Friday 22 March 2019

जॉर्ज फर्नांडीज : एक परछाईं



हम वहां हैं जहां से खुद हमको / कुछ अपनी खबर नहीं अाती !
मालूम नहीं, जॉर्ज फर्नांडीज ने यह शेर कभी सुना या पढ़ा था लेकिन उनका अंत कुछ ऐसे ही हुअा. बहुत कुछ अटलबिहारी वाजपेयी की तरह. वे लंबे समय से हमारे बीच थे लेकिन ऐसे अनुपस्थित थे कि जैसे थे ही नहीं. जिन्होंने भी जॉर्ज को कभी, कहीं, थोड़ा भी जाना होगा वे सबसे पहले यही जान सके होंगे कि इस अादमी को नेपथ्य में रहना नहीं अाता है, कि इसे नेपथ्य में रखा नहीं जा सकता है. जॉर्ज अपनी पूरी बनावट में ही मंच के अादमी थे.

तब जयप्रकाश अांदोलन अपने चरम पर था अौर इंदिरा गांधी उन सबको एक-एक कर जयप्रकाश से दूर करने में लगी थीं जिनसे उन्हें थोड़ी भी अाशंका थी कि यह जयप्रकाश का मददगार हो सकता है. बिहार से बाहर के सर्वोदय अांदोलन के शीर्ष लोगों को बिहार निकाला दे दिया गया था. तब जॉर्ज रेलवे यूनियन के अध्यक्ष थे अौर रेल इतिहास की सबसे बड़ी हड़ताल का नेतृत्व कर रहे थे. कभी समाजवादियों के दार्शनिक व गुरु तथा स्वतंत्र भारत की रेलवे यूनियन के पहले अध्यक्ष जयप्रकाश नारायण से मिलने अौर अपनी हड़ताल की मांगों को बिहार अांदोलन की मांगों में शामिल करवाने का प्रस्ताव ले कर वे बिहार के, मुंगेर के खादीग्राम अाश्रम अाए थे. यहां युवकों का हमारा संपूर्ण क्रांति का प्रशिक्षण शििवर चल रहा था अौर जयप्रकाश वहीं थे. यह सब चल ही रहा था कि खबर अाई कि जॉर्ज के बिहार प्रवेश पर बंदिश लगा दी गई है. बंदिश की घोषणा अभी-अभी हुई थी अौर वह प्रभावी हो इससे पहले वे खादीग्राम पहुंच जाएं, जयप्रकाश से विचार-विमर्श हो जाए अौर उनकी एक सार्वजनिक सभा हो जाए, ऐसा संदेश अाया. 

