Saturday 21 January 2017

ट्रंप की जीत : अमरीका की हार

ट्रंप की जीत : अमरीका की हार 
० कुमार प्रशांत  

यह हिलेरी क्लिंटन की हार का स्यांपा नहीं है अौर न यह डोनाल्ड ट्रंप की जीत से पैदा हुई खीज ही है. ये दोनों ( या इन दोनों से िवपरीत !) मनोभाव अमरीकियों को प्रदर्शित करने हैं क्योंकि यह उनका अांतरिक मामला है. हमें यदि खेद है तो वह इस बात का कि अपने सांस्कृतिक अारोहण में हम सारी दुनिया में एक-एक कदम पीछे हट रहे हैं. यह ज्यादा ही पीड़ाजनक अौर किसी हदतक अपमानजनक भी लगता है क्योंकि हम देखते हैं कि ऊर्द्धगामी एक कदम बढ़ाने अौर वहां पांव को स्थिर करने में मानवता को अपना पूरा प्राण-बल जोड़ना पड़ता है जबकि वहां से फिसलने के लिए बस कोई एक ट्रंप काफी होता है. 
अमरीका में राष्ट्रपति का चुनाव हम सबकी दिलचस्पी का विषय इसलिए नहीं होता है कि वह कोई महाशक्ति है. हमारी दिलचस्पी इसलिए होती है कि अंतरराष्ट्रीय महत्व के कई-कई सवालों पर हमारी सदा की तनातनी के बाद भी अमरीका कई अर्थों में दुनिया की अाशाअों का केंद्र है. उसका लोकतंत्र के समर्थन में खड़े रहना अौर दुिनया भर के प्रगतिशील तबकों, विचारों अौर धाराअों से जुड़े रहना बहुत मतलब रखता है. हिलेरी क्लिंटन अौर डोनाल्ड जॉन ट्रंप के बीच ऐसा कोई धागा नहीं जो हमें जोड़ता हो. हां, जहां तक हिलेरी क्लिंटन का सवाल है, एक धागा जरूर था जो हमें किसी हद तक उनकी तरफ खींचता था अौर वह था उनका अौरत होना ! यह वैसा ही है जैसे सड़ी-गली राजनीतिक व्यवस्था में ही किसी मायावती के लिए मन का एक कोना जरा गीला होना ! नहीं तो हिलेरी क्लिंटन अपने पति राष्ट्रपति क्लिंटन के काल में भी अौर फिर अोबामा के विदेशमंत्री के रूप में भी कभी प्रेरणादायी या सामान्य अमरीकी नौकरशाह से अलग कुछ रही नहीं हैं. उनकी पराजय के पीछे भी इन्ही तत्वों का हाथ रहा है कि वे देश में उत्साह नहीं जगा सकीं, अाशा का संचार नहीं कर सकीं. वे ट्रंप की जुमलेबाजियों का कोई प्रभावी जवाब नहीं तैयार कर सकीं. अपने चुनाव के खर्च के िलए उन्होंने पैसा बहुत जमा किया लेकिन विश्वास नहीं कमाया. शायद कहीं यह भाव भी रहा कि उन जैसी अनुभवी राजनीतिज्ञ के सामने राजनीति से अनजान ट्रंप को कहीं टिकेंगे भी क्या ! शायद यह भी कहीं रहा कि वे ऐसी अकेली उम्मीदवार हैं जिनके समर्थन में दो-दो राष्ट्रपति मैदान में हैं ! सो राष्ट्रपति बनने की कोशिश में दो-दो राष्ट्रपतियों को पराजित करवा कर, वे दो-दो बार पराजित हुईँ. 
लेकिन ट्रंप की कहानी देखने के लिए हम बहुत नहीं फिर भी थोड़ा पीछे चलते हैं. १९८८-८९ में अमरीका ने अपने ४० वें राष्ट्रपति के रूप में चुना था रोनाल्ड रीगन को. कभी हॉलिवुड में अभिनेता रहे अौर फिर गवर्नर रहे रीगन की इसके अलावा दूसरी कोई विशेषता नहीं थी कि वे जाने-पहचाने चेहरे थे अौर फिल्मी संवादनुमा शैली में बातें करते थे. यहां से अमरीकी राष्ट्रपतियों के पतन की एक नई कहानी शुरू होती है. फिर ४१ वें राष्ट्रपति के रूप में उप-राष्ट्रपति जॉर्ज हरबर्ट वाकर बुश चुने