Saturday 21 January 2017

अनुपम मिश्र का जाना

अनुपम मिश्र का जाना 
० कुमार प्रशांत 

अनुपम अपने उस पर्यावरण में जा मिले जिससे स्वंय एकाकार होने अौर सबको एकाकार करने की प्रार्थना में उनका जीवन ५ जून १९४८ से चला अौर १९ दिसंबर २०१६ को रुका ! सफर शुरू हुअा था महात्मा गांधी के वर्धा में अौर अंत हुअा महात्मा गांधी के राजघाट पर. 
पिता कवि थे - अनुपम कवि थे. अज्ञेयजी ने अपनी सप्तक श्रृंखला में जब उन्हें शामिल किया तब से नहीं, उससे काफी पहले से भवानीबाबू कविता के साथ जीते थे अौर उससे ही पहचाने जाते थे.  लेकिन वे गांधी के साथ भी उतनी ही निमग्नता से जीते थे. कम-से-कम हिंदी में भवानीबाबू जैसा एक्टिविस्ट कवि दूसरा कोई है, तो मैं जानता नहीं हूं. अाजादी की लड़ाई में छोटी-बड़ी भूमिका निभा कर अपने सामाजिक दायित्व कीइतिश्री मान लेने वाले साहित्यकार-कवि कई हैं लेकिन अाजादी के अांदोलन से ले कर अपनी सांस टूटने तक लगातार भावानीबाू जिस तरह सक्रिय रहे, उसकी चर्चा कम ही करते हैं हम. नागपुर सेंट्रल जेल में तीन साल लंबी जेल काटी तो कविता भी साथ ही चली. यहीं से छूट कर भवानीबाबू गांधी के वर्धा में रहने लगे. यह गांधी के साथ खुद को अंतिम रूप से जोड़ देने का फलित था. 
उसके बाद विनोबा अौर जयप्रकाश के साथ भूदान-ग्रामदान-ग्रामस्वराज्य के अांदोलनों में काम करते रहे अौर कविता भी करते रहे. जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति के काल में, जब कवियों-साहित्यकारों-पत्रकारों की बहुत बड़ी जमात दुम हिलाने के नये-नये अंदाज ईजाद कर रही थी, भवानीबाबू निष्कंप अपनी दिशा में, अपना काम कर रहे थे. अापातकाल में वे कवियों में अकेले थे जिसने तानाशाही को त्रिकाल-संध्या का व्रत ले कर चुनौती दी थी - तीनों काल तीन कविताएं लिख कर अापातकाल को चुनौती देने का संकल्प ! बीच के सालों में बहुत कुछ किया भवानीबाबू ने लेकिन एक ही काम नहीं किया कि गांधी की तरफ पीठ नहीं की. संपूर्ण गांधी वाड़्मय की हिंदी परियोजना का संपादन, गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका गांधी-मार्गका संपादन फिर सर्वोदय अांदोलन की पत्रिका के संपादक रहे भवानीबाबू, जिसके संपादक कभी विनोबा अौर दादा धर्माधिकारी अादि भी रहे थे. पिता का इतना परिचय जरूरी इसलिए है कि हम समझ सकें कि अनुपम कहां से चले थे, कहां से रस पाते थे अौर उनका कंपास इतना मजबूत कैसे था ! 
