Wednesday 1 May 2019

गिरे हुए पर्दे के पीछे से

यह अच्छा हुअा कि गिरे चुके पर्दे के पीछे से लालकृष्ण अाडवाणी ने मंच पर होने का भ्रम रचा ! उन्होंने अपने जीवित होने का प्रमाण उस वक्त दिया जब उनकी भारतीय जनता पार्टी मृतप्राय हो चुकी है. उनका बयान बहुत करेगा तो कुछ लोगों के मन में पुरानी टीस ताजा कर देगा. इससे अधिक न तो अाडवाणीजी कुछ करना ही चाहते हैं, अौर न कर ही सकते हैं. नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी ने अाडवाणी-मुक्त पार्टी बनाने का काम इतनी तेजी से किया है कि वह अब अाडवाणी के बस से बाहर निकल गई है. यह भी न्यायोचित ही है कि अाडवाणीमुक्त भारतीय जनता पार्टी बनाने का काम उन्हीं लोगों ने किया जिन्हें अाडवाणीजी ने पाल-पोस कर बड़ा किया था. कांग्रेसमुक्त भारत बनाने का नरेंद्र मोदी का सपना पूरा हो कि न हो, अाडवाणीमुक्त भाजपा बनाने का काम उन्होंने कर ही लिया है.  इसका फायदा दोनों को होगा - अाडवाणी को भी अौर पार्टी को भी. 

पहले अाडवाणी का फायदा गिनें हम. 

अपने इस ताजा बयान से अाडवाणीजी ने अपने होने का जो हल्का-सा अहसास कराया है उससे कई लोग अपनी डायरी में तारीखों का सुधार कर लेंगे. नरेंद्र मोदी ने तो कर ही लिया है. उन्होंने मृतकों की बनाई अपनी सूची में अाडवाणीजी के नाम के अागे महान भी जोड़ दिया है. बहुत संभव है कि अब सारे चौकीदार ऐसा ही करें. अाप ही सोचिए, मरने के बाद ऐसा नसीब कितनों का होता है !  दूसरा फायदा अाडवाणीजी को यह होगा कि अब कोई चाह कर भी उनका अपमान नहीं कर सकेगा. प्रमुख चौकीदार ने जिसे न केवल महान मान लिया बल्कि सार्वजनिक रूप से यह भी घोषणा कर दी कि उनका सौभाग्य है कि वे ‘इस महानात्मा’ की छत्रछाया में पले-बढ़े हैं, तो अब कौन उनका अपमान करने की हिम्मत करेगा ! वे पिछले पांच वर्षों से कभी इस तो कभी उस मंच पर, कभी इस रास्ते के बीच में तो कभी उस सड़क किनारे हाथ फैलाये भिक्षुक की तरह खड़े दिखाई देते रहे हैं. उनका पूरा अस्तित्व जैसे प्रधानमंत्री की एक नजर के लिए झुका-बिछा दिखाई देता था; अौर यह देखना अापको ही बहुत पतनशील अौर घुटता हुअा बना देता था. 

वे लोकसभा में किन्हीं दो दबंग मंत्रियों के बीच दुबके-से बैठे दिखाई देते थे अौर बड़ी मुश्किल-से उनकी मिमियाती अावाज कभी ऐसे सुनाई दे जाती थी कि सोचना पड़ता था कि यह अाडवाणीजी की अावाज है या नमो टीवी ने उनकी िरकार्डिंग बनाई है ! लगता ही नहीं था कि यह अादमी कभी इसी पार्टी की किस्मत बनाया-मिटाया करता था. मुझे मालूम नहीं कि पत्नी, बेटी के भरे-पूरे परिवार में किसी ने इस बात की कभी फिक्र क्यों नहीं की कि अाडवाणीजी उन जगहों या उन लोगों के बीच जाएं ही क्यों कि जिनके बीच या जिनके मन में मनुष्य के सम्मान का रंच भी नहीं है ? 

