कोलकाता के मध्य में ममता बनर्जी ने जो कथानकविहीन नाटक खड़ा किया था, सर्वोच्च न्यायालय ने जल्दी ही उस पर जरूरी पर्दा गिरा दिया. सबने राहत की सांस ली - ममता दी ने भी, दिशाहीन केंद्र ने भी अौर न्यायपालिका ने भी. अब सवाल है कि जीता कौन ? सबके अपने-अपने जवाब हैं; मेरा जवाब यह है कि वे जीते, हम हारे ! ‘वे’ मतलब वे जो सत्तावर्ग के हैं अौर व्यवस्था को अपने हित में निचोड़ते-तोड़ते रहते हैं। ‘हम’ मतलब हम वे जो व्यवस्था को इस कदर निचोड़ने-तोड़ने के शिकार होते हैं.
उस दिन कोलकाता में जो हुअा वह सीबीअाई की सर्जिकल स्ट्राइक थी. मोदी सरकार है ही ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ वाली सरकार है. प्रधानमंत्री बनने के लिए भी मोदीजी ने अपनी पार्टी पर सर्जिकल स्ट्राइक ही तो किया था. फिर अपने शपथ-ग्रहण को संवैधानिक प्रक्रिया नहीं, किसी ‘शादी’ का रिसेप्शन बनाने की धुन में सार्क देशों के सारे राष्ट्र प्रमुखों को जुटाना कूटनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक से कहां कम था ! फिर पाकिस्तान से रिश्ता बनाने की पागल दौड़ में बेचारे नवाज शरीफ पर इतने सर्जिकल स्ट्राइक किए उन्होंने कि अाखिर उनका काम तमाम करके ही छोड़ा. फिर नोटबंदी की घोषणा, बैंकिग व्यवस्था को अौर फिर रिजर्व बैंक को बधिया करना, जीएसटी लागू करना - सभी तो सर्जिकल स्ट्राइक के तेवर से ही हुए. सरकारी पार्टी के एक बड़े सज्जन कह रहे थे कि जीएसटी लागू करने में जो जल्दीबाजी की बात करते हैं, उनसे मैं कहता हूं कि चारा ही कुछ नहीं था. सारा प्लान तो मनमोहन सिंह का बना-बनाया था, तो हमें प्लान में किसी गड़बड़ी की अाशंका नहीं थी. हमने देखा कि इसे फुलप्रूफ बनाने के चक्कर में रहेंगे तो इसे लागू करने का यश कोई अौर ले जाएगा. इसलिए इसे लागू करने का सही राजनीतिक वक्त वही था. लोगों का नुकसान हुअा, कुछ दूसरी गड़बड़ियां हुईं लेकिन वह सब होते-होते अब देखिए कि बात रास्ते पर अा ही गई है. लागू करने से लेकर उसे स्थिर करने तक का सारा श्रेय हमारा हो गया. राजनीतिक काम तो ऐसे ही होते हैं ! तो इस पर से समझिए िक राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक कोलकाता में हुअा. रात के अंधेरे में, राज्य सरकार को अंधेरे में रख कर, सीबीअाई के मरे तोते को पिंजड़े से निकाल कर कोलकता पहुंचा दिया गया. लोकतंत्र हमेशा ही क्षुद्र राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक से घायल होता रहा है, उस दिन भी हुअा.
