Wednesday 26 December 2018

मेरा भी इस्तीफा


यह खेल अच्छा है ! अाप कल तो अच्छे-बुरे जैसे भी थे, थे; अच्छी हैसियत, अच्छी सुविधाएं, अच्छा पैसा अौर अच्छी शोहरत सब पा अौर समेट रहे थे. अगर कहीं, कोई परेशानी होती भी होगी तो वह अाप ही जानते थे, या फिर अापके अाका ! हम अगर जानते थे तो इतना ही कि अाप जहां हैं वहां से जो होना चाहिए था, जो सुना जाना चाहिए था, जो कहा जाना चाहिए था अौर जब, जो किया जाना चाहिए था, वह न कहा गया, न सुना गया अौर न किया गया। बाकी सब कुछ ठीक था, ठीक चल रहा था अौर एक-दूसरे के साथ तालमेल बिठाने के सारे प्रयास भी चल रहे थे। अनुभवी लोग कह रहे थे कि हां, ठीक ही है ! लोकतांत्रिक जिम्मेवारियां इसी तरह निभाई जाती हैं, निभाई जानी चाहिए।… अौर फिर एक दिन हम सुनते हैं कि अापने इस्तीफा दे दिया ! जैसे भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने 10 दिसंबर को इस्तीफा दे दिया। 9 दिसंबर तक हम यही जानते थे कि उनके अौर भारत सरकार के बीच कुछ मतभेद हैं। क्या मतभेद थे ? रिजर्व बैंक के गवर्नर की खिड़की के परदों का रंग कैसा हो, इस पर मतभेद था; याकि लंबे समय से बीमार देश के अर्थतंत्र को स्वस्थ करने की जद्दोजगद में लगे, लंबे समय से बीमार वित्तमंत्री को अपना इलाज किस डॉक्टर से कराना चाहिए, इस पर मतभेद था ? बीमार वित्रमंत्री के स्वस्थ दिखाये जाते बयान तो कभी-कभार पढ़ने को िमल भी जाते थे, हमारी बैंकिंग व्यवस्था के शीर्षपुरुष को भी देश की वित्तीय स्थिति के बारे में कुछ कहना है, यह तो हमें कभी पता भी न चला। 

रघुराम राजन जबतक रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे, हमें पता चलता रहा कि पैसा सिर्फ दीखता नहीं है, वह बोलता भी है। रघुराम राजन ने रिजर्व बैंक की वैसी ही लोकतांत्रिक साख बना दी जैसी कभी चुनाच अायोग की शेषण साहब ने बनाई थी। वैसी साख बनाना बहुत कठिन होता है, क्योंकि वैसी साख बाजार में मिलती नहीं है, कमानी पड़ती है। नरेंद्र मोदी-अरुण जेटली की जोड़ी रघुराम राजन जैसे गवर्नर को पचा नहीं सकेगी, यह अंदेशा सारे देश को था। इसलिए जब रघुराम राजन को सरकार ने दोबारा गवर्नर बनाने में अानाकानी की तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। किसी को हैरानी नहीं हुई क्योंकि हम सभी जानते थे कि देश के सबसे बड़े बैंक अौर सबसे अहमन्य सरकार के बीच रिश्ते ऐसे नहीं हैं कि वे लंबा चल सकेंगे। रघुराम राजन ने पद छोड़ने अौर ऊंची तनख्वाह वाली नौकरी पर जाने से पहले कहा कि वे नितांत निजी कारणों से इस्तीफा दे रहे हैं। जो वे कह रहे थे उसमें विमर्श संभव नहीं था। बेटी नहीं चाहती है कि मैं अागे भी रिजर्व बैंक का गवर्नर रहूं याकि बीवी को बाजार ले जाने का समय मैं नहीं निकाल पाता हूं, इसलिए अब गवर्नर नहीं रहना चाहता अादि नितांत निजी कारण ऐसे हैं कि इन पर देश कहे भी तो क्या ! 

लेकिन देश जिस दौर से गुजर रहा है, यह सामान्य दौर नहीं है। देश भयंकर अार्थिक संकट से गुजर रहा है, सरकार अांकड़े बदलने अौर छिपाने का सारा खेल खेलने के बाद भी यह छिपा कैसे सकती है कि विकास-दर लगातार गिरता जा रहा है, मंहगाई पर किसी तरह का अंकुश काम नहीं कर रहा है, बेरोजगारी खतरनाक हद तक पहुंच गई है अौर स्वत: रोजगार पैदा करने वाले विकास की कोई रूपरेखा हम बना नहीं पा रहे हैं। खुदरा व्यापार अौर छोटे कारोबारी, जो किसी भी अर्थ-व्यवस्था की नींव के पत्थर होते हैं, बुरी तरह कुचल दिए गये हैं अौर विश्व बाजार में हमारे रुपये की साख खतरे में है। शिक्षा-व्यवस्था हमारे भविष्य से ऐसा खेल कर रही है कि वर्तमान अौर भविष्य दोनों नष्ट हो रहे हैं। यह देखने के लिए किसी दिव्य दृष्टि की जरूरत नहीं है कि समाज का माफियाकरण तेजी से हो रहा है - शिक्षा माफिया; स्वास्थ्य माफिया; शराब माफिया; किसान माफिया; रक्षा सौदा माफिया; चुनाव माफिया; विकास माफिया अादि-अादि पूरा समाज लीलते जा रहे हैं अौर राजनीतिक माफिया मुस्करा रहा है। 

