पड़ोसी पाकिस्तान की राजनीति
हिंदुस्तान के रास्ते जा रही है. कहने वाले यह भी कह रहे हैं कि पड़ोसी पाकिस्तान
का साया हिंदुस्तान पर गहराता जा रहा है. दोनों बातों में
सत्यांश है क्योंकि हम पड़ोसी ही नहीं हैं, भाई भी हैं भले ही अपनी कारगुजारियों से
हम एक-दूसरे के खिलाफ काफी दूर निकल अाए हैं. पाकिस्तानी हुक्मरान शुरू से यह
जानते-समझते रहे हैं कि इस देश की गद्दी अपने हाथ में रखनी हो तो धर्म का अतिवादी
चोला पहनना मुफीद रहेगा. इसलिए वहां मुशरर्फ हों कि नवाज कि इमरान खान हों कि
बेनजीर-जरदारी कोई भी इस्लाम से कम या नीचे की बात नहीं करता है. हमारे यहां भी अब
ऐसी ही कवायद की जा रही है. संकीर्णता का खेल जब भी खेला जाता है बड़े अल्फाजों
में लपेट कर ही खेला जाता है.
लेकिन
अभी-अभी पाकिस्तान में एक दूसरा पन्ना भी खुला है जिसने कितनों को ही चौंका दिया
है. पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनकी कुर्सी से
बेदखल ही नहीं कर दिया है, उनका राजनीतिक जीवन एक तरह से तमाम कर
दिया है. पिछले काफी समय से उन पर भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा था अौर अदालत ने
पाया कि बार-बार मौका देने पर भी वे शरीफों की तरह अपनी ‘खास कमाइयों’ की सफाई नहीं दे पा
रहे थे. पनामा पेपर्स की गवाही है कि पूरा शरीफ-परिवार दोनों हाथों अनाप-शनाप दौलत
बटोरने में जुटा था अौर विदेशों में उसने इतनी संपत्ति जोड़ रखी है कि अागे जब कभी
ऐसी कोई मुसीबत अाएगी कि जो पैसों से हल होती हो तो उस पर कोई अांच न अाए.
पाकिस्तान के जन्मदाता मुहम्मद अली जिन्ना को छोड़ दें तो पाकिस्तानी राजनीति की
अधिकांश हस्तियों ने ऐसा ही किया है. यह भी एक कारण रहा है कि ७० साल के
पाकिस्तानी इतिहास में एक भी प्रधानमंत्री ऐसा नहीं है कि जिसने अपना कार्यकाल
पूरा किया हो. बेनजीर का पल्लू पकड़ कर जरदारी ने
मर्यादाहीन कमाई की तो नवाज शरीफ ने मर्यादाहीनता की परिभाषा ही बदल डाली.
अब
कौन-सी गली से निकल कर नवाज किस रास्ते सत्तानशीं होंगे, यह देखना है लेकिन
अाज जो हम देख रहे हैं वह तो यह है कि उन्होंने अपना उत्तराधिकारी खुद ही चुन लिया
है ! यह लोकतंत्र का राजतंत्र है. भारतीय लोकतंत्र की खोज यह है कि जब तक ईश्वर ही
कोई दूसरा फैसला न कर दे, राज चलाने के सबसे योग्य ‘अाप’ ही हैं ! लेकिन
खुदा-न-खास्ता ‘ अाप’ पर कोई मुसीबत अान
पड़ी तो फिर अापके अपने परिवार का ही, अापके खून वाला ही कोई ‘योग्य’ उत्तराधिकारी हो सकता
है फिर चाहे वह इंदिरा गांधी हों कि राबड़ी देवी कि तेजस्वी ! हमारा एक भी
राजनीतिक दल ऐसा नहीं है कि जिसे लोकतंत्र के अाईने में देख कर अाप शर्मिंदा न हो
जाएं. अापको याद हो शायद कि १९७५ में जब अदालत ने इंदिरा गांधी को भ्रष्ट अाचरण का
अपराधी मान कर उन्हें प्रधानमंत्री के लिए अयोग्य बता दिया था तब भाईलोगों ने एक
रास्ता निकाला था कि कोई ‘स्टेपनी’ खोज कर उसे इंदिराजी
की गद्दी तब तक संभालने को कहा जाए जब तक अदालती लड़ाई जीत कर मदाम वापस नहीं अा
जातीं. जानकार बताते हैं कि ऐसे कुछ नाम इंदिरा गांधी के सामने रखे भी गए लेकिन
मदाम समझ रही थीं कि एक बार जो इस पद पर बैठा, उसे पर निकलने लगते
हैं. इसलिए लोकतंत्र के इस खतरे को झेलने के बजाए उन्होंने लोकतंत्र को ही खत्म कर
देना बेहतर समझा अौर देश में अापातकाल की घोषणा हुई. यह अलग बात है कि उस घोषणा ने
ही उनके पतन के बीज बो दिए अौर जिसने १९७७ में दिल्ली की गद्दी से कांग्रेस को ऐसा
उखाड़ फेंका कि अाज तक वह अपने बूते कभी दिल्ली में सरकार नहीं बना सकी है.
