Thursday 19 April 2018

मात्र 70 सालों में देश भिखमंगा हो गया !


लोकगाथा में वर्णित समुद्र-मंथन से वह कैसा विष निकला था कि जिसके प्रभाव से सारी सृष्टि का विनाश हो जाता, पता नहीं; अौर यह भी पता नहीं कि वह देवाधिदेव शंकर कैसे रहे होंगे कि जिन्होंने अागे अा कर, सृष्टि का विनाश रोकने के लिए उस विष का पान कर लिया !भुगतना तो उन्हें भी पड़ा कि जन्मजमांतर के लिए नीलकंठ हो गये ! लेकिन हम ? हम क्या करें अौर किससे जा कर कहें कि सत्ता-धर्म-राजनीति-सांप्रदायिकता-जातीयता का यह जो पंचगव्य विष पीने के लिए हम अभिशप्त किए जा रहे हैं, यह सृष्टि का विनाश नहीं कर रहा है, यह  हमें मार नहीं रहा है, यह हमारा योनि परिवर्तन कर रहा है. यह मनुष्य को पशु बना रहा है ! उन्नाव, कठुअा अादि में जो घटा वह किसी भी ‘पुरुष’ के डूब मरने के लिए काफी है लेकिन उसके साथ अौर उसके बाद जो हुअा अौर हो रहा है वह सारे समाज का पाशविकरण है. भारतीय समाज के पतन का यह नया प्रतिमान है. 

मानो किसी ने, सारे मुल्क को हांक कर ऐसी अंधेरी गुफा में पहुंचा दिया है जिसमें न हवा है, न रोशनी, न राह; अौर घुटता हुअा सारा समाज अापस में टकरा-टकरा कर लहूलुहान हो रहा है अौर उसी  रक्त का पान कर उन्मत्त हो रहा है. वर्षों-वर्ष पहले लोकनायक जयप्रकाश ने  सत्ता-धर्म-राजनीति-सांप्रदायिकता-जातीयता के मेल से बन रहे इस विष को पहचाना था अौर कहा था कि यह ऐसा ही है जैसे कुत्ता किसी सूखी हड्डी को चबा-चबा कर मस्त हुअा जाता है क्योंकि उसे उस रक्त का स्वाद मिलता रहता है जो हड्डी का नहीं, खुद उसका अपना है. उन्होंने कहा ता कि यह राजनीति तो गिर रही है, अभी अौर भी गिरेगी, टूटेगी-फूटेगी, छिन्न-भिन्न हो जाएगी अौर तब उसके मलबे से एक नई राजनीित का जन्म होगा जो राजनीति नहीं, लोकनीति होगी. उनकी वह अभागी, खतरनाक भविष्वाणी अक्षरश: सत्य हो रही है लेकिन उन्होंने हमें यह नहीं बताया कि हम अभागे लोग इस विषज्वार का मुकाबला हम कैसे करें ! 

यह डराता भी है अौर चुनौती भी देता है. डरते हैं तो मरते हैं; चुनौती कबूल करते हैं तो न रास्ता मिलता है, न नेता ! कोई अचानक कपड़े बदल कर मंच पकड़ लेता है, अौर फिर हम पाते हैं : कैसी मशालें ले के चले तीरगी में अाप / जो भी थी रोशनी वह सलामत नहीं रही !  

धर्म के ध्वजधारक कहते हैं कि धर्म-राज के बिना देश न बचेगा, न बनेगा. इसलिए राष्ट्र-धर्म घोषित करो. लेकिन राष्ट्र-धर्म है क्या, यह कौन तै करेगा ? अापका ही धर्म राष्ट्र-धर्म मान लिया जाए ? तो दूसरे धर्मों का क्या ? वे भी तो अापकी ही तरह कहते हैं कि धर्म-राज के बिना देश न बचेगा, न बनेगा ! जवाब में खूनी अांखें अौर तेजाबी जुबान से अलग व अधिक कुछ मिलता नहीं है. 

जाति की जयकार करने वाले कहते हैं कि जातीय लड़ाई के बिना सामाजिक न्याय संभव नहीं है; अौर जहां सामाजिक न्याय नहीं है, समता व समानता नहीं है, वह भी कोई राष्ट्र है क्या ? हम भी कहते हैं कि सामाजिक न्याय अौर समता अौर समानता की अापकी मांग ठीक है लेकिन यह मांगने वाला कौन है ? अौर वह किससे मांग रहा है? क्या यह मामला भीख मांगने का है ? न्याय, समता अौर समानता कमानी पड़ती है, सत्ता के सौदे में मिलती नहीं है. अौर जातिवालों से यह भी तो पूछिए कि कोई ४००० जातियों में टूटा-बिखरा यह देश कितनी जातीय पहचानों को मान्य करेगा अौर कितनों को, किस अाधार पर खारिज करेगा ? अपनी-अपनी जातियों के उन्मादी सिपाही अब अौर कुछ नहीं खालिस गुंडा जमातों में बदल गये हैं. 

तो सत्ता, धर्म, जाति, सांप्रदायिकता की यह विषबेल किसी सपने तक पहुंचती नहीं है. अब यह किसी बड़ी प्रेरणा का अाधार बनती नहीं है. इसके जरिये जो अपनी रोजी-रोटी का इंतजाम करने में लगे हैं वे इंसान बचे हैं या नहीं, यह फैसला हम उन्हीं पर छोड़ते हैं. लेकि इतना जरूर कहते हैं कि जिस इंसान के पास सपने नहीं होते वह विषधर नाग से भी ज्यादा खतरनाक होता है; जिस समाज के पास सपने नहीं बचते हैं, वह अपना वर्तमान भी खोने लगता है. हम मात्र ७० सालों में ऐसी ही दरिद्र स्थिति में अा गये हैं कि भिखमंगे हो गये !

अाज जरूरी हो गया है कि देश के सामने सपने रखें जाएं- बड़े सपने, नये सपने ! गांधी ने अपने दौर में सपनों की यह दरिद्रता समझी थी अौर इसलिए उनसे बड़ा सपनों का सौदागर दूसरा हुअा नहीं. गांधी ने सपने दिखाए, उन सपनों को धरती पर उतारने वालों की टोलियां गढ़ीं अौर फिर उनके अागे-अागे चल पड़ा. वह उन्हीं सपनों को साकार करने के लिए जीता था, उनके लिए ही मरता था. वह रात में नहीं, दिन में सपने देखता था अौर अकेले नहीं, सपनों की साझेदारी करता था वह ! वह नेता नहीं था, वह नेतृत्व था; वह सत्ता की लूट में शामिल नहीं था, वह सत्य का सर्जन करने में सबको साथ ले कर जुटा हुअा था. इसके बगैर मनुष्य न बनता है,  न बचता है.  

यही काम है जो अाज करना है, यही कीमिया है जिससे देश की हवा बदल सकती है. देश को चमत्कारी व छली नेता नहीं, सहयात्री की जरूरत है; योजनाअों की नहीं, सपनों की भूख पैदा करनी है; राज नहीं, स्वराज्य सिद्ध करना है. यह गांधी ही हमारी सबसे बड़ी ढाल है अौर यही सबसे बड़ी तलवार है.  
                   

हम इसे जानें, हम इसे मानें अौर क्षुद्र सफलताअों की तरफ नहीं, बड़े सपनों की तरफ प्रयाण करें. ( 16.04.2018)

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