Saturday 25 August 2018

कौन पूछेगा ... ?



             राजधानी दिल्ली से ले कर बिहार के मुजफ्फरपुर तक देश में अंधेरा नहीं, लिजलिजा-सा, घुटता हुअा माहौल है. यह लोकतंत्र का वह चेहरा है जिसकी अाशंका भांप कर लोग लोकतंत्र से दूर भागते हैं. यह संसदीय लोकतंत्र अपनी परिकल्पना में ही समाज को 51 बनाम 49 में तोड़ कर, हमेशा युद्धमुद्रा में रखता है. इसमें बहुमत संख्यासुर को अपनी एकमात्र ताकत बनाता है अौर शोरतंत्र को अपना हथियार; दूसरी तरफ लाचार अल्पमत राष्ट्र का मत नहीं, अपनी मुद्रा बदलने में व्यस्त रहता है ताकि वह संख्याबल का मुकाबला करने में सक्षम हो सके. जब तंत्र ऐसा रूप ले लेता है तब समाज, जो राजतंत्र की  प्रजा भी नहीं है, लोकतंत्र का लोक भी नहीं है, एक ऐसी भीड़ में बदल जाता है जिसमें सर-ही-सर होते हैं, अांख नहीं. ऐसा समाज अपनी तमाम विकृतियों के साथ यहां-वहां मुंह मारता मिलता है. यह लोकतंत्र का कृष्णपक्ष है.

हालात ऐसे हैं कि शासक दल का अध्यक्ष, जो खुद अापराधिक अंधेरे से घिरा हुअा है, सरकार की नीतियों की व्याख्याएं, घोषणाएं करता, भविष्यवाणियां करता देश भर में घूमता है. अब जनगणना विभाग नहीं, चुनाव अायोग नहीं, अदालत भी नहीं, वही है जो बताएगा कि कौन देशी है, कौन विदेशी ! असम में जिन 40 लाख से ज्यादा लोगों को रातोरात भारतीय जनता पार्टी ने घुसपैठिया या विदेशी करारा दिया है, चुनाव अायोग कहता है कि हम उन्हें वोट देने से नहीं रोकेंगे क्योंकि हम अपनी मतदाता सूची से चलते हैं, न कि किसी पार्टी द्वारा बनाए, किसी रजिस्टर से. अदालत कह रही है कि ऐसा कोई भी रजिस्टर अंतिम संवैधानिक हैसियत नहीं रखता है अौर किसी की नागरिकता पर किसी को ऊंगली उठाने का हक नहीं है. वह कहती है कि ऐसे मामले जब भी उसके सामने लाए जाएंगे, वह उसकी जांच-पड़ताल करेगी अौर अपना मंतव्य सुनाएगी, अौर उसका मंतव्य ही किसी भी व्यक्ति की नागरिकता का निर्धारण कर सकता है.  गृहमंत्री लोकसभा में खड़े हो कर कहते हैं कि 40 लाख लोगों को रजिस्टर से बाहर करने वाला यह रजिस्टर कोई अाखिरी थोड़े ही है ! उनकी हर सफाई का एक ही मतलब निकलता है कि हमारी इस सरकार की ऐसी काररवाइयों का कोई खास मतलब मत लगाइए. वे अारोप लगा रहे हैं कि कुछ लोग इसकी अाड़ में भय फैला रहे हैं. कौन हैं ये लोग ? क्या उनका इशारा अपने दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष की अोर है ? क्या उनका इशारा भारतीय जनता पार्टी के उन सभी लोगों की तरफ है जो कह रहे हैं कि हम भी अपने राज्य में ऐसा ही रजिस्टर बनवाएंगे अौर देश को घुन की तरह खोखला कर रहे विदेशियों से देश को मुक्त कराएंगे ? 

