Saturday 25 August 2018

७२ वसंत पार कर भी क्यों सूखा-मुरझाया है अपना देश



              हमारी अाजादी ने ७२ वसंत देख लिये हैं. ७२ साल की उम्र अादमी के थकने, रुकने, सिकुड़ने की उम्र होती है. किसी मुल्क के इतिहास में ७२ साल युवा होने की, कमर सीधा करने की अौर पंख खोल कर अासमान को थाहने की उम्र होती है. क्या लगता है अापको कि हमारा मुल्क ७२ साल जवान हुअा है कि ७२ साल बूढ़ा ? क्या अाप भीतर से महसूस करते हैं कि उत्साह में झूमता अपना देश बढ़ रहा है, धूल झाड़ता खड़ा हो रहा है अौर अासमान सर कर रहा है ? या कि सब कुछ एक अंधेरे में घिरता-डूबता जा रहा है; कि हम एक ऐसी अंधेरी सुरंग में पहुंच कर ठिठक गये हैं कि जिसके किसी सिरे से प्रकाश का कोई अाभास मिल नहीं रहा है; अौर रास्ता बदल लें हम ऐसी हिम्मत व हिकमत हमारे तथाकथित राजनेताअों में है नहीं. शायद यही सब देख-समझ कर नजीर बनारसी साहब ने लिखा : इतनी जुल्मत की नशेमन भी नजर अा न सके / काश बिजली ही गिरे कोई गुलिश्तां के करीब ! उनकी तमन्ना है कि इस अंधेरे दौर में गुलिश्तां के करीब कोई बिजली गिरे तो कि उसकी रोशनी में ही हमें अागे का थोड़ा रास्ता दीख जाए. 

कुछ लोग महात्मा गांधी से रास्ता पूछते हैं ! उनकी सारी जिंदगी हम उनसे रास्ता ही तो पूछते रहे, मानते कुछ भी नहीं रहे, यह अलग बात है. तब भी अौर अाज भी महात्मा गांधी हमारे देश के मनपसंद शगल हैं. जब वे थे तब भी; जब वे नहीं रहे तब भी अौर अाज, जब उनका काम तमाम किए हमारी वीरता के ७२ साल हो रहे हैं तब भी, शब्द या वाक्य बदल-बदल कर लोग इस बूढ़े के पास अाते हैं अौर पूछते हैं कि अाज देश में गांधी कहां हैं ? मैं कहता हूं कि मान लें हम कि गांधी कहीं नहीं हैं तो क्या मुल्क नहीं है, हम नहीं हैं ? हम क्यों न यह खोजने की कोशिश करें कि हमारी ७२ साल की अाजादी में इसके नागरिक की कोई पहचान या भूमिका बची है क्या ? अगर खोजना ही है तो हम यह खोजें कि ७२ साल के इस सफर वे सारे सपने कहां छूट गये जिन्हें गांधी ने हमारी अांखों में बुन दिए थे ?

गांधी में शिफत है कि वे बहुत कम शब्दों में अौर बड़ी सरल भाषा में अपनी बात कह देते हैं. यह सरलता उनको बहुत कठिन लगती है कि जो गांधी को जी कर नहीं, पढ़ कर समझना चाहते हैं. गांधी ने जो जिया नहीं, वह कहा नहीं; हमने जो कहा उसे कभी जिया नहीं, जीना चाहा भी नहीं. उन्होंने कहा : सबके भले में अपना भला है ! उन्होंने कहा : वकील अौर नाई दोनों के काम की कीमत एक-सी होनी चाहिए, क्योंकि अाजीविका पाने का हक दोनों को एक-सा ही है. उन्होंने कहा : मजदूर अौर किसान का सादा जीवन ही सच्चा जीवन है. अाजादी के बाद कुर्सी पर बैठने वालों से उन्होंने कहा : इस पर मजबूती से बैठो लेकिन इसे हल्के से पकड़ो - सिट अॉन इट टाइटली बट होल्ड इट लाइटली !- सत्ता की कुर्सी पर पूरे अात्मविश्वास व इरादे से बैठो लेकिन इससे चिपके मत रहो ! लेकिन हम कहां हैं ? हम अपने बच्चों को सिखाते हैं कि संसार में जो कुछ है, हमारे लिए ही है - अपनी सोचो, दूसरों की नहीं ! नई अाकांक्षा के पंख फड़फड़ाते युवा से कहते हैं : तू ही अाया है क्या महात्मा गांधी बनने ! वकील अौर नाई की कौन कहे, अार्थिक असमानता इतनी बढ़ी है कि कोई ३० दिन अपना पूरा अस्तित्व घिस कर भी इतना नहीं कमा पाता है कि परिवार के लिए दोनों शाम का खाना जुटा सके; दूसरी तरफ लोग हैं कि जो दिनों में नहीं, घंटों में कमाते हैं अौर वह कमाई भी करोड़ों में होती है. सत्ता अौर संपत्ति का ऐसा गठबंधन किसकी कल्पना में था ? कहां मजबूती से बैठो अौर हल्के से पकड़ो की सीख अौर कहां अाज का अालम कि जो जहां पहुंच गया है वहीं चिपक गया है. किसी शायर की तरह कहने का जी चाहता है कि तुझसे पहले जो यहां गद्दीनशीं था/ उसको भी अपने खुदा होने का इतना ही यकीं था. एक राष्ट्रीय दल का अध्यक्ष बार-बार ललकारता है अपने ‘भाड़े के कार्यकर्ताअों’ को कि तैयारी ऐसी करो कि हमें अगले २५ साल तक जीतते ही जाना है. मतलब यह कि लोकतंत्र दूसरा कुछ नहीं, गद्दी पाने अौर फिर उसे हमेशा-हमेशा के लिए हथियाए रहने की चातुरी या दादागिरी भर है.       
 