अनुपम की चुटिया गांधी से कब अौर कैसे बंधी, इसके पीछे कोई नाटकीय घटना नहीं थी. वे काम करते-करते, सोचते-चलते गांधी तक पहुंचे थे. लोहिया, समाजवादी युवजन सभा अादि का बहुत छोटा दौर भी साथ रहा लेकिन वह पानी की गहराई नापने से अधिक नहीं था. अनुपम की कई विशेषताअों में से एक विशेषता यह भी थी कि वे सबके साथ थे, सबके थे लेकिन पहले अौर अाखिरी तौर पर वे गांधी के थे; अौर गांधी की समझ भी उनकी अपनी थी. गांधी को खूब-खूब पढ़ना अौर गांधी को समझना दो एकदम भिन्न बातें हैं. यह तो हो सकता है कि पढ़-पढ़ कर गांधी को समझा जाए लेकिन यह नहीं हो सकता है कि जिए बिना गांधी को समझा जाए. यह अक्सर नकली व्यक्ति गढ़ता है या नकली गांधी तक पहुंचाता है. गांधी को जीने का मतलब गांधी के जड़ हो चुके प्रतीकों की नकल करना या उनसे चिपकना नहीं है. अनुपम ने यह रहस्य समझा था. इसलिए वे एक सामान्य मनुष्य की तरह जीते थे लेकिन इतनी सरलता अौर सहजता से कि कुछ भी बनावटी या अारोपित नहीं होता था. वे साहित्य भी पढ़ते थे, फिल्में भी देखते थे, फोटोग्राफी भी की अौर यात्राएं भी, पत्रकारिता भी अौर किताबें भी लिखीं. खाने-पीने का अानंद लेना व देना भी खूब जानते थे. नये लोगों से सहजता से मिलना-बातें करना अौर उन पर हावी हुए बिना उन्हें अपने साथ लेना उनकी प्रयासहीन वृत्ति थी. एक थे बनवारीलाल चौधरी. कृषि-विज्ञानी थे अौर सरकारी नौकरी में थे. गांधी ने अाजादी की लड़ाई में जब सबको पुकारा तो कई-कई लोगों ने जवाब दिया. बनवारीलालजी भी तब नौकरी छोड़ कर गांधी के साथ खड़े हो गए. अौर फिर खड़े ही रहे. ग्रामीण भारत को ध्यान में रख कर जिन लोगों ने अाधारभूत रचनात्मक कार्य की दिशा खोजी, उनमें बनवारीलालजी का नाम भुलाया नहीं जा सकता. पिता भवानीबाबू ने, संस्कृत में एम.ए. कर अपनी जमीन तलाशते अनुपम को इन्हीं बनवारीलालजी की तरफ उन्मुख किया अौर हम सबके जीवन में एक वह काल जो अाता है जब हम अपनी दिशा तै करते हैं, अनुपम ने वह काल बनवारीलालजी के निटाया केंद्र पर जिअा. अब न बनवारीलालजी रहे, न रहे अनुपम लेकिन रह गया बनवारीलालजी का दिया वह सरल, साधारण-सा सूत्र कि साधनों की कमी या विपुलता से परिणाम की गहराई या सफलता नहीं मापी जा सकती है. अौर फिर गांधी ने तो पूछा ही न कि साधनों की किल्लत हो जहां वहां अाप विवेक कैसे खो सकते हैं ? अौर फिर कहा: गरीबी हर्गिज नहीं चाहिए, क्योंकि वह मनुष्य का सर्वाधिक अपमान करती है. चाहिए स्वेच्छा से स्वीकारी हुई गरीबी ! यह स्वेच्छा अनुपम का स्वभाव बन गई. इसलिए उन पर सादगी सजती थी.
उनका लेखन अौर उनकी पत्रकारिता भी इसी सादगी में से निकली थी अौर इसलिए अनुपम थी. अगर साधनों की विपुलता से परिणाम को नहीं नापा जाना चाहिए तो भाषा-विन्यास अौर शब्द-जाल से लेखन की सार्थकता क्यों अौर कैसे मापी जा सकती है ! तो तवा घाटी का मिट्टी बचाअो हो कि चंबल में डाकुअों का समर्पण हो कि पहाड़ों में चला चिपको अांदोलन हो कि बड़े बांधों की विनाश-लीला कि राजस्थान के जल-संकट में उतरना कि देश भर के तालाबों का अध्ययन - अनुपम ने पत्रकारिता अौर भाषा का नया स्वरूप उभार दिया. भाषा का यह सहज सौंदर्य उनके व्याख्यानों में भी अनुपम स्वरूप में उभरता है जिन्हें बहुत-बहुत अाग्रह