Friday 22 March 2019

आइए, अौर अपना अारक्षण ले जाइए


अभी-अभी खबर अाई है कि राजस्थान में गुर्जरों ने अारक्षण की मांग का अपना पांचवां अांदोलन इस भाव के साथ वापस ले लिया है कि उनकी जीत हो गई है. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर गुर्जर समुदाय ने ही उनका सबसे मुखर स्वागत किया. उन्होंने राजस्थान ही बंद कर दिया. सड़कें बंद, रेलपटरियां बंद. अागजनी अौर गोली-बारी ! हमारे अारक्षण-अांदोलन का यह सफलता-सिद्ध नक्शा है -  अपनी जातिवालों को इकट्ठा करना, स्वार्थ की उत्तेजक बातों-नारों से उनका खंडहर, भूखा मन तर्क-शून्य कर देना, किसी भी हद तक जा सकने वाली असहिष्णुता का बवंडर उठाना, सरकार को कैसी भी धमकियां दे कर ललकारना अौर अधिकाधिक हिंसा का नंगा नाच करना ! सभी ऐसा ही करते हैं, गुर्जरों ने भी किया. 

गुर्जरों समेत ५ अन्य जातियों को ५% अारक्षण देने की घोषणा राजस्थान सरकार ने की. सबको पता है कि अारक्षण के बारे में ५०% की सर्वोच्च न्यायालय की लक्ष्मण-रेखा पार करने के कारण अदालत में ऐसे सारे अारक्षण गिर जाते हैं. ऐसा पहले हुअा भी है. अब फिर होगा ? केंद्र सरकार ने सवर्ण जातियों के लिए १०% चुनावी-अारक्षण की जो घोषणा की है, वह भी ५०% की रेखा को पार करती है. दूसरे कुछ राज्यों ने भी इस मर्यादा से बाहर जा कर अारक्षण दे रखा है. इन सबके बारे में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ को कोई संयुक्त फैसला लेना है. वह जब लेगी तब लेगी लेकिन अाज तो यह अारक्षण सबका सर्वप्रिय खेल बन गया है.

लेकिन मैं कहता हूं कि अाइए, जिन-जिन को अारक्षण चाहिए, अाइए अौर अपना-अपना अारक्षण ले जाइए. अाखिर तो रोटी एक ही है अौर उसका अाकार भी वैसा ही है. इसके जितने टुकड़े अाप कर सकें, कर लीजिए. मैं तो कहता हूं कि सर्वोच्च न्यायालय ५०% की अपनी लक्ष्मण-रेखा भी मिटा दे. फिर तो सब कुछ सबके लिए अारक्षित हो जाए ! फिर अाप पाएंगे कि अारक्षण के इस जादुई चिराग को रगड़ने से भी हाथ में कुछ नहीं अाया - न जीवन, न जीविका ! 

 रोटी तो एक ही है अौर हममें से कोई नहीं चाहता है कि रोटियां कई हों अौर उनका अाकार भी बड़ा होता रहे ताकि अारक्षण की भीख मांगने की जरूरत नहीं हो. सब चाहते यही हैं कि जो है उसमें से ‘हमारा’ हिस्सा अारक्षित हो जाए. यह सवाल भी कोई पूछना नहीं चाहता है अौर न कोई बताना चाहता है कि यह ‘हमारा’ कौन है ? जिनका अारक्षण संविधान-प्रदत्त है, उनके समाज में ‘हमारा’ कौन है ? पिछले कोई ७० सालों में वह ‘हमारा’ कहां से चला था अौर कहां पहुंचा ? पिछड़े समाज का पिछड़ा हिस्सा अारक्षण का कितना लाभ ले पा रहा है ? हर समाज का एक ‘क्रीमी लेयर’ है जो हर तरह के लाभ या राहत को कहीं अौर जाने से रोकता भी है अौर छान भी लेता है. दलित-पिछड़ों के समाज का भी अपना ‘क्रीमी लेयर’ है जहां पहुंच कर अारक्षण का लाभ रुकता भी है अौर छनता भी है. यह बात अदालत ने ही नहीं कही, हम चारो बगल देख भी रहे हैं. पिछड़ी जाति का नकली प्रमाण-पत्र बनवाने वाले सवर्णों की कमी नहीं है अौर हर तरह की धोखाधड़ी कर सारे लाभ अपने ही परिजनों में बांट लेने वाले पिछड़ों की कमी नहीं है. 

