वह
पूरा हुअा जिसके अाने की नहीं, बीत जाने की राह हम सब देखते हैं ! मैं 15
अगस्त
की बात कर रहा हूं; 15 अगस्त जैसे ही उन समारोहों की बात कर
रहा हूं जो बड़ी भीड़ के सामने, बड़े धूम-धड़ाके से अायोजित किए जाते
हैं. लेकिन उसके पीछे भी तो कई होते हैं कि जिनकी जान सांसत में होती है. उन्हें
तामझाम की पूरी व्यवस्था ही नहीं करनी होती है बल्कि सुरक्षा का पूरा जिम्मा भी
ढोना पड़ता है. लालकिले के अायोजन से जुड़े उस बड़े अधिकारी ने कार्यक्रम की
समाप्ति के बाद राहत की गहरी सांस ली थी अौर बड़ी अाजिजी से मुझसे जो कहा उसका
मतलब इतना ही था कि चलो, अपना काम पूरा हुअा; अब कहा किसने क्या
अौर कैसा, यह सब अापलोग जानते-छानते रहो ! हम सबने मिल कर देश को एक ऐसे
मुकाम पर पहुंचा दिया है जहां सार्वजनिक कुछ भी करना अौर कहना सुरक्षित नहीं माना
जाता है. एक भयाक्रांत समाज, एक डरी हुई व्यवस्था अौर एक निरुपाय
सरकार - ऐसे त्रिभुज में हम कैद हुए जा रहे हैं !
प्रधानमंत्री
जब लालकिला पर झंडा फहरा रहे थे, योगी अादित्यनाथ सत्ता की योग-साधना का
पाठ लखनऊ में पढ़ रहे थे, तब भी उत्तरप्रदेश के उसी बाबा राघवदास
अस्पताल में बच्चों की मौत हो ही रही थी. अाज भी जारी है. 5 दिनों में मरे 79
बच्चे!
अॉक्सीजन की अापूर्ति बंद होने से बच्चों की मौत वैसी ही है जैसे हिटलर के गैस
चैंबर में यहूदियों की मौत ! यहां हिटलर कौन है अौर यहूदी कौन, ऐसा सवाल पूछने वाला
भी कोई बचा नहीं है,क्योंकि अॉक्सीजन की कमी से जो घुट मरे
वे सवाल पूछने जैसी अवस्था में ही नहीं थे. वे सभी मनुष्य जाति की सबसे निरीह अौर
निर्दोष अवस्था में थे. अौर उनके बचे परिजन कैसे कुछ पूछ सकेंगे, क्योंकि उनकी दलीय या
जातीय या सांप्रदायिक हैसियत का फैसला नहीं हुअा ! जो गरीब होते हैं उनके बच्चों
का क्या !! उनकी मौत हम पर भारी पड़े तो पड़े, उन्हें तो जिंदगी अौर
मौत का फर्क भी कम ही मालूम होगा ! अाप नकली दवा दे कर, जहरीली दवा दे कर,
गंदी
सूई चुभो कर या कुछ भी न दे कर, किसी प्रतिवाद के बिना उनकी जान ले सकते
हैं; लेते
ही रहते हैं. इसलिए सारी बहस यहां पहुंचा दी गई है कि
जान कैसे गई - गंदगी की वजह से कि अॉक्सीजन की कमी की वजह से कि पोषण की कमी की
वजह से कि इंसेफलाइटिस की वजह से ? सब ताबड़तोड़ पूछते जा रहे हैं ताकि
सवालों का नाग कहीं उनके गले न लिपट जाए ! इसकी वेदना कहीं दिखाई तो नहीं देती है
कि इतने बच्चों की जान कैसे चली गई; किसकी जिम्मेवारी है; उसकी खोज धाराप्रवाह
हो रही है अौर जो भी जिम्मेवार निकलेगा, उसे इसकी सजा भुगतनी ही होगी.
प्रधानमंत्री ने भी एक पंक्ति में अपना शोक दर्ज करवाने से अधिक कुछ नहीं कहा. अौर
कुछ न सही, योगी अादित्यनाथ ने माफी ही मांग ली होती ! लेकिन नहीं,
सत्ता
अब ऐसी कमजोरियां दिखाती ही नहीं है.
जब
लालकिला से झंडा फहराया जा रहा था मेधा पाटकर अपने कई साथियों के साथ मध्यप्रदेश
के धार की जेल में बंद रखी गई थीं. अाज भी हैं. मेधा पाटकर से हमारी असहमति हो
सकती है, उनकी मांगों को हम अनुचित भी करार दे सकते हैं लेकिन क्या कोई
भी साबित दिमाग हिंदुस्तानी यह कह सकता है कि मेधा पाटकर जैसी सामाजिक कार्यकर्ता
की जगह जेल में होनी चाहिए ? अगर नरेंद्र मोदी चुनावी रास्ते से देश
के प्रधानमंत्री बने हैं तो मेधा पाटकर संघर्ष के रास्ते अाज देश की चेतना की
प्रतीक बनी हैं. इनमें से एक लालकिले पर अौर दूसरा धार की जेल में, इससे हमारे लोकतंत्र
का चेहरा कितना विकृत दिखाई देता है ! प्रधानमंत्री ने इस विद्रूप पर कुछ कहा तो
होता !
