Saturday 25 August 2018

खुद को बनाते मिटाते रहे अटल बिहारी वाजपेयी


                  “ तीसरी बार है कि जब इसी काम से हम अापके पास अाए हैं… अौर अब नहीं अाएंगे…, मैं शायद थोड़े तैश में था. प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने तुरंत हाथ पकड़ लिया अौर हंसते हुए बोले, अरे भाई, कहते हैं नमक से रिश्ते मजबूत होते हैं, अौर अाप तोड़ने की बात कर रहे हैं, अौर फिर वह गूंजता हुअा ठहाका जो उनकी अपनी शैली थी. बात तब की है जब अायोडीन लॉबी के दवाब में सरकार ने साधारण नमक रखने-बेचने-खाने पर बंदिश लगा दिया था अौर लोगों को लाचार बना दिया था कि वे अायोडाइज्ड नमक ही खरीदें-खाएं. पक्ष-विपक्ष में ढेर सारी बातें थीं लेकिन हम कह रहे थे कि यह बंदिश गलत है. 
… लेकिन अभी तो सामने था अटलजी का ठहाका … बात हवा में उड़ा देने की यह कारीगरी जानता था मैं… लेिकन उस अात्मीय ठहाके से निकल कर अगले ही पल प्रधानमंत्री सामने अा गया. संबंधित मंत्रालय के सभी वजनी लोग मंत्री के साथ नमूदार हुए जो पहले से ही बगल के कमरे में बुला बिठाए गये थे. तो साथ फाइलें थीं, अोहदे के मुताबिक कतारें भी थीं, गला साफ करते हुए कुछ कहने का उपक्रम होता कि प्रधानमंत्री ने अांख के इशारों से कुछ भी कहने-पढ़ने-बताने नहीं दिया. सीधा बोले : हमें क्या अधिकार है कि हम लोगों का नमक छीन लें — उनकी अावाज अौर मुद्रा दोनों बता रहे थे कि वे सवाल नहीं खड़े कर रहे थे, निर्देश दे रहे थे — बाजार में सभी तरह का नमक उपलब्ध होना चाहिए. लोग अपनी पसंद का नमक खरीदें, खाएं इसमें रुकावट कैसी… डॉक्टर कहते हैं कि अायोडीन दवा है तो अच्छी बात है कि जिन्हें उस दवा की जरूरत होगी वे अायोडीन मिला नमक खरीद लेंगे… बंदिश की बात इसमें अाती कहां है… सरकार किसी अायोडीन लॉबी के दवाब में चलेगी क्या… ये बता रहे हैं कि टीवी पर अायोडीन नमक का ऐसा प्रचार किया जा रहा है कि जिससे लोग डर जाएं… ये तो बहुत ही गलत बात है… वह विज्ञापन तुरंत बंद होना चाहिए… फिर दो-एक बातें उन्होंने हमारे बारे में अधिकारियों को बताईं … अौर बात बंद हो गई. चाय-केक-बिस्किट के साथ हमारी मुलाकात पूरी  हो गई… अटलजी अगली मुलाकात के लिए निकल गये … मैं थोड़ा असमंजस में था कि अाखिरी फैसला क्या हुअा … कि जाते हुए प्रधानमंत्री पलटे, अौर करीब अा कर बोले, अापके साथ लौटने का वाहन है या नहीं ?… मैंने हामी भरी तो अाश्वस्त स्वर में बोले, सरकार है भाई ! इसका काम ऐसे ही होता है. लेकिन रिश्ता नहीं टूटने दूंगा .. अौर वे चले गये. 

