० कुमार प्रशांत
फुर्सत
के पल में, जब दूसरा कुछ न सूझे तो हम सबका एक शगल होता है : कलम ले कर
किसी
लड़की के फोटो पर दाढ़ी-मूंछ चस्पां करना या कि किसी पुरुष चेहरे को लड़कीनुमा
बनाना !अापने भी कभी-न-कभी ऐसी कलमकारी की होगी अौर फिर अपनी ही निरुद्देश्यता पर
शर्माए होंगे. ऐसे ही कई कारनामे इन दिनों राजधानी दिल्ली के निरुद्देश्य
गद्दीनशीं कर रहे हैं जिसमें चापलूसी का तड़का भी जी भर कर उड़ेला जा रहा है. सबसे
ताजा है वह कारनामा जो सरकारी खादी-ग्रामोद्योग अायोग ने किया है - उसने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फोटो पर कलमकारी कर उसे महात्मा गांधी बनाने की
कोशिश की है याकि महात्मा गांधी के फोटो पर कलमकारी कर, उसे नरेंद्र मोदी
बनाने का उपक्रम किया है. दोनों ही मामलों में किरकिरी तो नरेंद्र मोदी की ही हुई
है - एक पूरा का सारा इंसान कार्टून बना कर छोड़ दिया गया है.
देश
में इससे बड़ी हलचल पैदा हुई है - यहां तक कि खादी-ग्रामोद्योग अायोग के कर्मचारी
भी अपने ही नौकरीदाताअों के खिलाफ खड़े हो गए हैं ! ऐसा इसलिए हो रहा है
कि चापलूसों की फौज नरेंद्र मोदी का कितना भी कार्टून बनाए देश को उससे फर्क नहीं
पड़ता है लेकिन यहां मामला यह बना है कि नरेंद्र मोदी का फोटो लगाने के लिए
महात्मा गांधी का फोटो हटाया गया है ! खादी-ग्रामोद्योग अायोग ने २०१७ को अपने
कैलेंडर व डायरी पर चरखा कातते नरेंद्र मोदी का वैसा फोटो छापा है जिसे संसार
महात्मा गांधी के फोटो के रूप में पहचानता है. लेकिन फर्क भी है : जैसा चर्खा मोदी
हिला रहे हैं वैसा चर्खा न तो गांधीजी ने कभी काता, न वैसा चर्खा बनाने
की इजाजत ही वे कभी देते; फोटो-शूट का यह सरकारी अायोजन जिस
ताम-झाम से किया गया है वैसा अायोजन कर, उसमें गांधीजी को बुलाने की हिम्मत कोई
नहीं कर सकता था; इस फोटो-शूट में मोदीजी ने जैसे कपड़े
पहन रखें हैं वैसे कपड़े गांधीजी ने तो कभी नहीं ही पहने, ऐसी धज में उनके
सामने जाने की हिमाकत कोई नहीं करता; जैसे टेबल पर चरखा रखा गया है अौर जैसे
टेबल पर बैठ कर मोदीजी उस तथाकथित चर्खे को घुमा रहे हैं, गांधीजी वहां होते तो
पहली बात तो यही कहते कि तुम ऐसा दिखावटी तामझाम नहीं करते तो इन्हीं
साधनों से हम कितने ही नये चर्खे बना लेते ! सवाल कितने ही हैं लेकिन अाज माहौल
ऐसा बनाया गया है कि सवाल पूछना देशद्रोह से जोड़ दिया गया.
अगर
यह कैलेंडर अौर यह डायरी नरेंद्र मोदी की सहमति व इजाजत से छापी गई है तो मुझे उन
पर दया अा रही है, क्योंकि अाज वे गहरे पश्चाताप में
होंगे. कई बार हम किसी मौज में ऐसे काम कर जाते हैं जिसके परिणाम का हमें अंदाजा
नहीं होता है. जैसे गांधीजी की फोटोबंदी का यह फैसला या फिर नोटबंदी का वह फैसला !
