Wednesday 1 May 2019

न्याय अौर न्यायमूर्ति

जब देश में महाभारत छिड़ा हो तब महाभारत ही याद अाएगा न !  सो  महाभारत में ऐसे प्रसंग अाए हैं जब धर्मसंकट में पड़े हैं धर्मराज ! हम याद करें कि वे धर्मराज युधिष्ठिर ही थे कि जिन्होंने ‘नरो वा कुंजरो वा’ कह कर द्रोणाचार्य का बध करवाने अौर फिर भी सत्यवादी बने रहने की चालाकी की थी. उनकी वह चालाकी अाज तक कलंक बन कर उनके माथे से चिपकी है! वे धर्मराज थे; अाज का प्रसंग संविधान नामक धर्म के रक्षक का है. वे युधिष्ठिर थे; ये तरुण गोगई हैं. संकट एक ही है - अपनी ही तराजू पर खुद को कैसे तौलें ? 

मुझे नहीं मालूम कि हमारे देश की न्यायपालिका की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे न्यायमूर्ति तरुण गोगई पर जिस महिला ने पहले शारीरिक अौर फिर मानसिक शोषण का अारोप लगाया है वह कौन है; वह कैसे उनके घर में, उनके निजी चैंबर तक जा पहुंची अौर उनकी निजता के समय में हिस्सेदारी करने लगी; अौर फिर वह कौन है जो उस तक पहुंचा कि वह अब न्याय मांगने हमारे बीच अा पहुंची है ? यह सब कुछ किसी षड्यंत्र का हिस्सा हो सकता है लेकिन इससे हमें या तरुण गोगई को कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए. इसलिए फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि जिसने अारोप लगाए हैं, अौर जिसके खिलाफ अारोप लगाए गए हैं दोनों की न्यायिक जांच की एक सर्वस्वीकृत, पारदर्शी प्रक्रिया- विशाखा- हमारे यहां बनी हुई है अौर हमारे समाज में उसका इकबाल भी बना हुअा है. सारी परेशानी अौर एक अशोभनीय विवाद यहीं से खड़ा हो रहा है. 

न्यायपालिका ने निर्देश से, महिला उत्पीड़न की हर शिकायत को निबटाने के लिए जो विशाखा समिति हर संस्थान में बनाने की अनिवार्यता है, अौर जो सर्वोच्च न्यायालय में भी बनी हुई है, अपने मामले में सर्वोच्च न्यायाधीश ने उस समिति को दरकिनार क्यों कर दिया है ? सबसे बड़ी अदालत के सबसे बड़े न्यायमूर्ति पर, वैधानिक व्यवस्था के तहत मिले उन्हें मिले उनके सहायकों में से सबसे छोटे पद पर नियुक्त ३५ वर्षीय अलका रानी ने शपथ-पत्र दाखिल कर अारोप लगाया है कि रंजन गोगई ने अपने सर्वोच्च पद के अधिकार का दुरुपयोग कर, उनके साथ शारीरिक छेड़छाड़ की. शपथ-पत्र काफी बड़ा ही नहीं है बल्कि इतने विस्तार से, हर छोटी बात को तारीखवार दर्ज कर के तैयार किया गया है कि कोई भी समझदार अादमी समझ लेगा कि यह सब किसी व्यवस्थित योजनानुसार किया गया है. 

ऐसा हो तो भी हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम अलका रानी को खारिज कर दें. इस आरोप की विधिवत जांच होनी ही चाहिए अौर हमें पता भी चलना चाहिए कि जांच में क्या पाया गया! इसका तरीका एकदम सीधा था, अौर है. रंजन गोगई के सामने जैसे ही यह बात अाई, उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में ऐसे मामलों के लिए ही बनी हुई समिति को इसे सौंप कर भूल जाना चाहिए था अौर उन मामलों की सुनवाई में लग जाना चाहिए था जो उनकी बेंच के सामने हैं अौर जिनका नाता देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था स्वास्थ्य से है. 

