. जरा करीब से देखिए तो ये ही वे प्राथमिक स्कूल हैं जहां बड़े चुनावों की ट्रेनिंग दी जाती है. चुनाव की इस पूरी प्रक्रिया को तोड़-मरोड़ कर, इसमें से लोकतंत्र की भावना को दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंकने का प्रशिक्षण  यहीं पूरा होता है. चुनाव में यह भी करना पड़ता है कि व्यक्ति अौर समाज में छिपे हर गर्हित भाव को उभार-ललकार कर उसे अादमी नहीं, भीड़ बनाना पड़ता है. अगर जनता भीड़ न बने तो अाज के सत्वहीन, चरित्रविहीन अौर ज्ञान-संस्कारशून्य राजनेताअों को वोट देगा कौन ? इसलिए क्षुद्र-से-क्षुद्र मुद्दे खोजने व भड़काने पड़ते हैं; अर्थहीन नारों में फेफड़ों की ताकत भरनी पड़ती है अौर बेतुकी बातों की तुकबंदी बिठानी पड़ती है. 

मेरी बातों से अापको कहीं ऐसा तो नहीं लग रहा है न कि मैं चुनाव की व्यर्थता साबित कर रहा हूं ? नहीं, मैं तो इतना ही बताने की कोशिश कर रहा हूं कि हमारे चुनाव सार्थक हों, इसके लिए क्या-क्या करने की जरूरत है. चुनाव राष्ट्रीय स्तर का है तो उसके मुद्दे भी राष्ट्रीय स्तर के होने चाहिए. राष्ट्रीय मुद्दे होंगे तो व्यक्ति कहीं पीछे छूट जाएगा अौर देश अागे अा जाएगा. फिर सीनों की चौड़ाई से राष्ट्रीयता की पहचान नहीं की जा सकेगी, ज्ञान की गहराई से दलों की दशा अौर दिशा नापी जाएगी.

 राष्ट्र के सामने सवाल है कि उस अातंकवाद का मुकाबला कैसे किया जाए जो सीमा पार से भी अा रहा है, अौर सीमा के भीतर भी गाय-जाति-सांप्रदायिकता के नाम पर फूटता रहता है. फूटे कहीं से भी अौर उसका रंग कैसा भी हो, अातंकवाद राष्ट्र की सामाजिक बुनावट को ढीला करता है, समाज को बिखेर देता है. अातंकवादी उस बिखरे समाज के ढेर में अाग लगा देता है. अगर राष्ट्र सामने हो तो अाप एक अातंकवाद का विरोध अौर दूसरे का साथ नहीं ले सकते, अौर न मतदाता एक को कबूल कर, दूसरों से अांखें मूंद सकता है. 

अगर राष्ट्र सामने है तो चुनौती बेरोजगारी की है जो सुरसा की भांति बढ़ती जा रही है. यह एक साथ ही देश का वर्तमान अौर हमारे युवाअों का भविष्य लील रही है. चुनाव में उतरे सभी चतुर सुजानों में से कोई एक तो बताए कि पिछले ५ सालों में, अौर पिछले ७० सालों में वह क्या नहीं किया जा सका कि जिससे बेरोजगारी का ऐसा खतरनाक मंजर सामने अाया है ? अौर कारण बताने से बीमारी तो दूर होती नहीं है. सो यह भी बताना होगा इन सारे जम्हूरों को कि क्या करेंगे अाप कि बेरोजगारी पर लगाम लगेगी ? यहां तो यह भी पता नहीं है कि बेरोजगारी की स्थिित क्या है अाज, तो लगाम कैसे लगेगी अौर कौन लगाएगा ? अापने अांकड़ों का आईना ही तोड़ दिया है. 

गांव-गांव से एक ही चीखती अावाज अा रही है कि किसानों की अात्महत्या का क्या करेंगे अाप ? इन सारे चुनावी दिग्गजों को अब तक जो सूझा है वह है कर्जमाफी ! कर्जमाफी का एक, अौर सिर्फ एक ही मतलब होता है : अाज नहीं, कल अात्महत्या करना ! किसान कहता है : अगर किस्मत में यही बदा है तो वह कल क्यों, अाज ही क्यों न हो जाए !! पुलवामा में लाशें गिन कर जो मौत का मंजर बना रहे थे अौर बालाकोट में जो इसी गिनती की होड़ में पड़े थे कि कितने सर थे, वे ही राजनेता अाज हमारे किसानों से कहते हैं : हम लाशें नहीं, वोट बटोरने अाए हैं ! लेकिन मरने वाला फौजी क्या कहता है ? उस दिन टीवी पर उनका कमांडर एकदम तटस्थ चेहरे से कह रहा था : हमें जो काम दिया गया था उसे हमने सफलतापूर्वक अंजाम दिया है, बस ! …नहीं, लाशें गिनना हमारा काम नहीं है !  यह है देश के कद का जवाब - देश के कद को ऊंचा बनाने वाला जवाब !! 