कहा
तो कश्मीर के बारे में भी कुछ नहीं ! जिस बात का खूब प्रचार करवाया जा रहा है,
उस
‘गाली-गोली
से नहीं गले लगाने से’ वाली बात का यदि कोई मतलब है तो अब तक
हमारी फौज अौर सुरक्षा बल के हाथों कश्मीरियों की अौर कश्मीरियों के हाथों इन सबकी
जो जानें गईं हैं अौर जा रही हैं, उसका क्या ? क्या प्रधानमंत्री
मान रहे हैं कि वह गलत रास्ता है ? अगर अाज ही यह समझ में अाया है तो भी
हर्ज नहीं लेकिन फिर यह तो बताएं अाप कि नये रास्ते का प्रारंभ बिंदु क्या है ?
यह
बात समझने की है कि बात का भात खा कर न व्यक्ति का पेट भरता है न समाज का ! बातें
जब जुमलों में बदल जाती हैं, जहर बन जाती है.
उन्होंने
जरूरत नहीं समझी कि चीन के साथ जैसी तनातनी चल रही है, उसे देश के साथ साझा
करें ! यह अापकी सरकार अौर अापकी पार्टी से कहीं बड़ा सवाल है, क्योंकि शपथ-ग्रहण के
दिन से अाज तक प्रधानमंत्री विदेश-नीति को बच्चों का झुनझुना समझ कर जिस तरह उससे
खेलते रहे हैं, वह सारा एकदम जमींदोज हो चुका है. रूस
पाकिस्तान से अलग हमसे कोई रिश्ता बनाने को तैयार नहीं है, उस ट्रंप का अमरीका
हमें चीन से बात करने की नसीहत ( या हिदायत ? ) दे रहा है जो दुनिया
में किसी से बात करने को तैयार नहीं है; अौर दूसरे भी जिससे बात करने में अब कोई
खास मतलब नहीं देखते हैं. हमारे सारे पड़ोसी कहीं दूसरा पड़ोस खोजने की कोशिश में
हैं.
स्वतंत्रता
दिवस पर लालकिले की प्राचीर से भी प्रधानमंत्री को दिखाई दी तो केवल अपनी सरकार
अौर अपनी पार्टी ! इसलिए अासन्न चुनावों की किसी रैली में बोलने से अलग वे कुछ भी
नहीं कह सके. अाधे-अधूरे मन से बोले उनके वाक्य लड़खड़ा रहे थे, शब्दों का उनका
बेतुका खेल बहुत घिसा-पिटा था. अास्था की अाड़ में हिंसा बर्दाश्त नहीं जैसे जुमले
किसके लिए थे ? संघ परिवार के अलावा अाज कौन है जो
हिंसा अौर धमकी से लोगों को डरा रहा है ? गो-रक्षक किसी दूसरी पार्टी के तो नहीं
है न ? उन सबके बारे में क्या जिन्होंने उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी
की छीछालेदर सिर्फ इसलिए कि वे एक मुसलमान होने के बाद भी अपने मन की बात कहने की
हिम्मत रखते हैं ? जब उनकी विदाई के मौके पर प्रधानमंत्री
व नये उप-राष्ट्रपति ने अपनी गरिमा नहीं रखी तो “ किसे गवाह करें,
किससे
मुंसिफी चाहें?”
अपनी
उपलब्धियों के अांकड़ों का जाल उन्होंने जिस तरह बिछाया उसमें अात्मविश्वास की बेहद
कमी थी, क्योंकि उन्हें पता था कि अांकड़ों के जानकार उनका समर्थन नहीं
करेंगे. अौर तो अौर, उनकी ही सरकार के मंत्रियों ने संसद में
जो अांकड़े पेश किए हैं, वे ही प्रधानमंत्री की चुगली खाते हैं.
सरकार के मंत्रियों ने, विभागों ने, इसी सरकार द्वारा
नियुक्त विशेषज्ञों ने, स्वतंत्र अध्येताअों ने अब तक विकास के
जितने अांकड़े देश के सामने रखें हैं या तो वे सारे गलत है या प्रधानमंत्री गलत
हैं. सरकार व सरकारी व्यवस्था के दो लोग एक ही बारे में दो तरह के अांकड़ें दें तो
मारा तो अांकड़ा ही जाएगा न ! वह रोज-ब-रोज मारा जा रहा है.
17.08.2017
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