पाकिस्तानी
लोकतंत्र का इस्तेमाल नवाज शरीफ ने कुछ अलग तरीके से किया अौर पहले ही घोषणा कर दी
कि उनके भाई शाहबाज शरीफ, जो अभी पंजाब के मुख्यमंत्री हैं,
उनकी
जगह प्रधानमंत्री होंगे. लेकिन पाकिस्तानी संविधान के मुताबिक प्रधानमंत्री का
सांसद होना जरूरी है, सो तजवीज यह निकाली गई कि एक डमी
प्रधानमंत्री बनाया जाए जो तब तक गद्दी की रखवाली करे जब तक शाहबाज चुनाव जीत कर
सांसद नहीं बन जाते. तो जिस बात से इंदिरा गांधी डर गई थीं, नवाज शरीफ उससे नहीं
डरे क्योंकि उनकी पार्टी में ऐसे लोकतंत्र की अभी दूर-दूर तक गुंजाइश नहीं है कि
जिसके पर निकलते हों. हां, पंजाब के मुख्यमंत्री की खाली हुई
कुर्सी जरूर भरी जानी है तो उसके लिए शाहबाज के बेटे हम्जा को ‘चुन’ लिया गया है. पाकिस्तान की त्रासदी यह है कि वह अपने
जन्म से अब तक कभी पूरा राष्ट्र बन नहीं सका ! एक कबिलाई मानसिकता में से उसका
जन्म हुअा अौर कबीलों की खिचड़ी-सा बन कर ही वह रह गया. यह खिंचड़ी फौज को
सर्वाधिक रास अाती है. इसलिए पाकिस्तानी लोकतंत्र का मतलब दो फौजी तानाशाहियों के
बीच का वह छोटा-सा काल है जब फौजी जनरल थकान उतारते होते हैं. नवाज शरीफ ने भारत
का साथ ले कर फौज का मुकाबला करने की कभी सोची जरूर लेकिन ऐसा करने के लिए जैसी
रणनीति व जैसे साहस की जरूरत थी, वह उनके पास थी ही नहीं. इसलिए वे इस
क्षण प्रधानमंत्री अौर उस क्षण चूहे बन जाते थे. नरेंद्र मोदी ने सत्ता में अाने
के बाद उनके लिए कुछ ऐसे अवसर बनाए कि वे हिम्मत करते तो फौजी चंगुल से निकल सकते
थे. लेकिन हर बार नवाज कमतर साबित हुए अौर अब तो वे पाकिस्तानी इतिहास का एक पन्ना
भर बचे हैं. अब तक के अंतिम फौजी तानाशाह परवेज मुशरर्फ ने नवाज के इस्तीफे के बाद
कहा कि जब-जब राजनीतिक शासन अाता है, पाकिस्तान का विकास रुक जाता है. फौजी
शासन ही पाकिस्तान के लिए मुफीद साबित होता रहा है. लेकिन फौज ने अब यह समझ लिया
है कि नाहक तख्तापलट करने की जरूरत नहीं है जबकि अपने सारे काम राजनीतिक शासन से
करवाए ही जा सकते हैं. इसलिए अभी पाकिस्तान में किसी तख्तापलट का खतरा नहीं है
लेकिन किसी लोकतांत्रिक पाकिस्तान के उदय की भी संभावना नहीं है. एक अधूरे अौर
विखंडित राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान अभी कुछ अौर समय तक एशिया के सीने में घाव
की तरह रिसता रहेगा. ( 09.09.2017)
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