बिहार
की राजनीति का अंधकार फाड़ कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अाज बिहार को दूसरे
अंधेरे रास्ते पर चला दिया है ! यह अंधेरे से अंधेरे की यात्रा है जिसमें चल कोई
नहीं रहा है, सभी चलाए जा रहे हैं. नीतीश कुमार ने अपना इस्तीफा देते हुए
कहा भी कि जब तक संभव था, उन्होंने यह सरकार खींची, अब संभव नहीं रहा तो
छोड़ दी ! जब मैं यह लिख रहा हूं तब खबर है कि वे नये समीकरण के साथ फिर से
मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं. तो छोड़ देने वाली बात कट जाती है. दरअसल अाज की
राजनीति का सच यही है कि अापके पास अंधेरे का अलावा दूसरा कुछ है नहीं, तो अाप उजाला
बांटेंगे कहां से ?
२०१५
में जिस चुनाव में नीतीश कुमार ने लालू यादव के साथ मिल कर अपराजेय मुद्रा धारे
नरेंद्र मोदी को परास्त किया था अौर महागठबंधन की अपनी सरकार बनाई थी तभी देखने
वालों ने देख लिया था कि इसमें गांठें भी हैं अौर बंधन भी; गठबंधन बिल्कुल नहीं
है. ज्यादा नहीं था फर्क जीत में - लालू प्रसाद के खाते में ८० विधायक अाए थे तो
नीतीश कुमार के पास ७१ ! यह कोई ऐसा फासला ही नहीं था कि जिसके अाधार पर बड़ा घटक
कौन, इसका
फैसला किया जाता; बल्कि फैसला तो यह था कि लड़ाई छवि की
थी अौर मोदी की छवि पर नीतीश की छवि भारी पड़ी थी. लालू प्रसाद के पास न तब,
न
अाज ऐसी कोई छवि है कि जिसे प्रचारित किया जा सके. ऐसा अात्मविश्वास होता नीतीश
कुमार के पास तो लालू प्रसाद के पास तब इसके अलावा कोई रास्ता था ही नहीं कि वे
बताई गई लकीर पर अपना नाम लिख देते. राजनीतिक नेतृत्व ऐसे ही अात्मवश्वास से बनता,
पनपता
अौर मान्य होता है. नीतीश कुमार उस वक्त चूके अौर लालू प्रसाद की बताई लकीर पर
अपना दस्तखत कर दिया. लालू-रत्नों से बनी सरकार लालू की कहलाई; कहा गया कि नीतीश
कुमार को ड्राइवर रख लिया है हमने ! बस उसी दिन नीतीश कुमार की सरकार की कुंडली
में लिख दिया गया : जीअोगे दूसरों के भरोसे, मारे जाअोगे अपने हाथों !!
२०१५
को लिखा प्रारब्ध २६ जुलाई २०१७ को सिद्ध हुअा. राजनीति में इसका हिसाब लगाया ही
जाता है कि अापने क्या खोया, क्या पाया ? अाज लालू अौर नीतीश
दोनों ही यह हिसाब लगा रहे होंगे कि कोई २ साल जिस सरकार को दोनों ने चलाया - या
कहें कि लालू प्रसाद ने चलाया अौर नीतीश कुमार ने खींचा - उसमें किसके हाथ क्या
अाया ? लालू प्रसाद की राजनीति अाज दिहाड़ी मजदूर जैसी है - जितने दिन
निकल जाएं वही कमाई है ! नीतीश कुमार के पास ऐसे उपाय नहीं है अौर इसलिए अाज उनकी
मुट्ठी खाली है. वह सत्ता से भरी तो जा रही है पर खाली ही रहेगी.
२०१५ में नीतीश कुमार ने सांप्रदायिकता का मुकाबला करने के लिए भाजपा
के साथ अपना ९ साल पुराना गठबंधन तोड़ा था. इसके लिए उन्हें भ्रष्टाचार की ताकतों
का हाथ थामना पड़ा था. अाज वे कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार से उनकी सांस घुटी जा रही
है ! अब सांप्रदायिक हवा में सांस लेने के अलावा उनके पास दूसरा रास्ता नहीं है.
दूसरा कोई विकल्प है नहीं, क्योंकि दूसरा कोई विकल्प बनाया नहीं. खाई अौर कुएं
के बीच ही चुनना हो तो डूबना ही चुनना पड़ता है. एक दौर वह भी था जब नीतीश कुमार, लालू प्रसाद अादि हम सब एक अंधेरे को काटने में लगे थे.
रौशनी कहां है हम जानते नहीं थे लेकिन हमारे हर कदम रोशनी की तरफ बढ़ते थे. वह
यात्रा ही नहीं छोड़ दी गई, वह रास्ता ही छोड़ दिया गया. अब जो बचा है वह अंधकार
है. नीतीश कुमार को अंधकार की यह यात्रा फिर शुरू करनी है. हम तो यही कामना कर
सकते हैं कि यह सफर नये रास्ते खोजने व बनाने का सफर बने ताकि फिर कुछ रोशनी हो, कुछ किरणें छिटकें. ( 26.7.2017)
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