Wednesday 1 May 2019

कोई तो बताए !

मैं कब से ही खोज रहा हूं कि पुलवामा में, सड़क पर अातंकियों ने हमारे जिन 40 जवानों को मार डाला याकि बालाकोट में हमारी सेना के जिन हवाबाजों ने बहादुराना जवाबी काररवाई की, वे सब इस चुनाव में कहां-कहां से खड़े हुए हैं. मैं इस चुनाव में यदि उन सबको वोट देना चाहूं तो मुझे पता तो हो कि कौन, किस संसदीय क्षेत्र से खड़ा है ! मैं यह भी जानना चाहता हूं कि उन्हें किस पार्टी ने टिकट दिया है ? वैसे यह सवाल जरा बेमानी है क्योंकि ऐसे बहादुरों को टिकट देने वाली 56 इंच चौड़ी छाती तो केवल एक ही पार्टी के पास है, तो  पार्टी के बारे में क्या पूछना ! लेकिन संसदीय क्षेत्र का पता न हो तो वोट देने की बात कैसे बने ? प्रधानमंत्री चीख-चीख कर, दोहरा-दोहरा कर अामसभा के मंच से कह रहे हैं कि अाप अपना पहला वोट पुलवामा के शहीदों अौर बालाकोट के बहादुर जवानों को दीजिए - दे सकते हैं क्या ? तो हमें बताइए श्रीमान कि वे कहां से खड़े हुए हैं ? चुनाव अायोग बताए ? याकि हमें यह समझना चाहिए कि प्रधानमंत्री कह यह रहे हैं कि पुलवामा अौर बालाकोट के नाम पर देश उन्हें वोट दे ? अगर वे ऐसा कह रहे हैं, जो सच में वे कह रहे हैं, तो क्या चुनाव अायोग इसे पचा ले जाएगा ? फिर चुनाव अाचारसंहिता का मतलब ही क्या रहा ? अौर यह भी कि फिर चुनाव अायोग का ही मतलब क्या रहा ? 

खबर है कि मायावतीजी के किसी भाषण के बारे में, जिसके बारे में ऐसा अारोप है कि वे सांप्रदायिक भावना भड़काने की कोशिश कर रही थीं, चुनाव अायोग ने उनसे सफाई पूछी है. उसे ऐसा करना ही चाहिए था. चुनाव की अाचारसंहिता लागू होने के बाद, उसके विपरीत पत्ता भी खड़के तो अायोग को सवाल पूछना ही चाहिए. लेकिन फिर सूखे-सड़े हर पत्ते के खड़कने पर सवाल उठना चाहिए. लेकिन प्रधानमंत्री के उस बदनाम भाषण के बारे में, जिसमें उन्होंने सेना को वोट के लिए भुनाने की कोशिश की, चुनाव अायोग की चुप्पी क्यों बन गई ? अब सुना है कि  चुनाव अायोग ने उस भाषण की रिकार्डिंग मांगी है. क्यों भला ? फिर मायावतीजी के भाषण की रिकार्डिंग क्यों नहीं मांगी ? शिकायत होने पर उनसे सीधी सफाई कैसे पूछी गई ? क्या सभी चैनलों पर चल रहे प्रधानमंत्री के भाषण की क्लिपिंग ही काफी नहीं है ? वह क्लिपिंग ही काफी है कि अायोग प्रधानमंत्री को नोटिस जारी करे. क्या चुनाव संहिता लागू होते ही सबको यह पता नहीं हो जाना चाहिए कि अब किसी राजनीतिक नेता की छवि चमकाने या धुंधलाने वाली फिल्म हो कि नमो जैसे अर्थहीन दुष्प्रचार वाले चैनल या कि वेब पर चलाई जा रही दूसरी अाधारहीन सामग्रियां नहीं चल सकती हैं ? हमारे राजनीतिक मंच पर जहर घोलते अादित्यनाथों, कल्याण सिंहों, मनेका गांधियों तथा वैसे ही छुटभैयों के जहरीले बोलों को वहीं-के-वहीं दफना देने की सावधानी नहीं होनी चाहिए ? जहर फैल कर अपना काम कर जाता है फिर हम उसे रोकें कि धमकाएं क्या फर्क पड़ता है ? इसलिए संवैधानिक अौर पारंपरिक मर्यादाअों के उल्लंघन की सजा ऐसी होनी चाहिए जो निषेध जगाती हो. लेकिन यहां तो अालम यह है कि चुनाव अायोग क्या कर लेगा, ऐसे ही तेवर में सारे राजनीतिक जीव रहते हैं. इसलिए यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि व्यक्ति, अवसर, नफा-नुकसान अादि अांक कर बोलने वाला चुनाव अायोग लोकतंत्र के काम नहीं होता है.

