एक नया शब्द गढ़ा गया है - कोरोना वारियर्स !! कौन हैं ये ? वे सारे सफेदपोश लोग जो अपने-अपने सुरक्षित अारामगाहों में बैठ कर हमें ललकारते हैं, क्या वे कोरोना वारियर्स हैं ? जिनके लिए हमसे थाली-ताली बजवाई गई; जिनके लिए हमसे पटाखे अौर चिराग जलवाए गये; जिनके लिए हवाबाजों ने हवाई करतब किए अगर वे सब कोरोना के सिपाही हैं तो फिर हम यह जंग जीत क्यों नहीं पा रहे हैं ? नहीं, अाप मुझे वह सब मत समझाइए जिसे खुद बिना समझे सारे विशेषज्ञ हमें रोज समझाते हैं; अौर रोज ही हम यह समझ कर अगली सुबह का इंतजार करते हैं कि किसी की समझ में कुछ भी नहीं अा रहा है. उस रोज एक सरकारी विशेषज्ञ कह गया कि हमें कोरोना के साथ ही जीना सीखना होगा. अरे, तुमने बताया भी तो क्या बताया, हम तो उसके साथ ही जी रहे हैं भाई ! हर संक्रमण हमें सिखा कर जाता है कि जो मर-मर कर जीना सिखाता है वही कोरोना के भी, अौर दूसरे हर तरह के संक्रमण के खिलाफ के युद्ध का सिपाही है.
वह सिपाही अभी भी सड़कों पर है - उसके पास पीपीई नहीं है; वह हर वक्त सेनेटाइजर से हाथ धोता नहीं है, क्योंकि वही हमें यह याद दिलाता है कि संसार में पानी की कमी का संक्रमण फैलने ही वाला है; उसने नाक-मुंह बंद करने वाला मुखौटा ( ?) भी नहीं लगा रखा है क्योंकि वही हमें याद दिलाता है कि जो बार-बार चेहरे बदलते हैं वे चोर-डाकू होते हैं, सिपाही नहीं; वह हमारे विमान-रेल-बस-टैक्सी का इंतजार किए बगैर मौत की बेरहम दुनिया से निकल पड़ा है कि बकौल दुष्यंत कुमार - “ मरें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले !” लिखा शहर के दुष्यंत कुमार ने है तो इसलिए इसमें बगीचा भी है, गुलमोहर भी है, क्रांति का प्रतीक भी है; किसी दुलाई कुमार ने लिखा होता तो लिखता - “ मरें तो अपनी झुंपड़िया की छांह तले !” यही तो परंपरा ने, माता-पिता ने, गांव ने सिखाया है कि कमाने-खाने के लिए जहां किस्मत ले जाए, जाअो, लेकिन बबुअा, मरने वास्ते यहीं अपनों में अा जाना. मिट्टी अपनी मिट्टी में मिलती है तो मोक्ष मिलता है.
वह पैदल-मन अाया था, पांव-पैदल लौट रहा है. उसे मार्क्स ने समझाया था न कि तुम्हारे पास खोने को अपनी बेड़ियों के सिवा दूसरा कुछ नहीं है ! वह उसे याद है. इसलिए लॉकडाउन के साथ ही उसने बेड़ियों से निकल कर वापसी की यात्रा शुरू कर दी थी.
हम न जाने कब से इन मजदूरों को हजारों किलोमीटर की यात्रा पर अपनी दो पहिया गाड़ी से निकल पड़े देख रहे थे. इस महानिभिष्क्रमण में सभी शरीक हैं - बूढ़े माता-पिता जो अपने पांवों के जवाब देने पर जवानों के कंधों के पांवों पर बैठ कर जा रहे हैं, एकदम दुधमुहें जो मां-बाप की गोदी में चिपके हैं, वह भावी पीढ़ी भी है जो मां के साथ उसके पेट में ही चल रही है. इनका सारा संसार कंधे पर धरे-लटकते बैगों में बंद है क्योंकि इनकी असली दौलत तो वे हथेलियां अौर वे पांव हैं जिनसे दुनिया नाप कर, यह सारा संसार रचा है इन्होंने. वह साथ है तो ये इंसान अौर भगवान से एक साथ भिड़ते अाए हैं, भिड़ने निकल पड़े हैं.
