Friday 22 March 2019

ममता दी का 2019


  
राहुल गांधी की ममता दी ने विपक्षी दलों के २२ नेताअों को एक मंच पर जुटा लिया अौर समवेत सुर में एक ही मंत्र जपने को मजबूर कर दिया. लेकिन यह मजबूर विपक्ष देश को मजबूर नहीं कर सकता है कि उस पर विश्वास किया जाए. इस मजबूर विपक्ष को सही मानी में मजबूत विपक्ष बनना पड़ेगा. इस अायोजन के जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टैंक पर सवार अपना फोटो जारी करने के साथ-साथ इसका माखौल उड़ाते हुए जो कुछ कहा उसका अर्थ भले कुछ भी न निकलता हो, वह सत्तापक्ष की घबराहट की चुगली तो खाता ही है. 

टैंक पर बैठ कर लोकतंत्र की कमान संभालने का स्वांग कौन करता है, इसे जानने के लिए इतिहास में ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है. प्रधानमंत्री इस बात को समझें या न समझें, हमें जरूर समझना चाहिए कि कुछ प्रतीक ऐसे होते हैं जो कुछ बातों से कभी, कहीं मेल नहीं खाते हैं. टैंक से लोकतंत्र के मेल का प्रतीक ऐसा ही है. टैंक बहुत हुअा तो लोकतंत्र के कुचले जाने का  प्रतीक हो सकता है. यह कुछ ऐसा ही है जैसे सेंसेक्स के बढ़ते अांकड़े अर्थतंत्र के स्वास्थ्य के प्रतीक नहीं होते, किसी नये हर्षद मेहता की कारगुजारी की अाशंका जताते हैं; हमारे देश के संदर्भ में साफ छवि वाला प्रधानमंत्री कभी भी भ्रष्टाचारमुक्त सरकार का प्रतीक नहीं बनता है; अनुशासन की लंबी-लंबी हांकने वाला, किसी अनुशासित समाज की नहीं, हमें अपने अापातकाल की याद दिलाता है. तब लोकतंत्र की हत्या को यह कह कर जायज ठहराया जा रहा था देखिए, ट्रेनें समय पर चलने लगीं हैं अौर बाबू लोग दफ्तरों में समय से अाने लगे हैं. जब फौज की अंधाधुंध वाहवाही की जा रही हो, धर्म-संस्कृति का नाम अधार्मिक तत्व जोर-जोर से ले रहे हों, जब थोथी जुबान को ठोस काम की शक्ल दी जा रही हो, जब सत्तापक्ष विपक्ष को देशद्रोही अौर भ्रष्ट घोषित कर रहा हो, जब सारी अच्छी उपाधियां खुद ही, खुद को दी जा रही हों, जब खुद को रात-दिन एक कर काम करने वाला अौर बाकी सबको कामचोर बताया जा रहा हो अौर सार्वजनिक मंच से पूछा जा रहा हो कि अापको कैसा सेवक चाहिए, तथा जब यह कहा जा रहा हो कि दूसरे सब सत्तालोलुप हैं जब कि मैं एक झोला उठा कर कभी भी चल देनेवाला निस्पृह अादमी हूं तब हमें सावधान हो जाना चाहिए कि दाल में कहीं कुछ गहरा काला है; अौर कुछ है कि जिस पर पर्दा डाला जा रहा है.

हमारे सामने अभी जो चल रहा है वह सत्ता का खुला खेल फरुखाबादी है. मतलब यह कि यह खेल बिना किसी कायदे-कानून,मान-मर्यादा अौर इतिहास-भूगोल के खेला जाता है अौर जो किया-कराया,कहा-बताया,सुना-सुनाया, गाया-बजाया सबकी सार्थकता की कसौटी एक ही है कि इससे सत्ता मिली क्या ? वह मिली तो सब माफ, सब राम के नाम ! इसलिए प्रधानमंत्री का यह रोना रोना कि ये सभी एक मुझ बेचारे को सत्ता से हटाने के लिए साथ अा रहे हैं, बहुत लुंजपुंज नजर अाता है. क्या लोकतंत्र में विपक्ष का काम यह नहीं है कि वह सत्तापक्ष को कुर्सी से हटाये ? अगर ऐसा नहीं है तो वह विपक्ष है ही क्यों ? 2014 के चुनाव में अाज का विपक्ष सत्ता में था अौर अाज के सत्ताधारी विपक्ष में. तब भारतीय जनता पार्टी के भीतर की सत्ता अौर देश की सत्ता हथियाने की कुचाल में नरेंद्र मोदी ने कौन-सा दांव नहीं चला था ? उन्होंने भी उन सारे राजनीतिक दलों अौर शोहदों को गोलबंद किया था जो किसी भी कारण कांग्रेस से नाखुश थे. उतना बड़ा गठबंधन पहले कब बना था, याद करें हम ! तब वह सब लोकतांत्रिक था तो अाज अलोकतांत्रिक या अनैतिक कैसे हो सकता है ? नरेंद्र मोदी अवसरवादी हों तो वह भारतीय संस्कृति है, राहुल या ममता या मायावती अवसर का फायदा उठाएं तो यह बेशर्म अवसरवादिता कही जाए, तो बात बहुत बेढब हो जाती है.