ममता दी ने दन-दनादन धरना की अपनी शैली में उसकी काट निकाली. वे केंद्र की कुचालों से गले तक भरी हुई थीं. विपक्षी एकता को अाधार देने अौर उसकी धुरी बनने की उनकी पहल से हैरान-परेशान मोदी-शाह की जोड़ी भी बौखलाई हुई है. वह ईंट-से-ईंट बजाने अौर छट्ठी का दूध याद दिलाने जैसी भाषा में राजनीतिक विमर्श करने में लगी है. उसके छुटभैयों की भाषा की तो बात ही क्या ! लेकिन चिटफंड का बेताल ममता दी से कोई अाज से नहीं, कबसे चिपका हुअा है. अगर वह अारोप गलत है तो सत्ता के इतने लंबे दौर में अब तक इसकी सफाई हो जानी चाहिए थी. अगर वह सही है तो अब तक अपराधियों की धराई हो जानी चाहिए थी. अाप बेतालों को इस तरह बे-ताला रखे रहेंगी तो वे मुसीबत बनेंगे ही. लेकिन ममता दी को स्वयंभू राजनीति की जो लत लगी हुई है वह उन्हें बार-बार मुसीबत में डालती है - अपनी पार्टी के भीतर भी अौर विपक्ष के भीतर भी इसकी तिक्तता मिलती रही है. ममता दी ऐसा समां बांधती हैं जैसे सारा जमाना उनका दुश्मन है, अौर वे उनका मुकाबला करने वाली अकेली वीरांगना है. यह मोदी के राजनीतिक विमर्श का महिला संस्करण है. मोदी भी अपनी छवि एक ऐसे घनघोर राष्ट्रप्रेमी, गरीबों के रॉबिनहुड की गढ़ते हैं जिसके पीछे सारा चोर विपक्ष, सारे चोर पैसे वाले, सारे भ्रष्टाचारी, सारी कांग्रेस अौर सारा नेहरू-परिवार हाथ धो कर पड़ा है अौर वे अाधुनिक अभिमन्यु की तरह लहूलुहान, अकेले ही इस चक्रव्यूह को काट रहे हैं. लेकिन काश कि ऐसा कुछ होता ! दोनों की अपनी गढ़ी छवि नकली भी है अौर असलियत के विपरीत भी है. असहमति का कोई स्वर भी ममता दी को सुहाता है क्या ? क्या ममता दी ने उनकी गिरफ्तारी नहीं करवाई है जिन्होंने सोशल मीडिया पर उनकी अालोचना की ? क्या अपनी व्यक्तिगत अौर सरकारगत अालोचना के प्रति वे भी मोदी की तरह ही असहिष्णु अौर बदले की भावना से भरी नहीं हैं? भाजपा के सांप्रदायिक कार्ड का जवाब वे भी किसी दूसरी सांप्रदायिकता में नहीं खोज रही हैं ? हिंसा को राजनीतिक जवाब की भाषा बनाने में वे भी कोई गुरेज रखती हैं क्या ? चिटफंड मामले में कोलकाता के पुलिस कमिश्नर की भूमिका कभी भी संदेह से परे नहीं रही है. अब तक तो यही लगा है कि कुछ तो है कि जिसकी परदेदारी में राजीव कुमार की सेवाएं ली जा रही हैं. यह उच्च प्रशासनिक सेवा का घटिया राजनीतिक इस्तेमाल तथा उच्च अधिकारियों की घटिया राजनीतिक हरकत है. यह बहुत हद तक वैसा ही है जैसा यह कि सीबीअाई को सरकारी पिट्ठू बनाने में पहले केंद्र ने वर्मा-अस्थाना का इस्तेमाल किया, फिर एम.नागेश्वर राव को ला बिठाया. फिर अदालत ने बिल्कुल न समझ में अाने वाली भूमिका लेते हुए वर्मा को प्रमुख पद पर ला बिठाया अौर अगले दिन हटा दिया अौर फिर नागेश्वर राव को ला बिठाया गया. नागेश्वर राव ने ऐसे तेवर दिखाए मानो वे सीबीअाई प्रमुख बनने के लिए ही पैदा हुए हैं. इस सारे प्रकरण में मारा कौन गया ? न वर्मा, न अस्थाना, न नागेश्वर राव, न सरकार, न अजीब घामड़-सी भूमिका लेने वाली न्यायपालिका अौर न तीन सदस्यों वाली वह कमिटी जो सीबीअाई प्रमुख का चयन करती है. मारे गये हम जिनके लोकतांत्रिक अधिकारों का संरक्षण करने के लिए बनी न्यायपालिका, सीबीअाई तथा तीन सदस्योंवाली चयन समिति क्रमश: बौनी बनती गई अौर विश्वसनीयता खोती गई.
लोकतंत्र में संस्थाअों का परस्परावलंबन अौर एक-दूसरे को मर्यादित करते चलने वाली व्यवस्थाएं जितना टूटती हैं, नागरिक उतना ही कचवविहीन होता जाता है. यह महाभारत के रण में कर्ण के कवच-कुंडलविहीन होने जैसी ही त्रासदी है. ( 07.02.2019)
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