जयप्रकाश ने कहा कि वे अा सकें तो अाएं लेकिन बंदिश की घोषणा हो चुकी है तो उनका अाश्रम में अा कर सार्वजनिक सभा करना उचित नहीं होगा. वे हमारे शिविर के हॉल में ही अपनी बात रखें. जॉर्ज अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ पहुंचे. उन्हें भी पता था कि किसी भी वक्त उन्हें बिहार से बाहर करने की काररवाई हो सकती है. इसलिए सब कुछ तेजी से करना था. पहला काम जयप्रकाश के साथ विमर्श का था. रेल हड़ताल के बारे में अौर अमर्यादित सरकारी दमन के बारे में उन्होंने जयप्रकाश को पूरी जानकारी दी अौर कहा कि यदि वे बिहार अांदोलन में इस हड़ताल को भी शामिल कर लेते हैं तो इसे खासी ताकत मिलेगी अौर सरकार के लिए हम बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकेंगे. जयप्रकाश ने समझाया: जहां तक रेल हड़ताल का अौर तुम्हारी यूनियन की मांगों का सवाल है, मैं उसका समर्थन करता हूं. मैं अपनी सभाअों में इसके बारे में बोल ही रहा हूं अौर अब तुमने जितनी जानकारी दी है उस अाधार पर मैं दमन की पूरी निंदा भी करूंगा. हड़ताल मजदूरों का लोकतांत्रिक अधिकार है अौर उसका मुकाबला किसी भी सभ्य सरकार को बातचीत से ही करना चाहिए, दमन से नहीं. हां, तुमसे मैं यह जरूर कहूंगा कि हमारी हड़तालें बड़ी अासानी से हिंसा अौर तोड़-फोड़ में बदल जाती हैं, क्योंकि साधनों के बारे में तुम बड़े नेताअों का अाग्रह नहीं होता है. अगर मैं सरकारी दमन का निषेध करूंगा तो यूनियन की हिंसक काररवाइयों के बारे में चुप्पी तो नहीं रख सकूंगा. मुझे ऐसी उलझन में न पड़ना पड़े, इसकी सावधानी तुम्हें रखनी होगी. जहां तक बिहार अांदोलन की मांगों में इसे शामिल करने का संबंध है तो यह तो सत्याग्रह के बुनियादी धर्म में नहीं बैठेगा. सत्याग्रह की नैतिक भित्ती ही यह है कि इसमें मांगें न्यूनतम रखते हैं अौर स्थिर रखते हैं. जो न्यूनतम है, सत्याग्रह का वही अधिकतम है अौर उस पर ही डटे रहना होता है. इसलिए मैं इसे बिहार अांदोलन की मांगों में शरीक नहीं कर सकूंगा लेकिन इस हड़ताल को मेरा पूरा व खुला समर्थन है, यह मैं जरूर कहूंगा. जॉर्ज अपने गुरू को इतना तो जानते थे कि इन्हें इनकी बातों से डिगाने की कोशिश व्यर्थ है. विमर्श पूरा हुअा अौर जॉर्ज अपनी बात कहने शिविर हॉल में अाए. माइक से जैसे ही उन्होंने बोलना शुरू किया, उन्हें बिहार की सीमा से बाहर करने वाले अा पहुंचे. अब कुछ खींचतान की अाशंका बन रही थी कि जयप्रकाश ने पुलिस अधिकारी को बुला कर कहा: अाप सरकारी अादेश इन्हें दीजिए अौर तब तक इन्हें अपनी बात पूरी कर लेने दीजिए. दोनों अाश्वस्त हो गये. जॉर्ज माइक पर दहाड़े, तो जयप्रकाश ने हंस कर कहा: माइक बंद कर दो, जॉर्ज को माइक की जरूरत ही नहीं है. सभी हंस पड़े, सारा तनाव कहीं बह गया. 

मैं उन्हें छोड़ने कार तक गया अौर जयप्रकाश के इंकार से अाहत जॉर्ज को कुछ अाश्वस्त करने की कोशिश की तो वे कंधे पर हाथ रखकर बोले, मैं जानता था कि वे ऐसा ही कहेंगे. अब तो यहां गांधी की कसौटी की बात है.  
          
गांधी की हो कि किसी अौर की, जॉर्ज को कोई भी कसौटी कभी रास नहीं अाती थी. वे लड़ाई अौर प्यार में सब कुछ जायज मानने वाले व्यक्ति थे. बला का अोज अौर बला की ऊर्जा थी. संसदीय राजनीति में विपक्ष का दिमाग कैसा होना चाहिए यह अगर हम मधुलिमये को जानकर समझ पाते हैं तो त्वरा अौर तेवर कैसा होना चाहिए, यह जॉर्ज को देखकर समझा जाना चाहिए. उन जैसा हरावल सेनापति दूसरा कहीं नहीं मिलता है. लेकिन राजनीति केवल लड़ाई से नहीं चलती है, यह बात जनता पार्टी की सरकार में शामिल सारे घटकों ने यदि समझी होती तो वह प्रयोग उतना जलील हो कर खत्म नहीं हुअा होता. लेकिन तब क्या अटल, क्या मोरारजी, क्या जॉर्ज, क्या जगजीवन राम या चरण सिंह कोई भी अपने अलावा कुछ भी देखने का शील निभाने को तैयार नहीं था. एक दिन अपनी ही सरकार के समर्थन में भाषण दे कर अौर दूसरे ही उसी के खिलाफ मतदान कर, उसे पराजित कर जॉर्ज तब जो भटके तो फिर कभी ठौर नहीं पा सके. सत्ता में वे करीब-करीब लगातार ही रहे लेकिन सत्ता जॉर्ज जैसों का ठौर कभी हो ही नहीं सकती थी. इसलिए वे लगातार अपनी परछाईं के पीछे छिपते रहे. लेकिन परछाइयां सख्सियत से बड़ी तभी होती हैं जब धूप ढलने लगती है. जॉर्ज को ही इसका उदाहरण बनना था. सत्ता की अाखिरी बाजी उन्होंने अटलजी की सरकार में शामिल हो कर खेली. फिर तो वे लगातार खेलते रहे, अच्छा भी खेलते रहे, संकटमोचक की भूमिका में जीतते भी रहे लेकिन वह सब परछाईं भर थी. जो सख्सियत थी वह लगातार हारती रही. जब अटल सरकार ने अायडीन नमक को अनिवार्य बना दिया तब उसके खिलाफ हमने एक अांदोलन खड़ा किया था अौर उस सिलसिले में कई दफा प्रधानमंत्री अटलजी से भी अौर रक्षामंत्री जॅार्ज फर्नाडीज से भी मिलना पड़ा. वह सब अलग ही कहानी है. लेकिन एक दिन सुबह-सुबह घर पर मिलना हुअा. मैं कुछ चिढ़ा भी था, कुछ परेशान भी. कुछ कड़ी बात कही तो बोले, प्रशांतजी, रास्ता तो अाप लोगों का ही सही है. इन संसदों अौर विधानसभाअों से कुछ निकलने वाला नहीं है ! मैंने तुरंत ही पूछा, तो फिर कब यहां से निकल कर हमारे साथ अा रहे हैं ? अचानक ऐसे सवाल की उन्हें अाशा नहीं थी. थोड़े से अचकचा गये अौर फिर शून्य में देखते रहे. 

