Thursday 19 April 2018

26 अलीपुर रोड के अांबेडकर


          
१४ अप्रैल को देश में कई जगहों पर, कई लोगों द्वारा कई काम होने वाले हैं, जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस रोज दुनिया में अौर कहीं नहीं, राजधानी दिल्ली के २६ अलीपुर रोड पर होंगे जहां बाबा साहेब अांबेडकर ने अपनी अाखिरी सांसें ली थीं. २६ अलीपुर रोड के इस मकान को फिर से सजाया-संवारा गया है अौर उसे अांबेडकर स्मृति में रूप में प्रधानमंत्री राष्ट्र को समर्पित करेंगे. वहां से अलग, ११ सफदरजंग रोड पर रहते हैं सामाजिक न्याय राज्यमंत्री रामदास अठावले. वे १४ अप्रैल को अपने सरकारी घर के प्रांगण में बाबा साहेब अांबेडकर की अादमकद मूर्ति का स्थापना करेंगे. ( प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सरदार पटेल की प्रतिमा अादमकद नहीं है, यह तो हम सब जानते ही हैं ! ) अभी यह पता नहीं है कि देश भर में भाजपा के सांसदों-विधायकों को अमित शाहजी की तरफ से १४ अप्रैल को क्या करने का निर्देश दिया गया है, क्योंकि अभी वे सब अौर प्रधानमंत्री, उपवास पर हैं. क्यों? इनके पास खाना खाने लायक पैसे नहीं हैं, क्योंकि विपक्ष ने २० से ज्यादा दिनों तक संसद चलने नहीं दी, सो इतने दिनों की इनकी तनख्वाह कट गई है ! अब देश की सबसे अमीर पार्टी के इन गरीब सेवकों के पास पैसा अाए कहां से कि ये खाना खाएं ! सो गांधीजी का रास्ता पकड़ा इन्होंने ! इसलिए तो कहने वाले कहते हैं कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी ! लेकिन अाप यह कमाल भी तो देखिए कि कैसी बारीकी से इन लोगों ने गांधी-अांबेडकर के कभी न मिलने वाले ध्रुवों को मिला दिया ! गांधी का उपवास करने के बाद बाबा साहेब को नमन करने चलो २६ अलीपुर रोड !  

तो बरास्ते बिहार के नवादा, हम चलते हैं २६ अलीपुर रोड ! नवादा में अभी-अभी बाबा साहेब की ६ फीट ऊंची मूर्ति का हाथ, राष्ट्र द्वारा तोड़ डाला गया है, अौर बिहार राज्य का चुस्त-फुर्तीला प्रशासन टूटे हाथ पर प्लास्टर करने में जुटा है. तोड़ने अौर जोड़ने के इस परस्पर विरोधी कृत्य में अाप चाहें तो राष्ट्र व राज्य को दो विपरीत ध्रुवों पर, अापने-सामने खड़ा देख सकते हैं; या यह कह कर मुंह फेर ले सकते हैं कि न वे संपूर्ण राज्य के अौर न ये सारे राष्ट्र के प्रतिनिधि हैं. फिर भी यह तो मानते चलें हम कि ये दोनों यानी राष्ट्र व राज्य, एक ही देश  में बसते हैं अौर राष्ट्रपुरुषों की श्रेणी में गिने जा रहे एक ही व्यक्ति के बारे में इस कदर दो ध्रुवों पर जीते हैं. अब हम २६ अलीपुर रोड पर रहने वाले बाबा साहेब को देखने चलते हैं. 

१९५६ ! अब तक वे गांधी मारे जा चुके हैं जो इतिहास के कई मोड़ों पर बाबा साहेब को हाथ पकड़ कर खड़ा करते रहे थे; भीमराव रामजी अंबावाडेकर ( अब तो पूरे नाम की खोज हो रही है न, तो यह है उनका पूरा नाम ! ) अब कैबिनेट मंत्री भी नहीं हैं; दूसरा विवाह उन्हें क्या दे कर गया अौर क्या ले कर गया है, पता नहीं लेकिन ७५ साल की पकी उम्र में वे इस मकान में एकदम अकेले-से हैं अौर जीवन में एकदम एकाकी-से ! साथ एक नानकचंद रत्तू हैं - सेवक-सखा-सहायक जो कुछ हैं, वे ही हैं. वे इस घुलते-टूटते इंसान को रोज-रोज घटते देखते हैं. बाबा साहेब हारे हुए से, खिन्न मन हमेशा एक ही बात कहते रहते हैं : किसी दलित नेता को दलितों से प्रेम नहीं है ! बाबा साहेब देख-समझ रहे हैं कि इतने थोड़े वक्त में ही दलित राजनीतिज्ञों ने सवर्ण राजनीतिज्ञों से वह सब सीख लिया है जो बाबा साहेब मिटाना चाहते थे. अब दलित राजनीतिज्ञों का एक ही मंत्र है - सत्ता में हमारी अपनी भागीदारी ! कोई न यह चाहता है, न ऐसा कुछ करता है कि दलित समाज में उसकी सीधी भागीदारी कैसे हो ! अब सभी उस पिछड़े, निरक्षर, असभ्य समाज से निकल भागना चाहते हैं - वर्ग परिवर्तन ! 

