Sunday 27 August 2017

असहिष्णुता डर अौर हिंसा की बेटी है

इन दिनों बहुत डरा हुअा देश है अपना जो बहुतों को बहुत डरा रहा है ! कोई पूछता है - ऐसा कब नहीं था ? ऐसा ही तो पहले भी था - धन की ताकत के सामने झुका हुअा; राज्य की ताकत के सामने डरा हुअा अौर भीड़ के वहशीपन के सामने घबराया हुअा ! कोई समझाता है - ऐसा ही हमेशा रहा है भाई !!

मैं बहस नहीं करता, मान लेता हूं कि अाप ही सही कह रहे हैं कि ऐसा ही रहा है ! रहा होगा… लेकिन हमने तो इसकी तरफ पीठ कर, इससे अलग व दूर निकलने की एक यात्रा १५ अगस्त १९४७ की मध्य रात्रि में शुरू की थी अौर नियति से वादा किया था कि एक ऐसा हिंदुस्तान बनाएंगे कि जहां किसी भी अांख में भय या अांसू या लाचारी नहीं होगी ! अाज अगर सबकी अांखों में कुछ समान है तो यही है - भय, अांसू अौर लाचारी ! 

इन सबकी जड़ में एक ही चीज है - डर !! महात्मा गांधी ने डर की इस बीमारी को पहचाना अौर सौ साल से ज्यादा पहले लिखी अपनी पुस्तिका ‘हिंद-स्वराज्य’ में लिखा कि अंग्रेजों ने जो सबसे बड़ा पाप किया वह यह कि भारतीयों को निहत्था कर, उनका अात्मविश्वास तोड़ दिया ! जिससे हथियार छीन लिया गया था, गांधी ने ‘सत्याग्रह’ का नया हथियार गढ़ कर, वापस उसे हथियारसज्ज कर दिया ! गांधी के भारत में अाने अौर लड़ाई का एक नया स्वरूप गढ़ने के बाद बहुत धीरे-धीरे ही सही, हमारी समझ में यह अाया कि जो डरता है, वही डराता है; अौर जो डराता है वहीं हिंसक भी होता है ! इसलिए गांधी ने कहा डर छोड़ो, हिंसा छोड़ो अौर अपने सभी देशवासियों को साथ ले कर अागे चलो ! यह बात जितनी समझ में अाई हमारे, उतनी ही हमारे अमल में अाई अौर उतने से ही हमने अाजादी की अपनी लड़ाई लड़ी भी अौर जीती भी. गांधी ने बाद में, अाजादी के बाद की हमारी अापाधापी देख कर, ‘अपनों की सरकारों’ की ठसक व तेवर देख कर अपनी ही लड़ाई की समीक्षा की अौर कहा कि यह सब जो हुअा कि अाजादी की लड़ाई हुई, हम डर से अागे निकल सके, हमने अाजादी की लड़ाई जीती, यह सारा कुछ कमजोरों की अहिंसा के बूते हुअा ! उन्होंने कबूल किया कि मेरी अांख पर पट्टी पड़ी थी कि मैं इसे पहले पहचान नहीं सका. तो बताएं कि मजबूतों की अहिंसा कैसी होती है ? गांधी ने कहा - मेरा जीवन ही इसकी तस्वीर है ! अपने जीवन व व्यवहार से गांधी ने जो तस्वीर खींची, कविगुरु रवींद्रनाथ ने उसे ईश प्रार्थना में ढाल कर अमर कर दिया !  अहिंसक शौर्य से अाजाद भारत कैसा होगा ? उन्होंने एक तस्वीर बनाई : 

जहां उड़ता फिरे मन बेखौफ अौर सर हो शान से उठा हुअा
जहां इल्म हो सबके लिए बेरोक-टोक बिना शर्त रखा हुअा
जहां घर की चौखट-सी छोटी सरहदों में न बंटा हो जहां 
जहां सच से सराबोर हो हर बयां 
जहां बाजुएं बिना थके लगी रहें कुछ मुकम्मल तराशने 
जहां सही सोच को धुंधला न पाएं उदास, मुर्दा रवाएतें
जहां दिल-अो-दिमाग तलाशें नये ख्याल अौर उन्हें अंजाम दें 
ऐसी अाजादी की जन्नत में ऐ खुदा मेरे वतन की हो नई सुबह 