अगर फोटोबंदी का यह फैसला नरेंद्र मोदी की जानकारी या सहमति के बिना हुअा है तो यह
खतरे की घंटी है : चापलूसों अौर चापलूसी से सावधान ! ऐसे चापलूसों ने कितने ही
वक्ती नायकों को इतिहास के कूड़ाघर में जा पटका है. इसलिए फैसला प्रधानमंत्री को
करना है : वे अायोग के कर्मचारियों की बात मान कर इन सारी डायरियों व कैलेंडर को
कूड़ाघर भिजवा दें ! ऐसा नहीं है कि इससे पहले कभी अायोग ने ऐसे कैलेंडर/डायरी
नहीं छापे कि जिन पर गांधीजी का फोटो नहीं था. भाजपा का हर प्रवक्ता वैसे सालों की
सूची बना कर घूम रहा है
अौर बता रहा है कि
संविधान में ऐसी कोई धारा नहीं है कि जिसके तहत महात्मा गांधी का फोटो हटाना अपराध
हो ! यह सच है. संविधान पर ऐसी कोई धारा नहीं है. इन बेचारों के लिए यह समझना कठिन
है कि जो संविधान में नहीं है, वह समाज में मान्य कैसे है !! ये नासमझ
लोग संविधान के पन्ने पलटते हैं अौर परेशान पूछते हैं कि इसमें कहां लिखा है कि
महात्मा गांधी राष्ट्रपिता हैं ? कहीं नहीं लिखा है लेकिन समाज इसे इस
कदर मान्य किए बैठा है कि इस प्रतीक को छूते ही करेंट लगता है भले हमारे अपने जीवन
का बहुत सरोकार इससे न हो ! जिस समाज ने संविधान में प्राण फूंके हैं उसी समाज ने
गांधी को अपने मन-प्राणों में बसा रखा है. इसलिए अायोग ने जब-जब गांधी का फोटो
नहीं छापा तब-तब किसी दूसरे का फोटो भी नहीं छापा. मतलब साफ था : गांधी का विकल्प
नहीं है ! अब अाप अाज समाज को नई बारहखड़ी रटवाना चाह रहे हैं कि ‘म’ से ‘महात्मा’, ‘म’ से ‘मोदी’ ! लेकिन सत्ता की ताकत
से, सत्ता
की पूंजी से, सत्ता के अादेश से अौर सत्ता के अातंक से समाज ऐसी बारहखड़ी
नहीं सीखता है.
यह
समझना जरूरी है कि खादी कनॉटप्लेस पर बनी दूकान नहीं है कि जिसे चमकाने में सारी
सरकार जुटी हुई है; खादी बिक्री के बढ़ते अांकड़ों में छिपा
व्यापार नहीं है; जो हर पहर पोशाक बदलते हैं अौर समाज में
उसकी कीमत का अातंक बनाते हैं, उनकी पोशाक खादी की है या पोलिएस्टर की
समाज को इससे फर्क नहीं पड़ता है. पोशोकों अौर मुद्राअों के पीछे की असलियत समाज
पहचानता है. खादी के लिए गांधी सिर्फ तीन सरल सूत्र कहते हैं : कातो तब पहनो,
पहनो
तब कातो अौर समझ-बूझ कर कातो ! अाज हालत यह है कि खादी कमीशन ने कर्ज देने के नाम
पर सारी खादी उत्पादक संस्थाअों की गर्दन दबोच रखी है; उनकी चल-अचल संपत्ति
अपने यहां गिरवी रख रखी है अौर अपनी नौकरशाही के अादेश पूरा करने का उन पर भयंकर
दवाब डाल रखा है. यह स्थिति अाज की नहीं है बल्कि कमीशन बनने के बाद से शनै-शनै यह
स्थिति बनी है. सरकार अौर बाजार मिल कर गांधी की खादी की हत्या ही कर डालेंगे,
यह
देख-जान कर विनोबा भावे के खादी कमीशन के समांतर खादी मिशन बनाया था अौर कहा था :
जो अ-सरकारी होगा, वही असरकारी होगा ! लेकिन खादी के काम
में लगे लोग भी तो माटी के ही पुतले हैं न ! सरकारी पैसों का अासान रास्ता अौर
उससे बचने का भ्रष्ट रास्ता सबकी तरह इन्हें भी अासान लगता रहा अौर कमीशन का अजगर
उन्हें अपनी जकड़ में लेता गया. गांधी ने खादी की ताकत यह बताई थी कि इसे कितने
लोग मिल कर बनाते हैं यानी कपास की खेती से ले कर पूनी बनाने, कातने, बुनने, सिलने अौर फिर पहनने
से कितने लोग जुड़ते हैं. खादी उत्पादन यथासंभव विकेंद्रित हो अौर इसका उत्पादक ही
इसका उपभोक्ता भी हो ताकि मार्केटिंग, बिचौलिया, कमीशन जैसे बाजारू
तंत्र से मुक्त इसकी व्यवस्था खड़ी हो. जब गांधी ने यह सब सोचा-कहा तब कम नहीं थे
ऐसी अापत्ति उठाने वाले कि यह सब अव्यवहारिक है, यह बैलगाड़ी युग में
देश को ले जाने की गांधी की खब्त है, यह अाधुनिक प्रगति के चक्र को उल्टा
घुमाने की कोशिश है ! अाज भी तथाकथित अाधुनिक लोग, खादी कमीशन के ‘निरक्षर खादी अधिकारी’
अादि
ऐसा ही कहते हैं. इन सारे महानुभावों की बातों का जवाब हुए लेकिन अपने विश्वास में
अडिग गांधी ने खादी के काम को इस तरह अागे बढ़ाया कि शून्य में से ताकत खड़ी होने
लगी अौर सुदूर इंग्लैंड में लंकाशायर की मिलें बंद होने लगीं. गांधी कहते भी थे कि
वह खादी है ही नहीं जो मिलों के सामने अस्तित्व का सवाल न खड़ा करती हो. राजनीतिक
दलों, सरकारों
का क्षद्म उन्होंने पहचान लिया था अौर इसलिए अाजादी के बाद देश में बनी सरकारें
गांधी से मिलने, उनके प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित करने
अौर खादी के बारे में तरह-तरह के अाश्वासन देने अाने लगीं तो गांधी खासे कठोर हो
कर उनसे अपनी बातें कहने लगे थे अौर पूछने लगे थे कि क्या मैं मानूं कि अाप अपने
यहां खादी को इतना मजबूत बनाएंगे कि अापके राज्य में मिलें बंद हो जाएंगी ?