   अारक्षण की व्यवस्था पहले एक विफल समाज के पश्चाताप का प्रतीक थी, अाज  यह सरकारों की विफलता की घोषणा करता है. हर तरफ से उठ रही अारक्षण की मांग बताती है कि देश चलाने वाली तमाम सरकारें सामान्य संवैधानिक मर्यादाअों में बंध कर न तो देश चला सक रही हैं, न बना सक रही हैं. जब अाप अपने पांवों पर चल नहीं पाते हैं तभी बैसाखी की जरूरत होती है. हम चूके कहां ? समाज के पिछड़े तबकों को अारक्षण की विशेष सुविधा दे कर सरकारों को, अौर समाज को भी सो नहीं जाना था बल्कि ज्यादा सजगता से अौर ज्यादा प्रतिबद्धता से ऐसा राजनीतिक-सामाजिक-शैक्षणिक चक्र चलाना था कि पिछड़ा वर्ग जैसा कोई तबका बचे ही नहीं. लेकिन ऐसा किसी ने किया नहीं. अगर शिक्षा में या नौकरियों में अारक्षण वाली जगहें भरती नहीं हैं तो सरकार को जवाबदेह होना चाहिए. उसे संसद व विधानसभाअों में इसकी सफाई देनी चाहिए कि ऐसा क्यों हुअा अौर अागे ऐसा नहीं हो इसकी वह क्या योजना बना रही है. लेकिन सत्ता की भूख ऐसे सारे सवालों को हजम किए बैठी है. 

  अारक्षण का सदा-सदा के लिए चलते रहना इस बात का प्रमाण है कि समाज के हर तबके को सामाजिक-अार्थिक-राजनीतिक अवसर का लाभ पहुंचाना इस व्यवस्था के लिए संभव नहीं है. लागू अारक्षण को जारी रखने के लिए अांखें तरेरते लोग अौर नये अारक्षण की मांग करते हिंसक अांदोलनकारी, दोनों मिल कर कह तो यही रहे हैं न कि लोगों को भरमाने, खैरात बांटने अौर स्वार्थों की होड़ के अलावा दूसरा कुछ है नहीं कि जो हम कर सकते हैं. अारक्षण की यह भूख बताती है कि अाजादी के बाद से अाज तक जिस दिशा में सरकारें चली हैं वह समाज के हित की दिशा नहीं है. संविधान ने अपने पहले ही अध्याय में राज्यों के लिए जिन नीति-निर्देशक तत्वों की घोषणा की है, उन्हें देखें हम अौर अपने समाज को देखें तो यह समझना अासान हो जाएगा कि हमारा शासन कितना दिशाहीन, लक्ष्यहीन तथा संकल्पहीन रहा है. न सबके लिए शिक्षा, न सबके लिए स्वास्थ्य, न पूर्ण साक्षरता, न हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा, न संपू्र्ण नशाबंदी, न जाति-धर्म की दीवारों को गिराने की कोई कोशिश, न समाज की बुनियादी इकाई के रूप में गांवों की हैसियत को संविधान व प्रशासन में मान्यता- कुछ भी तो हमने नहीं किया. रोजगारविहीन विकास को हमने प्रचार की चकाचौंध में छिपाने की कोशिश की लेकिन भूख छिपाने से छिपती है क्या ? इसलिए सारी जातियों के गरीब अारक्षण की लाइन में वैसे ही खड़े हैं जैसे नोटबंदी में सारा भारत खड़ा था; अौर संसद व विधानसभाअों में वह लाइन बड़ी-से-बड़ी होती जाती है जिसमें गरीबों के करोड़पति प्रतिनिधि खड़े होते हैं. 

अाज अारक्षण वह सस्ता झुनझुना है जिससे सभी खेलना चाहते हैं लेकिन व्यवस्था की चालाकी देखिए कि वह सबको एक ही झुनझुने से निबटा रही है ताकि किसी को याद न रहे कि व्यवस्था का काम झुनझुने थमाना नहीं है. ( 16.02.2019)   


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