Friday 27 April 2018

महाभियोग नहीं लेकिन अभियोग तो है !




इस लेख के प्रारंभ में ही मुझे यह कह देना चाहिए कि उप-राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने जिस तरह 7 दलों द्वारा, सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च न्यायाधीश दीपक मिश्रा के लिए पेश किए गए महाभियोग का संज्ञान लेने से इंकार कर दिया, मैं उससे सहमत हूं, लेकिन मुझे साथ ही यह भी कह देना चाहिए कि उनकी इस बात से मैं सहमत नहीं हूं कि उन्होंने यह फैसला एक माह के गहन सोच-विचार के बाद किया ! इसका मतलब तो यह हुअा कि अविश्वास प्रस्ताव के पेश होने से पहले ही उन्होंने इस बारे में एक नजरिया बना लिया था जिसे अविश्वास प्रस्ताव पेश होते ही उन्होंने पेश कर दिया ! महाभियोग पेश करने वालों का यही तो अभियोग है अौर वेंकैया नायडू ने अपने कथन से उस पर ही मुहर लगा दी है. 

हमारे संविधान की यह संरचना जटिल तो है लेकिन है बहुत विवेकपूर्ण की उसमें निर्णय का हक सबके पास है लेकिन अंतिम निर्णय किसी एक के पास नहीं है - राष्ट्रपतिजी के पास भी नहीं ! संसद की दुम अदालत के पास फंसी है; अदालत की संसद के पास; दोनों की दुम राष्ट्रपति के पास फंसी है तो राष्ट्रपति की दुम दोनों के पास ! इस नाजुक संतुलन को समझने अौर हर कीमत पर इसे बचाए रखने की जरूरत है. यहां हर संवैधानिक कुर्सी एक प्रक्रिया को जन्म देती है, अंतिम फैसला नहीं करती. उप-राष्ट्रपति ने अंतिम फैसला करने की भूल की.

मुझे यह भी कह देना चाहिए कि कांग्रेस समेत जिन 7 दलों ने यह महाभियोग दाखिल किया, मैं उनसे सहमत हूं. यह किया जाना चाहिए था लेकिन अब इस मामले को ले कर सर्वोच्च न्यायालय जाने के उनके इरादे से मैं सहमत नहीं हूं. मैं मानता हूं कि यह मामला जितनी दूर तक लाया गया, उतनी दूर तक लाना जरूरी था; लेकिन अब इससे अागे इसे खींचना न जरूरी है, न शुभ ! मैं उन सब लोगों से सहमत हूं जो यह मानते-कहते रहे हैं िक न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा न्याय की मूर्ति नहीं हैं, अौर उनसे उस पद की गरिमा नहीं बढ़ी है जिस पर उन्हें अवस्थित किया गया. मैं चाहता था कि जैसे ही न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा पर अविश्वास के बादल घिरे, वे बगैर पल भी देर लगाए, इस्तीफा दे देते. उनके  लिए इसका स्वर्णिम मौका बना दिया था उनके सहयोगी उन 4 न्यायमूर्तियों ने, जो देश के सामने यह कहने अाए थे कि न्यायपालिका व लोकतंत्र खतरे में है. हमारी न्यायपालिका के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुअा था अौर इसके लिए हमें इन 4 न्यायमूर्तियों का अाभारी होना चाहिए कि वे मूर्ति साबित नहीं हुए ! 


अाज से नहीं, भारतीय समाज के पुनर्जागरण काल से ही एक धारा ऐसी रही है जो सांप्रदायिकता को अपनी सामाजिक-राजनीतिक ताकत बनाने में लगी रही है. इसे बार-बार पराजित कर हमारा समाज अागे बढ़ता गया है - महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति का बलिदान देकर भी !  भारतीय समाज की इस कोशिश को हमारा संविधान स्वीकार करता है अौर उसे दार्शनिक व कानूनी जामा पहनाता है. सांप्रदायिक धारा भारतीय समाज की इस सामूहिक स्वीकृति अौर खोज को तोड़ने-बिखेरने अौर अंतत: ध्वस्त करने में लगी रही है. बाबरी मस्जिद का ध्वंस किसी इमारत का गिरना नहीं था, सांप्रदायिकता को अस्वीकार करने वाले भारतीय समाज को सीधी चुनौती थी; अौर है. अाज जब उस चुनौती को संसद, कार्यपालिका, न्यायपालिका अौर मीडिया के रास्ते अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश हो रही हो तब संविधान के रक्षा की संविधानप्रदत्त जिम्मेवारी जिसकी है उसके मुखिया का काम इतना ढीला अौर व्यक्तिपरक कैसे हो सकता है ? लेकिन वे दीपक मिश्रा अाज संविधान की तलवार लिए नहीं, अात्मरक्षा की ढाल लिए नजर अाते हैं अौर उस ढाल को संभालने की जिम्मेवारी भी उन्होंने सरकार को सौंप दी है. यह न्यायपालिका के लिए बहुत बुरा वक्त है. 