बिहार
की सरकार से कहा कि अाप अपने मन में यह क्षद्म मत रखना कि खादी भी चलेगी अौर मिल
भी चलेगी ! अाज पर्यावरण का भयावह खतरा, संसाधनों की विश्वव्यापी किल्लत,
नागरिकों
की अौर प्राकृतिक संसाधनों की अंतरराष्ट्रीय लूट अादि को जो जानते-समझते हैं,
वे
सब स्वीकार करते हैं कि गांधी इस शताब्दी के सबसे अाधुनिक अौर वैज्ञानिक चिंतक थे
जिन्होंने अपने दर्शन के अनुकूल व्यावहारिक ढांचा विकसित कर दिखला दिया.
पहले
सरकारों ने इतना अनुशासन रखा था कि खादी का कोई मान्य व्यक्ति ही खादी कमीशन का
अध्यक्ष बनाया जाता था. फिर यह तरीका बना है कि खादी कमीशन का अध्यक्ष सरकारी
पार्टी का सबसे कमजोर सदस्य बना दिया जाता है ताकि गुड़ भी खाएं अौर गुलगुले से
परहेज भी रखें. कई बार तो कोई नौकरशाह ही इस कुर्सी पर
बिठा दिया गया है. इसलिए खादी उत्पादन अौर बिक्री का सारा अनुशासन,जो गांधीजी ने ही
तैयार किया था, रद्दी की टोकड़ी में फेंक दिया गया अौर
खादी कमीशन सरकारी भोंपू में बदल दिया गया. अाज सरकार जैसी कोई चीज बची नहीं है,
एक
व्यक्ति है जो सब कुछ है ! इसलिए कमीशन का ‘पप्पू’ अध्यक्ष टीवी पर अा
कर यह बताता है कि मोदीजी के खादी-प्रेम से खादी की बिक्री कितनी बढ़ी है. वह यह
नहीं बताता है कि खादी का उत्पादन कितना बढ़ा है, खादी की काम करने
वाली संस्थाएं कितनी बढ़ी हैं, खादी कातने वाले अौर खादी बुनने वाले
कितने
बढ़े हैं. यदि ये अांकड़े नहीं बढ़े हैं तो बिक्री के अांकड़े कैसे बढ़ रहे हैं ?
फिर
तो ये अांकड़े ही बता देते हैं कि जो बिक रहा है या बेचा जा रहा है वह खादी नहीं
है ! अाज स्थिति यह है कि बाजार में मिलने वाला, खादी के नाम पर बिक
रहा ९०% कपड़ा खादी है ही नहीं ! इस कारनामे में प्रधानमंत्री का गुजरात काफी अागे
है.
गांधी
ने खादी को सत्ता पाने का नहीं, जनता
को स्वावलंबी बनाने का अौजार माना था. वे कहते थे कि जो जनता स्वावलंबी नहीं है वह
स्वतंत्र व लोकतांत्रिक कैसे हो सकती है ? अाज सारी सत्ता येनकेनप्रकारेण अपने हाथों में समेट लेने की
भूख ऐसी प्रबल है कि वह न तो कोई विवेक स्वीकारती है, न किसी मर्यादा का पालन करती है. लेकिन
वह भूल गई है कि अाप तस्वीर तो बदल सकते हैं लेकिन विचारों की तासीर का क्या
करेंगे ? वह
गांधी की तासीर ही थी जिससे टकरा कर संसार का सबसे बड़ा साम्राज्य ऐसा ढहा कि फिर
जुड़ न सका; वह
विचारों की तासीर ही थी कि जिसके बल पर दिल्ली से कांग्रेस का खानदानी शासन ऐसा
टूटा कि अब तक, ४०
सालों बाद तक अपने बूते लौट नहीं सका है. अब ये अपने शेखचिल्लीपन में तस्वीरें
बदलने में लगे हैं. देखिए, इतिहास
क्या-क्या बदल देता है. ( 14.01.2017)
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