एक के सामने सब का तर्क भी बहुत बोदा है. कहा है किसी ने कि अधर्म का प्रतीक कितना बलवान है अौर उससे अपशकुन कितना अासन्न है, इससे प्रतिकार की ताकत का अाकार अौर उसकी अाक्रामकता तै होती है. अपनी परंपरा में देखें तो कंस के लिए कृष्ण को, रावण के लिए राम को अाना पड़ता है न ! अभी के इतिहास के पन्ने पलटें तो पाएंगे कि श्रीमती इंदिरा गांधी की सत्तालोलुपता को पीछे करने के लिए जयप्रकाश नारायण को सामने अाना पड़ा था अौर तब कहीं जा कर हम लोकतंत्र को पटरी पर ला सके थे. इतिहास यह भी बताता है कि हिटलर के लिए दुनिया भर की मित्र-ताकतों को एकजुट होना पड़ा था. इसलिए प्रधानमंत्री का यह रोना अर्थहीन हो जाता कि ये सभी मेरा मुकाबला करने के लिए एकजुट हो रहे हैं. 

प्रधानमंत्री का यह कहना भी बहुत बुरा संदेश देता है कि मेरा विरोध भारत का विरोध है याकि यह कि विपक्ष मुझसे नहीं, जनता से लड़ना चाहता है. प्रधानमंत्री को याद न हो शायद क्योंकि तब नरेंद्र मोदी का राजनीतिक शैशवकाल था. 1974 में एक नारा कांग्रेस के देवकांत बरुअा ने उठाया था कि इंदिरा भारत हैं, भारत इंदिरा है ! यह चाटुकारिता का चरम था ! तब उसी भारत ने इस नारेसहित इंदिरा अौर देवकांत बरुअा को इतिहास के उस कूड़ाघर में उठा फेंका था जहां से अाज तक उनकी सहज वापसी नहीं हो सकी है. लेकिन यहां सवाल अात्मचाटुकारिता है. प्रधानमंत्रीसमेत सारे राजनीतिज्ञ यह न भूलें कि अहमन्यता अात्मचाटुकारिता ही होती है. यह देश स्वंयभू है, अमर है, कोई व्यक्ति नहीं ! खुद को देश का पर्याय बताना कमजोर अौर दिशाहीन राजनीति का प्रमाण है. 

देश के संदर्भ में देखें तो 2019 की त्रासदी यह है कि इसके पास व्यक्तियों का विकल्प तो है, नीतियों का नहीं है. विपक्ष के संदर्भ में देखें तो उसके लिए सहूलियत यह है कि पिछले पांच सालों में ‘थोथा चना बाजे घना’ इतना अौर इस तरह हुअा है कि सबको दिखाई देने लगा है.  बस, उसे शब्द अौर संगठन देने की जरूरत है जो कत्तई अासान नहीं है लेकिन असंभव भी नहीं है. सत्तापक्ष के संदर्भ में देखें तो उसकी स्थिरता अौर उसकी एकता देश को रास अा रही है. यह सत्ता के कारण है कि राजनीतिक संस्कृति के कारण इसकी कसौटी भी अभी ही होनी है. इसलिए ममता दी के मंच से जो हुअा है उसकी गूंज देशव्यापी हो सकती है. प्रधानमंत्री कितनी प्रौढ़ता से अौर भारतीय जनता पार्टी कितने अनुशासन से 2019 का पाला छूते हैं, इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है. ( 20.01.2019)  

No comments:

Post a Comment