         महात्मा गांधी का जीवन बहुत कठिन था, क्योंकि वे जिन मूल्यों को मानते थे उनके साथ जीते थे. हमारा जीवन अौर हमारे मूल्य परस्पर जुड़ते नहीं हैं. वे जिन मूल्यों के लिए मरते थे, हम उन मूल्यों के लिए मरते नहीं हैं बल्कि उन मूल्यों को कहीं-न-कहीं मारते हैं. अौर फिर भी हम सभी उन्हें ‘महात्मा’ कहते थकते नहीं थे. प्रशंसकों-समर्थकों की बहुत बड़ी भीड़ में अपने विश्वासों के साथ अकेले खड़े रहना विराट अास्था की मांग करता है. उनकी अास्था इतनी गहरी अौर मजबूत थी कि वे अपने लिए कह सके कि मैं बीमार-जर-ज्वराग्रस्त मरूं तो अागे अा कर हिम्मत से दुनिया को बताना कि यह नकली महात्मा था. किसी हत्यारे की गोली से मारा जाऊं अौर गोली खा कर भी मेरे मुंह से रामनाम निकले तब मानना कि मुझमें कुछ महात्मनापना था. वे अपनी कसौटी पर जी कर अौर मर कर गये. लेकिन वे जिसके लिए जिये अौर मरे वह अादमी - अंतिम अादमी - कहां रहता है; क्या खाता-पीता-अोढ़ता-बिछाता है, किसे पता है ? नीति  अायोग को पता है कि जिसे यह भी पता नहीं है कि साल भर में देश में कितना रोजगार पैदा हुअा ? राज्य सरकारों को पता है कि जिन्हें यह भी पता नहीं है कि उनके नारी संरक्षण गृहों में क्या हो रहा है ?  

यह व्यवस्था ही बताती है कि पिछले १० सालों में ३ करोड़ से ज्यादा किसानों ने किसानी से तौबा कर ली है, मतलब गांधी जिस किसान का जीवन ही सच्चा जीवन मानते थे उसने किसानी ही छोड़ दी है. ३ करोड़ किसान खेत से बाहर निकल गया है तो इसका एक मतलब तो यह हुअा न कि राष्ट्र-जीवन का ईंधन - अनाज-  पैदा करने वाले ६ करोड़ हाथ कम हुए ! तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इसी अवधि में २५ हजार से ज्यादा किसानों ने अात्महत्या कर ली है. अात्महत्या का सीधा मतलब एक ही है : जीवन व जीविका से बेजार इंसान ! यही गांधी का अंतिम अादमी है. यही है जिसके बच्चे कुपोषित हैं; यही है जिसकी किशोर अाबादी के पास जीवन की न कोई दिशा है अौर न शिक्षा की कोई व्यवस्था है; यही है युवा बेरोजगार रह-रह कर ही खत्म हो जाता है; यही है जिसे कुचल कर, उसकी अंतिम बूंद तक निचोड़ लेने में व्यवस्था लगी है; यही है जिसकी बेटियां हर तरफ बलात्कार का शिकार हो रही हैं- खेतों-खलिहानों-दफ्तरों-मकानों-सुरक्षा-गृहों-बाजारों-होटलों-सड़क-चौराहों कहीं भी वह सुरक्षित नहीं है अौर हम ‘निर्भया’ नाम की माला भी जपते जाते हैं.  

अाजादी का यह कैसा महाभंजक स्वरूप उभर रहा है कि जिसे लालकिले पर चढ़ कर भी यह दिखाई नहीं दे रहा कि यह किला जर्जर हो चुका है ? हमें यह हिसाब लगाना ही चाहिए कि ७२ साल पहले हमने जो सपने देखे थे, वे कहां तक पूरे हुए अौर कितनों तक पहुंचे ? सवाल अांकड़ों का नहीं है; सवाल है कि हमारी अाजादी ७२ साल जवान हुई है या ७२ साल बूढ़ी ? जवानी अौर बुढ़ापे में उम्र का फर्क नहीं होता है, उम्मीदों अौर अात्मविश्वास का फर्क होता है ! सरकारी खेतों में हर चुनाव के वक्त उम्मीदों की जरखेज फसल होती है  लेकिन अाजादी भूखी ही जागती है अौर भूखी ही सो जाती है. ( 14.08.2018)


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