तो जवाब किसी के पास नहीं है कि हमारे चुनाव कब देश के कद के होंगे ? सब भले मौन रहें, मेरी तरफ से अाप एक सच्चाई जरूर दर्ज कर लीजिए कि हमारे मुद्दे जब तक देश के कद के नहीं होंगे, हमारे चुनाव बौनों के हाथ के खिलौने ही बने रहेंगे. ( 28.03.2019)       

2 comments:

  1. यह लेख हमें सच्ची तस्वीर से रुबरु कराता हैं
    सोचने की सही दिशा देता हैं इस दौर मे एसे लेख जरुरी हैं
    आपको बहुत बहुत धन्यवाद
    अशोक चौधरी

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  2. 17 वीं लोकसभा के गठन के लिए आम चुनाव देश में आयोजित किया जा रहा है. अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि जघन्य अपराधियों को इस दफा भी मुख़तलिफ राजनीतिक दलों द्वारा बाक़ायदा पार्टी टिकट प्रदान करके उम्मीदवार घोषित किया गया है. 15 अगस्त 1947 को आजादी हासिल करने के तत्पश्चात भारतीय गणतंत्र को जंग-ए-आजादी के यौद्धाओं द्वारा अपने आदर्शवादी चरित्र और आत्म बलिदान से सींच कर परवान चढ़ाया गया. आज के दौर में राजनीति का अपराधीकरण वस्तुतः भारतीय गणतंत्र के उज्जवल मस्तक पर एक बदनुमा दाग की तरह चस्पा हो गया. भारतीय संविधान के तहत वर्ष 1952 में 489 सीटों के लिए पहला लोकसभा चुनाव संपन्न हुआ. संविधान के निर्माता स्वातंत्रय संग्राम के योद्धओं ने कल्पना भी नहीं की होगी कि भारतीय गणतंत्र में एक दौर ऐसा भी आएगा कि सुप्रीमकोर्ट को केंद्रीय हुकूमत को निर्देशित करना पड़ेगा कि ऩृशंस अपराधों के बदनुमा दागों से सराबोर राजनेताओं के विरुद्ध न्यायालयों में लंबित पड़े हुए मुकदमों का निर्णय जल्द से जल्द करने के लिए स्पेशल फास्ट ट्रैक अदालतों का बाकायदा गठन किया जाए. विकट विडंबना रही है कि हुकूमत-ए-हिंद को प्रत्येक न्यायपूर्ण कदम उठाने लिए सुप्रीमकोर्ट के दिशा निर्देश की आवश्यकता होती है? वर्ष 2014 में 16वीं लोकसभा चुनाव के लिए रिकॉर्ड मतदान हुआ और 30 वर्षो बाद किसी एक राजनीतिक दल ने स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया. दोनों ही तथ्य गणतंत्र की परिपक्वता की द्योतक रहे. लेकिन एक निराशाजनक हकीकत है कि विजयी लोकसभा सदस्यों की पांतों में 34 फीसदी अर्थात 186 सांसद ऐसे थे, जिन पर आपराधिक मामले चल रहे थे. नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स द्वारा लोकसभा सदस्यों के शपथ पत्रों से जुटाए आंकड़ों के मुताबिक, आपराधिक पृष्ठभूमि के 186 सांसदों में से 121 सांसदों के खिलाफ कत्ल, कत्ल की कोशिश, अपहरण, सांप्रदायिक दंगा करने एवं महिलाओं के खिलाफ आदि गंभीर अपराध अदालतों में लंबित पड़े थे. लोकसभा में जिस तरह चुनाव दर चुनाव संसद में जघन्य अपराधियों के पहुंचने का आंकड़ा निरंतर बढ़ता रहा. गणतंत्र के लिए यकीनन खतरे की विकट घंटी है. भारतीय राजनीतिक पटल पर पार्टी विद डिफरेंस का दावा पेश करने वाली पार्टी भाजापा विगत चुनाव में पूर्ण बहुमत के साथ सत्तानशीन हुई, किंतु जघन्य अपराधियों को सक्रिय चुनाव राजनीति से निष्कासित करने के लिए मोदी हुकूमत द्वारा एक कदम भी नहीं उठाया गया. यहां तक कि शर्मनाक तौर पर पाँच दागी सांसदों को मोदी कैबिनेट में स्थान प्रदान किया गया. 17 वीं लोकसभा के लिए भाजापा द्वारा तकरीबन पचास दागी उम्मीदवार चुनाव मौदान में उतारे गए हैं. भारतीय राजनीति को स्वच्छ और शुचितापूर्ण बनाने का अभियान तभी कामयाब हो सकेगा, जब हमारे सभी राजनीतिक दल अपराधियों को चुनाव में कदापि अपना प्रत्याशी नहीं बनाएंगें. देश की सुप्रीमकोर्ट द्वारा प्रदान किए गए प्रबल पैगाम और दिशा निर्देशों को लागू करने के लिए चुनाव आयोग को अत्यंत शक्ति संपन्न बनाना होगा.

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