Saturday 12 January 2019

अजनबी न्याय के पालक


सर्वोच्च न्यायालय के तेवर अौर तरीकों अौर फैसलों को हम तब समझना नहीं चाहते थे जब श्री दीपक मिश्रा इसकी सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे थे; अब जब वे वहां नहीं हैं अौर श्री रंजन गोगई वहां विराजमान हैं, हम सर्वोच्च न्यायालय के तेवर अौर तरीकों अौर फैसलों को समझ नहीं पा रहे हैं. हार-थक कर मैं कह रहा हूं कि न्याय की तो महान्यायपालिका जाने, हम न तब महान्यायपालिका को अपना मान पा रहे थे, न अाज मान पा रहे हैं. जब मैं ‘अपना’ कहता हूं तब ‘निजी’ के अर्थ में नहीं, सार्वजनिक निजता व हक के अर्थ में कहता हूं. इस अर्थ में कि  संविधान की झूठी व खोखली खोटी अाड़ ले कर जब मेरी तरह के हजारों लोग अापातकाल की नकली घोषणा का दंश झेलते हुए जेलों में बंद थे, तब भी यह महान्यायपालिका हमारे लिए अजनबी साबित हुई थी; अाज भी मसला सीबीअाई का हो कि रफाल का कि रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का, यह अजनबी ही साबित हो रही है.

मुझे शिकायत इसकी नहीं है कि रामजन्मभूमि का फैसला अभी-के-अभी अौर देश की अकाट्य जनभावना को देखते हुए हिंदुअों के पक्ष में क्यों नहीं किया जा रहा है. मैं नहीं मानता हूं कि हिंदुअों के नाम की राजनीति-धर्मनीति-धननीति पर पलने वाले लोग किसी जनभावना का प्रतिनिधित्व करते हैं. ये ही ताकतें हैं जो जनभावना को विकृत,पतित अौर उत्तेजित करने का काम करती हैं अन्यथा कोई जिन्ना इस देश को बांट नहीं सकता था, अौर न बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर सकता था. सर्वोच्च न्यायालय से मेरी यही शिकायत है कि वह अपनी जिम्मेवारियों के प्रति बाबूशाहों जैसी उदासीनता बरतता है; देश की भावात्मक एकता जिस पतले धागे से लटका कर रखी गई है उसकी नजाकत वह समझता नहीं है. वह उस एलीट वर्ग का नुमाइंदा बन गया है जो इस खामख्याली में जीता है कि हवा उसके इशारे पर बहती है अौर उसके रोके रुकती है. ऐसी मानसिकता नहीं होती तो कोई कारण नहीं था कि मंदिर-मस्जिद विवाद को सुनने के लिए पांच सदस्यीय संविधान पीठ गठित करते वक्त ही गोगई साहब उसके सदस्यों की पात्रता की जांच नहीं कर लेते. क्या न्यायमूर्ति ललित को यह याद नहीं था कि वे इस मामले में कल्याण सिंह के वकील बन कर खड़े हो चुके हैं ? यह रिकार्ड तो सर्वोच्च न्यायालय में भी होगा, अौर संविधान पीठ का गठन करते समय इसकी जांच-पड़ताल भी की गई होगी ? फिर यह कैसा खेल है कि इतने विस्फोटक मामले में अाप किसी अफीमची की तरह नजर अाएं ? यह भी हो सकता है कि गोगई साहब को भी अौर ललित साहब को भी यह पता रहा हो अौर उन्होंने सोच-समझ कर यह फैसला किया हो कि संविधान पीठ में उनका रहना गलत नहीं होगा. राजीव धवन साहब ने ऐसा ही कहा भी कि वे अदालत के ध्यान में यह तथ्य ला रहे हैं तो इसका मतलब यह नहीं है िक उन्हें ललित साहब के संविधान पीठ में रहने पर एतराज है. लेकिन नये साल की पहली-पहली सुनवाई में दिखाई यह दिया कि जैसे गोगई साहब नींद से जागे. उन्होंने वहीं-के-वहीं ललित साहब से बात की, वहीं-के-वहीं ललित साहब ने यह नैतिक फैसला लिया कि उन्हें इस पीठ से हट जाना चाहिए अौर वहीं-के-वहीं यह घोषणा की गई कि अब सुनवाई २९ जनवरी को होगी अौर तब तक संविधान पीठ का नया सदस्य चुन लिया जाएगा. जब अापको यह सब वहीं-के-वहीं करना पड़े तो इसका सीधा मतलब है कि अापने तभी-का-तभी वह नहीं किया जो कर लेना चाहिए था. इतनी गैर-दरकारी !!
   
