Tuesday 8 May 2018

15 मिनट के लोग



कैसे-कैसे मंजर सामने अाने लगे हैं / गाते-गाते लोग िचल्लाने लगे हैं - यह विद्रूप झेलना कभी कवि दुष्यंत को भारी पड़ा था, अौर वे असमय सिधार गये थे. हम अपने दौर के विद्रूप का क्या करें कि जहां देश का काल-माप १५ मिनटों का बना दिया गया है ? 

राहुल गांधी जाने कब से, कहां-कहां कहते घूम रहे हैं कि बस उन्हें संसद में १५ मिनट बोलने का मौका मिल जाए तो नरेंद्र मोदी संसद में खड़े नहीं रह पाएंगे ! वे क्या कहना चाह रहे हैं ?  क्या उनके पास ऐसा भंडाफोड़ है कि जिससे प्रधानमंत्री के परखचे उड़ जाएंगे लेकिन जिसे फोड़ने के लिए उन्हें संसद की सुरक्षा का अासरा चाहिए ? ऐसे कितने ही भंडाफोड़ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के पास भी थे. उन्होंने वे सारे पटाखे मनमाने तरीके से, मनमाफिक जगहों पर फोड़े भी खूब; खूब धूल-धुअां हुअा लेकिन अाज उस धमाके की नहीं, उनकी माफी की धूल ही सब तरफ फैली हुई है; अौर ऐसा घटाटोप है कि अब वे कहीं हैं ही नहीं, सिर्फ माफी ही गूंजती है ! कभी, किसी भी हाल में अौर किसी भी मंच पर भंडाफोड़ सच की जगह नहीं ले सकता है. लेकिन राहुल बोलते ही जा रहे हैं कि उन्हें १५ मिनट बोलने दिया जाए ! कोई पूछता नहीं है कि श्रीमान, अाप रोज ही तो बोल रहे हैं, मिनटों की कौन कहे, घंटों में बोल रहे हैं, तो फिर अापका वह १५ मिनट कहां खो गया है ? अगर कोई सच है राहुल गांधी के पास तो क्या उन्हें सच की तासीर पता नहीं है कि वह संसद में बोला जाए या सड़क पर, घातक होता है, मारक होता है ! क्या किसी गांधी या किसी जयप्रकाश ने संसद में बोलने के लिए सत्य छुपा कर रखा था ? दोनों सड़कों पर ही तो बोले थे अौर साम्राज्य अौर संसद की दीवारें कांपी थीं अौर फिर गिर पड़ी थीं. सच का वह एक कण अगर अापके पास है, तो राहुलजी, संसद का इंतजार क्यों कर रहे हैं ?  देश की सड़क से बड़ी अौर अहम नहीं होती है संसद !

इधर प्रधानमंत्री हैं कि जो कुछ भी उधार नहीं रखते हैं - बातें भी नहीं ! देश के अासमान में सबसे ज्यादा अौर निरंतर का शोर उनका ही होता है. अासमान तक उसकी धूल फैली हुई है लेकिन अब कोई उसकी सुध नहीं लेता, क्योंकि उनके ही कमांडर ने उन सबको जुमलेबाजी कहकर रंग व स्वादविहीन बना दिया है.  लेकिन जुमलेबाजी की कला में निष्णात प्रधानमंत्री ने राहुल गाांधी के १५ मिनट उन्हें वापस कर दिए अौर कहा कि राहुल गांधी किसी भी भाषा में, यहां तक कि अपनी मां की भाषा में भी, १५ मिनट बोल कर तो दिखाएं - शर्त यह है कि उनके पास कागज की पर्चियां नहीं होनी चाहिए ! प्रधानमंत्री की जुमलेबाजी का यही सच है कि वे कभी, किसी बात का जवाब नहीं देते, दूसरों का अपमान करते हैं. यहां भी वे राहुल गांधी की वाकपटुता की कमी का अपमान कर रहे थे लेकिन स्तर इतना नीचा था कि इसमें वे उनकी मां को घसीट लाए ! यह वही मानस है जो हर झगड़े में मां-बहन की गाली तक पहुंचता है. लेकिन राहुल अपने जिस विस्फोटक १५ मिनट की बात करते हैं उसमें वे क्या-क्या बोलेंगे, यह भी तो वे बताते हैं. उनमें से किसी एक बात का भी जवाब प्रधानमंत्री ने दिया होता अौर फिर राहुल को अपमानित करने की कोशिश की होती तो देश सुनता भी ! लेकिन अपने दरबारियों से घिरे, मजमेबाजी में बोली उनकी राहुल के १५ मिनट की बात एक स्तरहीन उपहास की तरह हवा में तैरती रह गई. 

