Friday 22 March 2019

अभिनंदन से पहले अौर अभिनंदन के बाद



चालीस लाशें पुलवामा में; फिर न मालूम कितनी बालाकोट में अौर फिर ४० से ज्यादा सीमा पर अौर कश्मीर में; अौर हवा में कितना सारा जहर ! अगर ये सारी लाशें शहादत की हैं तो इनके सम्मान में खड़े हो भाई, इतनी जानें गईं तो अफसोस में सर झुकाअो अौर गहरी भावना से प्रार्थना करो कि ऐसा मंजर फिर न बने. अादमियत तो इसी को कहते हैं कि अनजान अर्थी भी जा रही हो तो धरती से उसे विदा करते हुए अांख बंद कर, नमस्कार करते हैं. ये तो हमारे फौजी हैं - या उनकी फौज द्वारा गलत तरीके से इस्तेमाल किए जा रहे गिनिपिग ! इन्हें लेकर ऐसी घृणा का प्रचार, शोर अौर फेंफड़ों की वीरता किसी महान राष्ट्र को शोभा नहीं देती. अगर किसी का यह कहना हो कि नहीं हैं हम महान राष्ट्र तो वह भी खुल कर कहो ताकि हम अापसे कुछ न कहें ! लोग होते हैं कि जो अपनी चौड़ी छाती का नाप बताते फिरते हैं, इतिहास छाती नहीं, दिल नापता है. तभी तो किसी हिटलर या मुसोलिनी या चर्चिल की नहीं, इतिहास किसी गांधी, किसी लिंकन की अभ्यर्थना में झुकता है. 

प्रधानमंत्री को बड़ा रोष है कि ‘कुछ लोग’ हमले का प्रमाण मांग रहे हैं. इसमें रोष करने जैसा क्या है, चिंतित होने की जरूरत है कि क्यों अापकी विश्वसनीयता इतनी गिर गई है कि अापके हर दावे पर ‘कुछ लोग’ नहीं, इस देश के 69% लोग जल्दी भरोसा नहीं करते ? अौर फिक्र तो तब भी होनी चाहिए जब कोई एक अकेला भी भरोसा न करे ! देश ने अच्छे-बुरे, कम बुरे-अकुशल सभी तरह के प्रधानमंत्री देखे-भुगते हैं लेकिन ऐसा अविश्वास तो किसी के लिए नहीं देखा था. प्रधानमंत्री का इतिहासविषयक झूठा बड़बोलापन, भूगोल की उनकी नासमझी, अांकड़ों की सत्यता के प्रति उनकी हिकारत अौर किसी भी सत्य का सम्मान न करने की उनकी हेंकड़ी अौर कहीं भी, किसी का भी अपमान कर सकने का उनका भोंडापन देश ने पांच सालों में इतना समझा-परखा है कि उसे बार-बार पूछना पड़ता है कि वहां से जो कहा जा रहा है उसमें कुछ सच भी है क्या ? सेना के प्रवक्ता ने बहुत सही अौर सच कहा कि बालाकोट में हमारा अभियान सफल रहा लेकिन लाशें गिनना हमारा काम नहीं है. प्रधानमंत्री अौर उनके लोगों ने कैसे गिन ली लाशें ? 

युद्ध, हिंसा, घृणा अौर हत्या को कैसी भी स्थिति में अस्वीकार करने वाला मैं भी यह मानता हूं कि प्रधानमंत्री की अनुमति से हमारी फौज ने जो किया, कोई भी सरकार वैसा ही करती. राज्य की अपनी भूमिका है अौर उसे वह भूमिका कमजोरी या असमंजस में रह कर नहीं निभानी चाहिए. पूर्ण धीरज अौर अच्छी योजना के साथ वह करना चाहिए जो करने की जिम्मेवारी उसकी है. यह भी मानता हूं मैं कि जो हुअा वह पाकिस्तान का अपना रचा हुअा है. उसे यह भुगतना ही था. वह अपना रास्ता नहीं बदलेगा तो ऐसे कई घाव उसे लगेंगे. यह भारत-पाकिस्तान के बीच का ही सच नहीं है, अातंकवादी हिंसा हो या नक्सली हिंसा कि चुनावी फायदे के लिए भड़काई गई सांप्रदायिक हिंसा - इन सबको अंतत: तो राज्य की हिंसा से जूझना ही होगा. हम उसके लिए दुखी जरूर होते हैं लेकिन उसका निषेध कैसे करें ? जो बो रहे हो, वही काटोगे जैसा न्याय है यह.  

