Wednesday, 26 December 2018

आओ हे नव वर्ष !

 

 

कैलेंडर बदलने से जिनका नया साल आता है उन्हें उनका नया साल मुबारक हो ! लेकिन कपड़े बदलने से आदमी कबकहां नया हुआ है. आप देखें कि प्रकृति भीउसके समस्त वन-वृक्ष-पौधे भी जब तक नये उल्लास के नये पल्लव अपने भीतर कहीं गहरे उतर कर पा नहीं लेतेवसंत उतरता ही नहीं है. हम भी अपने भीतर उतरें गहरे कहींऔर खोजें कि क्या है वह सब जो हमें नया सोचनेकरने और बनने से रोकता है क्यों बाहरी हर सजावट हमें भीतर से रसहीन और हतवीर्य छोड़ जाती है ऐसा क्यों है कि हमारी जनसंख्या बढ़ती जाती है और हमारा जन छोटा भी और अकेला भी और निरुपाय भी होता जाता है अच्छे दिन की चाह क्यों हमें बुरे मंजर की तरफ धकेलती है 

 

नये साल की दहलीज पर खड़े हैं हम तो जरा बीतते वर्ष के करीब चलेंजरा भीतर उतरें ! दीखता है न कि नया करने की कोशिशें कम नहीं हुई हैं. सरकारों ने कागजों पर कितनी ही बड़ी और कल्याणकारी योजनाएं लिखींबनाई और सफल भी कर ली हैं लेकिन धरती पर कोई रंग पकड़ता नहीं है. हमने भी काफी जद्दोजहद की है कि हमारे और हमारों के हालात बदलें और शुभमंगल हो. लेकिन जैसे होते-होते बात बिगड़ जाती हैचढ़ते-चढ़ते पांव फिसल जाते हैंपकड़ते-पकड़ते हाथ छूट जाता है. यह जाता हुआ साल भी तो अभी-अभीबारह माह पहले ही नया-नया आया था ! इतनी जल्दी पुराना कैसे हो गया जवाब में लिखा है किसी ने : “ पूत के पांव / पालने में मत देखो / वह अपने पिता के / फटे जूते पहनने आया है ! तो पिता के जूते फटे ही क्यों होते हैं और क्यों ऐसा सिलसिला बना है कि हर पिता अपने बच्चे को और वह बच्चा अपने बच्चे को और वह अपने बच्चे को … ऐसा लंबा सिलसिला फटे जूतों का ही है नहींजूते नहींहमारे मन फटे हैं ! इसकी सिलाई करनी है ताकि यह साबुत हो जाए. 

 

आप देखेंगे तो समझेंगे कि चादर हो कि मन कि समाजसभी अनगिनत धागों से मिल कर बने हैं. बड़ी जटिल बुनावट है - दीखती नहीं है लेकिन बांधे रखती है. लेकिन चादर हो कि मन कि समाजबस एक धागा खींचो तो सारा बिखर जाता है. रेशा-रेशा हवा में उड़ जाता है. लगता है कि अभी-अभी जो साकार थामजबूत था और बड़ी मोहकता से चलता चला जाता था वह नकली थाकमजोर था और दिखावटी था. जो बिखर सकता हैटूट सकता हैउसे संभालने की विशेष जुगत करनी पड़ती है न ! घरों में भी टूटने वाली क्रॉकरी आलमारी के सबसे ऊपर वाले खाने मेंबच्चों और काम करने वाली बाइयों की पहुंच से ऊपर रखते हैं न ! ऐसा ही हमें मन के साथ भी और समाज के साथ भी करना चाहिए. जहां चोट लगने की गुंजाइश हो वहां से इन दोनों को बचाते हैं. गालिब तो कब के कह गये न : दिल ही तो नहीं संगो-खिश्त/ गम से न भर आए क्यूं / रोएंगे हम हजार बार /  कोई हमें रुलाए क्यों. यही खेल समझना है हमें कि इंसानी दिल इतना नाजुक और मनमौजी है कि कहीं भीकिसी से भी चोट खा जाता हैतो उसे चोट पहुंचाने का कोई आयोजन होना नहीं चाहिएऔर ऐसा कोई कुफ्र हो ही गया हो तो हजारो-हजार लोगलाखों-लाख हाथ-पांव ले कर उसकी मरम्मत में लग जाएं. यह जरूरी ही नहीं हैएकमात्र मानवीय कर्तव्य हैहमारे मनुष्य होने की निशानी है. न कोई जातिन कोई धर्मन कोई भाषान कोई प्रांतन कोई देशन कोई विदेशन कोई कालान कोई गोरान कोई अमीरन कोई गरीब ! बस इंसान !! यह नया है. यह नया मन है. हमारे मन में उमगी यह नई कोंपल है. विनोबा कहते थे कि अब हम इतने बड़े हो गये हैं और इतने करीब आ गये हैं कि कामना भी करेंगे तो जय जगत की करेंगे ! जगत की जय नहीं होगी तो अकेले हिंदुस्तान की जय संभव भी नहीं और काम्य भी नहींऔर जगत की जय होती है तो हिंदुस्तान की जय तो उसी में समाई हुई है. 