मुझे शिकायत इसकी नहीं है कि अालोक वर्मा को सीबीअाई के प्रमुख के पद से क्यों हटाया गया. शिकायत इसकी है कि इस पूरे प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय जोकर जैसा क्यों नजर अाया ? संभव ही है कि अालोक वर्मा इस पद के योग्य न हों, कि उन पर लगे अारोपों में तथ्य हो लेकिन क्या यह सब 36 घंटे पहले पता नहीं था ? सरकारें सीबीअाई को अपनी मुट्ठी में करना चाहती हैं, यह कौन नहीं जानता है अौर उसका किसी सरकार की मुट्ठी में जाना लोकतंत्र का गला घोंटने जैसा है, यह भी हम जानते हैं. इसलिए इसकी स्वायत्तता का संरक्षण अौर उसकी चाक-चौबंद व्यवस्था करना संसद का काम है. संसद अपनी जिम्मेवारी निभाने में चूक करती है तो सर्वोच्च न्यायालय को वह भूमिका निभानी चाहिए. इसलिए सरकार ने रात के अंधेरे में जो हमला किया था उसे न्यायालय ने ठीक ही निरस्त किया अौर उनकी बहाली की. लेकिन इसे कैसे समझा जाए कि एक तरफ तो सरकार को झिड़क कर अदालत सीबीअाई के मुखिया को पद पर बहाल करती है अौर दूसरी तरफ कह देती है कि अाप नीतिगत फैसले नहीं ले सकते. अब सीबीअाई चलेगी कैसे ? वह संस्थान है ही ऐसा कि मुखिया फैसले लेता है तो वह संस्थान चलता है. अब अदालत बताए कि क्या वह संस्थान का प्रमुख इसलिए बहाल करती है कि वह काम न करे, न करने को कहे लेकिन संस्थान चलता रहे ? सीबीअाई का प्रमुख एक दिन के लिए भी हो उसे काम करने का पूरा अधिकार मिलना ही चाहिए. सरकार ने उसे पिजड़े में बंद तोता बना लिया था, अापने पिंजड़े में बंद उस तोते की जान ही ले ली ! तो अब पिंजड़े में बचा क्या ? मरा हुअा तोता !! अौर केवल 36 घंटे बाद अापने यह भी घोषणा कर दी कि यह मरा हुअा तोता भी ऐसा नहीं है कि इसे पिंजड़े में रखा जा सके ! मेरे जैसा साधारण नागरिक पूछना चाहता है कि मी लार्ड, अगर यही सच था तो इतना सारा नाटक खड़ा क्यों किया था अापने ?


हमारे संविधान के मुताबिक हमारी न्यायपालिका की ताकत असीम है लेकिन उसी संविधान के मुताबिक उसके पास जन-स्वीकृति के अलावा दूसरा कोई अाधार नहीं है. न्यायपालिका पर जनता का भरोसा अौर नौकरशाही द्वारा उसके अादेशों का पालन ही उसे अजेय बनाता है. जब विधायिका उसके इस अाधार को कमजोर करना चाहती हो तब क्या न्यायपालिका को ज्यादा सचेत व ज्यादा संवेदनशील नहीं होना चाहिए ? जवाब कौन देगा ? (12.01.2019)

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