गये. ४३वें राष्ट्रपति के रूप में इनके स्वनामधन्य पुत्र जॉर्ज वाकर बुश चुने गये. रीगन से शुरू हो कर २००९ तक के कालखंड को हम अमरीका के सबसे भोंडे काल में गिन सकते हैं जब अमरीका का अार्थिक रुतबा अौर उसकी राजनीतिक नेतृत्व-क्षमता रसातल में पहुंचती गई. सोवियत संघ के बिखरने के बाद अमरीकी वर्चस्व बनाने की फूहड़ कोशिशों में सारी दुनिया में युद्ध भड़काने, अातंकवाद को संगठित स्वरूप देने अौर फिर अोसामा बेन लादेन तथा दूसरे अातंकी संगठनों का भूत खड़ा करने अादि का यही काल है. यही काल है जब अातंकी वर्ल्ड टावर पर हवाई जहाज दे मारते हैं अौर अमरीका घुटनों के बल झुकता-गिरता दिखाई देता है. राष्ट्रपति बुश की पहली प्रतिक्रिया किसी चूहे-सी बदहवास होती है अौर फिर किसी पागल हाथी की तरह वे अफगानिस्तान, ईराक अादि पर हमला करते हैं अौर सारी दुनिया को अांखें दिखाते हैं. ‘जो हमारे साथ नहीं, वह अातंकवादियों के साथ’ जैसी कबिलाई मानसिकता जगाने वाला अमरीका यहां से उभरता है. इस अमरीका के पास संसार को देने-कहने को कुछ नहीं था. बौना नेतृत्व राष्ट्र-मन को लिलिपुट के नाप का बना देता है. इसी दौर में भारत अमरीकी के लिए नया पाकिस्तान बनने की रजामंदी दिखाता है. यह अटलबिहारी वाजपेयी काल था. फिर तो मनमोहन-काल अाया अौर अब मोदी-काल ! हम कहां से चल कर कहां पहुंचे हैं !! 
अमरीका का यह युद्धोन्मत्त काल अाम अमरीकी को मौत अौर निराशा से अलग कुछ दे नहीं सकता था. बैंकों-बीमा कंपनियों का अभूतपूर्व भ्रष्टाचार अमरीका की चूलें हिला गया अौर अार्थिक मंदी ने जड़ पकड़ ली. अमरीकी अार्थिक सत्ता कभी इतनी खोखली नहीं दिखाई दी थी जितनी बुश-काल के इस अंतिम दौर में दिखाई दी. महंगाई, बेरोजगारी अौर उत्पादन में गिरावट का यह काल अमरीका का अात्मविश्वास हिला गया. ऐसे में बराक अोबामा सामने अाए.  एक अश्वेत अमरीकी ने अमरीका की कमान संभालने की सोची, यही काफी था कि सफेद चमड़ी के अाभिजात्य का ढोंग ढोने वाला अमरीका उसे कुचल-मसल देता ! लेकिन लस्त-पस्त अमरीका में इतना बल बचा कहां था ! निराशा की इसी गर्त में से अोबामा ने अाशा की हांक लगाई. यह बुझती लौ की बत्ती बढ़ाने जैसा काम था. श्वेत अमरीका देखता रहा अौर बाकी का अमरीका अोबामा के साथ हो लिया ! अोबामा ने सारा बल लगा कर मतदाताअों के सामने जो अमरीका खड़ा किया वह युद्धों से बाहर निकलने, मंदी अौर बेरोजगारी से छूटने अौर सामाजिक न्याय की मांग करने वाला अमरीका था. श्वेतवादियों ने अोबामा के रूप में उभरता यह खतरा नहीं देखा, ऐसा नहीं था. वे अंत-अंत तक कोशिश करते रहे कि यह अश्वेत अादमी सफल न हो लेकिन बात उनके बूते की रह नहीं गई थी. अोबामा जीते अौर अमरीका खड़ा हुअा.