 

यह आता हुआ नया साल- २०१९ - सच में नया हो जाएगा यदि इस साल हम सब एक-दूसरे से संवाद करने का संकल्प करेंगे. आपसी संवाद लोकतंत्र की आधारभूत शर्त है. संवाद करो और विश्वास करो : यह नये साल का हमारा नारा होना चाहिए. हमारे देश जैसी विभिन्नता वाले समाज में तो संवाद और विश्वास प्राणवायु हैं. जितना विश्वास करेंगे उतना नजदीक आएंगेजितनी बातचीत करेंगे उतनी शंकाएं कटेंगी. शक वह जहरीला सांप है जिसके काटे का कोई इलाज नहीं. यह सांप अ-संवाद की बांबी में रहता है और अविश्वास की खुराक पर पलता है.  इसलिए हम जिनसे सहमत नहीं हैं उन तक विश्वास के पुल से पहुंचेंगे और वहां संवाद की छोटी-बड़ी गलियां बनाएंगे. इसलिए सरकार कश्मीर में वार्ता करे कि न करेकश्मीर से हमारी वार्ता बंद नहीं होनी चाहिएकश्मीरियों से हमारा संवाद खत्म नहीं होना चाहिएकश्मीरियों पर हमारा विश्वास टूटना नहीं चाहिए. 

 

हर पुल बड़ी मेहनत से बनता है और हर पुल के जन्म के साथ ही उसके टूटने-दरकने की संभावना भी जन्म लेती है. लेकिन हम पुल बनाना बंद तो नहीं करते हैं न ! हांमरम्मत की तैयारी रखते हैं. फिर इंसानों के बीच पुल बनाने में हिचक कैसी टूटेगा तो मरम्मत करेंगे ! हमें छत्तीसगढ़ के माओवादियों के बीचपूर्वांचल के अलगाववादियों के बीचराम मंदिर को गदा की भांति भांजने वालों के बीचओवैशियों की कर्कश चीख के बीचहाशिमपुरा-बुलंदशहर के आंसुओं के बीच लगातार-लगातार जाना है क्योंकि इसके बिना हम कैलेंडर कितने भी बदल लेंकोई भी साल नया नहीं हो सकेगा. 

 

ऐसा ही नया साल १९३२ में आया था और गांधीजी ने किसी  को लिखा था : देखता हूं कि तुम नये साल में क्या निश्चय करते हो ! जिससे न बोले होउससे बोलोजिससे न मिले हो उससे मिलोजिसके घर न गये हो उसके घर जाओऔर यह सब इसलिए करो कि दुनिया लेनदार है और हम देनदार हैं. १९३२ का नया साल२०१९ में भी हमारी राह देख रहा है क्योंकि इतने वर्ष निकल गयेनया साल तो आया ही नहीं ! 

सूरज-सी इस चीज को हम सब देख चुके / सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह ! ( 27.12.2018)                 

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