सर्वोच्च न्यायालय का कॉलिजियम अाज जैसी अर्थहीन दशा में कभी नहीं था. सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति की सिफारिशों पर सरकार जिस तरह कान बंद कर बैठी है, एंठी है, वह संवैधानिक अधिकार का दुरुपयोग तो है ही, कॉलिजियम की व्यवस्था में पलीता लगाने की सुनियोजित कोशिश है. देश के पांच सबसे वरिष्ठ न्यायमूर्तियों की, जिनमें एक दीपक मिश्रा स्वंय भी हैं, सम्मिलित राय की ऐसी उपेक्षा के बाद भी यदि दीपक मिश्रा चुप हैं, तो लोग बोलेंगे कि नहीं ! देश में छुद्र पहचानों की, जातीयता की, सांप्रदायिकता की, हर किस्म के अलगाव की अाग भड़क रही है. ऐसे में कहां तो संविधान िनर्मित हर संस्था को सावधान हो कर अपनी भूमिका के निर्वाह में लगना चाहिए अौर कहां न्यायपालिका अांख फेरती मिल रही है. नरोदा पाटिया, मक्का मस्जिद, जज लोया जैसे मामलों में न्यायपालिका के भीतर जैसी सर्वसम्मति दीखनी जरूरी थी, वह नहीं दिखाई देती है, यह तो चिंता की बात है ही, इससे भी बड़ा अपशकुन यह है कि दीपक मिश्रा को इसकी फिक्र भी नहीं है. मतलब यह कि न्यायपालिका अपने इस सबसे बुरे दौर में भीतर से टूटी हुई अौर एक-दूसरे के प्रति अविश्वास से भरी हुई है.     
ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोगों को अक्सर यह भ्रम होता है कि जो नीचे हैं वे उन्हें देख नहीं रहे. सच यह है कि ऊंची कुर्सी वालों को नीचे दिखाई नहीं देता जबकि नीचे वालों के पास ऊपर देखने के अलावा देखने को कुछ होता नहीं है. इसलिए ऊपर वाले अक्सर बेमौके पकड़े जाते हैं. सर्वोच्च न्यायालय अौर सर्वोच्च न्यायाधीश के साथ पिछले दिनों से ऐसा ही हो रहा है. न्यायालय से जैसे फैसले अा रहे हैं अौर न्यायालय के भीतर जो चल रहा है उससे न्याय की भी अौर न्यायमूर्तियों की भी मूर्तियां धूल हुई हैं. न्याय-व्यवस्था तो टिकी ही इस विश्वास पर है कि वहां सच खुद गवाही देने अाता है. न्यायाधीशों का काम तो बस इतना ही कि वे यह पहचान लें कि उनकी अदालत में सच कैसे कपड़े पहन कर अाया है. इसलिए अदालत अौर न्यायाधीश दोनों उस दिन अपने होने का अौचित्य खो बैठते हैं जिस दिन किसी मामले को वे यह कह कर बंद कर देते हैं कि उनके सामने पर्याप्त सबूत नहीं पेश किए गये. तो फिर अाप किस लिए वहां थे हुजूर ? जब अापने यह पहचान लिया कि न्याय तक पहुंचने के रास्ते बंद किए जा रहे हैं तब न्याय का तकाजा ही यह है कि उसकी मूर्तियां न्याय तक पहुंचने के दूसरे रास्ते खोजें; अौर जब तक अाप न्याय तक पहुंच नहीं जाते हैं तब तक अापकी भी अौर न्याय की अात्मा भी कुलबुलाती रहनी चाहिए. जो न्याय की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठा है उसकी कुलबुलाहट सबसे ज्यादा होनी चाहिए. अाज इसका सर्वथा अभाव है अौर यह सारा देश देख व जान रहा है. 

इसलिए दीपक मिश्रा को बगैर देर किए अपने दो वरिष्ठतम न्यायमूर्तियों, रंजन गोगई अौर मदन लोकुर के उस पत्र पर अमल करना चाहिए जो इन सारे विवादों के बीच सबसे विवेकपूर्ण अावाज लगाता है. दीपक मिश्रा को लिखे दो पंक्तियों के इस पत्र से वह रास्ता खुलता है जो शासक दल की भी अौर विपक्ष की भी राजनीतिक मंशा को पीछे कर, न्यायपालिका को अपनी जमीन पर खड़ा होने का अवसर देता है. गोगई-लोकुर साहबान का यह पत्र कहता है कि तुरंत ही ‘फुल कोर्ट’ बिठाई जाए जो हमारी अांतरिक व्यवस्था के बारे में भी अौर इस कोर्ट के भावी के बारे में भी फैसला करे. अब तक के सारे विवाद अौर सारे पात्रों का हमें शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन सबने मिल कर दीपक मिश्रा को यह रास्ता दिया है कि वे न्याय-व्यवस्था के प्रमुख संरक्षक बनें, कठपुतली नहीं.  ( 26.04.2018)

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