इनके जाने का दर्द किसी को नहीं हुअा क्योंकि इनको रखने का नुकसान उठाने को कोई तैयार नहीं था. कभी नहीं कहा प्रधानमंत्री ने कि हमारे ये श्रमिक ही कोरोना के खिलाफ की लड़ाई के असली सिपाही हैं. क्या कभी प्रधानमंत्री ने याकि सारे करामाती मुख्यमंत्रियों में से किसी ने सोचा कि यदि इन्हें सुरक्षित कर लिया जाए, संभाल कर अपने साथ रख लिया जाए तो कोरोना से लड़ने में भरपूर मदद मिलेगी, क्योंकि ये अपनी जगह होते तो ऐसा अार्थिक अंधेरा नहीं होता; उत्पादन का चक्का इस तरह एकदम रुक नहीं जाता; बाजार भी चलता होता; खेतों-खलिहानों में अनाज होता. इस व्यवस्था को चलाए रखने के लिए लोगों की कमी नहीं होती. हमारे अनपढ़-अकुशल श्रमिक वे पुर्जे हैं कि जो किसी भी मशीन में, कहीं भी, कभी भी फिट हो जाते हैं. 21 दिनों के पहले लॉकडाउन से पहले यह हिसाब कर लेना था कि हमारी यह ताकत कहां-कहां है, कितनी है अौर इसे टिकाए-बनाए-चलाए रखने के लिए क्या-क्या व्यवस्था अनिवार्य है; वह कौन,कैसे बनाएगा अौर कौन, कैसे उसे संचालित करेगा.
50 दिनों की तालाबंदी अौर सड़कों पर कट-मर गये मजदूरों को देखने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री को लगा कि यह व्यवस्था पूरी तरह विफल हो गई है. अब उन्होंने मजदूरों से अपील की है कि वे दिल्ली से न जाएं, दिल्ली सरकार उनकी पूरी व्यवस्था करेगी. इतनी देर लगी उन्हें यह समझने में कि वे भी अौर उनके जैसे तमाम मुख्यमंत्री अौर उनकी सरकारें भी; अौर करिश्माई प्रधानमंत्री भी किसके कंधों पर बैठे हैं ? जिसकी अभ्यर्थना में ये सब रात-दिन झुके रहते हैं, सभी सरकारें जिनकी सुविधा के लिए हैं, इस अंधेरे दौर में भी जिसके इशारे पर श्रम कानूनों में ऐसे अंधे परिवर्तन किए गये हैं कि श्रमिक पहले से भी ज्यादा कवचविहीन हो गया है, वह सारा कारपोरेट जगत अाज घुटनों पर है, क्योंकि यह नंगा-भूखा-उपेक्षित मजदूर उनके साथ नहीं है, उनके पास नहीं है.