यह भारतीय लोकतंत्र का असामान्य दौर है। वे सभी इसके अपराधी हैं जो निर्णायक पदों पर बैठ कर सामान्य ढंग से काम चला रहे हैं। कभी कवि ‘दिनकर’ ने इनके लिए ही लिखा था : समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध/ जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। तो समय के पन्नों पर दर्ज है कि जब रघुराम राजन ने इस्तीफा दिया तो उर्जित पटेल ने उनके छोड़े जूते में ऐसे पांव धर दिया मानो उन्हें इसके खाली होने का इंतजार था। अौर फिर अार्थतंत्र में ऐसा कत्लेअाम हुअा जैसा किसी ने न देखा था, न सुना था। नोटबंदी हुई। किसने की ? उस प्रधानमंत्री ने जिसकी अार्थिक समझ का रोना अाज भी देश रो रहा है। लेकिन अभी हम नोटबंदी सही या गलत की बात नहीं कर रहे बल्कि नोटबंदी जिस तरह हुई उसकी बात कर रहे हैं। मुद्रा अौर मुद्रा से जुड़ी तमाम फैसलों की जिम्मेवारी भी रिजर्व बैंक की होती है अौर देश के हर वाशिंदे के प्रति वह जवाबदेह भी है। अाखिर हमारे हर नोट पर वही तो लिखित वचन देता है कि यह कागज का टुकड़ा नहीं, मुद्रा है जो हर हाल में अपनी कीमत के बराबर की कीमत अापको देगी। रिजर्व बैंक इसके लिए वचनबद्ध है। लेकिन एक रात, एक अादमी अाकर देश से कह देता है कि जिसे अाप मुद्रा समझ रहे हैं वह रद्दी का कागज भर है अौर उसे अाप रद्दी के भाव भी बेच नहीं सकते, अौर रिजर्व बैंक इतना भी कह नहीं सका कि यह फैसला उसकी सहमति से हुअा है अौर हमने प्रधानमंत्री से कहा है कि इसका एलान वे ही करें। उर्जित पटेल एक शब्द नहीं बोले। करोड़ों-करोड़ भारतीय, जिन्होंने रिजर्व बैंक पर भरोसा किया था, पशुअों की तरह हांक कर सड़कों पर ला दिए गये, रिजर्व बैंक कुछ नहीं बोला। जिन्होंने रिजर्व बैंक की सफेद मुद्रा का चेहरा काला कर दिया था, वे सब कहीं भी परेशान नहीं थे। काला धन जिनकी नसों में दौड़ता है वे सारे राजनीतिबाज अपने खेल में लगे रहे, देश की बैंकिंग व्यवस्था जिस अाम अादमी के कंधों पर सवारी करती है, वह गंदी सड़कों-गलियों में अपमानित किया जाता रहा, बैंकों व दूसरे सरकारी महकमों में जलील किया जाता रहा लेकिन रिजर्व बैंक ने कुछ भी नहीं कहा। उसने तो दबी जुबान से कभी यह भी नहीं कहा कि नोटबंदी का फैसला न तो उसका था अौर न वह उससे सहमत था। अाप वह पूरा दौर देख जाइए, अापको उस वक्त के अार्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम का एक शब्द भी कहीं दर्ज नहीं मिलेगा कि नोटबंदी का निर्णय उन्हें अंधेरे में रख कर लिया गया; उनका एक शब्द भी नहीं कहीं मिलेगा कि जीएसटी का फैसला भी अौर उसका कार्यान्वयन भी गलत है। वे उस पूरे असामान्य समय में, अपनी मालदार कुर्सी पर बैठे सामान्य समय काटते रहे। फिर ‘निजी कारणों’ से नौकरी छोड़ दी, अौर दूसरी मालदार नौकरी पर विदेश चले गये। वहां बैठे-ठाले एक किताब लिखी अौर अब देश में अा कर उस किताब की बिक्री सुनिश्चित करने में लगे हैं। अब वे उन सारी कमियों-कमजोरियों की सविस्तार बात कर रहे हैं जो उनके विचार से मोदी-जेटली मार्का अर्थतंत्र की पहचान है। ऐसा ही अब उर्जित पटेल करेंगे। हम उनकी किताब भी पढ़ेंगे कि कैसे मोदी-जेटली रिजर्व बैंक की स्वायत्तता खत्म करते जा रहे हैं, असामान्य अार्थिक संकट से देश को उबारने के लिए जो एक संवैधानिक कोष रिजर्व बैंक के पास रखा होता है, वह पैसा भी मोदी-जेटली अपने चुनावी वादों को पूरा करने में उड़ा देना चाहते हैं अौर मैं, उर्जित पटेल अपनी गर्दन हथेली पर ले कर उनके सामने खड़ा हो गया। प्रमाण पूछते हैं तो पढ़िये मेरी यह किताब ! इसे कहते हैं : अाम तो  अाम/ गुठलियों के दाम ! 


यह कायरता है कि बहादुरी ? फैसला अाप करेंगे या वक्त ! तब तक अाप मेरा भी इस्तीफा ले लीजिए ताकि मैं भी एक किताब लिख कर देश के प्रति अपनी जिम्मेवारी पूरी करूं ! ( 11.12.2018 ) 

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