लेकिन रंजन गोगई ने खुद ही एक दो सदस्यीय बेंच गठित कर दी; खुद ही उसमें पेश हो गये अौर अपनी गरीबी की, बैंक में रखे पैसों की बात बता कर मामले को भटका दिया. फिर उसके ही अाधार पर एक फैसला भी सुना दिया गया. इस अदालती कसरत की व्यर्थता पर सवाल उठे तो उन्होंने फिर सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश बोबडे को यह मामला सौंप दिया जिन्होंने न्यायमूर्ति रमन्ना अौर इंदिरा बनर्जी को अपने साथ जोड़ लिया अौर इस मामले की सुनवाई शुरू कर दी. क्या देश की सर्वोच्च अदालत के पास, जो रात-दिन इसका ही रोना रोती रहती है कि उसके पास जरूरी मामलों की सुनवाई करने के लिए पर्याप्त जज ही नहीं हैं, इतना वक्त है अौर इतने जज हैं कि वह एक महिला की ऐसी शिकायत की जांच के लिए जमीन-अासमान एक कर दे ? फिर विशाखा समिति की जरूरत ही क्या है ? यह मामला इतना बड़ा बनाया ही क्यों गया ? क्या इसलिए कि हमारी न्यायिक व्यवस्था कुछ छुपाना अौर किसी को बचाना चाह रही है ? न्याय के बारे में वह कहावत पुरानी है लेकिन बहुत अर्थवान है कि न्याय हुअा यह काफी नहीं है, समाज को दिखाई भी देना चाहिए कि न्याय हो रहा है ! रंजन गोगई अौर हमारी न्यायपालिका इसमें चूक कर गई. 

अब षड्यंत्र का एक नया ही पहलू अधिवक्ता उत्सव बैंस के हलफनामे से उभरा है. वे इस अारोप के पीछे एक कारपोरेट घराने अौर कुछ असंतुष्ट कर्मचारियों के बीच बुने गये षड्यंत्र की की बात करते हैं तथा डेढ़ करोड़ रुपयों के सौदे की बात करते हैं. अब इसकी जांच में अदालत की एक दूसरी बेंच पड़ी है. उसे पड़ना ही चाहिए अौर इस पूरे मामले की जड़ तक पहुंचना चाहिए. यदि इसके पीछे धनबल-सत्ताबल से उन्मत्त लोग हैं तो उनका चेहरा देश के सामने अाना ही चाहिए. देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त करने की कोशिश का यह भी एक हिस्सा है या नहीं, यह देश को पता चलना चाहिए. लेकिन अलका रानी का अारोप इस अंधाधुंधी में कहीं खो नहीं जाना चाहिए; अौर न यही होना चाहिए कि उनका अारोप यदि झूठा है तो कहीं भुला दिया जाए. इसलिए बहुत जरूरी है कि अलका रानी अौर उत्सव बैंस का मामला अलग-अलग चले. अलका रानी का मामला विशाखा समिति को अभी-के-अभी सौंप देना चाहिए अौर न सर्वोच्च न्यायालय को अौर न रंजन गोगई को इसके पीछे मिनट भर भी खराब करना चाहिए. विशाखा समिति को अपनी जांच में यदि ऐसा लगे कि यह शारीरिक शोषण का नहीं, राजनीतिक चालबाजी का मामला है तो उसे ऐसा बता कर, मामले की पूरी जानकारी उस बेंच को दे देनी चाहिए जो बैंस का मुकदमा सुन रही है. इससे सर्वोच्च न्यायालय का समय भी बचेगा, उसकी विश्वसनीयता कायम ही नहीं रहेगी बल्कि बढ़ेगी अौर रंजन गोगई की बेंच उन सारे मामलों की सुनवाई करती रह सकेगी जिनका संबंध भारतीय लोकतंत्र के भविष्य अौर सरकार की मनमानी से है. ( 25.04.2019)

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