Sunday 29 April 2018

हत्या का हथियार



कुछ ऐसा ही अालम बना हुअा है देश में कि अाप सर धुनें या रोयें ! महाराष्ट्र के पुलिस सुपरिटेंडेंट अभिनव देशमुख ने गढ़चिरौली में पुलिस की भीषण सफलता वाले अभियान का जो ब्योरा दिया है वह ऐसा ही है. दुश्मन के किले पर की गई चढ़ाई-लड़ाई, योजना-हमला, हत्या- सफलता सबका उनका बखान कुछ ऐसा हुअा है कि कहीं से भी लगता नहीं है कि यह अपने ही लोगों को मारने का लाचारी भरा कदम था. नक्सली हमारे देश के भटके नागरिक हैं. उनके भटकने की स्थितियां उन सबने बनाई हैं जिन पर राह दिखाने की जिम्मेवारी थी. हमारी विफलता अपनी जगह फिर भी कोई यह तो कह ही सकता है कि जो भटका है, उसे भटकने की कीमत अदा करनी होगी. यह बात भी ठीक है अौर नक्सली अपनी जान दे कर वह कीमत अदा कर रहे हैं. हमें उनके मारे जाने का अफसोस है लेकिन उन्होंने समाज व सरकार के सामने दूसरा कोई रास्ता छोड़ा भी तो नहीं है. यह लाचारी है जिसके तहत हमें अपने ही नागरिकों की हत्या करनी पड़ रही है. अगर ऐसा अहसास है तो फिर गढ़चिरौली के बोरिया तथा दूसरे इलाके में जिस तरह 37 नक्सलियों को मार गिराया गया, उसका जश्न नहीं मनाया जाता. इन 37 नक्सलियों में 8 महिलाएं थीं. 

राज्य की पुलिस को हमला करने का यह मौका वहां मिला जहां से गढ़चिरौली से बहती इंद्रावती नदी छत्तीसगढ़ में प्रवेश करती है. इस मुहाने को नक्सलियों ने अपना अड्डा बनाने के लिए चुना था अौर अनुमान है कि कोई 40 नक्सलियों की टोली वहां पहुंची थी. किसी खबरिये ने इसकी सूचना पुलिस तक पहुंचाई अौर एक रात पहले ही पुलिस ने वहां घात लगा लिया था. कहते हैं कि नक्सलियों का सूचना-तंत्र बहुत तेज होता है लेकिन उस रोज वह तंत्र फेल कर गया अौर सारी नक्सली टोली गाफिल भाव से वहां जमा हो गई. वे अभी वहां पहुंच कर स्थिर भी नहीं हो पाए थे कि तैयार व सन्नद्ध पुलिस का हमला शुरू हुअा. बकौल अभिनव देशमुख : हमने कम-से-कम 12-13 ग्रेनेड फेंके तथा 2000 राउंड गोलियां दागीं. असावधान नक्सली बुरी तरह घिर गये - न भागने की जगह थी, न बचने की. भुन डाले गये. कुछ ने बचने के लिए इंद्रावती नदी में छलांग लगा दी. अभिनव देशमुख ने बताया कि वे इस कदर घायल हो चुके थे कि तैर तो क्या पाए होंगे, नदी में ही जल-समाधि ले ली होगी या फिर उनके ही रक्त से लपकते मगरमच्छों ने उनको निवाला बना लिया होगा. अौर फिर हमारी गोलियां भी तो बरस ही रही थीं. बोरिया गांव के लोगों का कहना है कि रविवार की सुबह करीब दो घंटे तक गोलियां चलती रहीं. इसके बाद पुलिस का कोंबिंग अॉपरेशन शुरू हुअा ताकि कोई घायल कहीं निकल भागा हो अौर छुपा हो तो उसे भी धर दबोचा जाए. 

अपने शिकारगाह का दौरा करने पहुंचे बड़े पुलिस अधिकारियों से जब किसी ने पूछा कि यह कैसे हुअा कि इतनी बड़ी मुठभेड़ में नक्सलियों ने पुलिस पर कोई चोट नहीं की, तो विजयी भाव से जवाब दिया गया कि हमने उन्हें कुछ करने का मौका ही नहीं दिया अौर न उनके भागने की कोई जगह ही छोड़ी ! हमने उनको एकदम असहाय कर दिया था. 
    
राज्य द्वारा की गई कानूनी हत्या का यह वह विवरण है जिसे जान कर न कोई खुशी होती है, न गर्व ! एक दर्द उठता है भीतर अौर फिर कहीं भीतर ही बैठ जाता है. असहाय नक्सलियों के इस कत्लेअाम की निंदा कोई कैसे करे ? रोज-ब-रोज गश्ती दलों पर, पुलिस पार्टियों पर, नागरिकों पर इसी तरह घात लगा कर नक्सली भी तो हमले करते हैं न, अौर कितनों को मार डालते हैं ! वे भी इसी तरह अपनी उपलब्धियों का बखान करते हैं भले उनके पास अौर उनके साथ कोई अखबार या मीडिया नहीं होता है. हत्या का हथियार इस्तेमाल करने वालों का अंत हत्या से ही होता है. जब नक्सली किसी तरह के विवेक की बात सुनने से इंकार कर देते हैं अौर लाशों की गिनती को अपने बच्चों की बारहखड़ी बना लेते हैं, तब उनकी रक्षा में हम कौन-सी ढाल अागे कर सकते हैं ? दो पाटों के बीच में पिसने का यह अहसास बहुत दारुण है. फिर भी मुझे कहने दीजिए कि लोगों की, समूहों की, संगठित नक्सली या ऐसी ही जमातों की हिंसा अौर राज्य की संिवधानपोषित हिंसा में फर्क करना अगर हम नहीं सीखेंगे तो इसके गर्भ से वैसा गृहयुद्ध पैदा हो सकता है जिसे कोई राज्य काबू नहीं कर सकेगा. हिंसा जहरीली ही नहीं होती है, अंधी भी होती है. दूसरे सबसे ले कर हत्या का यह हथियार हमने राज्य के हाथ में यही सोच कर सौंपा था कि वह न्याय,समता अौर विकास के दूसरे हथियार भी चलाएगा तो नंगी हिंसा का हथियार चलाने की नौबत कभी-कभार ही अाएगी. लेकिन राज्य ने एक-एक कर, दूसरे सारे हथियार छोड़ दिए अौर केवल हिंसा का एक ही हथियार उठा लिया. इसलिए हिंसा का घटाटोप छा रहा है अौर हम लगातार अरक्षित हुए जा रहे हैं. ( 28.04.2018) 

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