श्रमिकों के साथ जैसा व्यवहार हम कर रहे हैं वह अमानवीय भी है अौर अदूरदर्शी भी. देश का भला इसी में है अौर कोरोना की लड़ाई भी तभी श्रेयस्कर होगी कि श्रमिकों की वापसी का पूरा व पक्का इंतजाम हर राज्य में किया जाए - वह मुफ्त भी हो अौर सम्मानपूर्ण भी; गांवों में उनके लिए अनाज-पानी की पक्की व्यवस्था कर दी जाए, उनसे कह दिया जाए कि वे जब भी अपने काम पर वापस लौटना चाहेंगे उनके लौटने की व्यवस्था भी की जाएगी. इस बीच हर उद्योगपति अपने उद्योग-क्षेत्र में साफ-व्यवस्थित श्रमिक-अावास का निर्माण करवाएंगे तथा श्रमिक कानून का पूरा पालन करते हुए, कोरोना-काल में भी अौर उसके बाद भी श्रमिकों से काम लिया जाएगा. यह मंहगा नहीं पड़ेगा क्योंकि यह न्यायपूर्ण होगा, किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं होगा, सम्माजनक होगा. न्याय, सम्मान अौर समान भाव का परिणाम होगा कि श्रमिक लौटेंगे भी, ईमानदारी से काम करेंगे, पटरी से उतरी उत्पादन, दैनिक कार्य-व्यवहार, सेवा-क्षेत्र की गाड़ी पटरी पर लौटेगी. विफल व्यवस्था की अराजकता काबू में की जा सकेगी. सरकार भी अौर कारपोरेट भी यह समझ सकेंगे कि इस नई व्यवस्था में उनका न्यायपूर्ण मुनाफा कहीं जा नहीं सकता है लेकिन लूट नहीं चल सकती है. जिस पार्टी की भी सरकार हो, अब उसके पास खाने व दिखाने का एक ही दांत होगा. मान लें सब कि व्यवस्था का दूसरा दांत कोरोना खा गया है. सरकारें अपनी अौकात भी समझें अौर अपनी शक्ति भी पहचानें - वे लोकतांत्रिक खेल की खिलाड़ी नहीं हैं, वे अंपायर हैं. खेल नियम से चले यह देखना उनकी धर्म है, नियम संविधान ने तै किए हैं. कोई भी तोड़े नियम तो सिटी मारना सरकार की ताकत है. बस, सरकार का मतलब न इससे ज्यादा कुछ है, न इससे कम कुछ. विज्ञान अपनी जगह अौर समाज अपनी जगह कोरोना से लड़े, इसका यही ब्ल्यू-प्रिंट दिखाई देता है. अभी तो राजनीति अौर नौकरशाही ने इस लड़ाई को अपना खेल बना लिया है.
तालाबंदी की इस पूरी अवधि में मजदूरों के कई वर्ग हैं जिनका सबसे अधिक दुरुपयोग हुअा है. उसमें पहले नंबर पर है पुलिस ! यह हमारे लोकतंत्र का वर्दीधारी मजदूर वर्ग है. राजधानी दिल्ली के एक प्रमुख पुलिस थाने का अधिकारी झुंझला कर बोला था : हमें इसी थाना में कोरंटाइन कर दिया है… सामान्य मानवीय सुविधाएं भी नहीं हैं यहां. यहीं हम सुबह से चूल्हा जला कर पूड़ियां सेंकते हैं, खिचड़ी बनाते हैं, पैकेट बनाते व भरते हैं अौर फिर जिप्सी में डाल कर ले चलते हैं वितरण के लिए. जाना कहां है, देना किसे है, यह भी हमें बताया जाता है. हम बस बांट भर अाते हैं. उसी पैकेट में से हम भी खा लेते हैं, यहीं सो जाते हैं. फिर अचानक कहीं, कुछ गड़बड़ होती है तो हम ही वर्दी डाल कर अपनी ड्यूटी पर दौड़ते भी हैं. घर जाना मना है क्योंकि हम संक्रमण फैला सकते हैं. इस पुलिस का बोझ कम किया जा सकता था अौर उसे पुलिस का काम करने दिया जा सकता था यदि बेचैन हो कर गांव भागते मजदूरों को योजनापूर्वक रोका जाता, नागरिकों को घरों में ठूंसने की जगह उनसे सावधानी के साथ अपनी मानवीय भूमिका निभाने को कहा जाता अौर व्यवस्था उनकी सहायक की भूमिका निभाती.
यह सब हो सकता था अौर अब तक हम कोरोना के कई दांत तोड़ चुके होते. काश कि हमारी स्वार्थी राजनीति खुद ही कोरोनाग्रस्त नहीं होती ! लोकतंत्र की अगली चुनौती इसका वैक्सीन बनाने की है. ( 11.05.2020)
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