Monday, 4 May 2020

आप कोरोना से डर रहे हैं ?

 

      अब जबकि जिन्होंने तालाबंदी की थी वे कह रहे हैं कि हम ढील दे रहे हैंतब “ कभी हम खुद को तो कभी अपने घर को देखते हैं!” सचमैं भी खुद को और अपने घर को देखता हूं और पाता हूं कि सभी डर रहे हैंसभी एक-दूसरे से बच रहे हैं. 

 

        अपने देश ने ऐसा कुछ पहले देखा नहीं थादुनिया ऐसे हालातों से पहले कभी गुजरी नहीं थी. लोग अपनों से कभी इस तरह आशंकित नहीं हुए थेलोग अपनों से इस तरह कभी जुदा नहीं हुए थे. सब कुछ था फिर भी जैसे कुछ भी नहीं था.जीवन तो था लेकिन सब ओर सनसनी मौत की ही थी. मौत वह हकीकत बनती जा रही थी जो सभी फसानों पर भारी थी. कमरों में लगने वाला ताला मुल्कों पर लगाया जा रहा था लेकिन लगता था कि कोरोना-दैत्य को हर ताले की चाभी का पता है. ऐसा पहले भी हुआ था लेकिन इतना व्यापक नहीं हुआ था. यह तो सही अर्थों में अंतरराष्ट्रीय है. हमारी आधुनिक सभ्यता के सारे स्वर्णिम शिखर सबसे पहले धूल-धूसरित हुए. आंसू भरी आंखों से ब्रिटेन की वह डॉक्टरनी जो कह रही थी वह जैसे सारी दुनिया की बात कह रही थी : “ हम कर तो कुछ नहीं पा रहे हैं लेकिन देखिएहम मोर्चा छोड़ कर भाग भी नहीं रहे हैं !

     आज भी सब कुछ वैसा ही है। जिंदगी के नहींमौत के आंकड़े ही हैं जो हम एक-दूसरे के साथ बांट रहे हैं।जिंदगी और मौत के बीच का फासला इतना कम कब था याकि हमने कब महसूस किया था लेकिन नहींकहने और देखने को इतना ही कुछ नहीं है। बहुत कुछ और भी है : पहले से कहीं ज्यादा शांत नगर-मुहल्ले हैंसड़कों पर लोग हैं लेकिन भीड़ नहीं हैकहीं भीड़ है भी तो भीड़पन नहीं हैकई गुना साफ पर्यावरण हैधुली हवापारदर्शी पानीअपनी चमक बिखेरते जंगलआजाद जानवरचहकते पंछी ! हिमालय की देवतुल्य चोटियां बहुत दूर से साफ दिखाई देने लगी हैं. हमने जिनके जंगल छीन लिया था वैसे कई पशु-पंछी हमारे नगरों की सड़कों का मुआयना करते दिखाई देने लगे हैं.    

कौन कर रहा है यह सारा काम देश तो बंद है ! सर्वशक्तिमान सरकारें कमरों में कैदआपस में बातें कर रही हैंतो फिर कौन है जो यह सब कर रहा है हम अपना विकासविज्ञान और विशेषज्ञता और अपनी मशीनें ले कर जैसे ही हटेप्रकृति अपने सारे कारीगरों को साथ ले कर मरम्मत में जुट गई. जिन बिगाड़ों को हमारे विशेषज्ञों ने हमारी किस्मत बता कर किनारा कर लिया थाआज वे सारे जैसे रास्ते पर आ रहे हैंओजोन की चादर की किसी हद तक मरम्मत हो गई हैग्लैशियरों का पिघलना कम हो गया है.  आप हिसाब करें कि हुए कितने दिन हैं तो कुल जमा 70 दिन ! इतने ही वक्त में प्रकृति ने बहुत कुछ झाड़ डाला हैपोंछ लिया हैरोप दिया है. उसने हमसे कह दिया है कि तुम अपना हाथ खींच लोमैं अपना हाथ बढ़ाती हूं। इसलिए पीछे नहीं लौटना हैरास्ता बदल कर तेजी से चलना है - आगे ! गांधी का हिंद-स्वराज्य’ इसी घर-वापसी का ब्ल्यू-प्रिंट है. 