यूगोस्लाविया में वामपंथी क्रांति की सफलता के बाद मार्शल टीटो ने सत्ता संभाली थी अौर सबसे जल्दी से जो काम किया था वह था क्रांति के दौरा-दौर में जिसे वे अपना दाहिना हाथ कहते रहे थे, उस गहरे साथी-चिंतक मिलोवान जिलास को जेल में बंद करवाना. जेल में ही जिलास ने एक अपूर्व पुस्तक लिखी. नाम था - द न्यू क्लास ! वह कहता है कि हर क्रांति अपने दौर के सबसे अधिक सुविधा व अधिकार प्राप्त वर्ग को दरकिनार करने की बात से शुरू होती है , अौर ऐसा करती-कहती जब वह सत्ता में पहुंचती है तो खुद का एक नया वर्ग बना लेती है अौर धीरे-धीरे वे ही सुविधाएं, वे ही एकाधिकार अपने हाथ में ले लेती है जिनके खिलाफ लड़ाई लड़ी गई थी. अब नया स्वार्थ सब पर हावी हो जाता है. क्रांतिकारियों का एक नया वर्ग बन जाता है जो पुराने वर्ग की तमाम बुराइयों को समेट कर, उसमें अपनी तमाम बुराइयों को जोड़ देता है अौर फिर ‘अपने लिए’ अागे चल पड़ता है. बाबा साहेब ने २६ अलीपुर रोड के घर में बैठ कर दलितों के इस नये क्लास को उदित होते, स्थापित होते, सौदा पटाते देखा था अौर छले जाने के भाव से लगातार, रात-दिन बिद्ध होते रहे थे. 

अाज बाबा साहेब नहीं हैं, दलित-सवर्ण राजनीति की दुरभिसंधि अपने शबाब पर है. सांप्रदायिक ताकतों ने गांधी को मार कर देख लिया कि इससे उनकी ताकत नहीं बढ़ी. ताकत की उनकी एक ही परिभाषा है : सत्ता ! वह मिली तो ताकत है, नहीं मिली तो व्यर्थ ! गांधी की हत्या इस मानी में बेकार गई अौर खामियाजा यह भुगतना पड़ा रहा है कि उस हत्या का जिन्न अाज तक उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है. इसलिए सांप्रदायिक ताकतों ने दूसरा मोर्चा खोला -  हिंदुत्व का संगठन ! एक माफीनामे से बंधे विनायक दामोदर सावरकर जब अंडमान की जेल से छूटे तो फिर न कभी अाजादी की किसी लड़ाई में शामिल हुए, न गुलामी को किसी दूसरे मोर्चे पर चुनौती दी. बस एक ही नारा था उनका : भारतीय समाज का हिंदूकरण करे, हिंदुअों का  फौजीकरण करो ! यह सावरकर से ही शुरू हुअा कि हर हिंदू प्रतीक को उभार कर, बाकी समाज के मुकाबले हिंदू समाज को अाक्रामक बनाया जाए. हिंदुत्व की इसी धारा को लालकृष्ण अाडवाणी सरीखे चतुर राजनीतिज्ञ ने पहचाना अौर अपनी सत्ता के लिए इसका इस्तेमाल किया. इसी राजनीतिक चालबाजी में वह रथयात्रा चली जिसने अाजादी के बाद का सबसे व्यापक सांप्रदायिक दंगा भड़काया अौर अंतत: वह रथ बाबरी मस्जिद के ध्वंस तक पहुंचा. हिंदुत्व वाले पहचान सके या नहीं, यह तो पता नहीं लेकिन पहचानने वालों ने तभी यह पहचाना था कि ध्वंस बाबरी मस्जिद का ही नहीं हुअा, राम का भी हुअा; अौर मस्जिद-मंदिर के उस संयुक्त मलबे में से जो सत्ता निकली वह भी टूटी हुई ही निकली. इसलिए तो प्रधानमंत्री बन कर भी अटलजी कभी अटल नहीं हो सके. 