दरअसल में समस्या की जड़ यहां है कि हमें लोकतंत्र तब तक ही अच्छा लगता है जब तक वह हमारी जेब में रहता है. जब वह हमें अपनी जेब में रखने लगता है तब खटकने लगता है. सबको बराबरी में खड़ा कर देने वाला लोकतंत्र किसी को अच्छा नहीं लगता है. चुनाव के संदर्भ में चुनाव अायोग की राजनीति ही यह है कि वह सबको बराबर की जमीन पर खड़ा कर दे. लेकिन थके-हारे या पे-प्रमोशन-पेंशन की खोज में हाथ बांध कर खड़े नौकरशाहों से अाप लोकतांत्रिक चुनाव अायोग नहीं बना सकते. लोकतंत्र में जिसकी अास्था हो अौर उसे सशक्त करने की  जिसकी प्रतिबद्धता हो वैसे लोगों की टीम चुनाव अायोग का काम कर सकती है. 

हम देखें कि अाज चुनाव-तंत्र से जुड़ा छोटा-से-छोटा पप्पू अौर बड़ा-से-बड़ा फेंकू तक  इसी कोशिश में लगा रहता है कि कैसे चुनाव संहिता को धता बता कर अपना काम निकाल लिया जाए. अाज के प्रधानमंत्री पर यह बात खास तौर पर लागू होती है. इनकी बातें अौर इनका व्यवहार यह संकेत नहीं देता है कि अाचार संहिता ऐसी सर्व-स्वीकृत मर्यादा है जिसके पालन की संस्कृति विकसित करनी है. इनका संदेश यह होता है कि देखो, कैसे मैंने अपना उल्लू सीधा कर लिया ! ये हमें सिखाते हैं कि ऐसी मर्यादाएं कागज पर रखने के लिए ही बनती हैं, इन्हें वहीं रखना चाहिए, व्यवहार का मंत्र तो कुछ दूसरा ही है ! जब प्रधानमंत्री ऐसी सतही चाकाली में लगे हों तब उनकी कोई मंत्री अामसभा में मुसलमानों से जरूर ही कहेगी कि वोट नहीं दिया तो आना कल को काम करवाने ! वे यह भी कह गईं कि हम लोग कोई छठी अौलाद नहीं हैं महात्मा गांधी की कि मदद भी करते जाएं अौर हार भी खाते रहें. मतलब उन्होंने एक साथ ही चुनाव अायोग को अौर महात्मा गांधी को रद्दी की टोकरी में डाल दिया. अौर तभी इस लोकतांत्रिक सरकार का अटॉर्नी जनरल सर्वोच्च न्यायालय में खड़े हो कर बेशर्मी से कह जाता है कि जनता को यह जानने का हक ही कैसे है कि किसी पार्टी को किसने चंदा दिया है ? के.के.वेणुगोपाल कहते हैं कि जनता को उम्मीदवार से मतलब होना चाहिए, उम्मीदवार के पीछे कौन लोग खड़े हैं, उनसे नहीं. यह सरकारी मानस बनाया गया है. सर्वोच्च न्यायालय ने उसी सुनवाई में कहा कि चुनावी बॉंड काले धन को सफेद बनाने की चालाकी से अधिक कुछ नहीं है अौर लोकतंत्र में हर मतदाता को यह जानने का अधिकार है कि किस पार्टी को किसने दान दिया है अौर कितना. इसलिए चुनावी बॉंड पर अभी रोक न लगाते हुए भी सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश जारी किया है कि 30 मई 2019 तक सभी दल चुनाव अायोग के पास पूरा विवरण दाखिल करें कि 15 मई 2019 तक किसे, किनसे अौर कितना पैसा मिला है तथा वह पैसा किस खाते में जमा किया गया है. इसका परिणाम क्या होगा अौर काले धन का अौर काले धन के धंधेबाजों का कितना पता चलेगा, यह तो समय बताएगा लेकिन वेणुगोपालजी ने यह तो बता ही दिया कि लोकतंत्र की उनकी कल्पना अौर सर्वोच्च न्यायालय की कल्पना में कितना अधिक अौर बुनियादी फर्क है. ( 14.04.2019 ) 

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