 

      प्रकृति के कारीगरों की भी अपनी क्षमता है. वे रात-दिन लग कर जितना रच सकते हैंहमारा बिगाड़ा हुआ जितना बना सकते हैंहमारा प्रदूषित किया जल और वायु जितना साफ कर सकते हैंहमारे काटे-खोदे जंगलों और खदानों को  जितना परिपूरित कर सकते हैं उससे ज्यादा बोझ उन पर मत लादो ! किसान भी विवेक करता है कि अपने बैल पर कितना बोझ डालेहम उतना विवेक भी नहीं करते हैं कि अपने किसान पर कितना बोझ डालें. प्रकृति थकती नहीं है लेकिन बेदम जरूर हो जाती है. हमारी सभ्यता उसका दम निकाल लेती है. यह बंद करना होगा. विकास की पोशाक में विनाश का यह खेल बंद करना ही होगा.   

 

      उतना ही और वैसा ही विकास हमारे हिस्से का है जितना और जैसा विकास पर्यावरण के चेहरे पर धूल न मलता हो. बाकी सारा कुछ छलावा हैझूठ हैआपकी खड़ी की धोखे की टट्टी है. जरूरी है कि एक कोरोना से निकल कर हम दूसरे कोरोना में न जाएं. इसलिए बंद करनी होगी बेवजह की असुविधा पैदा करने वाली सुविधा की यह अंधी दौड़कारों-विमानों-कारखानों का यह जुलूससच को झूठ और झूठ को सच करने वाली विज्ञापनबाजीदो लगा कर दस पाने की भूख जगाने वाला यह आर्थिक छलावा और लगातार हमारी जरूरतें बढ़ाते चलने वाला यह बाजार ! पूंजी को भगवान बताने वाला और भगवान से पूंजी कमाने वालालोभ और भय के पहिए पर दौड़ने वाला यह विकास नहीं चाहिए। 

 

      कोई ज्ञानी पूछता है - क्या कोरोना इनसे पैदा हुआ है वह मुझे डरा कर चुप कराना चाहता है. चुप रहना और चुप कराते रहना इनकी सभ्यता का हथियार है. मैं अज्ञानी कहता हूं : नहींकोरोना तो विषाणु है जो प्रकृति से पैदा हुआ है। आगे भी होगा किसी दूसरे नाम से. पहले भी हुआ था - कभी हैजा के नाम सेकभी प्लेग के नाम सेकभी इंफ्लूएंजा तो कभी स्मॉलपॉक्स के नाम से. ब्लैक डेथएचआईवीएशियन फ्लूबर्ड फ्लूइबोला और न जाने क्या-क्या नाम सिखाए थे आपने. इसलिए विषाणुओं का पैदा होना प्राकृतिक है. एक अध्ययन बताता है कि एक व्यक्ति एक दिन में औसतन २-४ सौ ग्राम मल त्यागता हैऔर हमारे एक ग्राम मल में 1 करोड़ वायरस10 लाख बैक्टीरिया आदि होते हैं.   तो इन विषाणुओं से हमारा नाता पेट से ही होता है. लेकिन कोरोना से लड़ाई में हम जितने कमजोर और असहाय साबित हुए हैं वह जीवन केजीविका के और विकास के उन्हीं कारणों से जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया है. यह बीमार विज्ञान हैयह अंधा विकास हैयह अमानवीय संस्कृति हैयह डगमगाती सभ्यता है। इससे निकलना होगाइसे बदलना होगाइसे अस्वीकार करना होगा। वह छोटा-साअनमोल शब्द हमें फिर से सीखना व जीना होगा जिससे गांधी के सत्याग्रह की शुरुआत होती है - नहीं !

 

     नहींभय नहींनहींलोभ नहींनहींहिंसा नहींनहींवह नहीं जो सबके लिए समान रूप से उपलब्ध नहीं है.  नहींजरूरत से ज्यादा नहीं और जरूरतें ज्यादा बढ़ाना नहींनहींकिसी से डरना नहीं और किसी को डराना नहींनहींदूसरों के बल पर और दूसरों से छीने गये संसाधनों पर इतराना नहींनहींहाथ का काम और हाथ से काम धर्म हैकर्तव्य हैस्वाधीनता से जीने का मूलमंत्र हैभूलना नहीं. आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान जहां नहींवहां रहना नहीं. कोरोना इतना जगा जाए हमें तो वह भगवान का भेजा दूत ही कहलाएगा. नहीं तो यह कोरोना अपने किसी भाई -बंदे को अगली बार फिर ले कर आएगा. प्रकृति आत्मसम्मान के साथ आत्मनिर्भरता का जीवन जीना चाहती है जिसमें हमारी जीवन-शैली बाधक होती है. बाधा कौन पसंद करता है न हमन प्रकृति ! ( 04.05.2020)

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