अाज हम शून्य में देख रहे हैं. एक परछाईं थी जो, वह भी मिट गई. ( 30.01.2019)  

2 comments:

  1. जॉर्ज की कयादत में समता पार्टी जब भाजापा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल हुई तो सारे देश के सोशलिस्टों में जॉर्ज के प्रति बेहद नाराजगी देखी गई. सैकड़ों सोशलिस्टों द्वारा जिनमें एक मैं भी शामिल था जॉर्ज के निवास स्थान पर तीन दिनों तक धरना दिया. दुर्भाग्यवश जॉर्ज बिलकुल नहीं माने. राष्ट्र के सोशलिस्टों को एकजुट करने की क्षमता रखने वाला जॉर्ज वस्तुतः भाजापा का पिछलग्गु बनकर रह गया. जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार अस्तीत्व में आई तो जॉर्ज रक्षा मंत्री बनाए गए. वर्ष 1999 का करगिल युद्ध रक्षा मंत्री जॉर्ज के कुशल नेतृत्व में लड़ा गया था. तिब्बत की आजादी का सवाल हो अथवा अन्य कोई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रश्न, जॉर्ज द्वारा अपने प्रखर सोशलिस्ट विचारों का तेवर सदैव कायम बनाए रखा. अत्यंत सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले जॉर्ज के घर का दरवाजा जनमानस के लिए सदैव दिन और रात खुला रहा. यहां तक कि जब वो हुकूमत में कैबिनेट मिनिस्टर के ओहदे पर थे, तब भी अपने सरकारी निवास का गेट सदैव खुला रखते, जहां पर कभी कोई भी पहरेदार तैनात नहीं हुआ. रक्षा मंत्री के तौर पर भी जॉर्ज किसी भी अंगरक्षक को कदापि साथ लेकर नहीं चले. ऐसा विलक्षण कैबिनेट मंत्री भारत के वर्तमान इतिहास में अन्य कोई नहीं हुआ, जिसे अपनी निजी सुरक्षा कतई कोई चिंता ही नहीं रही. वह तो सदैव भारत के करोड़ों गरीब मेहनतकशों की बेहतर जिंदगी के लिए चिंतित और सक्रिय बना रहा. अपने कपड़े स्वयं धोने वाला विलक्षण सोशलिस्ट जॉर्ज सादगी के क्षेत्र में कामरेड एके गोपालन और नपेन्द्र चक्रवर्ती से टक्कर ले सका. काश भारत में जॉर्ज सरीखे कुछ और सोशलिस्ट लीडर विद्यमान होते तो सोशलिस्ट आंदोलन की ऐसी दयनीय दशा भारत में कदापि नहीं होती. तहलका कांड और ताबूत कांड में बेबुनियाद इल्जामात के बाद अंततः न्यायालय द्वारा बेदाग सिद्ध हुए जॉर्ज वस्तुतः भारतीय राजनीति में सादगी, ईमानदारी, प्रखरता, पारदर्शिता, गतिशील अडिगता और कार्य कुशलता का जीवंत उदाहरण बन कर रहे जॉर्ज जब सोशलिस्ट राह से भटक कर भाजापा के शरणागत हुए तो फिर नैतिक तौर पर खत्म हो गए.

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  2. जार्ज फर्नाडीस हो या जस्टिस राजेंद्र सच्चर इनका जीवन दिशा देता हैं जार्ज के बारे मे पढ़ना रुचिकर हैं
    नए संदर्भ भी इसमें मिलते हैं

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