उस ध्वंस में हिंदुत्व वालों का यह विश्वास भी धूल-धूसरित हुअा कि हिंदू समाज को उन्मत्त भीड़ में बदला जा सकता है. वे किसी हद तक यह सच्चाई पहचान सके कि वे जिसे हिंदू समाज कहते अौर मानते हैं, वह कुछ अलग ही रसायन से बना है. वह एक है जब तक अाप उसकी एका को किसी धािर्मक या उन्मादी चेहरे में बांधने की कोशिश नहीं करते हैं; जैसे ही अाप ऐसी कोई कोशिश करते हैं, वह खंड-खंड हो जाता है. हजारों सालों में सभ्यताअों-विश्वासों की लेन-देन से विकसित हुई यह वह जीवन-शैली है जो जीअो अौर जीने दो, रहो अौर रहने दो, पूजो अौर पूजने दो जैसी अास्था को जीवंत अास्था की तरह पालती है. 
सावरकर के हिंदुत्व के मलबे से एक नई राजनीति उभरी जिसमें हम विश्वनाथप्रताप सिंह को मंडल कमीशन की तलवार भांजते अौर खेत होते पाते हैं. यही दौर था जब बाबा साहेब को राजनीतिक मोहरे की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश सवर्ण राजनीति ने की अौर उन्हें मरणोपरांत भारत-रत्न से विभूषित किया गया. यहां यह सवाल निरर्थक है कि बाबा साहेब भारत-रत्न थे या नहीं; मौजूं सवाल यह है कि सवर्ण राजनीति क्या बाबा साहेब को हजम कर सकती है ? अाज जैसे-तैसे, जहां-तहां, पात्र-अपात्र सब जिस बाबा साहेब का नाम उछाल रहे हैं, वह इसी संभावना का खुला प्रयोग है. सिर्फ हिंदुत्व से निर्बाध सत्ता मिल नहीं सकती, यह देख लेने के बाद संघ परिवार ने अपनी रणनीति बदली अौर दलित राजनीति को हजम करने की योजना बनाई. नरेंद्र मोदी इसके नये मोहरे हैं. 

यही अहसास दूसरी तरफ भी हुअा. कांशीराम ने भी यह समझ लिया था कि दलित राजनीति केवल दलित समाज के भरोसे सत्ता तक पहुंच नहीं सकती है. मायावती ने भी इसका सीधा अनुभव किया कि बहुजन समाज को पार्टी के रूप में जमा करने की कोशिश ऐसी ताकत पैदा नहीं कर पाती है जिससे निर्बाध सत्ता हाथ अाती हो. उसने भी रणनीति बदली. हिंदुत्ववादी, मनुवादी, दलितवादी, अांबेडकरवादी सब मुलम्मा है, सच सत्ता है ! जिस रास्ते मिले अौर जिस रास्ते टिके, वही सच्चा रास्ता है, प्रभु राम का दिया प्रसाद है. अाज हम हिंदुत्ववादियों की जो अांबेडकर-भक्ति देख रहे हैं अौर दलितों का हिंदुत्व प्रेम देख रहे हैं, दोनों इस सच्चे अहसास में से पैदा हुए हैं कि साथ अाएंगे तभी सत्ता हाथ अाएगी. इसमें राम भी अौर अांबेडकर भी महज साधन है, साध्य तो सत्ता है. 

इसमें पिट कौन रहा है, विकृत कौन हो रहा है ? दोनों समाजों के वे लोग जिनके कंधों पर सत्ता की पालकी होती है अौर दिल में अपमान व असहायता का छूंछा क्रोध ! इसलिए इतनी उग्रता है, इतनी हिंसा है, इतनी घृणा है. ये दोनों उपवास, राहुल गांधी अौर नरेंद्र मोदी जिनकी अगुवाई कर रहे थे, समान रूप से नकली थे; ये दोनों बलात्कार, जो कठुअा अौर उन्नाव में हुए समान रूप से सत्ता के मद में चूर राजनीति का प्रतिफल थे. सवर्ण व दलित राजनीति की यह जुगलबंदी अभी ऐसे कई नजारे दिखा सकती है. अाज २६ अलीपुर रोड के बाबा साहेब किसी के लिए किसी मतलब के नहीं हैं, क्योंकि वे तो यही कह रहे हैं अाज भी कि किसी दलित नेता को दलितों से प्रेम नहीं है ! 

मैं गांधी अौर अांबेडकर दोनों से अनुमति ले कर, इस वक्तव्य में थोड़ा फर्क करता हूं : किसी राजनीतिज्ञ को इंसानों से प्रेम नहीं है ! ( 13.04.2018)  


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