रजिस्टर बनाने वाला अधिकारी अब कह रहा है कि ये 40 लाख लोग फलां-फलां दस्तावेज ला कर दिखाएं तो हम उनका नाम रजिस्टर में फिर से दर्ज कर देंगे. कोई पूछता नहीं है कि भाई, जब अाप इतने रहमदिल हो तो सारे दस्तावेजों की पूरी जांच-पड़ताल के बाद ही ऐसी कोई घोषणा करनी चाहिए थी न ! अधकचरे लोग देश का कचरा ही बना कर छोड़ते हैं. कोई पूछता नहीं है कि ये 40 लाख लोग यदि विदेशी हैं तो ये सीमा पार कर इधर अाए कैसे ? क्या असम में सरकार नहीं थी ? क्या असम में विपक्षी दल  नहीं थे ? क्या कांग्रेस समेत सारे ही राजनीतिक दलों ने, भारतीय जनता पार्टी की वर्तमान सरकार ने भी इन्हीं विदेशी लोगों से वोट ले-ले कर देशी सरकार नहीं बनाई है ? क्या असम की वर्तमान सरकार यह कह सकती है कि उसके लिए किसी विदेशी ने बटन नहीं दबाया है ? अौर कोई यह क्यों नहीं पूछता है कि सीमा पर तो फौज बैठी है न ! फिर बांग्लादेश से इतने सारे लोग अा कैसे जाते हैं? सीमा सुरक्षा बल अौर फौज, दोनों को इसका जवाब देना होगा. लेकिन कौन पूछे ? फौज इसका जवाब नहीं देती है क्योंकि उसके सर्वोच्च पदाधिकारी को अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर बयान देने; राष्ट्रीय सवालों पर फैसले सुनाने; पाकिस्तान अौर चीन को ललकारने अौर कश्मीर जा कर वहां के नागरिकों को धमकाने से फुर्सत नहीं है. लोकतांित्रक हिंदुस्तान ने सेनाध्यक्ष को ऐसी भूमिका में इससे पहले तो नहीं देखा था. जिन देशों में ऐसा होता हमने देखा है, उन देशों में अब लोकतंत्र दिखाई नहीं देता है. 

कौन पूछेगा कि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के, जिसके कुलपति वे स्वंय ही हैं, सत्रारंभ समारोह में कैसे कहा कि जो लोग भी देश की छवि बिगाड़ रहे हैं उनको सीधा जवाब देने का यह केंद्र है, कि यहां के युवाअों को ऐसे तत्वों को माकूल जवाब देना है ?  संविधान की शपथ ले कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा कोई अादमी यह मान सकता है कि उसकी एक निजी सेना होनी चाहिए जो उसके इशारे पर असहमतों को ठिकाने लगाती रहे ? यही तो देश में हो रहा है - फिर कारण गाय हो, कि देवी-देवता या कि असहमत लेखक-पत्रकार-फिल्मकार ! देश को भीड़ में बदल कर, उसके हाथों असहमतों की, विरोधियों की हत्या का इतिहास में एक बड़ा अध्याय है. संविधान, संसद, विधानसभाएं, अदालतें, पुलिस तथा ऐसी ही कितनी व्यवस्थाअों का बोझ हमने इसलिए ही तो उठा रखा है कि कोई समाज को भीड़ में न बदल दे; कोई संवैधानिक सत्ता को निजी शक्ति का साधन न बना ले अौर संविधान नागरिकों के टुकड़े करने की तलवार की तरह न बरता जाए. इसलिए ही तो वह अनमोल कथन हर नागरिक की कुंडली में लिखा है कि अपने लोकतंत्र को पटरी पर रखना चाहते हो तो सतत जागरूक रहना पड़ेगा. इसलिए बोलना जरूरी है, पूछना जिम्मेवारी है अौर करना कर्तव्य है. जो समाज इन तीन जिम्मेवारियों से मुंह चुराता है वह लोकतंत्र खो देता है. 
( 07.08.2018)  

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