लेकिन उनको जवाब मिला. महिला कांग्रेस की सुष्मिता देव ने फिर १५ मिनट की चुनौती उछाली कि प्रधानमंत्री बिना कोई झूठ बोले १५ मिनट बोल कर दिखाएं ! फिर जैसे उन्हें रहम अा गया अौर उन्होंने १५ मिनट की चुनौती को १५ सेकेंड में बदल दिया ! अब देश किसी चौथे के १५ मिनट का इंतजार कर रहा है. 

सवाल यह नहीं है कि अाप क्या कह रहे हैं; सवाल यह भी है कि अाप कैसे कह रहे हैं ! अाप जो कहते हैं उसे उसके सत्य या तथ्य के अाधार पर देश सुना-अनसुना कर सकता है; अाप कैसे कहते हैं वह देश का मिजाज बनाता है. सार्वजनिक जीवन में अापसी रिश्तों का स्तर कैसा होना चाहिए, यह सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोग ही तै करते हैं. किसी ने कटाक्ष ही किया था विनोबा पर जब उनसे कहा कि जवाहरलाल नेहरू के प्रति अापका सॉफ्ट कॉर्नर है. समाजवादियों ने उन्हें ‘सरकारी संत’ कह कर कबसे उनका उपहास उड़ाया था. विनोबा ने छूटते ही जवाब िदया- नहीं,नहीं, सॉफ्टकॉर्नर नहीं है, मेरा तो पूरा दिल ही उनके लिए सॉफ्ट है ! अौर फिर कहा: लेकिन मैं अपना वोट उन्हें नहीं दूंगा, क्योंकि उनकी नीतियों के प्रति मैं सॉफ्ट नहीं हूं. विमर्श का यह स्तर था जिसे देश ने गांधीयुग से सीखा था. असहमति भी समाज का मन असुंदर न बनाए, इसकी सावधान सावधानी जो नहीं रखते हैं, वे लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालते हैं.  

अौर सार्वजनिक जीवन में व्यवहार का स्तर ? १९७७ में, जब दिल्ली से नेहरू खानदान की पकड़ पहली बात टूटी थी अौर वोटों के उस महाभारत में हर तरफ क्षत-विक्षत कांग्रेस बिखरी थी, जनता पार्टी के नाम से एकजुट हुअा विपक्ष राजधानी के रामलीला मैदान में विजय उत्सव मना रहा था अौर हर पल इंतजार हो रहा था कि उस महाभारत के कृष्ण विजय उत्सव में शिरकत करने पहुंचें, जयप्रकाश एकाकी निकले थे अौर अपदस्थ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर जा पहुंचे थे. यह उनकी इंदू थी जिसे भाई जवाहर के घर खेलते-दौड़ते उन्होंने देखा था. देश १९ महीनों बाद, इंदिरा गांधी की जेल काट कर बाहर निकला था. जयप्रकाश ने उनकी ही जेल में मरणांतक पीड़ा झेलते हुए अपनी किडनी गंवाई थी. अाज वे ही वृद्ध, बीमार जयप्रकाश उनके दरवाजे खड़े थे अौर कह रहे थे कि खेल की यह जीत-हार अंतिम नहीं होती है ! अागे का खेल खेलो इंदू लेकिन पिछली गलतियां दोहराना मत ! रामलीला मैदान का विजय उत्सव छूंछा ही रह गया लेकिन सार्वजनिक व्यवहार की एक अलग ही खुशबू सारे देश में तैर गई. समाज बनाना अौर सत्ता हथियाना दो भिन्न चीजें हैं. १५ मिनट के लोग सत्ता की चाकरी कर सकते हैं, संस्कृति के वाहक नहीं हो सकते. 


लुटती अौरतें, मरता किसान, भविष्यहीन भटकाव में घिरा युवा अौर लगातार मारा जाता जवान सब अपना वह १५ मिनट मांग रहे हैं जिसमें कितने सेकेंड होते हैं, कोई जानता नहीं है. ( 04.05.2018)                            

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