ऐसे देश की साधना जिसे भी करनी हो उसे भयमुक्त, सहिष्णुतायुक्त अौर हिंसाविरोधी होना होगा. इसके बगैर इस प्रार्थना का देश बन नहीं सकता है. तब फिर बात वही पुरानी अा खड़ी होती है पहले अंडा कि पहले मुर्गी ? अादम-हव्वा नहीं होते तो हम भी नहीं होते;  मुर्गी नहीं होती तो अंडा भी नहीं होता. फिर तो सवाल उठता है कि वह पहली मुर्गी कहां से अाई अौर वह पहले अादम-हव्वा कहां से अाए ? जवाब है कि प्रकृति ने वह पहली संरचना किसी दूसरी रास्ते की अौर अागे के लिए यह रास्ता बना दिया ! मतलब यह कि प्रकृति विज्ञान की जनक है, विज्ञान प्रकृति का जनक नहीं है. यह प्रकृति ही है जिसने हमें अाकार दिया है लेकिन उसने अाकार भर नहीं दिया है बल्कि हमारे भीतर तमाम वेग-संवेग, अाकांक्षाएं-अपेक्षाएं, अपने-पराये का बोध जैसा सब कुछ, बहुत कुछ भर भी दिया है. अाप देखें कि वहीं, हमारे भीतर सम्राट अशोक की हिंसा भी भरी हुई है अौर बुद्ध की क्षमा भी; वहीं कलिंग का युद्ध भी मचा हुअा है अौर उसी युद्ध के विनाश को देख कर युद्धविमुख होने का सम्राट अशोक का फैसला भी ! देखिए तो हर अादमी के भीतर एक महाभारत ही मचा हुअा है. यह अादिम है. जन्म के साथ हमें मिला है जैसे मिली है सांस, भूख अौर प्यास ! तो क्या सांस सम करने को हम थमते नहीं हैं ? क्या फेंफड़ों में पूरी सांस भरने का हम प्रयास नहीं करते ? भूख है अौर विवेक भी है, इसलिए हम कुछ भी, कहीं भी खाते तो नहीं हैं ! प्यास बुझाने को पानी पीने से पहले देखते तो हैं कि पानी कहां से अौर कैसे मिला है ? नहीं अपना मन जमा तो भूखे भी रह जाते हैं अौर प्यासे भी ! तो यह सांस, यह भूख अौर यह प्यास सच है लेकिन यह विवेक उससे भी बड़ा सच है. अौर फिर यह भी तो सच है कि सच का कोई विकल्प नहीं है. 

हिंसा है क्योंकि अन्याय है. बड़ी बहस छिड़ी थी युवाअों के उस जमावड़े में. नक्सली ठीक ही करते हैं कि अन्याइयों के सर ही उड़ा देते हैं. मैंने छूटते ही कहा - तो बस ठीक, हम भी ठीक काम क्यों न करें ?… गांधी-वांधी की बात छोड़ो, चलो, अपने गांव के अन्याइयों की सूची बनाते हैं अौर उनका सर कलम कर देते हैं ! अब तक सबसे अागे बढ़ कर सर काटने की बात जो कर रहा था वह युवक मेरी तरफ कुछ परेशानी से देखने लगा कि इस गांधीवाले को क्या हुअा ! … लेकिन मैं सूची बनाने ही लगा, अौर मैंने उस लड़के से पूछा कि तुम्हारे पिता तो इलाके के बड़े जमींदार हैं ! दबंगों में नाम है. तो बताअो अपने पिताजी का नाम, सबसे पहले वही लिखता हूं ! … लड़का परेशान हुअा अौर फिर धीरे से मुझसे बोला : रहने दीजिए सर, मैं अपने पिताजी को समझा लूंगा ! … मैंने कहा : क्यों, तुम्हारे पिता ही सबसे समझदार हैं क्या इस इलाके में ?? अगर समझाना भी कोई रास्ता है तो तुम ही क्यों, सभी अपने-अपने बापों को समझा लेंगे अौर सर काटने की नौबत नहीं अाएगी ! लड़का कट कर रह गया… जब तक दूसरा है तब तक हम हिंसा में जवाब खोजते हैं. जहां यह अहसास होता है कि वह दूसरा नहीं, हमारा है, तो हमारे तर्क बदल जाते हैं. जब सभी हमें अपने-से लगने लगते हैं तब समझ में अाता है कि हिंसा का रास्ता गलत है, अव्यवहारिक है अौर परिणामहीन भी है. यह किसी अादर्श या अध्यात्म की बात नहीं है, सहज व्यवहारिकता है. गांधी जब कहते हैं कि अांख के बदले अांख का रास्ता सारी दुनिया को अंधा बना देगा तब वे अहिंसा का सिद्धांत नहीं बयान कर रहे होते हैं बल्कि एक वैज्ञानिक सत्य को रेखांकित कर रहे होते हैं. सारी दुनिया अंधों की बन जाए ( अाज है तो वैसी ही लेकिन शारीरिक स्तर पर नहीं है ! ) इससे पहले यदि इसे रोकना हो तो किसी एक को अागे अा कर, हिम्मत से कहना होगा कि मैं अांख के बदले अांख की इस होड़ से खुद को अलग करता हूं; अौर जो ऐसा करेगा वह अंधता की इस अंधी श्रृंखला को तोड़ कर, दुनिया को बचा लेगा. गांधी जैसे लोग ऐसे उन्माद के क्षण में भी खुद को भीड़ से अलग करने का साहस रखते थे. 