राजनीति के मैदान में ऐसे सवाल अक्सर अनुत्तरित ही रह जाते हैं. हर युद्धभूमि कुरुक्षेत्र का मैदान नहीं होती, अौर न हर वक्त उस मैदान में कोई कृष्ण ही उपस्थित होता है कि जो मानव-मन की गहराइयों में उतर कर कोई नई गीता रच दे ! इसलिए इस गाढ़े वक्त में, जब लोकतांत्रिक समर में हर मर्यादा तोड़ी जा रही है, अौर लोकतंत्र को ही एक फालतू का बोझ बताया जा रहा है, अाडवाणीजी ने जिन बुनियादी लोकतांत्रिक मूल्यों की तरफ इशारा किया है, वह हमें राहत देता है. कोई इतना कहे कि ‘हम दुश्मन’ नहीं हैं, कि ‘हम देशद्रोही’ नहीं हैं, तो अपने बारे में यह सत्य अच्छी रह जानते हुए व दृढ़ता से मानते हुए भी लगता है कि किसी ने इसे रेखांकित किया तो अच्छा किया. कभी ऐसा ही जयप्रकाश नारायण ने भी किया था जब उन्होंने हमसे कहा था -  सच कहना अगर बगावत है तो समझो हम भी बागी हैं ! राजनीति के परोपजीवी चाहे नोट संभालें कि अावाज, सत्य की यह तासीर कभी समझ नहीं सकेंगे. 

अब नरेंद्र मोदीजी का फायदा भी देख लें.

राजनीति में सबसे बड़ा खतरा तब पैदा होता है जब अाप सर्वज्ञानी या अॉलराऊंडर होने का भ्रम पालने लगते हैं. ऐसे ही क्षण पर अाजमाने के लिए, अौर सही ठिकाने पर वापस लौटने के लिए महात्मा गांधी ने एक ताबीज बनाया था. लेकिन वह इतनी बड़ी अौर पवित्र बात है कि उसका जिक्र करते भी मन सकुचाता है. तो दूसरा रास्ता यह है कि जब अापको ऐसा भ्रम होने लगे तो अापको उन लोगों के पास जाना ही चाहिए जो अापके सर्वज्ञ होने के दावे से सहमत नहीं हैं. ऐसा ही भ्रम श्रीमती इंदिरा गांधी को भी हुअा था अौर तब चंडीगढ़ के एकांत बंदीगृह में बैठे जयप्रकाश नारायण ने उन्हें पत्र लिखा था : इंदिराजी अाप अमर नहीं हैं, देश अमर है ! अाज जयप्रकाश भले न हों, हम हैं; अौर हमें एक-दूसरे को यह सत्य याद दिलाते रहने की जरूरत है.  ऐसा इसलिए जरूरी है कि राजनीति की धरती पर दूसरा कुछ पैदा हो कि न हो, चापलूसों की खर-पतवार बहुत उगती है, अौर बहुत तेजी से उगती है. दूसरी तरफ अहंकार सत्ताधारी की अनिवार्य खुराक है. बेड़ा गर्क यह है कि अहंकार की खाद पर ही चापलूसी की बेल सबसे अधिक फलती-फूलती है. पिछले पांच सालों की दूसरी समीक्षाएं तो होती ही रहेंगी, यह निर्विवाद है कि अाज सारा देश अयोग्य, अहंकारी व चापलूस लोगों के जंगल में बदल गया है. ऐसा पहले भी था लेकिन संविधान, स्वायत्त संस्थाएं, अाजाद मीडिया, सार्वजनिक जीवन की बड़ी हस्तियां, विपक्ष सब मिल कर इसे जमीन पर ले अाते थे. यह सब अाज सिरे से गायब है. इसलिए प्रधानमंत्री अगर महान लालकृष्ण आडवाणीजी को ही सुनें तो भारतीय लोकतंत्र का अौर भारतीय जनता पार्टी का, अौर स्वंय नरेंद्र मोदी का भला होगा. चुनाव अौर उसमें मिलने वाली जबर्दस्त जीत ही सब कुछ होती, अौर लोकतंत्र का कुल मानी सत्ता पाना भर होता तो 1977 में इंदिरा गांधी कि वैसी दशा कैसे होती; अौर राजीव गांधी का प्रचंड बहुमत सूखे पत्तों का क्यों उड़ जाता ? नहीं, इस लोकतंत्र के पास, इस अनपढ़-गरीब-असंगठित-असभ्य-सी दिखाई पड़ने वाली जनता के पास एक तीसरी अांख भी होती है. कहिए कि यह लोकतंत्र ही वह तीसरी अांख है. इससे सबको बचना चाहिए - नरेंद्र मोदी को भी !
गिरे हुए पर्दे के पीछे से लालकृष्ण अाडवाणीजी इतनी बड़ी भूमिका निभा जाएंगे तो सच महान हो जाएंगे. ( 06.04.2019 )    

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