लेकिन यह जवाबी उन्माद फैलाना ? इसे कैसे समझा जाए ? अाग पर भुट्टे सेंके जाएं तो सही, अाप लाशें सेंकने लगे तो ? चालाकी कहें हम कि लाचारी लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने ज्यादा सयानेपन से स्थिति को संभाला है जबकि पाकिस्तान के अंदरूनी हालात में वे बहुत कमजोर विकेट पर खड़े हैं. वहां भी हमारी तरह का ही अत्यंत शर्मनाक मीडिया है; युद्धोन्माद फैलाने वाले सांप्रदायिक लोग व संगठन हैं; किसी भी स्तर पर उतर कर चुनावी फायदा बटोरने में लगे सत्ता के दलाल हैं. इन मामले में हम दोनों मुल्क यह साबित करने से कभी नहीं चूकते हैं कि दरअसल हम हैं तो एक ही नस्ल के ! लेकिन मोदीजी के या अभिनंदनजी के डर से कांपते इमरान खान ने, घुटनों के बल बैठ कर भी यदि कोई सही बात कह दी है तो क्या उसे ही पकड़ कर हमें न्याय व शांति का मुद्दा अागे नहीं कर देना चाहिए ? वे कह रहे हैं कि हम अातंकवाद पर भी बात करने को तैयार हैं तो यही तो हम मांग रहे थे न ! तो देर क्यों, बात करने का न्योता भेज दें न ! यह भी कह दें कि हाफिज सईद अौर उसके सारे खर-पतवार, दाऊद इब्राहीम सरीखे तस्कर अापके यहां अाजाद घूमते रहें तो बातचीत का वातावरण बनता ही नहीं है. वे पाकिस्तान के नागरिक नहीं हैं. भारत से भागे हुए अपराधी हैं जिन्हें अापने पनाह दे रखी है, तो अापसे बात होगी कैसे ? तो वार्ता की जमीन तैयार करने के लिए जैसे अापने हमारे अभिनंदन को वापस भेजने का सयानापन दिखाया है वैसे ही इन्हें भी सगुन मान कर गिरफ्तार कीजिए अौर अपनी ही जेल में डालिए. इमरान साहब, अपनी सदाशयता पर हमारा भरोसा अापने इतनी बार तोड़ा है कि अब अापको अागे बढ़ कर उसकी मरम्मत करनी पड़ेगी, अौर उसका एक कदम यह गिरफ्तारी है. पाकिस्तान को अलग-थलग करने की हमारी कोशिश भले चले लेकिन एक कोशिश यह भी करें हम कि पाकिस्तान को नैतिक कठघरे में खड़ा करें ! नैतिकता का सवाल खड़ा करने की पहली शर्त यह है कि वह नैतिकता की बुनियाद पर खड़े हो कर उठाई जानी चाहिए. 

यह काम चालबाजी से, दांत पीस कर भाषण देने से या अपने राजनीतिक विपक्ष को देशद्रोही बताने से नहीं होगा. अपनी पीठ अाप ठोकने वाली यह देशभक्त सरकार तो बमुश्किल पांच साल पहले ही अाई है न ! इससे पहले देश इसी ‘देशद्रोही’ विपक्ष के हाथों में था. हो सकता है, ये अापकी तरह बहादुर, दूरदर्शी, कुशल, ईमानदार न रहे हों लेकिन ये देशद्रोही होते तो यह देश अापको राज चलाने के लिए मिलता क्या ? प्रधानमंत्री अौर उनके मातहत के सारे लोग जिस से, जैसी भाषा बोल रहे हैं, वह चुनावी सन्निपात हो तो भला अन्यथा हमारा सार्वजनिक संवाद कभी इतना पतनशील अौर असभ्य नहीं हुअा था.

पिछले दिनों में उभरी सबसे पुरसकून अौर मानवता में हमारा भरोसा बढ़ाने वाली कोई एक छवि चुननी हो तो क्या याद अाता है अापको ? मुझे याद ही नहीं अाती है बल्कि वह छवि मेरे मन पर अंकित हो गई है : पाकिस्तान की सड़कों पर उतरी महिलाएं-पुरुष जिनके हाथ के प्लेकार्ड पर लिखा था : अभिनंदन को भारत वापस भेजो ! ( 05.03.2019 )                   

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