साधारण नमक पर लगी बंदिश सरकार ने उठा ली, सभी तरह का नमक बाजार में वापस अा गया… अाज बुझे मन से मैं महसूस कर रहा हूं कि अटलजी अब वापस नहीं अाने वाले हैं… जगजीत सिंह की रेशमी अावाज की सलवटों में लिपटी वह गजल याद अा रही है : जा कर जहां से कोई वापस नहीं है अाता / वो कौन सी जगह है अल्लाह जानता है…
मेरा-उनका परिचय ही तब हुअा जब ७० के दशक की शुरुअात में देश की स्थिति से चिंतित जयप्रकाश ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अपनी अाशंकाएं साझा कीं अौर इंदिरा जी ने उनसे सहमति जताते हुए कहा था कि विपक्ष सहकार करे तो मैं कई बातों में अापकी तरह ही सोचती हूं, अौर वैसा ही करना भी चाहती हूं. जयप्रकाश ने कहा कि यदि तुम ईमानदारी से बरतोगी तो मैं विपक्ष से सहकार का वातावरण बनाने की पहल कर सकता हूं. इंदिराजी ने उत्साहित हो कर अपनी सम्मति दी थी अौर जयप्रकाश ने उनके एवज में विपक्ष से चर्चा शुरू की थी. तब जनसंघ एक ताकत था अौर वाजपेयी उसकी अावाज थे. सो पहला अामंत्रण उनको ही मिला. राजधानी के गांधी शांति प्रतिष्ठान के अपने छोटे-से कमरे में अटलजी से बात की जयप्रकाश ने. शांति से जयप्रकाश की बातें सुनते रहे अटलजी अौर फिर बोले : इंदिराजी की बात होती तो मैं इतनी सहजता से तो नहीं लेता लेकिन जयप्रकाशजी, यह बात अापकी तरफ से अा रही है तो मैं अभी ही कहता हूं कि जनसंघ का अापको पूरा साथ व समर्थन मिलेगा. पार्टी अौर सत्ता की राजनीति से देश कहीं बड़ा है अौर अाप ऐसे गाढ़े वक्त में मुझे कमजोर नहीं पाएंगे. अौर तब से १९७७ के तूफानी दिनों तक मैंने देखा कि जयप्रकाश के साथ खड़े होने में अटलजी कभी कमजोर या कम नहीं पड़े. जयप्रकाश अांदोलन का चक्र ऐसा चला कि सभी पार्टियों में  धर्मसंकट खड़ा होता रहा- भारतीय जनसंघ में भी ! जयप्रकाश की कसौटी बड़ी कठिन पड़ती रही, कई ऐसे मामले भी अाए जब अटलजी ने बच निकलने की कोशिश की क्योंिक उन्हें पार्टी भी अौर साथी भी साथ रखने थे. लेकिन अटलजी ने जयप्रकाश का भरोसा खोया नहीं. यह संतुलन उनकी रणनीित का नहीं, उनके व्यक्तित्व के गठन का हिस्सा था. 

विपक्ष की राजनीति को अटलजी ने धार भी दी अौर संस्कार भी दिए. इसलिए वे जब तक सक्रिय रहे, लोकतांत्रिक विपक्ष की प्रतिनिधि अावाज बने रहे हालांकि वाम दलों के साथ-साथ दूसरे भी थे जो उन्हें इस भूमिका में देखना नहीं चाहते थे. जनसंघ अौर संघ परिवार में भी ऐसे लोग थे जो अटलजी से दूरी बना कर रखते थे लेकिन उन जैसा संतुलन दूसरे किसी के पास था ही नहीं. एक किस्म की चातुरी भी थी उनमें जो बहुत बारीक काटती थी. उन्हें मुखौटा कहने वाला बयान वैसे ही नहीं अाया था. वाचालता, प्रगल्भता अौर विनोद के सहारे वे खुद को राजनीतिक मुसीबतों से बचा ले जाते थे. लेकिन राजनीति केवल चातुरी तो है नहीं. इसलिए अाजादी के अांदोलन में अपनी अौर संघ परिवार की भूमिका को ले कर वे बार-बार कमजोर पड़ते थे. गांधी की उनकी समझ किसी अौसत राजनीतिज्ञ से अधिक परिष्कृत नहीं थी. बाबरी मस्जिद ध्वंस के पूरे प्रकरण में वे बेहद कमजोर साबित हुए थे अौर गुजरात दंगे की जिम्मेवारी के वहन में वे ‘नरसिंह राव’ की प्रतिमूर्ति बन कर रह गये थे. वे धारा के साथ बहते तो थे, कोई नई धारा बहाने की कूवत उनमें नहीं थी.  
      