के बाद, लगभग जबरन स्वीकारते हुए वे कहते ही थे कि मुझे बोलना तो अाता भी नहीं है. अपनी यह भाषा उन्होंने लोगों के बीच रह कर सीखी व पहचानी थी. वे मौका-ए-वारदात पर जा कर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों में नहीं थे. वे जिन-जिन कामों से जुड़े, उन-उन के साथ जा कर लंबे-लंबे अरसे रहे अौर फिर लिखा. इसलिए उनकी भाषा में निरंतर परिष्कार देखा जा सकता है - सहज से सहजतर की तरफ; सरल से सरलतर की तरफ ! वे हमारे दौर के उन थोड़े से शब्दशिल्पियों में थे जिनके लिखने-बोलने के बीच खाई कम-से-कम थी. 
पर्यावरण की चिंता में उन्होंने कभी युद्ध घोषित नहीं किए हालांकि पर्यावरण के प्रति जागरूकता बनाने अौर उसे जमीन पर उतारने का उनका काम किसी से भी, किसी मानी में कमतर या कमजोर नहीं था. अाज इतने अधिक लोग, इतनी अाक्रामकता से पर्यावरण की रक्षा करने में जुटे हैं कि उनसे ही पर्यावरण को खतरा पैदा हो गया है. अनुपम इस भीड़ से एकदम अलग अौर अपने काम में मन भर डूबे, तन्मय नजर अाते थे तो इसलिए कि वे पर्यावरण के विनाश को मनुष्य से अलग कर के नहीं देखते थे अौर उनके सहजीवन में ही उसकी सार्थकता देखते थे. भारत का पर्यावरणपर छपी पहली वार्षिकी थी तो अनुवाद-सी ही लेकिन उसने अनुपम की मौलिकता का पहला प्रमाण दिया था. फिर राजस्थान की रजत बूंदें’, फिर अाज भी खरे हैं तालाबने एक-के-बाद एक हमें अचंभित भी किया अौर मोहित भी !  इन किताबों के इर्द-गिर्द जैसा लोक जागरण हुअा - हजारों की संख्या में नये-पुराने तालाब तैयार हो गए - वैसा किताबों से संभव हो सकता है, यह सत्य के पुनराविष्कार सरीखा था. कितनी ही भाषाअों में, कितने ही संस्करण इसके प्रकाशित हुए, व्यावसायिक प्रकाशकों ने मनमानी कीमत पर, मनमाने प्रकाशन किए, कितने अलग-अलग माध्यमों से काम करने वालों ने इन किताबों की मदद  ली, जानना-गिनना संभव नहीं है. अनुपम ने किताबों के शुरू में ही लिखा था : इसे या इसके किसी अंश को प्रकाशित करने के लिए अनुमति की जरूरत नहीं है. सबके लिए खुला है मंदिर ये हमारा !! इन किताबों से उन्होंने एक पैसे की कमाई नहीं की. कभी कुछ कमाई हुई तो जिस गांधी शांति प्रतिष्ठान के साथ जुड़ कर वे काम करते रहे, उसे भेंट कर दी. 
कोई १० माह पहले अचानक ही कैंसर का पता चला. फिर तो अस्पताल,डॉक्टर, दवाएं,कीमियो, न्यूक्लीयर मेडिसीन अादि-अादि के चक्र से घिर गए. जैसा कहते हैं - कैंसर से लड़ाई जारी है, मैंने कहा, तो पतली-सी मुस्कान उभरी : काहे की लड़ाई मैं तो इससे दोस्ती साधने में लगा हूं ! लड़ते तो उससे हैं जिससे जीतने की कोई संभावना हो. इस राजरोग से तो कुछ हो सकती है तो दोस्ती ही हो सकती है.

दोस्ती ही बनी होगी शायद जो यह राजरोग उन्हें अपने साथ ले गया ! (23.12.2017) 

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