यह समझने में ज्यादा बौद्धिक कसरत करने की दरकार नहीं है कि भीड़ से अलग होने का यह साहस तभी अाता है जब अापमें गहरी सहिष्णुता हो ! जिस थर्मामीटर को खुद ही बुखार अाता हो, वह मरीज का बुखार कैसे नापेगा ? इसलिए सहिष्णुता अादर्श नहीं, सामूहिक जीवन का धर्म है - धर्म यानी वह लक्ष्मण-रेखा जिसे किसी भी अवस्था में, कैसी भी परिस्थिति में हमें पार नहीं करना है. सहिष्णुता की लक्ष्मण-रेखा अापने तोड़ी तो अाप हिंसा के दुष्चक्र में जा गिरे ! अौर इस अधोगति का कोई विराम नहीं है - यह रुकेगा वहीं, जहां कोई हिटलर रुका था, कोई याह्या खान मरा था. मंटो साहब की अमर कहानी का वह नायक टोबा टेक सिंह जहां गिरता है, अहिंसा वहां से शुरू होती है क्योंकि वहां किसी देश की, हिंसा से बने अौर हिंसा की ताकत पर टिके किसी देश की सरहद नहीं है. वह निरुपाधि मानव की धरती है ! … हम टोबा टेक सिंह को जानने की भी कोशश नहीं करते, बनेंगे क्या खाक !!

  असहिष्णुता का जो वातावरण देश में अभी बना है अौर उभरता-बढ़ता जा रहा है, अाप उसकी कुंडली देखिए ! सब डरे हुए हैं कि येनकेनप्रकारेण जो सत्ता हाथ लग गई है, वह हाथ से खिसक न जाए ! इसलिए सत्ता छीन लेने का अंदेशा जिधर से भी अौर जिनकी तरफ से भी अा सकता है, उनके प्रति एक हमलावर भाव बनाया गया है. भय में से पैदा कायरता अपने बचाव के लिए भाव, भाषा अौर व्यवहार में ऐसी अाक्रामकता दिखाती है ताकि सारा समाज असहिष्णु बने. ऐसी प्रवृति वालों को सबसे बड़ा खतरा असहमति से होता है अौर इसलिए वे असहमति का अस्तित्व ही खत्म करने पर अामादा रहते हैं. बौद्धिकों को, रचनाकारों को, पत्रकारों अौर विचारकों को सबसे पहले निशाने पर इसलिए ही लेना जरूरी होता है क्योंकि ये ही पहले होते हैं जो समाज में असहमति का वातावरण बनाते हैं, फैलाते हैं. असहिष्णुता एक हथियार है लोगों को चुप कराने का. ‘मॉब लिंचिंग’ हथियार है एक को मार कर सभी असहमतों को सावधान व भयग्रस्त करने का. इसके लिए जरूरी होता है कि एक व्यक्ति को अादर्श प्रचारित किया जाए, उसकी अादमकद प्रतिमा खड़ी की जाए, उसे सर्वज्ञाता सिद्ध करने में सत्ता, संपत्ति अौर समाज की सारी ताकत उड़ेल दी जाए अौर फिर कहा जाए कि जो इससे असहमत है, वह राष्ट्रद्रोही है ! यह ऐसा राष्ट्रद्रोही कृत्य है जो राष्ट्र के नाम पर किया जाता है. 

तुझसे   पहले    जो    यहां    तख्तनशीं    था 
उसको भी अपने खुदा होने का इतना ही यकीं था. 

ऐसा माहौल बनाए बिना भय-हिंसा-असहिष्णुता के त्रिकोण का यह मॉडल काम ही नहीं करता है. बड़ी पूंजी अौर बड़े अांकड़े, जातीय-धार्मिक श्रेष्ठता का गहराता भाव, एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा, फासीवादी तरीकों से समाज को नाथने का सिलसिला, प्रभुत्ववादी वातावरण का सर्जन, असीमित सत्ता का अालोक बिखेरना अौर बाजार को हमेशा अपने साथ रखना - ये अाठ कारक हैं जो इस मॉडल को चलाने में सहायक बनते हैं. अाप गिन कर अौर पहचान कर देखें तो पाएंगे कि अाज ये सब कुकुरमुत्ते की तरह यहां-वहां उगने लगे हैं. 

इसलिए विमर्श की - खुले अौर लंबे विमर्श की - बहुत जरूरत होती है. खुद को भी पहचानना, समाज को भी पहचानना अौर समाज को ऐसा काबिल बनाना कि वह खुद की पहचान कर सके, जो असहमत हैं उन्हें साथ लेना अौर इस तरह एक बड़ी सामूहिक ताकत खड़ी करना ! किसलिए खड़ी करना ? ताकि एक साथ, समवेत स्वर में, उत्तर-पूरब-पश्चिम-दक्षिण से असहमति की, इंकार की अवाज उठे ! ‘नहीं’  कहने की सामूहिक शक्ति जितनी बनेगी, भय-हिंसा-असहिष्णुता का त्रिकोण उतना ही कमजोर होगा, उतनी ही जल्दी टूटेगा अौर एक-दूसरे पर भरोसा रखने वाला, एक-दूसरे को साथ ले कर सहिष्णुता में जीने वाला अौर जबर्दस्ती व हिंसा से दूसरों को लाचार नहीं करने वाला समाज बनेगा. 
यही अाज का साध्य है अौर हम ही उसके साधन हैं !! ०००    

27 Aug 2017

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