पराजय में शालीनता अौर विजय में संयम - नेहरू-युग का यह दाय उन्होंने संभाल रखा था. उनकी १३ दिन अौर १३ महीनों की सरकारें गिरीं फिर भी हमने बिखरते-बिफरते वाजपेयीजी को नहीं देखा. फिर उन्होंने ५ साल लंबी सरकार चलाई जिसमें कुछ खास हुअा, ऐसा तो नहीं कहूंगा लेकिन भारतीय लोकतंत्र को अौर भारतीय समाज के संतुलन को चोट पहुंचाने वाली बात नहीं हुई. देश ठीक ही चला जिसे ‘शाइनिंग इंडिया’ का भोंडा नाम दे कर भाई लोगों ने अटलजी की लुटिया डुबो दी. बड़ी संभावना वाले उस चुनाव में पराजित हो कर वे प्रधानमंत्री पद से क्या हटे राजनीति से भी अलग होते गये, अौर धीरे-धीरे शरीर ने खुद को समेट लिया. पूरा अस्तित्व सन्नाटे में डूबता गया अौर फिर सन्नाटे का हिस्सा बन गया. ऐसा दूसरे किसी प्रधानमंत्री के साथ नहीं हुअा. होता भी कैसे, अटलजी जैसा दूसरा कोई प्रधानमंत्री भी कहां हुअा ! वे हमारे दौर के अाखिरी ही प्रधानमंत्री थे कि जो कई मामलों में अपनी कुर्सी से बड़े थे. वे राजनीति में थे, बड़ी लंबी पारी रही उनकी. राजनीति के दांव-पेंच भी खूब समझते थे, जरूरत पर उनका बखूबी इस्तेमाल भी करते थे लेकिन इसकी सावधान कोशिश भी करते थे कि सारा खेल दांव-पेंचों का बन कर ही न रह जाए. 

अब अापको दूसरा अटलबिहारी वाजपेयी नहीं मिल सकेगा. वह होगा ही नहीं क्योंकि जिस नेहरू-युग की वे पैदाइश थे, वह युग भी वापस नहीं अाने वाला है. गांधी ने अपने दौर में लड़ाई के सिपाही बनाए क्योंकि वे अाजादी की जंग के सेनापति थे; नेहरू ने अपने दौर में संसदीय राजनीति के कलाकार गढ़े क्योंकि वे लंबी गुलामी से छूटे देश में संसदीय लोकतंत्र की कलम रोप रहे थे. इसका अाकलन अभी उस तरह हुअा नहीं है कि जिस तरह होने की बड़ी जरूरत है कि नेहरू-युग ने, पार्टियों की चारदीवारी से निकल कर, लोकतंत्र की परंपराअों, व्यवस्थाअों, संस्थाअों अौर सांसदों को कैसे उभारा अौर संसदीय लोकतंत्र को समृद्ध किया. कांग्रेस के ही नहीं, वाजपेयी समेत विपक्ष के भी कई सांसद थे कि जिन्हें जवाहरलाल का साथ मिला. कौन किस पार्टी में है यह बात तब इतनी बड़ी नहीं बनाई जाती थी कि सब पर कालिख पोत दी जाए ! अटलबिहारी वाजपेयी की चमक जवाहरलाल से छिपी नहीं रही. विपक्ष में बैठे तरुण वाजपेयी बड़े तीखे तीर चलाया करते थे लेकिन जवाहरलाल ने किसी विदेशी मेहमान के पास ले जा कर उनका परिचय करवाया था कि यह नौजवान हमारी संसद का सितारा बनेगा.
     
देख रहा हूं कि अाज उनकी पार्टी उन्हें अपना शिल्पकार घोषित कर रही है जब कि सच्चाई यह है कि अाज की राजसत्ता के अधिकांश लोगों को अटलजी की स्वीकृति नहीं मिलती. वे राजधर्म की परंपरा में मानते थे, ये सारे सत्ताधर्म के फुटकर खिलाड़ी हैं. कल जो तिरंगा लालकिले पर लहराया गया था, अाज वही तिरंगा हर तरफ झुका हुअा है. यह शोक भी है अौर अस्वीकार भी है. गुजरात से भारतीय जनता पार्टी की जो राजनीति शुरू हुई, अटलजी उसे स्वीकार नहीं करते थे, यह सब जानते हैं. वे उसे खारिज नहीं कर सके, यह उनकी कमजोरी भी छिपी नहीं है. इसलिए ही उन्होंने किसी तरह का संवाद बंद कर दिया था. अब पटाक्षेप भी कर दिया. दर्द सहने की भी तो कोई सीमा होती है न ! ( 17.08.2018)   

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