अोबामा दूसरी बार भी राष्ट्रपति चुने गये हालांकि उन्हें इस बार पहले से कम समर्थन मिला. इसमें अोबामा की अपनी विफलताएं भी थीं, अमरीकी समाज व प्रशासन की सडांध भी थी लेकिन यह भी था, अौर खूब था कि सारे श्वेतवादियों के अपनी मोर्चाबंदी कर ली थी. लेकिन यह सारा प्रसंग तो अोबामा-काल की समीक्षा का है. अभी हम देख तो यह रहे हैं न कि ट्रंप का उभरना अौर जीतना कैसे हुअा, तो ट्रंप ने उन सारे धागों को काटना शुरू किया जिन्हें अोबामा ने जोड़ा था. ट्रंप का पूरा अभियान उस तर्ज पर चला जिस तर्ज पर नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने का अपना अभियान चलाया था. ट्रंप ने भी अपने समाज की अांतरिक बीमारियों को खूब उभारा अौर उसका दोष कुछ खास समुदाअों पर थोप दिया. उन सारी ताकतों को खुलेअाम धमकी दी जो अोबामा-काल में उभरे थे. उन्होंने अमरीका को याद दिलाया कि यह सफेद चमड़ी वालों का देश है जिस पर कालों का, संसार भर से अा जुटे अश्वेतों का, मुसलमानों का दवाब बहुत बढ़ गया है; उन्होंने अमरीका को उस शान की याद दिलाई जब दुनिया उसकी ठोकरों में हुअा करती थी. उसने अमरीका को पूंजी की ताकत की याद दिलाई अौर कहा कि इसका बल हो तुम्हारे पास तो तुम बादशाह हो अौर संसार की किसी भी अौरत को किसी भी तरह, कहीं भी दबोच सकते हो. यह किसी ट्रंप की निजी जिंदगी को नंगा करने जैसी बात नहीं है. पैसे को भगवान मानने वाला यह वह दर्शन है जो श्वेत अमरीका को घुट्टी में पिलाया जाता है. ट्रंप की जीत के साथ ही वह अमरीका हार गया है जिसे अब्राहम लिंकन से ले कर बराक अोबामा तक ने बनाने की कोशिश की थी. 
७० साल के ट्रंप बहुत अमीर ठेकेदार व्यापारी हैं जिनका भवन निर्माण का धंधा है. वे टीवी की दुनिया में चमकते-दमकते दिखाई देते रहे हैं. अमरीका ने जिस अादमी को अपना ४५वां राष्ट्रपति चुना है, वह अमरीकी समाज का गंभीर अध्येता, राजनीतिक-सामाजिक कर्मी कभी नहीं रहा है बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि वह अमरीकी समाज का हिस्सा ही नहीं रहा है. वह उस अमरीका को जानता, मानता अौर चाहता रहा है जो डॉलर की ताकत से शिखर पर विराजता है. इसलिए अौरतों का समाज, कालों का समाज, अश्वेतों का समाज, गरीबों का समाज से ले कर असीमित उपभोग, पर्यावरण का नुकसान, अार्थिक विषमता, अपराध की दुनिया, हथियारों की होड़, अमरीकी समाज का बंदूक-प्रेम अादि कुछ भी ट्रंप की दुनिया का हिस्सा नहीं है. चिंता इस बात की नहीं है कि वे अनुभवहीन हैं बल्कि इस बात की है कि वे इन अनुभवों से परे हैं. वे जिन विश्वासों के साथ बड़े हुए हैं अौर जो अब उनके अपने विश्वास हैं, वे सभी अाज अमरीका में अौर अाज के संसार में प्रतिगामी विश्वास हैं. ऐसा राष्ट्रपति अमरीका के लिए भी अौर संसार के लिए भी बोझ बनेगा.  
जीत के बाद अचानक ट्रंप की बातें बदल गईं. वे कह रहे हैं कि अब चुनाव पूरा हुअा तो यह घाव भरने का समय है. घाव दिए किसने अौर क्यों, इस बारे में कुछ न कहते हुए वे ‘ सबका साथ : सबका विकास’ कह रहे थे. मंच पर कुछ अौर मंच के नीचे व पर्दे के पीछे कुछ की त्रासदी हम लंबे समय से झेल रहे हैं. अब अमरीका व संसार की बारी है. २० जनवरी २०१७ के बाद ट्रंप अपने पत्ते चलना शुरू करेंगे अौर तब हम देखेंगे कि उनके पास कितने ट्रंप कार्ड हैं.   

10 नवम्बर 2016

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